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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैनपदसंग्रह
तृतीय भाग।
AKS
प्रकाशक
जैन ग्रन्थ-रलाकर कार्यालय।
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Than
EINEL
श्रीवीतरागाय नमः
जैन पद संग्रह तृतीय भाग । अर्थात्
आगरा निवासी कविवर भूधरदासजी कृत पदविनतियोंका संग्रह |
जिसे
श्रीजैन ग्रन्थ-Tearer कार्यालयके मालिकने
* बम्बई के
नेटिव ओपिनियनप्रेसमे वि. वां पराजयेके
प्रबंधसे छपाया ।
द्वितीयावृत्ति ]
भाइपड वि०स० १९८३
[ मूल्य पाँच आने ।
•
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प्रकाशक
छगनमल बाकलीवाल मालिक "जैन ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगांव - बम्बई ।
मुद्रक -
१
विनायक बा. परांजपे, नेटिव ओपिनियन प्रेस, गिरगांव - जॅकरोड, मुंबई.
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पदोंकी वर्णानुक्रमणिका ।
पद संख्या
अजित जिन विनती हमारी अजिन जिनेनर अनहग्ण अन्तर उज्जल करना रे भाई अब नित नेनि नाम भजो अब पूरीकर नीवडी सुन जीया रे अब मन मेरे वे, सुनि मुनि तीन सयानी ७०
१९
૨૮
अब मेरे समक्ति सादन आयो अरज करे नागे गजुल अरे मन करे, श्रीहथिनापुरकी जान५७ अरे । हा चेतो रे माई
वर सुदुर नवी३१
४९
देवे देवे जगतके देव
દૃઢ
वो गरली
अहो | जगतगुरु एक, मुनियो अज्ञानी पाप धनूग न बोय आज गिनिज आदि पुरुष मेरी आत नगेजी आया रे बुढ़ापा नानी धि धि आरती आदि जिनिंद तुम्हारी एजी मोहिताग्येि शान्ति जिन ऐनी समझ तिर धूल रेनो श्राव कुल तुन पान ओर नच धोथी बातें करणाल्यो जिनगज हमारी, करुणा ७९ काना गागर जोजरी, तुम देखो० ५५ गरव नहि कीजे रे, ऐ नर निपट गंवार १२ चरखा चलता नाही, चम्सा हुजा चिन चेतनकी यह विरियों ने
३९ | देखो भाई आनम देव विगजे ढेग्न्यो गे। कहीं नेमिकुमार ६४ प्रभु गुन गाय, यह आंतर फेर न
३२
४०
६७
३०
जगन जन जूवा हारि चले जगमे जीवन धोरा, रे अज्ञानी
४५
>
३६
शुभ
३५
तुम तरन तारन भवनिवाग्न
७२
1
तुम मुनियो साचो मनुवा मेग ज्ञानी५० ६० । ते गुरु मेरे मन बनो, जे भव० त्रिभुवनगुरु स्वामी जी
st
५८
११
पद संख्या
जगमे श्रद्धानी जीव जीवनमुक्त ३४ जपि माला जिनवर नामकी
rr
१७
દ
६३
७Y
|
जिनगज चग्न मन मन बिन
जिनगज ना विनागे
जीवना बन तर बडो
जे जगपूज परमगुमनामी
नहीं ले चल । जहाँ जाडोपति प्यारा५९
te
७५
थाकी कथनी म्हाने पारी लगे जी १३ नेमि बिना न रहे मेरो जिबग
२१
नेननिको वान पर्ग, इग्ननकी
पारम-पद-नख-प्रकाश, अन्न वग्न पुलकन्त नयन चकोर पक्षी बन्दों शम्बरस्वग्न नगवन्नमजन क्यों मूला म त्यो चीर नर तू भाव देखि हवी भगवानकी
૫
૨૬
२७
५३
१५
५१
४७
७१
७३
૧૯
मन मूरख पथी, उस मारग मतिजाय २ मनन । हमारी ले शिक्षा हिनकारी ३८
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(२)
पद संख्या.
पद संख्यामा विलब न लाव पठाव तहाँ री १४ ) शेप सुरेश नरेश ग्टै तोहि ४८ मेरी जीभ आठी जाम २५ | श्रीगुरु शिक्षा देत हे सुनि पानी रे ७८ मेरे चारों शरन सहाई ४ | सब विधि करन उतावला २३ मेरे मन सूवा, जिनपद
सीमधर स्वामी, में चरननका चेरा , म्हे तो थाकी आज महिमा जानी ५६ सन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी ८ यह तन जगम रूखडा सुनियो भवि ६६ सुनि ठगनी माया, तें सब जग टग १ रखना नहीं तनकी खबर, अनहद ८. सुनि सुनान । पाँचो रिपु वशरि ५२ रटि रमना मेरी ऋपभ जिनद २४ सुनि सुनि हे साधनि। म्हारे मनकी ६९ वा परके वारणे जाऊ
| सो गुरुदेव हमारा हे साधो ६१ वीग १ था। वान बुरी परी रे ७ सो मत सांचो है मन मेरे २ वे कोई अजय तमासा
स्वामीजी साची सरन तुम्हारी वे मनिवर कब मिलि है उपगारी १५ ह तो कहा करु क्ति जाऊ २९ लंगी लो नाभिनदनसों १ होगे खेलोगी घर आये चिदानदन्त
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श्रीजिनाय नम ।
जैन पदसंग्रह | तृतीयभाग | अर्थात् कविवर भूधरदासजीकृत भजनोंका संग्रह |
१. राग सोरठ । लगी लो नाभिनंदनसों | जपत जेम' चकोर चकई, चन्द भरताकों ॥ लगी लो० ॥ १ ॥ जाउ तन धन जाउ जोवन, प्रान जाउ न क्यों । एक प्रभुकी भक्ति मेरे, रहो ज्योंकी त्यों ॥ लगी लो० || २ || और देव अनेक सेये, कछु न पायो हों । ज्ञान खोयो गांठको, धन करत कुंवनिज ज्यों ॥ लगी लो० ॥ ३ ॥ पुत्र मित्र कलत्र ये सब सगे अपनी गौं । नरककूपउद्धरन श्रीजिन, समझ भूधर यों | लगी लो० ॥ ४ ॥
९ बुरा व्यापार । २ गरज |
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जैन पदसग्रह२. राग गौरी ।
। अजितजिनेसुर अपहरणं । अपहरणं अ शरणशरणं ॥ टेक ॥ निरखत नैन तनव नहिं त्रपते, आनंदजनक कनकवरणं ॥ अ जित०॥१॥ करुना भीजे वायक जिनके, गण नायक उर आभरणं । मोह महारिपु घायक, सायक, सुखदायक दुखछयकरणं ॥ अजित० ॥२॥ परमातम प्रभु पतितउधारन, वारंणलच्छन पगधरणं । मनमथमारण विपतिविदारण, शिवकारण तारण तरणं ॥ अजित० ॥३॥ भवआतापनिकन्दन चन्दन, जगवंदन वांछाभरणं । जय जिनराज जगत वंदत जस, जन भूधर वंदत चरणं ॥ अजित०॥४॥
३. राग काफी । सीमंधरस्वामी, मैं चरननका चेरा ॥ टेक॥ इस संसार असारमें कोई, और न रच्छक मेरा ॥ सीमंधर० ॥१॥ लख चौरासी जोनिमें मैं, फिरि
. १ वचन । २ नाश करनेवाला । ३ वाण । ४ हाथीका चिह्न । ५काम । ६ रक्षक।
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तृतीयभाग
फिरि कीनों फेरा । तुम महिमा जानी नहीं प्रभु, देख्या दुःख घनेरा ॥ सीमंधर० ॥ २ ॥ भाग उदयतें पाइया अब, कीजै नाथ निबेरा । बेगि दया करि दीजिये मुझे, अविचलथान वसेरा ॥ सीमंघर० || ३ || नाम लिये अघ ना रहै ज्यों, ऊगे भान अँधेरा । भूधर चिन्ता क्या रही ऐसा, समरथ साहिव तेरा ॥ सीमंधर० ॥ ४ ॥
४. राग सोरठ ।
वा पुरके वारण जाऊं ॥ टेक ॥ जम्बूद्वीप विदेहमें, पूरव दिश सोहै हो । पुंडरीकिनी नाम है, नर सुर मन मोह हो ॥ वा पुर० ॥ १ ॥ सीमंघर शिवके धनी, जहँ आप विराजै हो । बारह गण विच पीठपै, शोभानिधि छाजै हो ॥ वा पुर० ॥ २ ॥ तीन छत्र माँ दिपैं वर चामर वीजै हो । कोटिक रैतिपति रूपपै, न्यौछावर कीजै हो ॥ वा पुर० ॥ ३ ॥ निरखत विरख अशो
१ अपार । २ मोक्ष । ३ पाप । ४ दरवाजे । ५ मस्तकपर । ६ दुरता है । ७ कामदेव । ८ वृक्ष ।
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जैन पदसंग्रह
कको, शोकावलि भाजै हो । वानी वरसै अमृत सी, जलधर ज्यों गाजै हो ॥ वा पुर० ॥४॥ वरसैं सुमनसुहावनैं, सुरदुंदभि गाजै हो । प्रभु तन तेजसमूहसौं, ससि सूरज लाजै हो ॥ वा पुर० ॥ ५ ॥ समोसरन विधि वरनतें, बुधि वरन न पावै हो । सब लोकोत्तर लच्छमी, देखें वनि आवै हो ॥ वा पुर० ॥६॥ सुरनर मिलि आवें सदा, सेवा अनुरागी हो । प्रकट निहारें नाथकों, धनि वे बड़भागी हो । वा पुर०॥७॥ भूधर विधिसौं भावसौं, दीनी त्रय फेरी हो । जैवन्ती वरतो सदा, नगरी जिनकेरी हो॥ वा पुर०॥८॥
५. राग सोरठ। अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥ टेक ॥ फल. चाखनकी बार भरै दृग, ·मर है मूरख रोय ॥ अज्ञानी० ॥ १ ॥ किंचित् विषयनिके सुख गरण, दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर मिलैगा, इस नींदड़ी न सोय ॥ अज्ञानी०॥ १ समुद्र । २ पुष्प । ३ चन्द्र ।
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नृनीयभाग। ॥ २ ॥ इस विरिया में धर्म-कल्प-तरु, सींचत स्याने लोय.। तू विष बोवन लागत तो सम,
और अभागा कोय ॥ अज्ञानी० ॥ ३ ॥ जे जगमें दुखदायक वेरस, इसहीके फल सोय । यो मन भूधर जानिके भाई, फिर क्यों भोंदू होय ॥ अज्ञानी० ॥ ४ ॥
६. राग सोरट । मेरे मन सूवा, जिनपद पीजरे वसि, यार लाव न वार रे ॥ टेक ॥ संसारसेंबलवृच्छ सेवत, गयो काल अपार रे । विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यो सार रे ॥ मेरे मन० ॥१॥ तू क्यों निचिन्तो सदा तोकौं, तकत काल मॅजार रे । दावै अचानक आन तव तुझे, कौन लेय उवार रे ॥ मेरे मन० ॥२॥ तू फँस्यो कर्म कुफन्द भाई, छुटै कौन प्रकार रे । तैं मोह-पंछीवधक विद्या, लखी नाहिं गँवार रे । मेरे मन० ॥ ॥३॥ है अजों एक उपाय भूधर, छुटै जो
१ बेला-समय । २ विवेची । ३ लोग । ४ निश्चिन्त । ५ बिल्ली ।
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६
जैन पदसंग्रह -
नर धार रे । रटि नाम राजुलरमनको, पशुबंध छोड़नहार रे || मेरे मन० ॥ ४ ॥ ७. राग सोरठ ।
भलो त्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर ॥ टेक ॥ समुझि प्रभुके शरण आयो, मिल्यो ज्ञान वजीर || भलो० ॥ १ ॥ जगतमें यह जनम हीरा, फिर कहां थो धीर । भली वार विचार छाड्यो, कुमति कामिनि सीरे ॥ भलो • ॥ २ ॥ धन्य धन्य दयाल श्रीगुरु, सुमरि गुणगंभीर । नरक परतैं राखि लीनों, बहुत कीनी भीरं ॥ भलो ० ॥ ३ ॥ भक्ति नौका लही भागनि, कितक भवदधिनीर | ढील अब क्यों करत भूधर, पहुँच पैली तीर ॥ भलो० ॥ ४ ॥
८. राग सोरठ ।
सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी || टेक ॥ नरभव पाय विषय मति सेवो, ये दुर-गति अगवानी ॥ सुन० ॥ १ ॥ यह भव कुल यह तेरी महिमा, फिर समझी जिनवानी
१ सॉझा । २ सहाय । ३ कितना ।
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तृतीयभाग ।
इस अवसर में यह चपलाई, कौन समझ उर आनी ॥ सुन० ॥ २ ॥ चंदन काठ- कनकके भाजन, भरि गंगाका पानी । तिल खलि राँधत मंदमती जो, तुझ क्या रीस विरानी ॥ सुन० ॥ ३ ॥ भूधर जो कथनी सो करनी, यह बुधि है सुखदानी | ज्यों मशालची आप न देखे, सो मति करै कहानी ॥ सुनि० ॥
९. राग सोरठ ।
सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया i टेक ॥ टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछताया || सुनि० ॥ १ ॥ आपा तनक दिखाय बीजे ज्यों, मूढमती ललचाया । कार मद अंघ धर्म हर लीनों, अंत नरक पहुँचाया ॥ सुनि॥२॥ केते कंथ किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसहीसौं नहिं प्रीति निवाही, वह तजि और लुभायां ॥ सुनि० ॥३॥ भूधर छलत फिरै यह सवकों, भौंदू करि जग पाया। जो इस ठगनीकों ठग बैठे, मैं तिसको सिर नाया ॥ सुनि० ॥ ४ ॥
१ बिजलीके समान ।
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जेन पदसंग्रह
१०. वे कोई अजब तमासा, देख्या वीच जहान वे, जोर तमासा सुपनेकासा ॥ टेक ॥ एकौंके घर मंगल गावें, पूगी मनकी आसा । एक वि. योग भरे बहु रोवें, भरि भरि नैन निरासा ॥ वे कोई० ॥१॥ तेज तुरंगनिपै चढ़ि चलते, पहिरै मलमल खासा । रंक भये नागे अति डोलें, ना कोइ देय दिलासा ।। वे कोई०॥२॥ तरक राज तखतपर बैठा, था खुशवक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मुद्दत आई, जंगल कीना वासा ॥ वे कोई ॥३॥ तन धन अथिर निहायत जगमें, पानीमाहिं पतासा । भूधर इनका गरव करें जे, फिट तिनका जनमासा ॥ वे कोई ॥४॥
११. राग ख्याल । जगमें जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि ॥टेक॥ जनम ताड़ तरुतें पड़े, फल संसारी जीव । मौत महीमैं आय हैं, और न ठौर सदीव ॥.जगमें०
१ पूरी हुई । २ धीरज । ३ सबेरे । ४ सिहासन । ५ सर्वथा । धिक् । ७ मनुष्यजन्म ।
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L
तृतीयभाग ।
९
॥ १ ॥ गिर-सिर दिवेला जोइया, चहुँदिशि चाजै पौन । वलंत अचंभा मानिया, बुंझत अचंभा कौन || जगमें ० ॥ २ ॥ जो छिन जाय सो आयुमैं, निशि दिन ट्रैकै काल | वांधि सकै तो है भला, पानी पहिली पाल || जगमें ||३|| मनुषदेह दुर्लभ्य है, मति चूकै यह दाव । भूधर राजुलकंतकी, शरण सिताबी आव || जगमें० ॥ ४ ॥
१२. राग ख्याल 1
/ गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गँवार ॥ टेक ॥ झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥ गरव ० ॥ १ ॥ कै छिन सांझ सुहागरु जोबन, कै दिन जगमें जीजै रे || गरव० ॥ २ ॥ बेंगा चेत विलम्ब तो नर, बंध बढ़े तिथि छीजै रे ॥ गरव० ॥ ३ ॥ भूधर पलपल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे || गरव० ॥ ४ ॥
१३. राग ख्याल |
थांकी कथनी म्हांनें प्यारी लगे जी, प्यारी
१ दीपक । २ चले । ३ निकट आवे । ४ श्रीनेमिनाथकी । ५ जीवेंगे | ६ जल्दी । ७ आयु ।
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जन पदसंग्रह
लगै म्हांरी भूल भगै जी ॥ टेक ॥ तुमहित हांक विना हो श्रीगुरु, सूतो जियरो काई जगै जी ॥ थांकी ० ॥ १ ॥ मोहनिधूलि मेलि म्हारे माथै, तीन रतन म्हांरा मोह ठगै जी । तुम पद ढोकैत सीस झरी रज, अब ठगको कर नाहिं वगै जी ॥ थांकी ० ॥ २ ॥ टुट्यो चिर मिथ्यात महाज्वर, भगां मिल गया वैद मँगै जी । अंतर अरुचि मिटी मम आतम, अब अपने निजदर्व पगै जी ॥ थांकी ० ॥ ३ ॥ भव वन भ्रमत बढ़ी तिसना तिस, क्योंहि बुझे नहिं हियरा देंगे जी । भूधर गुरुउपदेशामृतरस, शान्तमई आनँद उमगै जी ॥ थांकी० ॥ ४ ॥
१४. राग ख्याल |
मा विलंब न लाव पैठाव तेहाँ री, जहँ जगपति पिय प्यारो ॥ टेक ॥ और न मोहि सुहाय कछू अब, दीसे जगत अँधारो री ॥ मा विलंब
१ कैसे । २ मेरे । ३ सिरपर । ४ मेरा । ५ प्रणाम करनेसे ६ भाग्यसे । ७ मार्गमें । ८ हृदय । ९ जलता है । १० कर ११ भेज दे । १२ उसी जगह ।
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तृतीयभाग ।
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॥ १ ॥ में श्रीनेमिदिवाकरको कव, देखों वदन उजारो । विन देखें मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारो री ! ॥ मा विलंब ० ॥ २ ॥ तन छाया ज्यों संग रहोगी, वे छांहिं तो छांरो । विन अपराध दंड मोहि दीनो, कहा चलै मेरो चारो ॥ मा विलंब० ॥ ३ ॥ इहि विधि रागउदय राजुल नैं, सह्यो विरह दुख भारो । पीछें ज्ञानभांन वल विनश्यो, मोह महातम कारो री ॥ मा विलंव० ॥ ४ ॥ पियके पेंड़े पेंड़ौ कीनों, देखि अथि जग सारो । भूधरके प्रभु नेमि प्रियासों, पाल्यौ नेह करारो री ॥ मा विलंब० ॥ ५ ॥
१५. राग ख्याल |
देख्यो री ! कहीं नेमकुमार ॥ टेक ॥ नैननि प्यारो नाथ हमारो, प्रानजीवन प्रानन आधार ॥ देख्यो० ॥ १ ॥ पीव वियोग विथा वहु पीरी, पीरी भई हलदी उनहार । होउं हरी तवही जव भेटों, श्यामवरन सुंदर भरतार || देख्यो० ॥ २ ॥
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१ सूरज | २ कर्मठ | = सूर्य । 3 पीड़ा की । ५ पीली ६ समान ।
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जैन पदसंग्रहविरह नदी असराल बहै उर, बूड़त हौं वामैं निरंधार । भूधर प्रभु पिय खेवटिया विन, समरथ कौन उतारनहार ।। देख्यो० ॥३॥
१६. राग पंचम। जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो.॥ टेक ॥ नर भी आसान नाहीं, देखो सोच समझ वारो ॥ जिनराज० ॥ १॥ सुत मात तात तरेनी, इनसौं ममत निवारो। सबही सगे गरजके दुखसीर नहिं निहारो॥ जिनराज० ॥२॥ जे खाय लाभ सब मिलि, दुर्गतमैं तुम सिंधारो । नटका कुटंव जैसा, यह खेल यों विचारो ।। जिनराज० ॥ ३ ॥ नाहक पराये काजै, आपा नरकमैं पारो । भूधर न भूल जगमें, जाहिर दगा है यारो। जिनराज०॥४॥
१७. राग नट। जिनराज चरन मन मति विसरै ।। टेक ॥को नानै किहिं बार कालकी, धार अचानक आनि १ अथाह । २ निराधार । ३ वृथा खोओ। ४ सहज । ५ स्त्री।
३ वृथा । ७ समय । ८ धाड़।
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तृतीयभाग। परै ॥ जिनराज०॥१॥ देखत दुख भजि जाहिं दशौं दिश, पूजत पातकपुंज गिरै । इस संसार क्षारसागरसौं, और न कोई पार करै ॥ जिनराज.॥२॥ इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विघन टरै । मोहनि धूलि परी माथें चिर, सिर नावत ततकाल झरै ॥ जिनराज०॥३॥ तवलौं भजन सँवार सयान, जवलौं कफ नहिं कंठ अरै । अगनि प्रवेश भयो घर भूधर, खोदत कूप न काज सरै। जिनराज ॥४॥
___ १८. राग सारंग। भवि देखि छवी भगवानकी ॥ टेक ॥ सुंदर सहज सोम आनंदमय, दाता परम कल्यानकी ।। भवि०॥१॥ नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सव उपमानकी । अंगअडोल अचल आसन दिड़, वही दशा निज ध्यानकी ॥२॥ इस जोगासन जोगरीतिसौ. सिद्ध भई शिवथानकी । ऐसें प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा धात पखानकी ।
१ प्रसन्न । २ क्मल ।
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जैन पदसंग्रहभवि० ॥३॥ जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी । तृपत होत भूधर जो अब ये, अंजुलि अम्रतपानकी । भवि० ॥ ४ ॥
१९. राग मलार । अब मेरै समकित सावन आयो ॥ टेक ॥ बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो।।अब मेरै ॥१॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो । बोलै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो | अब मेरे ॥२॥ गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो । साधक भाव अंकूर उठे बहु, जित तित हरष सबायो । अब मेरै० ॥३॥ भूल धूल कहिं मूल न सूझत, समरस जल झर लायों । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो । अब मेरै० ॥ ४ ॥
२०. राग सोरठ। ' __/भगवन्तभजन क्यों भूला रे ॥ टेक ॥ यह
१ अन्यकी । २ वर्षाऋतु । ३ विजली। ४ मेघ । ५ जिसमें पानी नहीं चूता है।
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तृतीयभाग 1. संसार रैनका सुपना, तन धन वारि ववूला रे ॥ भगवन्त० ॥ १ ॥ इस जोवनका कौन भरोसा, पावकमें तृणपूला रे ! । काल कुदार लियें सिर ठाड़ा, क्या समझे मन फूला रे ! ॥ भगवन्त० ॥ २ ॥ स्वारथ साथै पाँच पाँव तू, परमारथकों लूला रे ! | कहु कैसें सुख है प्राणी, काम करै दुखमूला रे || भगवन्त० || ३ || मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कंध वसूला रे । भज श्रीराजमतीवर भूघर, दो दुरमति सिर धूला र ॥ भगवन्त० ॥ ४ ॥
२१. राग बिहागरो ।
म विना न रहै मेरो जियरा ॥ टेक ॥ हेरें री हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा || नेमि विना० ॥ १ ॥ करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत केरूर कैलाधर सियेरा ||
