Book Title: Jain Tattva Sar Sangraha Satik
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तत्त्व सार संग्रह सटीक (महा महोपाध्याय श्री सूरचंद्रगरिण विरचित) गुर्जर भाषानुवाद अनुवादक प. पू. आचार्य विजय रत्नशेखर सूरिश्वरजी मूल्य- सदुपदेश Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . . "...... . SKC MAN hen. श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री जित-हीर-बुद्धि-तिलक गुरुवरेभ्यो नमः अनुयोगाचार्य पंन्यास प्रवर श्री तिलक विजयजी गणिवर्य ग्रन्थमाला पुष्प क्र. ६ श्री जैन तत्त्व सार संग्रह सटीक गुर्जर भाषाबाट - अनुवादक प० पू० विद्वद्वर्य प्राचार्य विजय रत्नावर असरबरजा - प्रकाशक - श्री रंजनविजयजी जैन पुस्तकालय, मालवाड़ा (जिला जालोर-राजस्थान) वोर संवत्-२५०५ विक्रम संवत्-२०३५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या पुस्तक प्रकाशन नो समस्त खर्च श्री जैन ज्ञान खाता, मालवाड़ा तरफ थी प्रापेल छे. मुद्रक सरस्वती प्रिन्टिग प्रेस भीनमाल (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना महा महोपाध्याय श्री सूरचंद्र गरिण विरचित श्री जैन तत्त्व सार संग्रह नो गुर्जर भाषानुवाद आप सौनी समक्ष मूकतां मने अत्यन्त श्रानन्द थाय छे. आत्मा अनंत ज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत चारित्रमय अने वीर्यमय शुद्ध स्फटिक जेवो निर्मल होवा छतां कर्म ना योगेज अनादि काल थी संसारी स्वरूप वालो छे. आत्मा साथै थयेल कर्म ना संयोग नो जो सर्वथा नाश थई जाय तो श्रात्मा शुद्ध स्वरूप ने पाम्या विना रहे नहीं । जीव अने कर्म तो संबंध ग्रनादि काल थी छे परन्तु प्रमुक वस्तु ना संयोग थी ते मुक्त थई शके छे. जीव ना प्रत्येक ग्रात्म प्रदेशे अनंत शुभाशुभ कर्मो रहेलां छे परण आपणे ते कर्मो जोई शकता नथी. एटले या पुस्तक ना वांचन थी जिज्ञासु भाई बहेनो ने आत्म संतोष थशे और विचार करवा माटे अमूल्य सामग्री मलशे । आ पुस्तक थी आप आत्मा ने कर्म नुं लक्षण, जीवो करतां कर्म अनंत छे, जीव कर्मों थी आवृत्त छे, कर्मो थी जीव शी रीते मुक्त थई शंके, जीवो नुं कर्म ग्रहण, जीवो नुं अदृश्य पणुं जीव अने कर्म तो संबंध, पर ब्रह्म नुं स्वरूप, कर्म थी जीव ने सुख - दुःख, ब्रह्म ने सिद्ध, निगोद ना जीवो ने तेमनी दृश्यता, निगोद ना जीवो नुं कर्म बंधन, सुख - दुःख नुं कारण कर्म, श्रदृष्ट स्वर्ग नुं प्रमाणपणुं, प्रभु प्रतिमा पूजन थी पुण्य, मुक्ति नो सर्व दर्शनानुसारी मार्ग ANG Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगेरे नो विविध दृष्टान्तो बड़े स्पष्टीकरण करी जिज्ञासुनो ने संतुष्टि मले तेवी रीते समझाववा प्रयत्न कर्यो छे. विषय नी गूढ़ता होवा छतां अनेक अकाट्य प्रमाणो द्वारा विषय ना मूल मर्म ने समझावी विषय ने सरलतम बनाववा प्रयत्न कर्यो छे. मूल अने गाथार्थ साथे विशद विवेचन करी सामान्य मानव ने पण पुस्तक मां रस मले तेवो प्रयत्न करवामां आव्यो छे. आशा छे जिज्ञासुमो पुस्तक थी लाभान्वित थशे अने तेमने माटे या पुस्तक उपयोगी नीवड़शे. __ गुर्जर भाषा मां ग्रन्थ नो अनुवाद विशद व्याख्या अने विवेचन साथे करवाथी आ ग्रन्थ वांचवा अने समझवामां पाठको नी रुचि वधशे कारण के सुष्क विषय ने सरस बनाववानो मे पूर्ण प्रयत्न करेल छे. प्रस्तुत ग्रंथ ना सम्पादन मां श्री पार्श्वनाथ जैन छात्रालय मालवाड़ा ना गृहपति श्री नैनमल सुराणाजी ए पूर्ण सहयोग प्राप्यो छे । तेमना उत्साह थी आ कार्य सरल बन्यं अने आजे या वृहद् पुस्तक आपना समक्ष विद्यमान छे. प्रेस नी भूलो रही गई होय अथवा कोई अन्य दोष आपनी दृष्टि मां आवे तो सुधारी वांचवा विनंति छे. महावीर निर्वाण संवत् २५०५ प्राचार्य रत्नशेखर सूरि । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार द्वितीय तृतीय चतुर्थ पंचम षष्ठ सप्तम अष्टम नवम दशम 99 19 "" "" 91 91 " "" 93 एकादश द्वादश त्रयोदश चतुर्दश पञ्चदश षोड़श सप्तदश अष्टादश एकोनविंश विंशतितमो एकविंशतितमो अधिकार " "" " 11 " "" 11 19 19 अनुक्रमणिका "1 पृष्ठ सं. १ २६ ३६ ६६ ७७ ६१ १०० १०६ १६० १६ε १६६ २०१ २३५ २४८ २६६ २७६ २६७ ३२२ ३२ε ३५३ ३७७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अभिप्राय - परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद्विजय रत्नशेखर सूरीश्वरजी द्वारा गुर्जर भाषा में अनुदित 'श्री जैन तत्त्व सार संग्रह' सचमुच एक अद्वितीय पुस्तक है जिसे पढ़कर और वणित विषय पर मनन करके साधारण