Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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तृतीयभाग! १७ देखि नायकके जीतें, जै है भाजि सहज सब लसकार ॥ सुनि० ॥२॥ इंद्रियलीन जनम सव खोयो, वाकी चल्यो जात है खस करि । भूधर सीख मान सतगुरुकी, इनसों प्रीति तोरि अव वश करि ॥ सुनि० ॥३॥
५३. राग गौरी। देखो भाई ! आतमदेव विराजै ॥ टेक ॥ इसही हूंठ हाथ देवलमैं, केवलरूपी राजै ॥ देखो० ॥१॥ अमल उजास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै । मुनिजनपूज अचल अविनाशी, गुण वरनत बुधि लाजै ।। देखो० ॥२॥ परसंजोग समल प्रतिभासत, निज गुण मूल न त्याजै। जैसे फटिक पखान हेतसों, श्याम अरुन दुति साजै ॥ देखो० ॥ ३॥ ‘सोऽहं' पद समतासों ध्यावत, घटहीमैं प्रभु पाजै । भूधर निकट निवास जासुको, गुरु विन भरम न भाजै ॥ देखो० ॥ ४ ॥
१ लष्कर-सेना । २ साडेतीन हाथके शरीररूपी मदिरमें ।

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