१ जलका | २ । ३ घासका पूला 1४ लॅगडा । ५ नेमिनाथ । ६ देख री ।७ सहेली - सखी । ८ निकट । ९ क्रूर । १० चंद्र | ११ शीतल ।
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जेन पदसंग्रह -
नेमि विना० ॥ २ ॥ भूधर के प्रभु नेमि पिया विन, शीतल होय न राजुल हियरा ॥ नेमि विना० ॥ ३ ॥
२२. राग ख्याल ।
मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे ॥ टेक ॥ कीमिनि तन कांतार जहां है, कुच परवत दुखदाय रे ॥ मन मूरख० ॥ १ ॥ काम किरात बसै तिह थानक, सरवस लेत छिनाय रे । खाय खता कीचकसे बैठे, अरु रावनसे राय रे || मन मूरख० ॥ २ ॥ और अनेक लुटे इस पैंड़े ", वर कौन बढ़ाय रे । वरजत हों वरज्यौ रह भाई, जानि दगा मति खाय रे || मन मूरख - || ३ || सुगुरु दयाल दया करि भूधर, सीख कहत समझाय रे । आगे जो भावै करि सोई, दीनी बात जताय रे || मन मूरख० ॥ ४ ॥ २३. राग बिलावल |
सब विधि करन उतावला, सुमरनकौं सीराँ ॥ टेक ॥ सुख चाहै संसारमैं, यों होय न नीरा ॥
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१ वन । २ भील । ३ स्थानमें । ४ धोखा । ५ रास्ते । ६ जल्दबाज ७ ठडा-सुस्त |
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तृतीयभाग। सब विधि० ॥१॥ जैसे कर्म कमाय है, सो ही फल वीरा ! । आम न लागै आकके, नग होय न हीरा ॥ सव विधि०॥२॥ जैसा विषयनिकों चहे, न रहै छिन धीरा । त्यों भूधर प्रभुकों जपै, पहुँचे भवतीरा ॥ सब विधि० ॥३॥
२४. राग बिलावल । रटि रसना मेरी ऋषभ जिनन्द, सुर नर जच्छ चकोरन चन्द ॥ टेक॥ नामी नाभि नृपतिके वाल, मरुदेवीके कँवर कृपाल ॥ रटि० ॥ १ ॥ पूज्य प्रजापति पुरुष पुरान, केवल किरन धरै जगभान ॥ रटि०॥२॥ नरकनिवारन विरद विख्यात, तारन तरन जगतके. तात॥रटि०॥३॥ भूधर भजन किये निरबाह, श्रीपद-पदम भँवर हो जाह ॥ रटि० ॥ ४ ॥
२५. राग गौरी। .. मेरी जीभ आठौं जाम, जपि जपि ऋषभजिनिंदजीका नाम ॥टेक॥ नगर अजुध्या उत्तम ठाम, जनमें नाभि नृपतिके धाम ॥ मेरी० ॥१॥ सहस अठोत्तर अति अभिराम, लसत सुलच्छन
२ भाग ३
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जैन पदसंग्रहलाजत काम ॥ मेरी० ॥२॥ करि थुति गान थके हरि राम, गनि न सके गणधर गुनग्राम ॥ मेरी० ॥ ३ ॥ भूधर सार भजन परिनाम, अर सब खेल खेलके खाम (?) ॥ मेरी० ॥ ४ ॥
___२६. राग धमाल । देखे देखे जगतके देव, राग रिसंसौं भरे ॥ टेक ॥ काहूके सँग कामिनि कोऊ आयुधवान खरे ॥ देखे० ॥१॥ अपने औगुन आपही हो, प्रकट करैं उघरे । तऊ अबूझ न बूझहिं देखो, जन मृग भोरेप रे ॥ देखे० ॥२॥ आप भिखारी है किनही हो, काके दलिद हरे । चढ़ि पाथरकी नावपै कोई, सुनिये नाहिं तरे ॥ देखे० ॥३॥ गुन अनन्त जा देवमैं औ, ठारह दोष टरे, । भूधर ता प्रति भावसौं दोऊ, कर निज सीस धरे ॥ देखे०॥४॥
२७ देखो गरबगहेली री हेली ! जादोंपतिकी 'नारी ॥ टेक ॥ कहां नेमि नायक निज मुखसौं,
१ द्वेषसे । २ भोलापन ।
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तृतीयभाग । टहल कहै बड़भागी । तहां गुमान कियो मति'हीनी, सुनि उर दौंसी' लागी ॥ देखो ० ॥ १ ॥ जाकी चरण धूलिको तरसैं, इन्द्रादिक अनु रागी । ता प्रभुको तन -वैसन न पीड़े, हा ! हा! परम अभागी || देखो ० ॥ २ ॥ कोटि जनम अघभंजन जाके, नामतनी वलि जइये । श्रीहैंरिवंशतिलक तिस सेवा, भाग्य विना क्यों पइये ॥ देखो० ॥ ३ ॥ धनि वह देश धन्य वह धरनी, जगमें तीरथ सोई । भूधरके प्रभु नेमि नवल निज, चरन धरैं जहाँ दोई || देखो० ॥ ४ ॥
२८. राग घमाल सारंग |
अरज करै राजुल नारी, वनवासी पिया तुम क्यों छोरी ? ॥ टेक ॥ प्रभु तो परम दयाल सबनिपै, सबहीके हितकारी । मोपै कठिन भये क्यों साजन !, कहिये चूक हमारी ॥ अरज० ॥ १ ॥ अव ही भोग-जोग हो वालम, यह बुधि कौन विचारी । आगें ऋषभदेवजी व्याही, कच्छ
१ चाकरी, वस्त्र निचोडनेके लिए । २ दावाग्निसी । ३ धोती । -४ निचोर्डे । ५ श्रीनेमिनाथ ।
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जैन पदसंग्रहसुकच्छकुमारी । सोई पंथ गहो पिय पाछै, हो संजमधारी ॥ अरज० ॥२॥ तुम विन एक पलक जो प्रीतम, जाय पहर सौ भारी । कैसे निशदिन भरौं नेमिजी!, तुम तो ममता डारी। याको ज्वाब देहु निरमोही !; तुम जीते मैं हारी ॥ अरज० ॥३॥ देखो रैनवियोगिनि चकई, सो विलखै निशि सारी । आश बाँधि अपनो जिय राखे, प्रात मिलैं पिय प्यारी । मैं निराश निरधारिनि कैसैं, जीवों अती दुखारी।। अरज०॥४॥ इह विधि विरह नदीमें व्याकुल, उग्रसेनकी बारी । धनि धनि समुद्रविजयके नंदन, बूड़त पार उतारी । करहु दयाल दया ऐसी ही, भूधर शरन तुम्हारी ॥ अरज०॥५॥
२९. राग धमाल सारंग।। · हूं तो कहा करूं कित जाउं, सखी अब कासौं पीर कहूं री ! ॥टेक॥ सुमति सती सखियनिके आगैं, पियके दुख परकासै । चिदानन्दवल्लभकी वनिता, विरह वचन मुख भासै ॥ हूं तो० ॥१॥ कंत विना कितने दिन बीते, कौंलौं
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तृतीयभाग। 'धीर धरौं री । पर घर हाँडै निज घर छांडे, कैसी विपति भरों री ॥ हूं तो० ॥२॥ कहत कहावतमें सब यों ही, वे नायक हम नारी । पै सुपनै न कभी मुँह बोले, हमसी कौन दुखारी॥ हूं तो० ॥३॥ जइयो नाश कुमति कुलटाको, विरमायो पति प्यारो । हमसौं विरचि रच्यो रँग वाके, असमझ (?) नाहिं हमारो ॥ हूं तो० ॥४॥ सुंदर सुघर कुलीन नारि मैं, क्यों प्रभु मोहि न लोरें । सत हू देखि दया न धरै चित, चेरीसों हित जोरें ॥ हूं तो० ॥ ५॥ अपने गुनकी आप वड़ाई, कहत न शोभा लहिये.। ऐरी ! वीर चतुर चेतनकी, चतुराई लखि कहिये ॥ हूं तो० ॥ ६॥ करिहौं आजि अरज जिनजीसों, प्रीतमको समझावें । भरता भीख दई गुन मानौं, जो बालम घर आवें ॥ हूं तो० ॥ ७॥ सुमति वधू यौं दीन दुहागनि, दिन दिन झुरत निरासा । भूधर पीउ प्रसन्न भये विन, वसै न तिय घरवासा ॥ हूं तो० ॥८॥
१ भटके । २ प्रेम करें।
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जैन पदसंग्रह
३०. राग सोरठ। चित ! चेतनकी यह विरियाँ रे ॥ टेक ॥ उत्तम जनम सुतन तरुनापौ, सुकृत बेल फल फरियाँ रे॥चित०॥१॥ लहि सत संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियाँ रे । सुहित सँभा'लि शिथिलता तजिकै, जाहैं वेली झरियाँ रे॥ चित०॥२॥ दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलियाँ रे । ऐसी विभव बढ़ी कै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियाँ रे ॥ चित० ॥३॥ खोय न वीर विषय खल सौटें, ये कोरनकी धरियाँ रे । तोरि न तनक तंगाहित भूधर, मुकताफलकी लरियाँ रे ॥ चित० ॥४॥
३१. राग पंचम । | आज गिरिराजके शिखर सुंदर सखी, होत है 'अतुल कौतुक महा मनहरन ॥ टेक ॥ नाभिके नंदकौं जगतके चन्दकौं, ले गये इन्द्र मिलि जन्ममंगल करन ॥आज०॥१॥ हाथ हाथन धरे सुरन
१ जवानी । २ पुण्य । ३ बदलेमें । ४ करोडोंकी । ५ धागा. डोराके लिए । ६ रहीं।
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तृतीयभाग । कंचन घेरे. छीरसागर भरे नीर निरमल वरन । सहस अर आठ गिन एक ही वार जिन, सीस सुरईशके करन लागे ढरन ॥ 'आज० ॥ २ ॥ नचत सुरसुन्दरीं रहस रससों भरीं, गीत गावैं अरी दैहिं ताली करन | देव दुंदुभि वजे वीन वंसी सजे, एकसी परत आनंद घनकी भरन ॥ आज० ॥ ३ ॥ इन्द्र हर्पित हिये नेत्र अंजुल किये, तृपति होत न पिये रूपअम्रतझरन । दास भूघर भनें सुदिन देखें वनैं, कहि थर्के लोक लख जीभ न सकै वरन || आज० ॥ ४॥
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ऐसी समझ के सिर धूल ॥ ऐसी० ॥ टेक ॥ धरम उपजन हेत हिंसा, आचरें अघमूल || ऐसी० ॥ १ ॥ छके मत-मदन-पान पीके, रहे मनमें फूल | आम चाखन चहें भोंदू, वोय पेड़ बँबूल || ऐसी० ॥ २ ॥ देव रागी लालची गुरु, सेय सुखहित भूल । धर्म नगकी परख नाहीं, भ्रम हिंडोले झूल || ऐसी० || ३ || लाभकारन
१ घटे -क्ला । २ रनकी ।
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जैन पटसंग्रहरतन विणजै, परखको नहिं सूल । करत इहि विधि वणिज भूधर, विनस जै है मूल ॥ ऐसी०॥४॥
• अव पूरीकर नींदड़ी, सुन जीया रे! चिरकाल तू सोया ॥ सुन० ॥ टेक ॥ माया मैली रातमें, केता काल विगोया ॥ अब० ॥१॥ धर्म न भूल अयान रे ! विषयोंवश वाला । सार सुधारस छोड़के, पीवै जहर पियाला ॥ अव० ॥२॥ मानुष भवकी पैठमैं, जग विणजी आया। चतुर कमाई कर चले, मूढौं मूल गुमाया ॥ अब० ॥३॥ तिसना तज तप जिन किया, तिन बहु हित जोया । भोगमगन शठ जे रहे, तिन सरवस खोया ॥ अब०॥४॥ काम विथापीड़ित ज़िया, भोगहि भले जानें । खाज खुजा वत अंगमें, रोगी सुख मानें । अब० ॥५॥
राग उरगनी जोरतें, जग डसिया भाई ! . जिय गाफिल हो रहे, मोह लहर चढ़ाई ॥
१ शहूर । २ खोया । ३ सर्पनी ।
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तृतीयभाग।
अव०॥६॥ गुरु उपगारी गारुड़ी, दुख देख निवारै । हित उपदेश सुमंत्रसों, पढ़ि जहर उतारै ॥ अव० ॥ ७ ॥ गुरु माता गुरु ही पिता, गुरु सजन भाई । भूधर या संसारमें, गुरु शरनसहाई ॥ अव० ॥८॥