मनुष्य भी तत्त्व के गूढ़ रहस्यों को समझने में सरलता अनुभव करेंगे। कर्म के विविध पहलूत्रों को आपने अपने अनुभव जन्य विचारों और विशद विवेचन द्वारा सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया है। मैंने परम पूज्य आचार्य भगवंत की कुछ अन्य पुस्तकें भी देखी हैं जिनसे मैं अत्यन्त प्रभावित हुया हूँ। प्रस्तुत पुस्तक में आपने आत्मा एवं कर्म के लक्षण, जीव कर्मों से आवृत्त है, जीवों का कर्म ग्रहण, जीव और कर्म का संबंध, पर ब्रह्म का स्वरूप, सुख-दुःख का कारण कर्म आदि गहन विषयो को सामान्य भाषा में विवेचन सहित स्पष्ट किया है जिससे पाठकों की रुचि में कमी हुए बिना वे आगे पढ़ने की ओर आकृष्ट होते रहेंगे । प्रस्तुत पुस्तक में प्रस्तुतिकरण के समस्त गुण विद्यमान हैं। जिससे पुस्तक उपयोगी होने के साथ एक अच्छे साथी का कार्य करेगी। पूज्य आचार्य भगवंत ने अस्वस्थ होने पर भी इस कार्य में जितनी तत्परता एवं कौशल का परिचय दिया है, वह वास्तव में किसी दिव्य शक्ति की सत्प्रेरणा का सुफल ही है । किं बहुना। नैनमल सुराणा 'खुशदिल' एम.ए.,बी.एड., साहित्य रत्न Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अपनी दृष्टि मेंविवेकवान प्राणी इस अगाध भवसागर को पार कर अनन्त सुख की कामना करता है । ' 'सुखं मे भूयात् दुःखं मा भूत" अर्थात् मुझे सुख ही सुख हो, दुःख न हो । ऐसी इच्छा रहने पर भी "न च दुःखेन सम भिन्न" अर्थात् निरतिशय सुख को प्राप्त नहीं कर पाता कारण कि मानव में विवेक का अभाव होने से सत् एवं असत् का विवेचन करने की शक्ति विलुप्त हो जाती है। विवेक के अभाव में भौतिक पदार्थों में ही उसकी निष्ठा रहती है और इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति 'भूतानि खानि व्यतणत् स्वयं भू' इत्यादि आगम से प्राशु विनशि सुख में ही मनुष्य सुख मानता है। अन्य दर्शनों की तरह 'जैन तत्त्व सार' नामक ग्रन्थ में निश्रेयस (मोक्ष) प्राप्ति के सरल साधनों का विवेचन है । इस अागम के अध्ययन से विवेकशील मानव को उन्मार्गगामी उद्दाम मन को निग्रहित करने की सरल युक्ति प्राप्त होती है । अतः मनुष्य को क्रियमाण इन जड़ कर्मों से नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा का बन्धन कैसे होता है तथा मुमुक्षु जीव को इन जड़ कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर कैवल्यैकरूपता मुक्ति प्राप्ति का सरल साधन इस प्रस्तुत 'जैन तत्त्व सार' ग्रन्थ में वर्णित है। क्लिष्ट संस्कृत भाषा में बहु विस्तार युक्त इस ग्रन्थ के सार को प० पू० श्रद्धेय आचार्य महोदय श्री रत्नशेखर सूरिजी महाराज ने अपने सूक्ष्म अध्ययन और अनुभव के Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा सर्व साधारण के उपकार को लक्ष्य कर गागर में सागर की तरह सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार संक्षेप में उपनिबद्ध किया है । इसके मार्मिक अध्ययन से "यद् गत्वा निवर्तन्ते" इस अपुनरावृत्ति धाम को मुमुक्षु वर्ग अनायास ही अपने मुक्ति के साधनों को प्राप्त कर अवश्य ही आत्म कल्याण के लिये अग्रसर होंगे, ऐसी मैं पूर्ण आशा करता हूँ। प्राचार्य चम्पालाल शास्त्री, उदयपुर. - कुछ कहूँ - इस 'जैन तत्त्व सार' ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों ने बहुत विस्तार पूर्वक वर्णन किया है लेकिन कलियुग में मानव इस कठिन एवं क्लिष्ट ग्रन्थ को समझ नहीं सकता है, इसलिए समाज के उपकार के उद्देश्य से प० पू० आचार्य श्री रत्नशेखर सूरीश्वरजी म.सा० ने अपने सूक्ष्म अध्ययन और विशद अनुभव से इसका संक्षेप में बोल चाल की गुजराती भाषा में वर्णन किया है। - मुमुक्षु आत्मा इसका मार्मिक अध्ययन करके जड़ रूप कर्म से मुक्त होकर अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं । सांसारिक विषय तो सर्वथा दुःखप्रद ही हैं पर निरन्तर विपद युक्त, निरन्तर जन्म-मरण दुःख द्वन्द्वों से भव्य प्राणी ही मुक्ति के लिये सन्नद्ध होता है । "अन्तकः पर्यवस्थाता जन्मिनः सन्ततावाय । इति त्याज्ये भवे भव्ये मुक्ता तिष्ठते जनः ।" -मुनि रत्नेन्दु विजय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छवागड़ देशोद्धारक चमत्कारी महापुरुष दादा श्री जितविजयजी महाराज ना प्रशिष्य रत्न अनुयोगाचार्य गणनायक पंन्यासप्रवर 201001 - श्रीमत् तिलकविजयजी गरिणवर्य जी जी जारी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० पूज्य अनुयोगाचार्य गणनायक पंन्यासप्रवर श्रीमत् तिलकविजयजी गरिणवर ना शिष्यरत्न श्री जैन तत्त्व सार संग्रह गुर्जर भाषानुवादक विद्वद्वर्य पू० श्राचार्य श्री विजय रत्नशेखर सूरिश्वरजी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री जित-हीर - बुद्धि- तिलक गुरुवरेभ्यो नमः + महोपाध्याय श्री सूरचन्द्रगरिण विरचित श्री जैन तत्त्व सार संग्रह सटीक (गुर्जर भाषानुवाद) ॥ प्रथम अधिकारः ॥ मंगल अने वस्तु नो निर्देश मूलम् - संशुद्ध सिद्धान्तमधीश मिद्धं, श्री वर्धमान प्रणिपत्य सत्यम् । कर्मात्मपृच्छं तरदान पूर्व किञ्चिद्विचारं स्वविदे समूहे ।। गाथार्थ: निर्दोष सिद्धान्तवाला, परम ऐश्वर्यवाला, अतिशयो वड़े देदिप्यमान अने सत्य स्वरूप एवा श्री वर्धमान स्वामी ने प्रणाम करीने पोताना ज्ञान माटे कर्म अने ग्रात्मा सम्बन्धी प्रश्नोना उत्तर देवा पूर्वक कक विचारू छु । विवेचन: कोई परण आगम, ग्रंथ, अथवा चरित्रनो प्रारंभ करतां पहलां मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध, अने प्रयोजन एम चार वस्तुप्रो अवश्य बताववी जोइये, एवी जैन शासन नी प्रणालिका छे ते मुजब अहियां पररंग चार वस्तुनो बतावी छे । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) 'श्रेयांसि बहु विध्नानि'- हमेशां शुभ कार्यो विध्नोथी भरेलां होय छे, एटलेज महापुरुषो कोई पण शुभ कार्य करतां पहेलां पोत पोताना इष्टदेव ने नमस्कार करवा रूप मंगल नो प्रारंभ करे छे, इष्टदेव ने नमस्कार रूप मंगल विध्न नो नाश करवा समर्थ बने छे तेम अहियां पण इष्टदेव ने नमस्कार करवा रूप मंगलाचरण कयुं छे. जैन शासन मां इष्टदेव तरीके अरिहंत भगवंतो अने सिद्ध भगवंतो एम बे गणाय छे, तेमां पण जैन शासन नी स्थापना करवा द्वारा परम उपकारी तरीके अरिहंत भगवंतो गणाय छे. एवा अरिहंत भगवंतो भूतकाल मां अनंत थई गया. वर्तमान कालमां पांच महाविदेह क्षेत्र मां २० अरिहंत भगवंतो मोक्ष मार्ग नो उपदेश प्रापी विचरी रह्या छे अने भविष्य काल मां परण अनंतानत अरिहंत भगवंतो थशे. ते प्रमाणे या भरत क्षेत्र मां पण भूतकाल मां अनंत अरिहंत भगवंतो थई गया छे अने भविष्यकाल मां पण अनंतानंत अरिहंत भगवंतो थशे, तेम पा अवसर्पिणी काल मां श्री ऋषभदेव प्रभु थी मांडी श्री वर्धमान स्वामी पर्यत (श्री महावीर स्वामी)२४ अरिहंतो भगवन्तो थया छे. शास्त्रकार महाराजानो मां पण कोई एक तीर्थं कर भगवंत नी, कोई पांच तीर्थंकर भगवंतोनी, कोई Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीस तीर्थकर भगवंतो नी, कोई ज्ञान नी अथवा कोई नमस्कार महामंत्र नी एम स्व इच्छा मुजब स्तुति द्वारा मगलाचरण विध्न निवारण माटे करे छे. तेम अहियां ग्रंथकार उपध्याय भगवंते श्री वर्धमान स्वामी नी स्तुति रूप विध्न निवारणार्थे मंगलाचरण कर्यु छे.. श्री वर्धमान स्वामी नी स्तुति करवामां बे हेतुप्रो रहेला छे. प्रथम हेतु तो ए छे. के हालमां श्री वर्धमान स्वामी ना नाम नु जैन शासन चालतु होवाथी तेरो श्री आपणा नजीकना परम उपकारी छे. बीजो हेतु ए छे के महावीर स्वामीना बदले वर्धमान स्वामीनु नाम लेतां भावनी वृद्धि थाय. एम वर्धमान स्वामि नी स्तुति करवामां बे हेतुप्रो रहेला जणाय छे. आ संसार मां मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल सद्गुरुनो योग, जिन वाणीनुश्रवण आदि जैन शासन नी आराधना ने योग्य धर्म सामग्री पामी, योग्य आत्माओ उच्च संस्कार पामी जैन शासन नी आराधना करी सकल कर्म नो क्षय करी मुक्ति पद ने पामे छे परन्तु जैन शासन नी आराधना ने योग्य सामग्री, उच्च संस्कारो अने सम्यक्त्व विरति विगेरे प्राप्त करवामां जैन आगम नो मुख्य फालो होय छे. ते पण जैन आगम वीतराग अने सर्वज्ञ भगवंतोए बतावेल होवा थी निर्दोष होय छे तेथी निर्दोष सिद्धांत वाला एवं विशेषण ग्रहण कर्यु छे. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.) . सामान्य रीते तो शेठ, सार्थवाह, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, देव, देवेन्द्रो, ब्रह्मा, विष्णु, महेश विगेरे सर्वने ऐश्वर्य होय छे वली पा ऐश्वर्य तो संसारना भौक्तिक सुख पूरतु होय छे परन्तु अष्ट प्रतिहार्य अने चौत्रीश अतिशय विगेरे परम ऐश्वर्य - तो अरिहंत भगवंतो ने ज होय छे वली ए ऐश्वर्य जैन शासन ने प्राप्त करवामां परम आलंबन रूप. बने छे माटे परम ऐश्वर्य बाला एवु विशेषण ग्रहण कर्य छे. ......... - . धान्यनी प्राप्ति माटे जेम योग्य भमि, योग्य बीज अने वृष्टि प्रादि योग्य सामग्री नी आवश्यकता होय छे तेम धर्म नी प्राप्ति माटे पण योग्य