Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi  Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका ११ यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो मध्यमिकाम् ।' इनमें शाकलके यवन राजाओं द्वारा किये हुए उन दो हमलों का उल्लेख है जिनमें से एक पूर्व की ओर साकेत पर और दूसरा पच्छिम में मध्यमिका पर । मध्यमिका चित्तौड़ के पासका वह स्थान था जिसे इस समय नगरी कहते हैं और जहाँ खुदाई में प्राप्त पुराने सिक्कों पर मध्यमिका नाम लिखा हुआ मिला है। ये हमले किस राजाने किये थे उसका नाम पतञ्जलिने नहीं दिया, किन्तु यूनानी इतिहासलेखकों के वर्णनसे ज्ञात होता है कि उस राजाका नाम मिनन्डर था जिसे पाली भाषा में मिलिन्द कहा गया है। उसके सिक्कों पर तत्कालीन बोलचालकी प्राकृत भाषा में उसका नाम मेनन्द्र मिलता है । महावृत्तिके 'अरुणन्महेन्द्रो मधुराम्' इस उदाहरणमें दो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ हैं। इसमें राजाका नाम महेन्द्र दिया हुआ है, पर हमारी सम्मतिमें इसका मूलपाठ 'मेनन्द्र' था । पीछेके लेखकोंने मेनन्द्र नामकी ठीक पहचान न समझ कर उसका संस्कृत रूप महेन्द्र कर डाला। इस उदाहरण से संस्कृत साहित्यकी भारतीय साक्षी प्राप्त हो जाती है कि पूर्व की ओर अभियान करनेवाले यवनराजका नाम मेनन्द्र या मिनन्डर था । यवनराज मेनन्द्रने पाटलिपुत्र पर दाँत गड़ा कर पहले धक्के में मथुरा पर अधिकार जमाया और फिर आगे बढ़कर सातको छेक लिया । साकेत पहुँचने के लिए मथुराका जीतना आवश्यक था । अत्र यह सूचना पक्के रूपमें अभयनन्दीके उदाहरणसे प्राप्त हो जाती है। इससे यह भी पता लगता है कि काशिका के अतिरिक्त भी अभयनन्दीके सामने पाणिनि व्याकरणकी ऐसी सामग्री थी जिससे उसे यह नया ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हुआ | सूत्र १३/३६ की वृत्ति में श्रारण्यक पर्व १२६८ - १० का यह श्लोक पठित हैउलूखलैराभरणैः पिशाची यदभाषत् । एतत्तु ते दिवा नृत्तं रात्रौ नृत्तं तु द्रक्ष्यसि ॥ काशिका २|१|४५ में यह श्लोक किन्हीं प्रतियों में प्रक्षिप्त और किन्हीं में मूलके अन्तर्गत माना गया है, किन्तु महावृत्तिसे सिद्ध हो जाता है कि वह काशिका के मूलपाठका भाग था । श्लोकके उत्तरार्ध में जो 'दिवानृत्त' राम्रो नृत्तं ' पाठ है उसका समर्थन महाभारतकी कुछ प्रतियोंसे होता है पर कुछ अन्य प्रतियों में 'वृत्तं ' पाठ है जैसा कि काशिका मैं और महाभारत के पूना संस्करण में भी स्वीकार किया गया है। प्राचार्य अभयनन्दी ने अपनी महावृत्तिको जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरणकी पुष्कल सामग्री से भर दिया है वह सर्वथा अभि नन्दनके योग्य है । श्राशा है जिस समय काशिकावृत्ति, अभयनन्दीकृत महावृत्ति और शाकटायन व्याकरणकी मोधवृत्ति इन तीनोंका तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव होगा तो यह बात और भी स्पष्ट रूपसे जानी जा सकेगी कि प्रत्येक वृत्तिकारने परम्परासे प्राप्त सामग्रीकी कितनी अधिक रक्षा अपने अपने ग्रन्थ में की थी। यह सन्तोषका विषय है कि इन कृतियोंने सावधानीके साथ प्राचीन सामग्रीको बच्चा लिया । आचार्य देवनदीने पाणिनीय अष्टाध्यायीको आधार मानकर उसे पञ्चाध्यायी में परिवर्तन करते समय दो बातोंकी ओर विशेष ध्यान रखा था - एक तो धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासंज्ञाओं को भी जिनके कारण पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण में इतनी स्पष्टता और स्वारस्य श्रा सका था, इन्होंने बीजगणित के जैसे अतिसंक्षित संकेतों में बदल दिया है जिनकी सूची परिशिष्ट में दे दी गयी है। दूसरे जितने स्वर सम्बन्धी और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्र थे उनको श्रा० देवनन्दीने छोड़ दिया है । किन्तु ऐसा करते हुए इन्होंने उदारता से काम लिया है, जैसे श्रानाय्य, धाय्या, सानाय्य, कुण्डपाय्य, परिचाय्य, उपचाय्य, [ २|१|१०४ - १०५ ]; ग्रावस्तुत् [ २/२/१५६ ] श्रादि वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंको रख लिया है। इसी प्रकार सास्य देवता प्रकरण [३।२।२१-२८] में शुक्र, पोनप्तृ, महेन्द्र, सोम, द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीषोम, वास्तोस्पति, गृहमेव आदि गृह्यसूत्रकालीन देवताओं के नामोंको पाणिनीय प्रकरण के अनुसार ही रहने दिया है। प्रत्ययों में आनेवाले फ, ट, ख, छ घ और यु, वु, एवं उनके स्थान में होनेवाले आदेशोंको भी ज्योंका त्यों रहने दिया है । [ ५ | १ | १ : ५ | १/२ ] | 'तेन प्रोक्तम्' प्रकरण [ ३/३/७६ - ८० ] मैं वैदिक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थोंके नाम भी ज्यों के त्यों जैनेन्द्र व्याकरणमै स्वीकृत कर लिये गये हैं । कहीं कहीं जैनेन्द्रने उन परिभाषाओं को स्वीकार किया है जो प्राक् पाणिनीय व्याकरणों में मान्य थीं और जिनका For Private And Personal Use Only

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