३४. गग बंगाला। जंगमें श्रद्धानी जीव जीवनमुकत हंगे | टेक ॥ देव गुरु सांचे माने, सांचो धर्म हिये
आने, ग्रंथ ते ही सांचे जानें, जे जिनउँकतं . हँगे ॥ जगमैं० ॥१॥ जीवनकी दया पालैं, झूठ तजि चोरी टालें, परनारी भालें नैन जिनके लुकत हैंगे ॥ जगमें० ॥ २ ॥ जीयमै सन्तोष घार हिये समता विचारें, आगँ को न बंध पारें, पाईसौं चुकत हैंगे ।। जगमें० ॥ ३॥ वाहिज क्रिया अराधे, अन्तर सरूप सा., भूधर ते मुक्त लाईं, कहूं न रुकत हँगे || जगमें० ॥ ४ ॥
१ जहर उतारनेवाले। २ इस पदकी चारों टेकें निकाल डालनेसे एक घनाक्षरी ( ३२ वर्ण) कवित्त बन जाता है। उक्त, प्रणीत, कहे हए । १ टेबने । ५ छिपते हैं, लज्जित होते है।
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जैन पदसंग्रह -
३५. राग बंगाला ।
आया रे बुढापा मानी सुधि बुधि विसरानी ॥ टेक ॥ श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चालै अटपटी, देह लेटी भूख घटी, लोचन झरत पानी ॥ आया २० ||१|| दाँतनकी पंक्ति टूटी, हाड़नकी संधि छूटी, कायाकी नगरि लूटी, जात नहिं पहिचानी ॥ आया रे० ॥ २ ॥ बालोंने वैरन फेरा, रोगने शरीर घेरा, पुत्रहू न आवै नेरा, औरोंकी कहा कहानी ॥ आया रे० ॥२॥ भूधर समुझि अब, स्वहित करैगो कब, यह गति है है जब, तब पिछ है प्रानी ॥ आया रे० ॥ ४ ॥ ३६. राग सोरठ |
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अन्तर उज्जल करना रे भाई ! ॥ टेक ॥ कपट कृपान तजै नहिं तबलौं, करनी काज न सरना रे ॥ अन्तर० ॥ १ ॥ जप तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक, आगमअर्थउचरना रे । विषय कषाये कीच नहिं धोयो, यों ही पाच पाच मरना रे ॥
१ इसकी भी टेकें निकाल देनेसे घनाक्षरी बन जाता है । २ कमजोर हुई । ३ रंग । ४ निकट |
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तृतीयभाग। अन्तर॥२॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों कीयें पार उतरना रे । नाहीं है सब लोक रं-- जना, ऐसे वेदन वरना रे ॥ अन्तर० ॥३॥ कामादिक मनसौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे । भूधर नीलवसनपर कैसे, केसररंग उछरना रे ॥ अन्तर० ॥ ४ ॥
३७. राग सोरठ। (वीरा! थारी वान बुरी परी रे, वरज्यो मानत नाहि ॥ टेक ॥ विषय विनोद महा बुरे रे, दुख. दाता सरवंग । तू हटसौं ऐसें रमै रे, दीवे पड़त पतंग ॥ वीरा ॥१॥ ये सुख हैं दिन दोयके रे, फिर दुखकी सन्तान । करै कुहाड़ी लेइकै रे, मति मारै पैग जानि ॥ वीरा ॥२॥ तनक न संकट सहि सके रे! छिनमैं होय अधीर । नरक विपति बहु दोहली रे, कैसे भरि है.वीर ॥ वीरा० ॥३॥ भव सुपना हो जायगा रे, करनी रहेगी निदान । भूधर, फिर पछतायगा रे, अब ही समुझि अजान ॥ वीरा ॥४॥ १ काले कपड़ेपर । २ दीपकमें। ३ अपने हाथसे । ४ अपने पैरपर ।
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जैन पदसंग्रह -
३८. राग काफी । मनहंस ! हमारी लै शिक्षा हितकारी ॥टेक॥ श्रीभगवानचरन पिंजरे वसि, तजि विषयनिकी यारी ॥ मन० ॥ १ ॥ कुमति कागलीसौं मति राचो, ना वह जात तिहारी । कीजै प्रीत सुमति हंसीसौं, बुध हंसनकी प्यारी ॥ मन० ॥ २ ॥ काहेको सेवत भव झीलेर, दुखजलपूरित खारी । निज बल पंख पसारि उड़ो किन, हो शिव सैरवरचारी ॥ मन० || ३ || गुरुके वचन विमल मोती चुन, क्यों निज वान विसारी | सुखी सीख सुधि राखें, भूधर भूलैं ख्वारी
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॥ मन० ॥ ४ ॥
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३९. राग ख्याल कान्हडी ।
एजी मोहि तारिये शान्तिजिनंद ॥ टेक ॥ तारिये तारिये अधम उधारिये, तुम करुनाके कंद ॥ एजी० ॥ १ ॥ हथनापुर जनमैं जग जानें, विश्वसेननृपनन्द || एजी० ॥ २ ॥ धनि ह माता ऐरादेवी, जिन जाये जगचंद ||
१ झील । २ सरोवर-तालाचका रहनेवाला |
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तृतीयभाग। एजी०.॥३॥ भूधर विनवै दूर करो प्रभु, सेवकके भवद्वद ॥ एजी० ॥४॥
४०. राग ख्याल । / और सब थोथी वातें, भज ले श्रीभगवान ।। टेक ॥ प्रभु विन पालक कोई न तेरा, स्वारथमीत जहान ॥ और० ॥ १ ॥ परवनिता जननी सम गिननी, परधन जान पखान । इन अमलों परमेसुर राजी, भाचे वेद पुरान ॥ और० ॥२॥ जिस उर अन्तर वसत निरन्तर, नारी औगुनखान । तहां कहां साहिवका वासा, दो खांड़े इक म्यान ॥ और० ॥३॥ यह मत सतगुरुका उर धरना, करना कहिं न गुमान । भूधर भजन न पलक विसरना, मरना मित्र निदान ।। और० ॥ ४ ॥
४१. राग प्रभाती। । अजित जिन विनंती हमारी मान जी, तुमः लागे मेरे पान जी ॥ टेक ॥ तुम त्रिभुवनमें कलप तरोवर, आस भरो भगवान जी ।।
१ दो तलवार ।
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जैन पदसंग्रहअजित०॥१॥वादि अनादि गयो भव भ्रमतें, भयो बहुत कुलकान जी । भाग सँजोग मिले अब दीजे, मनवांछित वरदान जी ॥ अजित० ॥ २ ॥ ना हम मांगें हाथी घोड़ा, ना कछु संपति आन जी । भूधरके उर बसो जगतगुरु, जबलौं पद निरवानजी ॥ अजित० ॥३॥ • ४२. राग धनासरी।
. सो मत सांचो है मन मेरे ॥ टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञप्ररूपित, रागादिक विन जे रे ॥ सो मत०॥१॥ पुरुष प्रमान प्रमान वचन तिस, कलपित जान अने रे । राग-दोष-दूषित तिन चायक, सांचे हैं हित तेरे ॥ सो मत. ॥२॥ देव अदोष धर्म हिंसा विन, लोभ विना गुरु वे रे। आदि अन्त अविरोधी आगम, चार रतन जहँ ये रे ॥ सो मत० ॥३॥ जगत भयो पाखण्ड.परख विन, खाइ खता बहुते रे। भूधर करि निज सुबुधि कसौटी, धर्म कनक कसि ले रे ॥ सो मत० ॥ ४ ॥
१ वृथा। २ अन्यमव । ३ वचन ।
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तृतीयभाग।
॥४३ मेरे चारों शरन सहाई ।। टेक ।। जैसें जलधि परत वायसकों वोहिथ एक उपाई ।। मेरे ॥१॥ प्रथम झरन, अरहन्त चरनकी, सुरनर पूजत पाई । दुतिय शरन श्रीसिद्धनकेरी, लोक-तिलक-पुर-राई ।। मेरे० ॥ २ ॥ तीजै सरन सर्व साधुनिकी, नगन दिगम्बर-कोई । चौथै धर्म अहिंसारूपी, सुरगमुकतिसुखदाई । मेरे० ॥३॥ दुरगति परत सुजन परिजनपै, जीव न राख्यो जाई । भूधर सत्य भरोसो इनको, ये ही लेहिं बचाई। मेरे० ॥ ४ ॥
___४४. राग सारंग। जपि माला जिनवर नामकी ॥ टेक ॥ भजन सुधारससों नहिं धोई, सो रसना किस कामकी। जपि० ॥१॥ सुमरन सार और मिथ्या, पटतर धूवा नामकी । विपम कमान समान विपय सुख, काय कोयली चामकी ॥ जपि० ॥२॥ जैसे चित्रनागके मांथे, थिर मूरति चित्रामकी । १ कोएको । २ जहाज । ३ येली।
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जैन पदसग्रहचित आरूढ़ करो प्रभु ऐसें, खोय गुंड़ी परिनामकी ॥ जपि० ॥३॥ कर्म वैरि अहनिशि छल जो३, सुधि न परत पल जामकी । भूधर कैसैं बनत विसारे, रटना पूरन रामकी ।। जपि० ॥४॥
४५. राग मलार। . - वे मुनिवर कब मिलि हैं उपगारी ॥ टेक ।। साधु दिगम्बर नगन निरम्बर, संवरभूषणधारी ।। वे मुनि० ॥ १॥ कंचन काच बराबर जिनकै, ज्यौं रिपु त्यौं हितकारी । महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी ।। वे मुनि० ॥२॥ सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप पावक परजारी । शोधत जीव सुवर्ण सदा जे, काय-कारिमा टारी ॥ वे मुनि० ॥३॥ जोरि जुगल कर भूधर विनवै, तिन पद ढोक हमारी। भाग उदय दरसन जव पाऊं, ता दिनकी बलि हारी|| मुनि ॥४॥
४६. राग धमाल सारंग। होरी खेलौंगी, घर आये चिदानंद कन्त ॥ १ रातदिन । २ महिमा, बडाई । ३ गाली-1,४ जलाई।
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तृतीयभाग।
३३ टेक ॥ शिशिरं मिथ्यात गयो आई अब, कालकी लब्धि वसन्त ॥ होरी० ॥१॥ पिय सँग खेलनको हम सखियो ! तरसी काल अनन्त । भांग फिरे अब फाग रचानों, आयो विरहको अन्त ॥ होरी०॥२॥ सरधा गागरमें रुचिरूपी, केसर घोरि तुरन्त । आनंद नीर उमग पिचकारी, छोड़ो नीकी भन्त ॥ होरी०॥३॥आज वियोग कुमति सौतनिकै, मेरे हरप महन्त । भूधर धनि यह दिन दुर्लभ अति, सुमति सखी विहसन्तः ॥ होरी०॥४॥
४७. राग भैरौं। *पारस-पद-नख-प्रकाश, अंरुन वरन ऐसो ॥ टेक ॥ मानों तप कुंजरके, सीसको सिंदूर पूर, राग दोष काननकों, दावानल जैसो ॥ पारस० ॥१॥ वोधमई' प्रातकाल, ताको रवि उदय लाल, मोक्षवधू-कुचप्रलेप, कुंकुमाम तैसो ॥
१ ठडी ऋतु । * यह पद सिन्दूरप्रकरके पहले श्लोक (सिन्दूरप्रकरस्तप करिशिर क्रोडे कषायाटवी) की छाया है । २ लाल । ३ हाथी । ४ वनको।
३ भाग ३
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जैन पदसंग्रहपारस० ॥२॥ कुशलवृक्ष दल उलास, इहि विधि बहु गुणनिवास, भूधरकी भरहु आस, दीन दासके सो ॥ पारस० ॥३॥
४८. राग धनासरी। शेष सुरेश नरेश र तोहि, पार न कोई पावै जू ॥ टेक ॥ कोपै नपत व्योम विलसतसौं, को तारे गिन लावै जू ॥ शेष० ॥१॥ कौन सुजान मेघ बूंदनकी, संख्या समुझि सुनावै जू ॥ शेष० ॥२॥ भूधर सुजस गीत संपूरन, गनपति भी नहिं गावै जू ॥ शेष०॥३॥. .