जीव, अने योग्य धर्म देशना आदि सामग्रीनी पण आवश्यकता होय छे. संसार नी असारता, विषय नी विरागता, कषाय नी महत्ता अने धर्म बीज नुआरोपण पण धर्म देशना द्वाराज थाय छे. तेमां पण तीर्थंकर भगवंतो वचनातिशय तेमज ज्ञानातिशय वाला होवाथी मोक्ष योग्य आत्माप्रोमां जल्दी धर्मन - बीजारोपण करी शके छ माटे ऐश्वर्य थी देदिप्यमान एबु विशेषण ग्रहण कयुं छ.. _ 'पुरुषविश्वासे वचन विश्वासः' अर्थात् पुरुषना विश्वासथी तेमना वचन वड़े विश्वास थाय छे. क्रोध, लोभ, भय अने हास्य ए चार भूठ बोलवामां कारण भूत छे. क्रोध लोभ, भयं अने हास्य ए चारे मोहनीय कर्मना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) बंधना उदये थाय छे. मोहनीय कर्मना नाशथीज ए चारे नाश पामे छे. तीर्थंकर भगवंतो ने मोहनीय कर्म नो नाश थयेल होवाथी ए चारे पण नाश पामी गयेलांज छे. तेथी तीर्थकर भगवंतो ने झूठु बोलवान कोई कारण नथी. एटले तीर्थकर भगवंतो सत्य स्वरूप होवा थी सत्य स्वरुप विशेषण ग्रहण क्युं छे. वांचनार-भणनार वर्ग ने आगम-ग्रथ आदि मां कयो विषय छे ते जाण्या बाद आगमादि वांचवानु-भणवानु मन थाय छे माटे आगमादिना प्रारंभ मांज तेनो विषय बताववो जोइये. तेने अभिधेय कहेवाय छे. तेवीज रीते आ ग्रंथ मां आत्मा ने कर्म सम्बन्धी प्रश्न अने उत्तर आपवामां पावेल छे ते या ग्रंथ नो विषय अभिधेय कहेल छ. जैन शासन मां मति कल्पना ने स्थान नथी परन्तु जिनेश्वर देवोना वचनानुसार जे होय तेनेज अहियां स्थान छे. एटले ग्रन्थादिनो सम्बन्ध बताववो जोइये. अहियां ग्रन्थकार 'किञ्चिद्विचारं समूहे' ए शब्द थी ग्रंथ नो सम्बन्ध बतावे छे. हुं कईक विचारू छु.. कइंक शब्द थी संक्षेपमा जणावू छु अर्थात् बीजे स्थले विस्तार थी पूर्वाचार्योए बतावेल छे, तेमांथी हुँ जणावु छु एटले आ ग्रंथ नो सम्बन्ध पूर्वाचार्योए विस्तारथी रचेला मथो नी साथे छे. तेमज हुं मारी मति कल्पनाथी आ प्रथ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) रचतो नथी परन्तु पूर्वाचार्योना वचन ने अनुसारे ज ग्रंथ चु छु एम परण सूचव्यु प्रने 'स्वविदे' शब्द थी पोताना ज्ञान माटे कही पोतानी मोटाई नथी परन्तु पोतानी लघुता पण सूचवी । 'प्रयोजन' एटले ग्रंथ रचवानो हेतु ते प्रयोजन बे प्रकारनु स्व अने पर. ते परण वे प्रकार नु. अनन्तर अने परम्पर. 'स्वविदे' शब्द थी पोतानु अनन्तर प्रयोजन, पोताना ज्ञाननी प्राप्ति. बीजाने परण ज्ञान मले ए पर नु अनन्तर प्रयोजन. स्व अने पर बन्ने नुं परम्पर प्रयोजन मोक्षनी प्राप्ति जाणवु . आस्मा अने कर्म लक्षण C मूलम्: श्रात्मायमार्याः किल की दृशोऽस्ति, नित्यो विभुश्च तन वान रूपी तथा च कर्माणि तु की दृशानि, जड़ानि रूपोरिग चयाचयोनिः २ । गाथाथः- हे पूज्यो ! आ आत्मा खरेखर केवो छे ? आ आत्मा नित्य, व्यापक, चैनन्ययुक्त ने अरूपी छे तेमज कर्मो जड़, रूपी, पूरण गलन स्वभाव वालां छे. विवेचनः - जैन शासन स्याद्वादमय छे. दरेक पदार्थो मां अनेक धर्मो रहेला छे. जेमके एकज स्त्री मां मातृत्व, भगिनीत्व, स्त्रीत्त्व आदि अनेक धर्मो रहेला छे. ते स्त्री Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मां पुत्र नी अपेक्षाए मातृत्व, भाई नी अपेक्षाए भगिनीस्व, स्वामिनी अपेक्षा ए स्त्रीत्व विगेरे अनेक धर्मो रहेला छे. एम दरेक पदार्थ ने अनेक दृष्टि थी विचारी ते पदार्थ मां रहेलां सर्व धर्मो स्वीकारवां, तेनु नाम 'स्याद्वाद' कहेवाय छे.. . . सात नय यने सप्त भंगी द्वारा वस्तुना स्वरूप नो निर्णय करवो ए जैन शासन नो खास सिद्धान्त छे. दरेक वस्तु ने द्रव्य अने पर्याय एम वे होय छे. मूल वस्तु ते द्रव्य कहेवाय छे अने तेनो घाट, आकार आदि पर्याय कहेवाय छे. जेमके सोनु ए मूल द्रव्य छे अने बंगड़ी आदि तेना पर्यायो छे. तेवीज रीते आत्मा ए मूल द्रव्य छे अने मनुष्य भवादि तेना पर्यायो छे. या रीते दरेक पदार्थ मां द्रव्य अने पर्याय नो विचार करवो. या प्रमाणे आत्मा ना द्रव्य अने पर्यायोनी पण विचारणा करवी. दरेक वस्तुने द्रव्य दृष्टिए विचारवी ते द्र व्यास्तिक नय, अने पर्याय दृष्टिए विचारवी ते पर्यायास्तिक नय. द्रव्यास्तिक नय दरेक वस्तु नित्य छे अने पयांयास्तिक नय दरेक वस्तु अनित्य छे. बन्ने नयोनी दृष्टिए दरेक वस्तु नित्यानित्य छे. तेम प्रात्मा परण बन्न नयोनी दृष्टिए नित्यानित्य छे. परन्तु अहियां द्रव्यास्तिक नय नी. दृष्टिए प्रात्मा नित्य कहेल छे. :: विभु' एटले व्यापक, जे पदार्थ जगत मां सर्व जग्याए व्यापी शके ते सर्व व्यापी अने अल्प जग्याए व्यापी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) शके ते देश व्यापी. दरेकसंसारी आत्मा पोत पोताना शरीर मां शरीर प्रमाण मां व्यापी ने रहेलो छे ते देश व्यापी. सिद्ध भगवंतो पोताना अंतिम शरीर ना प्रमाण ना त्रण भाग मांथी बे भाग प्रमारण व्यापी ने सिद्ध शिला ना ऊपर एक योजनना छेल्ला चौवीशमा भाग मां अलोक ने स्पर्शी ने रहे छे ते मुक्त आत्माअोनी द्रष्टिए देश व्यापी अने ज्यारे कोई आत्मा केवली१ समुद्घात करे छे ते समये ते आत्मा चौद राज लोक मां व्यापी जाय छे ते सर्व व्यापी. ए बधी दृष्टिए आत्मा व्यापक जणाय छे. चैतन्य बे प्रकारच्छे . एक आवरण सहित अने बीजुआवरण रहित.