Book Title: Jivvichar
Author(s): Shantisuri, Vrajlal Pandit
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २७ ] पपन्न देवताओं के बारह लोक हैं. इसलिये स्थान के भेदसे उन देवोंके भी बारह भेद समझना चाहिये. बारह लोक ये हैं;-१ सौधर्म, २ ईशान, ३ सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, श्ब्रह्म, देलान्तक. ७ शुक्र, ८सहसार, हानत,१० प्राणत, ११ पारण और १२ अच्युत, कल्पातीत देवोंके चौदह भेद हैं; नववेयकमें रहनेवाले तथा पांच अनुत्तरविमानमें रहने वाले. नवग्रेवयकोंके नाम येहैं:-१ सुदर्शन, २ सुप्र. बुद्धि, ३ मनोरम, ४सर्वतोभद्र. ५ विशाल, ६ मुमनस,७ सौमनस ८ प्रियङ्कर, और ६ नन्दिकर.पांच अनुत्तरविमानोंके नाम ये हैं:-१ विजय, २ वैजयन्त, ३ जयन्त. ४ अपराजित. और ५ सर्वार्थसिद्ध. अब उक्त देवोंके स्थान रहने की जगह-संक्षेपमें कहते हैं; मेरु पर्वतके मूल में समतल पृथ्वी है, उससे नीचे रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकका दल एकलाख अस्सी हजार योजन मोटा है, उसमें तरह प्रतर हैं, उन प्रतरों में बारह प्रान्तर-स्थान हैं,प्रथम और अन्तिम प्रान्तर-स्थानोंको छोड़कर बाकीके दस प्रांतर-स्थानों में, हर एक में एक एक भवनपति देवों के निकाय रहते हैं प्रत्येक निकायमें दक्षिणकी तरफ एक, और उत्तरकी तरफ एक, ऐसे दो इन्द्र होते हैं, इस तरह दस निकायों के बीस इन्द्र हुए. पहले कहा गया है कि रत्नप्रभाका दल एक लाख अस्सी हजार योजन मोटा है,ऊपर एक हजार और For Private And Personal Use Only

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