४९. राग रामकली। आदि पुरुष मेरी आस भरो जी । औगुन । मेरे माफ करो जी॥ टेक ।। दीनदयाल विरद विसरो जी, कै विनती मोरी श्रवण धरो जी॥१॥ काल अनादि वस्यो जगमाहीं, तुमसे जगपति जानें नाहीं । पाँय न पूजे अन्तरजामी, यह. अपराध क्षमा कर स्वामी ॥ आदि० ॥२॥ भक्ति प्रसाद परम पद है है, बंधी बंध दशा १ किससे । २ आकाश । ३ विलस्तसे । ४ गणधर ।
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तृतीयभाग |
२५
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मिट जै है । तव न करों तेरी फिर पूजा, यह अपराध खमों प्रभु दूजा || आदि० ॥ ३ ॥ भूधर दोष किया वैकसावै, अरु आगेको लारे लावै । देखो सेवककी ढिठेवाई, गरुवे साहिबसों वनियाई || आदि० ॥ ४ ॥
५०. राग ख्याल काफी कानडी ।
तुम सुनियो साधो !, मनुवा मेरा ज्ञानी । सत गुरु भेटा सँसा मैटा, यह नीकै कार जानी ॥ टेक ॥ चेतनरूप अनूप हमारा, और उपाधि विरानी ॥ तुम सुनियो० || १ || पुदगल भांडा आतम खांडा, यह हिरदै ठहरानी । छीजौ भीजौ कृत्रिम काया, मैं निरभय निरवानी || तुम सुनियो ० ॥ २ ॥ मैं ही देखों मैं ही जानों, मेरी होय निशानी । शवद फरस रस गंध न धारौं, ये वातैं विज्ञानी ॥ तुम सुनियो ० ॥ ३ ॥ जो हम चीन्हां सो थिर कीन्हां, हुए सुदृढ़ सरधानी । भूधर अव कैसें उतरेगा, खड़ग चढ़ा जो पानी || तुम सुनियो० ॥ ४ ॥
१ माफ कराता है । २ ढीठता । ३ बनियांपन । ४ संदेह |
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जैन पदसंग्रह -
५१. राग काफी ।
प्रभु गुन गाय रे, यह औसर फेर न पाय रे ॥ टेक ॥ मानुप भव जोग दुहेला, दुर्लभ सतसंगति मेला । सब वात भली वन आई, अरहन्त भज रे भाई ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ पहले चित- चीर सँभारो, कामादिक मैल उतारो । फिर प्रीति फिटकरी दीजे, तब सुमरन रंग रँगीजे ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ धन जोर भरा जो कूवा, परवार वढ़ें क्या हूवा । हाथी चढ़ि क्या कर लीया, प्रभु नाम विना धिक जीया ॥ प्रभु० || ३ || यह शिक्षा है व्यवहारी, निचैकी साधनहारी । भूधर पैड़ी पग धरिये, तव चढ़नेको चित करिये ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ ५२. राग हागीर कल्याण |
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सुनि सुजान ! पाँचों रिपु वश करि, सुहित करन असमर्थ अवश करि ॥ टेक ॥ जैसें जड़ खखारको कीड़ा, सुहित सम्हाल सकैं नहिं फँस करि ॥ सुनि० ॥ १ ॥ पांचनको मुखिया मन चंचल, पहले ताहि पकर रस (?) कस करि । समझं
१ वस्त्र | २ पांचो इन्द्री । ३ क्फ |
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तृतीयभाग! १७ देखि नायकके जीतें, जै है भाजि सहज सब लसकार ॥ सुनि० ॥२॥ इंद्रियलीन जनम सव खोयो, वाकी चल्यो जात है खस करि । भूधर सीख मान सतगुरुकी, इनसों प्रीति तोरि अव वश करि ॥ सुनि० ॥३॥
५३. राग गौरी। देखो भाई ! आतमदेव विराजै ॥ टेक ॥ इसही हूंठ हाथ देवलमैं, केवलरूपी राजै ॥ देखो० ॥१॥ अमल उजास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै । मुनिजनपूज अचल अविनाशी, गुण वरनत बुधि लाजै ।। देखो० ॥२॥ परसंजोग समल प्रतिभासत, निज गुण मूल न त्याजै। जैसे फटिक पखान हेतसों, श्याम अरुन दुति साजै ॥ देखो० ॥ ३॥ ‘सोऽहं' पद समतासों ध्यावत, घटहीमैं प्रभु पाजै । भूधर निकट निवास जासुको, गुरु विन भरम न भाजै ॥ देखो० ॥ ४ ॥
१ लष्कर-सेना । २ साडेतीन हाथके शरीररूपी मदिरमें ।
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जैन पदसंग्रह
५४. राग ख्याल । अब नित नेमि नाम भजौ ॥ टेक ॥ सच्चा साहिद यह निज जानौ,और अदेव तजौ॥अव० ॥१॥ चंचल चित्त चरन थिर राखो, विषयन” वरजौ॥ अव०॥२॥ आनंनतें गुन गाय निरन्तर, पानने पांय जजौ । अब० ॥३॥ भूधर जो भवसागर तिरना, भक्ति जहाज सजौ॥अव०॥४॥
५५. राग श्रीगौरी। (" माया काली नागिनि जिनं डसिया सब संसार हो" यह चाल ।) __काया गागरि जोजरी, तुम देखो चतुर विचार हो ॥ टेक ॥ जैसे कुल्हिया कांचकी, जाके विनसत नाहीं बार हो । काया० ॥१॥ मांसमयी माटी लई अरु, सानी रुधिर लगाय हो । कीन्हीं करम कुम्हारने, जासों काहूकी न वसाय हो ॥ काया० ॥२॥ और कथा याकी सुनौं, यामैं अध उरध दश ठेह हो। जीव सलिल तहां थंभ रह्यौ भाई, अद्भुत अचरज येह हो । - १ मुखसे ।.२ हाथ जोडकर । ३ नमन करो। ४ जरजरित, टूटी
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तृतीयभाग।
३९ काया० ॥३॥ यासौं ममत निवारकैं, नित रहिये प्रभु अनुकूल हो । भूधर ऐसे ख्यालका भाई, पलक भरोसा भूल हो || काया० ॥ ४ ॥
५६. राग ख्याल बरवा। ("देखनेको आई लाल मै तो तेरे देखनेको आई" यह चाल ।)
म्हें तो थाकी आज महिमा जानी ॥ टेक ॥ अव लों नहिं उर आनी ॥ म्हें तो० ॥ १ ॥ काहेको भव वनमें भ्रमते, क्यों होते दुखदानी ।। म्हें तो० ॥ २ ॥ नामप्रताप तिरे अंजनसे, कीचकसे अभिमानी ॥ म्हें तो० ॥ ३ ॥ ऐसी साख वहुत सुनियत है, जैनपुराण वखानी॥ म्हें तो० ॥ ४ ॥ भूधरको सेवा वर दीजे, मैं जांचक तुम दानी ॥ म्हें तो० ॥ ५॥
५७. राग विहाग । अरे मन चल रे, श्रीहथनापुरकी जातं ॥ टेक ।। रामा रामा धन धन करते, जावै जनम विफल रे ॥ अरे० ॥१॥ करि तीरथ जप तप जिनपूजा, लालच वैरी दल रे ।। अरे० ॥२॥
१ यात्राको । २ स्त्री।
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जैन पदसंग्रहशांति कुंथु अर तीनों जिनका, चारु कल्याणकथल रे ॥ अरे० ॥ ३ ॥ जा दरसत परसत सुख उपजत, जाहिं सकल अघ गल रे ।। अरे० ॥४॥ देश दिशन्तरके जन आवे, गावें जिन गुन रल रे ॥ अरे० ॥ ५ ॥ तीरथ गमन सहामी मेला, एक पंथ दै फल रे ॥ अरे० ॥ ६ ॥ कायाके संग काल फिरै है, तन छायाके 'छल रे ॥ अरे० ॥ ७॥ माया मोह जाल बंधनसौं, भूधर वेगि निकल रे ॥ अरे० ॥ ८ ॥
५८. राग विहाग । जगत जन जूवा हारि चले ।। टेक ॥ काम कुटिल सँग बाजी माँड़ी, उन करि कपट छले ॥ जगत. ॥ १ ॥ चार कषायमयी जहँ चौपरि, पांसे जोग रले । इत सरवस उत कामिनी कौंडी, इह विधि झटक चले । जगत० ॥ २॥ कूर खिलार विचार न कीन्हों, है हैं ख्वार भले । विनां विवेक मनोरथ काके, भूधर सफल
। जगत० ॥३॥
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तृवीयभाग।
४१ ५९. राग बिहाग । तहां ले चल री! जहां जादौपति प्यारो ।। टेक । नेमि निशाकर विन यह चन्दा, तन मन दहत सकल री । तहां० ॥ १ ॥ किरन किधौं नाविक-शर-तति कै. ज्यों पावककी झलरी । तारे हैं कि अँगारे सजनी, रजनी राकसदल री। तहां०॥२॥ इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी वेकल री । भूधर धन्न शिवासुत बादर, वरसायो समजल री । तहां ॥३॥
६०. राग ख्याल । - अरे! हां चेतो रे भाई ॥ टेक ॥ मानुष देह लही दुलही, सुघरी उपरी सतसंगति पाई । अरे हा०॥१॥ जे करनी वरनी करनी नहि, ते समझी करनी समझाई। अरे हां० ॥२॥ यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विषैविषपान तृषा न वुझाई । अरे हां०॥ ३ ॥ पारस पाय सुधा
१ राक्षस । २ शिवाटेवीके पुत्र नेमि । ३ बाउल मेघ । ४ शमसमतारूपी जल । ५ टेक छोड़कर पढ़नसे इस पटका एक मत्तगयन्द (तेईसा) सबैया बन जाता है।
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जैन पदसंग्रह रस भूधर, भीखकेमाहिं सुलाज न आई । अरे हां०॥४॥
६१. राग सोरठ। सो गुरुदेव हमारा है साधो ॥ टेक ॥ जोग अगनिमें जो थिर राखै, यह चित चंचल पारा है ॥ सो गुरु० ॥१॥ करन कुरंग खरे मदमाते, जप तप खेत उजीरा है । संजम डोर जोर वश कीने, ऐसा ज्ञान विचारा है ॥ सो गुरु० ॥ २ ॥ जा लक्ष्मीको सब जग चाहै, दास. हुआ जग सारा है । सो प्रभुके चरननकी चेरी, देखो अचरज भारा है । सो गुरु०॥३॥ लोभ सरपके कहर जहरकी, लहर गई दुख टारा है । भूधर ता रिखका शिंख हूजे, तब कछु होय सुधारा है ॥ सो गुरु०॥ ४ ॥
६२. राग सोरठ। स्वामीजी सांची सरन तुम्हारी ॥ टेक ॥ समरथ शांत सकल गुनपूरे, भयो भरोसो - भारी ॥ स्वामी०॥ १॥ जनम जरा जग बैरी
१ इन्द्रिय । २ उजाडा, नष्ट किया । ३ ऋषि-मुनिका । ४ शिष्य ।
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१
तृतीयभाग जीते, टेव मरनकी टारी । हमहूको अजरामर करियो, भरियो आस हमारी ॥ स्वामी० ॥२॥ जनमैं मरै धरै तन फिरि फिरि, सो साहिव संसारी । भूधर परदालिद क्यों दलि है, जो है आप भिखारी ॥ स्वामी ॥३॥