बधा कर्मधारी (संसारी)प्रात्माप्रोनु चैतन्य कर्म थी आच्छित होवा थी आवरण सहित १.जे केवली भगवंत ने नाम, गोत्र, अने वेदनीय ए त्रण कर्म नी स्थिति जो पोताना आयुष्य कर्भ नी स्थिति थी अधिक भोगववी बाकी रहे तेम होय तो ते त्रणेय कर्म नी स्थितिओने आयुष्य कर्म नी जेटली स्थिति वाली बनाववा पोताना आत्म प्रदेशोने शरीर बहार काढी पहेले समये लोकना नीचेना छेडा थी ऊपर ना छेड़ा सुधी १४ राज प्रमाण ऊँचौ अने स्वदेह प्रमाण जाड़ो आत्म प्रदेशोनो दंडाकार रची, बीजे समये उत्तर थी दक्षिण (अथवा पूर्व थी पश्चिम) लौकांत सुधी कपाट आकार बनावी, त्रीजे समये पूर्व थी पश्चिम (अथवा उत्तर थी दक्षिण ) बीजो कपाट आकार बनाववाथी मंथान आकार (चार पांखडा वाला रवैया नो आकार )बनावी. चौथे समये अांतरापुरी (ते केवली Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य गणाय छे. अने सिद्ध भगवंतो नुचैतन्य कर्मना आवरण थी रहित होवाथी आवरण रहित चैतन्य गणाय छे. ए दृष्टिए चैतन्य वालो आत्मा होवाथी आत्मा चैतन्य वान कहेवाय छे. ___ वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श वाला पदार्थो रुपी गणाय छे अने वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श रहित वाला पदार्थो अरुपी गणाय छे. आत्मा वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श रहित होवाथी अरूपी कहेवाय छे. कर्म सहित संसारी आत्मा नी अपेक्षाए जीव रुपी गणेल छे. कर्म धारक जीव केवल ज्ञानीग्रो नी दृष्टिए रूपी पणे प्रत्यक्ष होवा छतां निरतिशय ज्ञानीग्रोनी अपेक्षाए अप्रत्यक्ष होवाथी अरूपी कहेल छे. एटले प्रात्मा अरूपी कहेल छे. __ चैतन्य रहित होवाथी को जड़ छे. वर्ण. गंध, रस अने स्पर्श सहित होवाथी रुपी छे अने पूरण अने गलन एटले सड़ण-पड़ण स्वभाव वाला छे. भगवंत ना आत्मा) संपूर्ण लोकाकाशमां व्याप्त थई जाय छे. त्यार बाद पांच मे समये अांतराना प्रात्म प्रदेशो संहरी, छ8 समये मंथान(नी बे पॉख) ना आत्म प्रदेशो प्रहरी, सातमे समये कपाट संहरी, पाठमे समये दंड संहरी पूर्ववत् संपूर्ण देहस्थ थाय ते केवली समुद्घात एमां पूर्वोक्त त्रण कर्मनो प्रबल (उदीरणा द्वारा नहीं पण) अपवर्तना द्वारा घणो विनाश थई जाय छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जीवो नु अनंत पणु अने पृथ्वी प्रादि तेना भेदो मूलम्:जीवाः पृथिव्यादिमसूक्ष्मवद्ध-निगोद भिन्ना हि भवन्त्यमन्ताः । नानाविधाऽवाप्तसजातियोनि-भिन्नाःसमस्ता:किलकेवलीक्ष्याः३ गाथार्थः- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय अने वनस्पतिकाय ए दरेक ना सूक्ष्म अने बादर ए बे प्रकार जाणवा. सूक्ष्म निगोद अने बादर निगोद मां अनत जीवो छे. विविध प्रकार नी जाति अने योनि थी जीवोना भेद पड़े छे. समस्त जीवो केवली भगवंतो थी देखी शकाय छे. विवेचनः- विश्च एटले चौद राजलोक मां जीवो अनंता छे. तेमां सिद्ध भगवंतो ना १५ भेद छे अने संसारी जीवो ना १४ अथवा ५६३ भेद बतावेल छे. ए बधा भेदो मां सर्व जीवो नो समावेश थई जाय छे. जोके सिद्ध थया बाद ते जीवो मां भेद होतो नथी परन्तु सिद्ध थता समये अवस्था आदि नी अपेक्षाए भेद बतावेल छे. ते १५ भेद कहेल छे:(१)जे आत्मायो तीर्थंकर थई ने मोक्षे जाय ते जिन सिद्ध (२)जे आत्माओ तीर्थंकर थया विना सामान्य केवली थई ने मोक्षे जाय ते तीर्थ सिद्ध (३) तीर्थनी स्थापना थया पहेलां मोक्षे जाय ते अतीर्थसिद्ध (४)जे प्रात्मानो तीर्थनी स्थापना थया पहेलां मोक्षे जाय ते अतीर्थ सिद्ध (५) जे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) आत्मानो गृहस्थ ना वेष मां मोक्षे जाय ते गृह लिङ्ग सिद्ध. (६) जे आत्मायो अन्य लिङ्ग ना वेषे मुक्ति जाय छे ते अन्य लिङ्ग सिद्ध(७)जे आत्मायो साधु लिङ्गे मोक्षे जाय ते स्वलिङ्ग सिद्ध (८) जे आत्मायो स्त्री लिङ्ग मोक्षे जाय ते स्त्रिलिङ्ग सिद्ध (६) जे आत्मानो पुरुष लिङ्ग मोक्षे जाय ते पुरुष लिङ्ग सिद्ध.