Book Title: Jain Tattva Sar Sangraha Satik
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay

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Page 378
________________ । ३६७) लम्अहो! त्वदीया खलु सूक्ष्मदृष्टि-यन्मङ क्षु मुक्त्यर्थमयंविचार । चित्तेसमुत्पन्नइयानिदानी,मन्येतदातेऽत्रमनोऽस्तिमुक्त्यै ॥२५॥ गाथार्थ- अरे, तारी सूक्ष्म दृष्टि छ के जेथी जल्दी मुक्ति माटे या विचार तारा चित्त मां उत्पन्न थयो, एथी हुं मानुं छं के तारू चित्त मुक्ति माटे छे. विवेचन:-मुक्ति मां जवान जेनुं मन तलसतुं होय तेनेज मुक्ति माटे ना विचारो आवे छे. मुक्ति नी जिज्ञासाज तत्त्वो नुं सूक्ष्म दृष्टि थी अवलोकन करवानुं मन करावे छे. माटेज अहियां ग्रंथकारे कह्य के तारी तत्त्व नी सूक्ष्म दृष्टि थी विचार करवानी भावना जोतां लागे छे के तारू मन मोक्ष माटे वर्ते छ अर्थात् मुक्ति मां जवानी तारा हृदय मां भावना छे. चूलम्आकरर्णय त्वं मयका निगद्य-मानं मुने ! मुक्तिपथं समर्थम् । सिद्धान्तवेदान्तरहस्यभूतं,गुरूपदेशादधिगम्यकिञ्चित् ।।२६। गाभार्थः हे साधु ! गुरू ना उपदेश थी कइंक जाणी ने माराथी कहेवानो सिद्धांत अने वेदांत ना सार भूत एवो अने समर्थ मोक्ष नो मार्ग तुं सांभल.

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