जीवदया व्रत तरु वड़ो, पालो पालो वड़भाग ॥ टेक ॥ कीड़ी कुंजर कुंथुवा, जेते जगजन्त । आप सरीखे देखिये, करिये नहिं भन्तं ॥ जीवदया० ॥१॥ जैसे अपने हीयडे, प्यारे निज प्रान । त्सों सवहीको लाड़िये, निहचै यह जान ॥ जीवदया० ॥२॥ फांस चुभै टुक देहमें, कछु नाहिँ सुहाय । सों परदुखकी वेदना, समझो मन लाय ॥ जीवदया० ॥३॥ मन वचसौं अर कायसौं, करिये परकाज । किसहीकों न सताइये, सिख रिखिराज ॥ जीवदया० ॥ ४॥ करुना जगकी मायडी, धीजै सव कोय । धिग! धिग! निरदय भावना, करें १ भेद । २ दिलमें । ३ माता । ५ प्रतीति करें।
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जैन पदसंग्रहजिय जोय ॥ जीवदया० ॥ ५॥ सब दसण सव लोयमें, सब कालमँझार । यह करनी बहु शंसिये, ऐसो गुणसार ॥ जीवदया ॥६॥ निरदै नर भी संस्तुवै, निंदै कोइ नाहि । पालैं विरले साहसी, धनि वे जगमाहिं ॥ जीवदया ॥७॥ पर सुखसौं सुख होय, पर-पीड़ासौं पीर । भूधर जो चित चाहिये, सोई कर बीर! ।। जीवदया० ॥८॥
ऐसो श्रावक कुल तुम पाय, वृथा क्यों खोवत हो ॥ टेक ॥ कठिन कठिनकर नरभव पाई, तुम लेखी आसान । धर्म विसारि विषयमें राचौ, मानी न गुरुकी आन || वृथाः ॥ १॥ चक्री एक मतंगज पायो, तापर ईंधन ढोयो । विना विवेक विना मतिहीको, पाय सुधा पग धोयो ।। वृथा० ॥ २ ॥ काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय । वायस देखि उदधिमें फैंक्यो, फिर पीछे पछताय ।। वृथा ॥३॥ १ दर्शनोंमें-धर्मोमें । २ लोकमें । ३ सराहिए । ४ स्तुति करे ।
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तृतीयभाग। सात विसन आठौं मद सागो, करुना चित्त विचारो । तीन रतन हिरदैमें धारो, आवागमन निवारो ॥ वृथा० ॥ ४ ॥ भूधरदास कहत भविजनसों. चेतन अव तो सम्हारो। प्रभुको नाम तरन तारन जपि, कर्मफन्द निरवारो ॥ वृथा०॥५॥
६५. राग ख्याल । नैननिको वान परी, दरसनकी ॥ टेक ॥ जिनमुखचन्द चकोर चित्त मुझ, ऐसी प्रीति करी ।। नैन० ॥१॥ और अदेवनके चितवनको अव चित चाह टरी । ज्यों सव धूलि दवे दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ।। नैन० ॥२॥ छवी समाय रही लोचनमें, विसरत नाहिं घरी । भूधर कह यह टेव रहो थिर, जनम जनम हमरी ॥ नैन० ॥३॥
६६. चाल गोपीचन्दकी। यह तन जंगम रूखंड़ा, सुनियो भवि पानी। एक बूंद इस वीच है, कछु वात न छौनी॥टेक॥ १ वृक्ष । २ छुपी।
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जैन पदसंग्रहगरभ खेतमें मास नौ, निजरूप दुराया । बाल अंकुरा बढ़ गया, तव नजरों आया ॥१॥ अस्थिरसा भीतर भया, जानै सव कोई । चाम त्वचा ऊपर चढ़ी, देखो सव लोई ॥२॥ अधो अंग जिस पेड़ है, लख लेहु सयाना । भुज शाखा दल आँगुरी, दृग फूल रवाना ॥३॥ वनिता बेलि सुहावनी, आलिंगन कीया । पुत्रादिक पंछी तहां, उड़ि बासा लिया॥४॥ निरख विरेख बहु सोहना, सबके मनमाना । स्वजन लोग छाया तकी, निज स्वारथ जाना ॥ ५॥ काम भोग फलसों फला, मन देखि लुभाया । चाखतके मीठे लगे, पीछे पछताया ॥६॥ जरादि बलसों छबि घटी, किसही न सुहाया । काल अगनि जब लहलही, तब खोज न पाया ॥७॥ यह मानुष द्रुमकी दशा, हिरदै धरि लीजे । ज्यों हूवा त्यों जाय है, कछु जतन करीजे ॥८॥धर्म सलिलसों सींचिकै, तप धूप दिखइये । सुरग . फल तब लगैं, भूधर सुख पइये ॥ ९॥ १ रमणीय । २ वृक्ष । ३ पता ।
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नृतीयभाग।
१७ • ६७. कालिंगडा। ("गर्गव जुलाहा ताना कौन बनेगा" इस चालमे।) .. 'चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना । टेक ॥ पग खूटे दो हालन लागे, उर मदरा खखराना । छीदी हुई पांखड़ी पांसू, फिरै नहीं मनमाना ॥ चरखा० ॥१॥ रसना तकलीने वल खाया, सो अव कैसे खूटै ॥ शवद सूत सूधा नहिं निकसै; घड़ी घड़ी पल टूटै ॥ चरखा० ॥२॥ आयु मालका नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे ! रोज इलाज मरम्मत चाहै, वैद बाढ़ही हारे ॥ चरखा० ॥३॥ नया चरखला रंगा चंगा, मवका चित्त चुरावै । पलटा वरन गये गुन अगले, अव देखें नहिं भावै ॥ चरखा० ॥४॥ मौटा महीं कातकर भाई !, कर अपना सुरझेरा ॥ अंत आगमें ईंधन होगा, भूधर समझ सवेरा ॥ चरखा०॥५॥
६८. आरती। आरती आदि जिनिंद तुम्हारी, नाभिकुमार कनकछविधारी ॥ आरती० ॥ टेक ॥ जुगकी
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४८
जन पदसग्रहआदि प्रजा प्रतिपाली, सकल जननकी आरति टाली ॥ आरती० ॥१॥ वांछापूरन सबके स्वामी, प्रगट भये प्रभु अंतरजामी ॥ आरती०. ॥२॥ कोटभानुजुत आभा तनकी, चाहत चाह मिटै 'नहिं तनकी ॥ आरती० ॥ ३ ॥ नाटक निरखि परम पद ध्यायो. राग थान: वैराग उपायो ॥ आरती० ॥ ४ ॥ आदि. जगतगुरु आदि विधाता, सुरग मुकति मारगके दाता ॥ आरती० ॥.५॥ दीनदयाल दया अब कीजे, भूधर सेवकको ढिग लीजे॥ आरती० ॥ ६॥
६९. राग सलहामारू । सुनि सुनि हे साथ नि ! म्हारे मनकी बात है। सुरति. सखीसों सुमति राणी यों कहै जी । बीत्यो है. साथनि म्हारी: ! दीरघकाल, म्हारो सनेही म्हारे घर ना रहै जी ॥१॥ ना वरज्यो रहै साथनि म्हारी चेतनराव, कारज अधम अचेतनके करै जी । दुरमति है. साथमि म्हारी जात कुजात, सोई चिदातम पियको
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तृतीयभाग। चित्त हरै जी ॥ २ ॥ सिखयो है साथीन म्हारी केती वार, क्यों ही कियो हठी हठ एरी हरै जी । कीजे हो साथनि म्हारी कौन उपाय, अव यह विरह विथा नहिं सही परै जी ॥३॥ चलि चलि री साथीन म्हारी, जिनजीके पास, वे उपगारी इसे समझावसी जी । जगसी हे सखी म्हारे मस्तक भाग, जो म्हारौ कंथ समझि घर आवसी जी॥४॥ कारज हे सखी म्हारी ! सिद्ध न होय, जव लग काललवधिवल नहिं भलो जी । तो पण हे सखी म्हारी उद्यम जोग, सीख सयानी भूधर मन सांभलो जी ॥५॥
७०.जकड़ी। - अब मन मेरे वे !, सुनि सुनि सीख सयानी। जिनवर चरना वे !, करि करि प्रीति सुज्ञानी । करि प्रीति सुज्ञानी ! शिवसुखदानी, धन जीतव है पंचदिना । कोटि वरष जीवौ किस लेखे, जिन चरणांबुजभक्ति विना ॥ नर परजाय पाय अति उत्तम, गृह वसि यह लाहा ले रे !। समझ समझ
४ भाग ३
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जैन पदसंग्रहवोलैं गुरुज्ञानी, सखि सयानी मन मेरे ॥१॥ तू मति तरसै वे !, सम्पतिं देखि पराई । बोये लुनि ले वे !, जो निज पूर्व कमाई । पूर्व,कमाई सम्पति पाई, देखि देखि मति झूर मरै । बोय बबूल शूल-तरु भोंदू !, अमनकी क्या आस करै ॥ अव कछु समझ बूझ नर तासों, ज्यों फिर परभव सुख दरसै । करि निजध्यान दान तप संजम, देखि विभव पर मत तरसै ॥२॥ जो जग दीसै वे !, सुंदर अरु सुखंदाई । सो सब फलिया वे!, धरमकल्पद्रुम भाई ! सो सब धर्म कल्पद्रुमके फल, रथ पायक बहु ऋद्धि सही। तेज तुरंग तुंग गज नौ निधि. चौदह रतन छखण्ड मही॥रति उनहार रूपकी सीमा, सहस छ्यानवै नारि वरै । सो सब जानि धर्मफल भाई! जो जग सुंदर दृष्टि परै ॥३॥ लगैं असुंदर वे!, कंटक वान घनेरे । ते रस फलिया वे !, पाप • कनक-तरु केरे ॥ ते सब पाप कनकतरुके फल, । सोग दुख नित्य नये । कुथित शरीर चीर नहिं तापर, घर घर फिरत फकीर भये ॥
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तृतीयभाग । भूख प्यास पीड़ें कन मांगें, होत अनादर पग पगमें । ये परतच्छ पाप संचित फल, लगें असुंदर जे जगमें ॥ ४ ॥ इस भव वनमें वे !, ये दोऊ तरु जाने । जो मन माने वे !, सोई मींचि सयाने ॥ सींचि सयाने! जो मन माने, 1 चैर वेर अब कौन कहै । तू करतार तुही फलभोगी, अपने सुख दुख आप लहै ॥ धन्य ! धन्य ! जिन मारग सुंदर, सेवन जोग तिहूँ पनमें । जासों समुझि परे सब भूधर, सदा शरण इस भववनमें ॥ ५ ॥
७१. विनती । हरिगीतिका ।
पुलकन्त नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इन्दीचरो । दुर्बुद्धि चकवी विलख विकुरी, निविड़ मिथ्यातम हरो ॥ आनन्द अम्बुज उमग उछस्यो, अखिल आतम निरदले । जिनवदन पूर नचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥ १ ॥ मुझे आज आतम भयो पावन, आज विघ्न विनाशियो । संसारसागर नीर निवट्यो, अखिल
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५२ जैन पदसंग्रहतत्त्व प्रकाशियो । अब भई कमला किंकरी मुझ, उभय भव निर्मल ठये । दुख जरो दुर्गतिवास निवरो, आज नव मंगल भये ॥ २ ॥ मनहरन मूरति हेरि प्रभुकी, कौन उपमा लाइये। मम सकल तनके रोम हुलसे, हर्ष ओर न पाइये ॥ कल्याणकाल प्रतच्छ प्रभुको, लखें जो सुर नर घने । तिस समयकी आनन्दमहिमा, कहत क्यों मुखसों बने ॥३॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको, और वांछा ना रही । मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंक मानो निधि लही । अब होय भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर 'भूधरदास' विनवै, यही वर मोहि दीजिये ॥ ४ ॥