(१०)जे आत्मानो नपुंसक लिङ्ग सिद्धथाय ते नपुसक लिड्ग सिद्ध (११)जे आत्मानो कोई पण निमित्त पामी ने वैराग्य पामे ते प्रत्येक बुद्ध सिद्ध.(१२)जे प्रात्मायो पोतानी मेले बोध पामे ते स्वयं बुद्ध.(१३)जे प्रात्माप्रो बीजा ना उपदेश थी बोध पामे ते बुद्ध बोधित सिद्ध. (१४) एक समय मां एक मोक्षे जाय ते एक सिद्ध.(१५)एक समय मां अनेक आत्मायो मोक्षे जाय ते अनेक सिद्ध. एम सिद्ध ना पंदर भेदो जाणवा. जीव ना चौद भेदो:१ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २ पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३ अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ४ पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ५ अपर्याप्त बे इन्द्रिय, ६ पर्याप्त बेइन्द्रिय, ७ अपर्याप्त तेइन्दिय, ८ पर्याप्त तेइन्द्रिय, ६ अपर्याप्त चउरिन्द्विय, १० पर्याप्त चउरिन्द्रय, ११ अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १२ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १३ अपर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, १४ पर्याप्त संज्ञीय पंचेन्द्रिय. एम जीवना चौद भेदो बाणवा. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जीवों ना ५६३ भेदो:१ रत्न प्रभा २ शर्करा प्रभा ३ वालुका प्रभा ४ पंक प्रभा ५ धूम प्रभा ६ तमः प्रभा ७ तमः तमःप्रभा. ए सात नारकों ना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणताँ नारक जीवों ना १४ भेदो थाय छे. पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय ए चार ना सूक्ष्म अने बादर गणतां आठ भेद अने तेना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां १६ भेद. वनस्पति काय ना प्रत्येक अने साधारण. प्रत्येक ना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां बे भेद. साधारण ना सूक्ष्म अने बादर गणतांबे भेद. तेना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां चार भेद एटले प्रत्येक ना बे भेद अने साधारण ना चार भेद गणतां वनस्पतिकाय ना छः भेद थाय. पूर्वोक्त सोल भेद मां छ: भेद उमेरतां एकेन्द्रियना २२ भेद थाय छे. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय एम विकलेन्द्रिय गणतां पर्याप्त अने अपर्याप्त गणतां विकलेन्द्रिय नो छ: भेद थाय छे. __ पंचेन्द्रिय तिर्यंच ना जलचर, स्थल अने खेचर स्थल चर न। चतुष्पद भुजपति सर्प. अने उर परि सर्प. एम पांचेना गर्भज समूछिम गणतां १० भेद. तेना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां २० भेद. तिर्यच पंचेन्द्रिय ना जाणवा. एकेन्द्रिय ना २२, विगलेन्द्रिय ना छः अने तिर्यंच पंचेन्द्रिय ना २० भेद मेलवतां तिर्यंचना ४८ भेद थाय छे. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) ५१ कर्म भूमिना, ३० अकर्म भूमिना अने ५६ अन्तद्वीप ना मली मनुष्य ना १०१ भेद थाय. तेना गर्भ अपर्याप्त अने पर्याप्त गणतां २०२ भेद अने अपर्याप्त संमूमि ना १०१ गणतां मनुष्यना ३०३ भेद थाय छे. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी ने वैमानिक एम चार भेद देवना थाय. असुर कुमार, नाग कुमार. सुवर्ण कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशिकुमार, पवनकुमार, अने मेघकुमार, एम भवन पति ना दश भेद जाणवा. अंब, अंबरीष, श्याम, शंबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महा काल. असि पत्र, बनकु भी, वालुका, वैतरणी खर स्वर अने महा घोष ए पंदर परमाधामीना भेदो पण भुवन पति ना होवाथी असुरादि १० नी साथै मेलवतां २५ भेद भुवन पति ना जाणवा. पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अने गंधर्व ए आठ व्यंतर ना, भेदो छे. अणपती, परणपनी, इसीवादी, भूतवादी, कंदित, महाकंदित, कोहड़ अने पतंग ए आठ वाण व्यंतर ना भेदो छे. अन्नजृांभक, पानजांभक, वस्त्रांभक, घरजांभक, फलजांभक, पुष्पफलज़ांभक, शयनजांभक, विद्यानृांभक, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अने अवियतज़ांभक ए दश तिर्यंचजांभक देवो ना भेदो छे. आठ ब्यंतर, आठ वाण व्यंतर अने दश तिर्यंचजांभक देवो पण व्यंतर मां गणेल होवाथी सर्व मली २६ भेदो व्यंतर देवो ना थाय छे. सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र अने तारा ए पांचे चर, अने स्थिर गणतां ज्योतिषी ना १० भेदो थाय छे. सुधर्मा, ईशान, सनतकुमार, माहेन्द्र