Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi  Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् न्यास-उक्त टीकायोंमेंसे 'न्यास' तो शायद स्वयं पूज्यपादका ही होगा जो अभी तक अनुपलब्ध है। शिमोगा जिलेकी नगर तहसील के ४६३ शिलालेखमें लिखा है कि पूज्यपाइने एक तो (अपने व्याकरणपर) जैनेन्द्र-संज्ञक न्यास और दूसरा पाणिनि व्याकरण पर शब्दावतार नामक न्यास बनाया। इसके सिवाय वैद्यकशास्त्र और तत्त्वार्थ-टीका भी लिखो। यह निश्चय है कि पूज्यपाद केवल सूत्र-ग्रन्थ बनाकर ही न रह गये होंगे। अपनी मानो हुई अतिशय सूक्ष्म संज्ञाओं और परिभाषाओंका स्पष्टीकरण करनेके लिए उन्हें कोई टीका या वृत्ति अवश्य बनानी पड़ी होगी जिस तरह शाकटायनने अपने व्याकरणपर अमोघवृत्ति नामकी स्वोपज्ञटीका बनाई। विद्यानन्दने अष्टसहस्री ( पृष्ठ १३२ ) में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात्' यह वचन उद्धृत किया है। यह किसी व्याकरण ग्रन्थका वार्तिक है; परन्तु पाणिनिके किसी भी वार्तिकमें यह नहीं मिलता । अभयनन्दिको महावृत्तिमै अवश्य ही "प्यखे कर्मणि का वक्तव्या" [४-१-३८] इस प्रकारका वार्तिक है; परन्तु अभयनन्दिकी वृत्ति विद्यानन्दसे पीछे की बनी हुई है, इसलिए विद्यानन्दने यह वार्तिक अभयनन्दिकी वृत्तिसे नहीं किन्तु अन्य ही किसी ग्रन्थसे लिया होगा। भाष्य-जैनेन्द्र के भाष्यका अभी तक पता नहीं लगा। आगे हम उपलब्ध टीकाग्रन्थोंका परिचय देते हैं १-महावृत्ति-इसकी एक प्रति पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीटय टमें मौजूद है और एक प्रति बम्बईके सरस्वती-भवन में भी है | पूनेकी प्रतिमें इसकी श्लोकसंख्या १२००० के लगभग है। प्रारंभके ३१४ पत्र एक लेखकके लिखे हुए और शेष ७४ पत्र, चैत्र सुदी २ सं० १६३३ को किसी दूसरे लेखकके लिखे हुए हैं । प्रतिके दोनों ही भाग जयपुरके लिखे हुए मालूम होते हैं। कई स्थानों में कुछ पंक्तियाँ छूटी हुई हैं। और अन्तमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है । इस महावृत्तिके कर्ता अभयनन्दि मुनि हैं। उन्होंने न तो अपनी गुरुपरम्पराका ही परिचय दिया है और न ग्रन्थ रचनाका समय ही। परन्तु सूत्र ३-२-५ की टीकामैं एक जगह उदाहरण दिया है"तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते।” इससे मालूम होता है कि भट्टाकलंकदेवके बाद अर्थात् वि० की आठवीं नवी शताब्दिके बादकी यह वृत्ति है-और पंचवस्तुके पूर्वोल्लिखित श्लोकमें इसी वृत्तिका उल्लेख जान पड़ता है, इसलिए श्रतकीर्तिके अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दिके पहले किसी समयमें वे हुए हैं। जैनेन्द्रकी उपलब्ध टीकाओंमें यही टीका सबसे प्राचीन मालूम होती है। २-शब्दाम्भोजभास्करन्यास-बम्बईके सरस्वती-भवनमें इसकी दो अपूर्ण प्रतियाँ मौजूद हैं । एक प्रतिमें १४३ पत्रसे २६ह तक और फिर ६२० वे पत्रसे ७०३ तकके ही पत्र हैं । १४ वे पत्रपर पहले १. न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्योधवृत्तः ॥ २. नं ५६० A और B सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट । ३. ओं नमः । श्रीमत्सर्वज्ञवीतरागतद्वचनतदनुसारिगुरुभ्यो नमः । देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्त्वाभयप्रदम् । शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिर्विरच्यते ॥१॥ यच्छब्दलक्षणमसुवजपारमन्यैरव्यक्तमुक्तमभिधानविधौ दरिदैः । तत्सर्वलोकहृदयप्रियचारुवात्यैर्व्यक्तीकरोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥ २॥ शिष्टाचारपरिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मंगलमिदमाहाचार्यः । इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्चायं पञ्चमोऽध्यायः । For Private And Personal Use Only

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