७२. विनती। तुम तरनतारन भवनिवारन, भविक मनआ'नन्दनो । श्रीनाभिनन्दन जगतवन्दन, आदि
नाथ जिनिन्दनो ॥ तुम आदिनाथ अनादि , सेऊ, सेय पद पूजा करों । कैलाशगिरिपर
ऋषभ जिनवर, चरणकमल हृदय धरों ॥१॥
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तृतीयभाग |
५३
तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महावली । यह जानकर तुम शरण आयो, कृपा कीजे नाथ जी ॥ तुम चन्द्रवदन सुचन्द्रलक्षण, चन्द्रपुरिपरमेशजू । महासेननन्दन जगतवंदन, चन्द्रनाथ जिनेशजू ॥ २ ॥ तुम वालबोधविवेकसागर, भव्यकमलप्रकाशनो । श्रीनेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो ॥ तुम तजी राजुल राजकन्या, कामसेन्या वश करी | चारित्ररथ चढ़ि भये दूलह, जाय शिवसुन्दरि वरी ॥ ३ ॥ इन्द्रादि जन्मस्थान जि - नके, करन कनकाचल चढ़े । गंधर्व देवन सुयश गाये, अपसरा मंगल पड़े || इहि विधि सुरासुर निज नियोगी, सकल सेवाविधि ठही । ते पार्श्व प्रभु मो आस पूरो, चरनसेवक हों सही ॥ ४ ॥ तुम ज्ञान रवि अज्ञानतमहर, सेवकन सुख देत हो । मम कुमतिहारन सुमतिकारन, दुरित सव हर लेत हो । तुम मोक्षदाता कर्मघाता, दीन जानि दया करो | सिद्धार्थ - नन्दन जगतवन्दन, महावीर जिनेश्वरो ॥ ५ ॥
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जैन पदसंग्रहचौवीस तीर्थंकर सुजिनको, नमत सुरनर आयके । मैं शरण आयो हर्ष पायो, जोर कर सिर नायके ॥ तुम तरनतारन हो प्रभूजी, मोहि पार उतारियो । मैं हीन दीन दयालु प्रभुजी, काज मेरो सारियो ॥ ६॥ यह अतुलमहिमासिन्धु साहब, शक पार न पावही । तजि हासभयः तुम दास भूधर, भक्तिवश यश गावही ॥ ७॥
__७३, गुरुविनती। बन्दौं दिगम्बरगुरुचरन, जग तरन तारन जान । जे भरम भारी रोगको, हैं राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह विन कभी, नहिं करें कर्म जंजीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ १ ॥ यह तन अपावन अशुचि है, संसार सकल असार । ये भोग विष पकवानसे, इस भाँति सोच विचार ॥ तप विरचि श्रीमुनि वन वसे, सब त्यागि परिग्रह भीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥२॥ जे काच कंचन सम गिनें, अरि मित्र एक सरूप ।
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तृतीयभाग। निंदा वड़ाई सारिखी, वनखण्ड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवन मरनमें, नहिं खुशी नहिं दिलगीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥३॥ जे वाह्य परवत वन वसैं, गिरि गुहां महल मनोग । सिल सेज समता सहचरी, शशिकिरण दीपक जोग ॥ मृग मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥४॥ सुखें सरोवर जल भरे, सूखै तरंगनितोय । वाटें वटोही ना चलैं, जहां घाम गरमी होय ॥ तिस काल मुनिवर तप तपैं, गिरिशिखर ठाड़े धीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥५॥ घन घोर गरजैं घनघटा, जल परै पावसकाल । चहुँ ओर चमके वीजुरी, अति चलै शीतल व्याल ॥ तरुहेट तिष्ठें तव जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥६॥ जवशीत मास तुपारसों, दाहै सकल वनराय । जव
१ समान, बगबर । २ नटीका जल | 3 रास्तेसे । ४ मुसाफिर । ५ बरसातमें । ६ पवन । ७ वृक्षके नीचे।
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जैन पदसग्रह
जमै पानी पोखरा, थरहरै सबकी काय ॥ तब नगन निवसैं चौहदैं, अथवा नदकि तीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ७ ॥ कर जोर भूधर बीनवै, कब मिलें वह मुनिराज । यह आस मनकी कब फलै, मेरे सरें सगरे काज ॥ संसार विषम विदेशमें, जे विना कारण वीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ८ ॥
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७४. विनती ।
( चौपाई १६ मात्रा | )
जै जगपूज परमगुरु नामी, पतित उधारन अंतरजामी । दास दुखी तुम अति उपगारी, सुनिये प्रभु ! अरदास हमारी ॥ १ ॥ यह भव घोर समुद्र महा है, भूधर भ्रम - जल-पूर रहा है । अंतर दुख दुःसह बहुतेरे, ते बड़वानल साहिब मेरे ॥ २ ॥ जनम जरा गद मरन जहां है, ये ही प्रबल तरंग तहां है । आवत विपति नदीगन जायें, मोह महान मगर इक तामें ॥ ३ ॥ तिस मुख जीव परयो दुख पावै, हे जिन ! तुम विन कौन छुड़ावै ।
१ चौपटमैदान । २ सिद्ध होवें । ३ सब |
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तृतीयभाग। अशरन-शरन अनुग्रह कीजे, यह दुख मेटि मुकति मुझ दीजे ॥४॥ दीरघ काल गयो विललावें, अब ये सूल सहे नहिं जावें । सुनियत यों जिनशासनमाहीं, पंचम काल परमपद नाहीं ॥५॥ कारन पांच मिलैं जव सारे, तब । शिव सेवक जाहिं तुम्हारे । तातें यह विनती
अव मेरी, स्वामी ! शरण लई हम तेरी ॥६। प्रभु आरौं चितचाह प्रकासौं, भव भव श्रावक कुल अभिलासौं । भव भव जिन आगम अव गाहौं, भव भव भक्ति शरणकी चाहौं ॥७॥ भव
भवमें सत संगति पाऊं, भव भव साधनके गुन . गाऊं । परनिंदा मुख भूलि न भाखू, मैत्रीभाव
सबनसों राखू ॥८॥ भव भव अनुभव आतमकेरा, होहु समाधिमरण नित मेरा । जवलौं जनम जगतमें लाधौं, काललवधि वल लहि शिव साधौ ॥९॥ तवलौं ये प्रापति मुझ हूजौ, भक्ति प्रताप मनोरथ पूजौ । प्रभु सब समरथ हम यह लोरें, भूधर अरज करत कर जोरै ॥ १० ॥
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जैन पदसंग्रह७५. नेमिनाथजीकी विनती। त्रिभुवनगुरु स्वामी जी, करुनानिधि नामी जी। सुनि अंतरजामी, मेरी वीनती जी ॥१॥ मैं दास तुम्हारा जी, दुखिया बहु भारा जी ! दुख मेटनहारा, तुम जादोपती जी ॥२॥ भरम्यो संसारा जी, चिर विपति-भंडारा जी.। कहिं सार न सारे, चहुँगति डोलियो जी ॥ ३ ॥ दुख मेरु समाना जी, सुख सरसों-दाना जी। अब जान •धरि ज्ञान, तराजू तोलिया जी॥४॥ थावर तन पाया जी, त्रस नाम धराया जी । कृमि कुंथु कहाया, मरि अँक्रा हुवा जी ॥५॥ पशुकाया सारी जी, नाना विधि धारी जी । जलचारी थलचारी, उड़न पखेरु हुवा जी ॥ ६॥ नरकनकेमाहीं जी. दुख ओर न काहीं जी। अति घोर जहाँ है, सरिता खारकी जी ॥७॥ पुनि असुर संघारै जी, निज वैर विचारै जी । मिलि बांधैं अर मारें, निरदय नारकी जी॥८॥मा• Yष अवतारै जी, रह्यो गरभमँझारै जी । रंटि
जनमत, वारें मैं धनों जी ॥ ९॥ जो
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तृतीयभाग। वन तन रोगी जी, के विरहवियोगी जी। फिर भोगी वहुविधि, विरघपनाकी वेदना जी ॥१०॥ सुरपदवी पाई जी, रंभा उर लाई जी । तहाँ देखि पराई, संपति झूरियो जी ॥ ११ ॥ माला मुरझानी जी, तब आरति ठानी जी । तिथि पूरन जानी, मरत विसूरियों जी ॥ १२ ॥ यों दुख भवकेरा जी, भुगतो वहुतेरा जी । प्रभु! मेरे कहते, पार न है कहीं जी ॥ १३ ॥ मिथ्यामदमाता जी, चाही नित साता जी । सुखदाता जगत्राता, तुम जाने नहीं जी ॥ १४ ॥ प्रभु भागनि पाये जी, गुन श्रवन सुहाये जी । तकि आयो अव सेवककी, विपदा हरो जी ॥ १५॥ भववास वसेरा जी, फिरि होय न मेरा जी । सुख पावै जन तेरा, स्वामी! सो करो जी ॥ १६ ॥ तुम शरनसहाई जी, तुम सज्जनभाई जी । तुम माई तुम्ही वाप, दया मुझ लीजिये जी॥ १७ ॥ भूधर कर जौरे जी, ठाडो प्रभु औरै जी । निजदास निहारो, निरभय कीजिये जी ॥ १८॥
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जैन पदसंग्रह
७६. विनती।
(ढाल परमादी।) अहो! जगतगुरु एक, सुनियो अरज ह. मारी । तुम हो दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ १॥ इस भव वनमें वादि, काल. अनादि गमायो । भ्रमत चहूँगतिमाहि, सुख नहिं दुख बहु पायो ॥२॥ कर्म महारिपु जोर, एक न कान करें जी । मनमान्यां दुख देहि, काहूसों न डरै जी ॥३॥ कबहूं इतर निगोद, कबहूं नर्क दिखावें । सुरनर पशुगतिमाहि, बहुविधि नाच नचावें ॥४॥ प्रभु! इनके परसंग, भव भवमाहिं बुरे जी । जे दुख देखे देव!, तुमसों नाहिं दुरे जी ॥५॥ एक जन्मकी बात, कहि न सकों सुनि स्वामी! । तुम अनन्त परजाय, जानत अंतरजामी ॥ ६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे । कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥७॥ ज्ञान महानिधि लुटि, रंक निबल करि डाखो । इनही तुम मुझमाहि, २ जिन! अंतर पाखो ॥८॥ पाप पुन्यकी