ब्रह्मलोक, लांतर्क, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत ए बार देव लोक ना १२ भेदो थाय छे. पहेला. बीजा अने पांचमा छट्ठा नी नीचे त्रण किल्बीषिकना त्रण भेदो गणवा, सारस्वत, आदित्य, वाहित, अरुण, गर्दतोय, तृषित, अव्याबाध, मरुत, अने अरिष्ट ए नव भेदो लोकांतिक ना जाणवा. सुदर्शन. सुप्रतिबद्ध. मनोरम. सर्वतोभद्रः सुविशाल, सुमनस, सौमनस, प्रियंकर अने नंदिकर ए नव भेदो नव अवेयक ना जाणवा. विजय, विजयंत, जयंत, अपराजित अने सर्वार्थं सिद्ध ए पांच भेदो अनुत्तर विमानो ना जाणवा. बार देवलोकना १२, किल्बीषिकना ३, नव लोकां तिकना ६, नव वेयकना ६, अने पांच अनुत्तर ना मली ३८ भेदो वैमानिक देवो ना जावा. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) भुवन पतिना २५, व्यंतर ना२६, ज्योतिषी ना१० अने वैमानिक ना ३८ मली ६६ भेद चारे प्रकार ना देवो ना थाय छे. तेना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता मलो कुल १६८ भेद देवो ना थाय छे. हवे नारक ना १४ भेद, तिर्यंचना ४८ भेद, मनुष्यना ३०३ भेद अने देवो ना १६८ मली कुल ५६३ भेद सर्व जीवों ना थाय छे. साधारण वनस्पतिकाय ने निगोद पण कहेवाय छे. चौद राज लोक मां असंख्यात निगोद ना गोलाप्रो छे. एकेक गोला मां असंख्यात निगोदो छे अने एकेक निगोद मां अनंत जीवो होय छे. निगोद ना जीवो एकज स्थान मां साथे जन्मे छे, साथेज मृत्यु पामे छे, साथेज आहार अने साथेज श्वासोश्वास ले छे. तेथी तेस्रो साधारण तरीके पण अोलखाय छे. एक शरीर मां अनंत जीबो साथे रेहता होवाथी अनंतकाय पण गणाय छे. तेत्रो एक श्वासोश्वास मां साढा सत्तर भव करे छे. तेप्रोनु आयुष्य २५६ श्रावलिका प्रमाण होय छे असंख्यात समय नी एक प्रावलिका गणाय छे, एटले २५६ प्रावलिका प्रमाण वालु अंतर्मुहूर्त- तेश्रोनु आयुष्य होय छे. अनंत शरीर एकठां थवा छतां चमं चक्षु वाला प्रात्माप्रो ने हमेशा तेरो अदृश्य होय छे. फक्त केवली भगवंतोज तेत्रोने जोई शके छे. तेश्रो चौद राज लोक मां संपूर्ण ठांसी-ठांसी ने भरेला छे. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर, सांधा, गांठा गुप्त होय; भांगतां सरखा भाग थता होय, छेदाया छतां फरीने ऊगी शके ते साधारण वनस्पति काय नुलक्षण जाणवु. ____जीवो करतां कर्मो अनंत कर्माणि तेभ्यों यदनन्तकानि समग्रलोकाम्बरसंस्थितानि । घन किमङ्ग येकतरप्रदेशेऽ यनन्तसङ्घयानि शुभाशुमानि ॥४॥ गाथार्थ:- जीवो करतां कर्मो अनंतां छे. ते कमों समग्र लोकाकाश मां रहेलां छे. अधिक शुं ? जीवना कोई एक आत्म प्रदेश मां पण शुभ अने अशुभ एवां अनंत कर्मो रहेलां छे. विवेचनः- जगत मां जीवो अनंत छे. दरेक जीव ने असंख्यात आत्म प्रदेशो होय छे. फक्त गाय ना अांचल माफक जे आठ रुचक प्रदेशो मध्ये भागे आवेला छे. ते स्थिर होवा थी कर्म रहित छे. ते सिवाय ना दरेक प्रात्म प्रदेशे अनंत अनंत कर्मो रहेलां छे तेथी जीव करतां कर्मो अनंतां छे. ए कर्मों चौद रान रूप समग्र लोकमां संपूर्ण व्यापी में रहेलां छे. मूलम् अनन्तसङ्ख्या:किल कर्मवर्गणा,जीव प्रदेशे पारिकल्प्य एकके शुभाशुमाः केवल दृष्टि दृष्टा मुक्ता प्रमूभ्यः खलु ते हि सिद्धाः५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) गायायः- एकेक जीव प्रदेशे बुद्धि बडे कल्पना करिये तो अनंत शुभ अने अशुभ कर्मो रहेलां छे, ते कर्मो केवल ज्ञानी वड़े जाणी शकाय छे, ए कर्मोथी मुक्त थयेला जीवो सिद्ध कहेवाय छे, विवेचन:- जीवना प्रत्येक प्रात्म प्रदेशे अनंत शुभाशुभ कर्मो रहेलां छे अने एवा आत्मा ना असंख्यात अात्म प्रदेशे असंख्यात अनंत शुभाशुभ कर्मो रहेलां होवा छतां पण आपणे ते कर्मो केम जोई शकता नथी ? एवो प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे. तेना प्रत्युत्तर मां ग्रंथकार श्री जणावे छे के जगतमा रहेला पदार्थो बे प्रकार ना छे. रूपी अने अरूपी. वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श वाला पदार्थो रूपी छे अने वर्ण, गंध, रस, अने स्पर्श वगर ना पदार्थो अरुपी छे. अरूपी पदार्थो तो केवल ज्ञान सिवाय जाणी शकायज नहीः परन्तु रूपी पदार्थों मां पण केटलाकज पदार्थो चर्म चक्षुथीं जोई शकाय छे. केटलाक रूपी पदार्थो पण घणा भेगा थयेला होय त्यारेज चर्म चक्षु थी जोई शकाय छे. परन्तु केटलाक रूपी पदार्थो तो गमे तेटला भेगा थवा छतां पण चर्म चक्षु थी जोई शकाता नथी. दाखला तरीके मनुष्य अने तिर्यंच पशु आदि नां शरीरो चर्म चक्षुथी जोई शकाय छे. बादर पृथ्वी कायादि शरीरो अने बादर निगोद नां शरीरो घणां शरीरो भेगां थाय