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तृतीयभाग। दोइ, पायनि वेरी डारी । तन काराग्रहमाहि, मोहि दियो दुख भारी ॥ ९॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहि कियो जी । विनकारन जगवंद्य !, बहुविधि वैर लियो जी ॥ १० ॥ अव आयो तुम पास, सुनि जिन : सुजस तिहारो। नीतनिपुन जगराय !, कांजे न्याव हमारो॥१॥ दुष्टन देहु निकास, साधुनकों रखि लीजे । विनवै. भूधरदास, हे प्रभु ! ढील न कीजे ॥ १२॥
७७. गुरुकी विनती।
(गग-भरतर्ग ! दोहा।) ते गुरु मेरे मन वसो. जे भव जलधि जिहाज । आप तिरै पर तारहीं, ऐसे श्रीऋषि-- राज ॥ ते गुरु० ॥१॥ मोह महारिपु जीतिक, छांड्यो सब घरवार । होय दिगम्बर वन वसे, आतम शुद्ध विचार ॥ ते गुरु० ॥२॥ रोगउरग-विल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदली तरु संसार है, त्यागो सव यह जान ॥ ते गुरु०॥३॥ रतनत्रय निधि उर धरै, अरू१ रोगन्पी सर्पका बिल । २ शरीर।
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जैन पदसंग्रह
निरग्रंथ त्रिकाल | मारयो काम खवीसको, स्वामी परम दयाल || ते गुरु० ॥ ४ ॥ पंच महा व्रत आदरें, पांचों सुमति समेत । तीन गुपति पालै सदा, अजर अमर पद हेत । ते गुरु० ||५|| धर्म धेरै दशलक्षणी, भावैं भावना सारु । सहैं परीसह बीस द्वै, चारित - तन-भँडा' ॥ ते गुरु० ॥ ६ ॥ जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरखरनीर । शैल - शिखर मुनि तप तपैं, दांझैं नगन शरीर ॥ ते गुरु० ॥ ७ ॥ पावस रैन डगवनी, वरसै जलधर-धार । तरुतल निवसैं साहसी, वाजे झंझावार ॥ ते गुरु० ॥ ८ ॥ शीत पड़े कपि-मद गलै, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ते गुरु० ॥ ९ ॥ इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमँझार । लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार ॥ ते गुरु० ॥ १० ॥ पूरव भोग न चिंतवें, आगम वांछा नाहिं | चहुँगतिके दुखसों डरें, सुरति लगी शिव
१ तेजीसे । २ जलावै । ३ चलती है । ४ बरसाती हवाको . . कहते हैं ।
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દર
तृतीयभाग | माहिं ॥ ते गुरु० ॥ ११ ॥ रंगमहलमें पौड़ते, कोमल सेज विछाय । ते पच्छिमनिशि भूमिमें, म संवरि काय ॥ ते गुरु० ॥ १२ ॥ गज चढ़ि चलते गुरवसों, सेना सजि चतुरंग । निरखि निरखि पग वे धरें, पार्ले करुणा अंग ॥ ते गुरु० ॥ १३ ॥ वे गुरु चरण जहां धरें, जगमें तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ौ, भूधर मांगै येह || ते गुरु० ॥ १४ ॥
७८. पंचनमोकारमंत्रमाहात्म्यकी ढाल ।
श्रीगुरु शिक्षा देत हैं, सुनि प्रानी रे ! सुमर मंत्र नौकार, सीख सुनि प्रानी रे ! लोकोत्तम मंगल महा, सुनि प्रानी रे ! अशरन-जन-आधार, सीख सुनि प्रानी रे ! ॥ १ ॥ प्राकृत रूप अनादि है, सुनि प्रानी रे ! मित अच्छर पैंतीस, सीख सुनि प्रानी रे ! पाप जाय सव जापतें, सुनि प्रानी रे ! भाप्यो गणधरईश, सीख सुनि प्रानी रे ! || २ || मन पवित्र करि मंत्रको, सुनि प्रानी रे ! सुमरै शंका छोरि, सीख सुनि प्रानी रे ! वांछित वर पावै सही, सुनि प्रानी रे !
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जैन पदसंग्रहशीलवंत नर नारि, सीख सुनि प्रानी रे ! ॥३॥ विषधर-बाघ न भय करै, सुनि प्रानी रे ! विनसैं विधन अनेक,,सीख सुनि पानी रे! व्याधि विषम-वितर भलै, सुनि प्रानी रे! विपत न व्या एक, सीख सुनि प्रानी रे! ॥४॥ कपिको शिखरसमेदपै, सुनि प्रानी रे! मंत्र दियो मुनिराज, सीख सुनि प्रानी रे! होय अमर नर शिव वस्यो, सुनि प्रानी रे! धरि चौथी परजाय, साख सुनि पानी रे ! ॥ ५॥ कह्यो पदमरुचि सेठने, सुनि पानी रे! सुन्यो बैलके जीव, सीख सुनि पानी रे! नर सुरके सुख भुंजकै, सुनि प्रानी रे ! भयो राव सुग्रीव, सीख सुनि प्रानी रे! ॥६॥ दीनों मंत्र सुलोचना, सुनि पानी रे! विंध्यश्रीको जोइ, सीख सुनि पानी रे ! गंगादेवी अवतरी, सुनि प्रानी रे! सर्प-डसी थी सोड. सीख सति पानी रे!॥७॥ चारुदत्तपै वनिकने, सुनि प्रानी रे! पायो कूपमँझार, सीख सुनि पानी रे ! पर्वत ऊ. पर छोगने, सुनि प्रानी रे! भये जुगम सुर सार,
१ बकरने।
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तृतीयभाग। सीख सुनि प्रानी रे! ॥ ८॥ नाग नागिनी जलत हैं, सुनि प्रानी रे! देखे पासजिनिंद, सीख सुनि प्रानी रे! मंत्र देत तव ही भये, सुनि प्रानी रे! परमावति धरनेंद्र, सीख सुनि पानी रे! ॥ ९॥ चहलेमें हथिनी फँसी, सुनि पानी रे! खग कीनों उपगार, सीख सुनि पानी रे ! भव लहिकै सीता भई, सुनि पानी रे ! परम सती संसार, सीख सुनि प्रानी रे ! ॥ १० ॥ जल मांगै शूली चढ्यो, सुनि प्रानी रे ! चोर कंठगतप्रान, सीख सुनि पानी रे! मंत्र सिखायो सेठने, सुनि प्रानी रे! लह्यो सुरग सुखथान, सीख सुनि प्रानी रे ! ॥ ११ ॥ चंपापुरमें ग्वालिया, सुनि प्रानी रे! घोखै मंत्र महान, सीख सुनि पानी रे! सेठ सुदर्शन अवतर्यो, सुनि प्रानी रे ! पहले भव निरवान, सीख सुनि पानी रे ! ॥ १२ ॥ मंत्र महातमकी कथा, सुनि प्रानी रे! नामसूचना एह, सीख सुनि प्रानी रे! श्रीपुन्यास्रवग्रंथमें, सुनि पानी रे! तारे सो सुनि १ कीचड़में । २ विद्याधरने।
५ भाग ३
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जैन पदसंग्रहलेहु, सीख सुनि पानी रे ! ॥ १३॥ सात-विसन सेवन हठी, सुनि पानी रे ! अधम अंजना चोर, सीख सुनि प्रानी रे! सरधा करते मंत्रकी, सुनि पानी रे! सीझी विद्या जोर, सीख सुनि पानी रे! ॥१४॥ जीवक सेठ समोधियो, सुनि पानी रे! पापाचारी खान, सीख सुनि प्रानी रे! मंत्र प्रतापैं पाइयो, सुनि पानी रे! सुंदर सुरग विमान, सीख सुनि पानी रे!॥१५॥आगैं सीझे सीझि है, सुनि प्रानी रे! अब सीझैं निरधार, सीख सुनि पानी रे! तिनके नाम बखानतें, सुनि पानी रे! कोई न पावै पार, सीख सुनि पानी रे!॥१६॥ बैठत चिंतै सोवतें, सुनि पानी रे! आदि अंतलौं धीर, सीख सुनि प्रानी रे ! इस अपराजित मंत्रको, सुनि प्रानी रे! मति बिसरै हो! वीर, सीख सुनि प्रानी रे! ॥१७॥ सकल लोक सब कालमें, सुनि पानी रे! सरवागममें सार, सीख सुनि पानी रे! भूधर कबहुं न भूलि है, सुनि पानी रे! मंत्रराज मन धार, सीख सुनि प्रानी,रे!॥ १८॥ '
१जीवंधरने।
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तृतीयभाग ।
७९. करुणाष्टक |
करुणा ल्यो जिनराज हमारी, करुणां ल्यो ॥
टेक ॥ अहो जगतगुरु जगपती, परमानंदनिधान । किंकरपर कीजे दया, दीजे अविचल थान ॥ हमारी० ॥ १ ॥ भवदुखसों भयभीत हौं, शिवपदवांछा सार । करो दया मुझ दीनपै, भवबंधन निरवार | हमारी० ॥ २ ॥ पस्यो विषम भवकूपमें, हे प्रभु ! काड़ो मोहि । पतितउधारण हो तुम्हीं, फिर फिर विनऊं तोहि || हमारी० || ३ || तुम प्रभु परमदयाल हो, अशरणके आधार । मोहि दुष्ट दुख देत हैं, तुमसों करहुँ पुकार ॥ हमारी० ॥४॥ दुःखित देखि दया करै, गाँवपती इक होय । तुम त्रिभुवनपति कर्मतें, क्यों न छुड़ावो मोय || हमारी० ॥ ५ ॥ भव- आताप तवै भुजैं, जव राखों उर धोय । दया-सुधा करि सीयरा, तुम पदपंकज दोय || हमारी० ॥ ६ ॥ येहि एक मुझ वीनती, स्वामी ! हर संसार | बहुत धज्यो हू त्रासतें, विलख्यो वारंवार ॥ हमारी० ॥ ७ ॥ पेदमनंदिको
१ श्रीपद्मनन्दि आचार्यकृत पचविशतिकाके करुणाष्टक्का आशय लेकर ।
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जैन पदसंग्रहअर्थ लैं, अरज करी हितकाज । शरणागत भूधरतणी, राखौ जगपति लाज ॥ हमारी॥८॥
_ /८०. गजल । . रखता नहीं तनकी खबर, अनहद बाजा बा.जिया घटबीचमंडल वाजता,बाहिर सुनातोक्या हुआ ॥१॥ जोगी तो जंगम सेवड़ा, बहु लाल कपड़े पहिरता । उस रंगसे महरम नहीं; कपड़े रंगे तो क्या हुआ ॥२॥ काजी किताबें खोलता, नसीहत बतावै औरको । अपना अमल कीन्हानहीं, कामिल हुआ तो क्या हुआ॥३॥ पोथीके पाना बांचता, घरघर कथा कहता फिरै । निज़ ब्रह्मको चीन्हा नहीं, ब्राह्मण हुआ तो क्या हुआ ॥४॥गांजारुभांग अफीम है, दारू शराबा पोशता । प्याला न पीयाप्रेमका, अमली हुआ तो क्या हुआ॥ ५॥शतरंज चौपरगंजफा, बहु मर्द खेलें हैं सभी । बाजी न खेली प्रेमकी, ज्वारी हुआ तो क्या हुआ॥६॥भूधर बनाई वीनती, श्रोता सुनो संब कान दे। गुरुका वचन माना नहीं, श्रोता हुआ तो क्या हुआ.॥७॥'
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