त्यारेज चर्म चक्षु थी जोई शकाय छे. परन्तु मूक्ष्म पृथ्वीकायादि नां Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) शरीरो अने सूक्ष्म निगोद नां शरीरो घणां भेगां थवा छतां पण चर्मं चक्षुथी जोई शकातां नथी. तेवी रीते कर्मो पण रूपी होवा छतां चर्म चक्षु थी जोई शकातां नथी परन्तु केवल ज्ञान द्वाराज जोई शकाय छे. जीवना असंख्यात आत्म प्रदेशे अनंतां कर्मी लागेल होवा छतां जैन शासन ने पामी सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान अने सम्यक् चारित्र नी आराधना प्रभावना करवा द्वारा आत्मा कर्म थी मुक्त बनी सिद्ध अवस्था पामी शके छे. कर्मों नु समग्र लोकाकाश मां प्रश्रय पणु एटलेज जीवो कर्मों थी आवृत्त मूलम् प्रतस्तु कर्माणि समग्र लोका- काशाश्रितानीह निरन्तरारिण तेनैव जीवा हि मवन्ति कर्मा वृता वसूनीव मृदाविलानि ६ । गाथार्थ- समग्र लोकाकाश मां प्रांतरा रहित कर्मो रहेलां होवाथी सुवर्णं माटी थी आवृत होय तेम जीवो प्रावृत छे. विवेचन. सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म पृथ्वी कायादि अने बादर वायु काय थी समग्र जगत ठांसी ठांसी ने डाबड़ी मां भरेल अंजन नी जेम संपूर्ण भरायेल छे. कर्मो पण जगत मां तेवीज रीते प्रांतरा रहित भरायेल छे. अर्थात् समग्र जगत सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म पृथ्वी कायादि, बादर वायु काय अने कर्मो थी ठांसीं ठांसी ने भरेल होवा थी जेम खान मां सोनुं चारे बाजुथी माटी बी विटायेंल Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) होय छे तेम जीवो पण कर्मों थी चारे बाजू विटायेल छे. . जीव अने कर्मों नो अनादि सम्बन्ध मूलम्कथं विभो ! कर्मण प्रात्मनश्च,योगोऽयमेषोंऽजनि भिन्नजात्योः । अनादिसंसिद्ध इहोच्यते यो, हेनाश्मनोवारणिचित्र भान्योः ।।७ गाथार्थ - हे प्रभु ! भिन्न जाति वाला कर्म अने आत्मा नां या योग केम श्यो ? आ बन्ने नो योग आ लोक मां अनादि काल नो येल कहेवाय छे. जेवी रीते सुवर्णं अने पाषाण नो, अररिण अने अग्नि नो योग थयेल छे तेवी रीते आत्मा अने कर्मनो योग पण अनादि कालथी थयेल छे. विवेचनः-पाँच प्रकार नां शरीर छे. प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मणः वैक्रिय अने औदारिक ए बे शरीरो भव धारणीय होवाथी ज्यारे जीव देव अने नरक गति मां भय छे त्यारे वैक्रिय शरीर नां योग थाय छे अने मनुष्य अने तिर्यंच गति मां जाय छे त्यारे औदारिक शरीर नो योग थाय छे वली वैक्रिय अने पाहारक लब्धि वाला जीव ने ते ते शरीर बनावतां वैक्रिय अने आहारक शरीर नो योग थाय छे. परन्तु तैजस अने कार्मण शरीर नो योग दरेक जीव ने अनादि काल नो होवाथी जीव अने कर्मनो संयोग आत्मा ने अनादि कालनो छे. 'प्रथम जीव अने पछी कर्म' एम मानिये तो शु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) वांधो ? तेना समाधान मां जणाववानुं जे कर्मं रहित जीव ने कर्म केम लागे ? जो कर्म रहित जीवने पण कर्म लागे एम मानिये तो कर्म रहित एवा सिद्ध भगवंतो ने पण कर्म लागवां जोइये. अने कर्म रहित सिद्ध भगवंतो ने कर्म लागतां नथी ए नक्की छे. बीजुं कर्म रहित सिद्ध भगवंतो ने पण फरीने कर्म लागे तो तेमने पण संसार मां फरीने प्रववु पड़े अने तेश्रो संसार मां फरीने कोई काले आवे एवं बन्युं नथी, बनतुं नथी ने बनवानुं पण नथी बीजो प्रश्न ए परण थाय के जो सिद्ध भगवंतो पण फरीभी कर्म बांधी ने संसार मां श्रावता होय तो मोक्ष ना अर्थी एवा आत्मानो कर्म थी मुक्त बवानो प्रयत्न निष्फल जाय माटे प्रथम जीव अने पछी कर्म एम मानवामां बाध कता आवे छे. प्रथम कर्म अने पछी जीव मानिये तो शो दोष ? तेना समाधान मां जणाववानुं जे प्रथम कर्म अने पछी जीव मानिये तो जीव नी उत्पत्ति थया विना कर्त्ता रूप जीव सिवाय कर्म नी उत्पत्ति केम थाय ? कारण के कर्म नो कर्त्ता जीव छे. माटे जीव सिवाय कर्म नी उत्पत्ति थती नथी. एथी प्रथम कर्म अमे पछी जीव ए पण घटतु नथी. मानो के जीव अने कर्म बन्ने नी साथे उत्पत्ति मानिये तो शो वांधो ? तेना समाधान मां पण जरणा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) ववानु के जो कर्म अने जीव नी उत्पत्ति साथे मानिये तो जीव अने कर्म ए बेमां कोण कर्ता ? एम कर्ता अने कर्म नो भेद नष्ट थई जाय अने जीव कर्म बंध पण करी न शकवाथी कर्म बंध नु फल पण जीवने मली शके नहीं, माटे बन्ने नी साथे साथे उत्पत्ति मानवामां पण दोष आवे छे . वली बन्ने नी उत्पत्ति मानवामां बीजो दोष पण आवे छे के एक नियम एवो छे के कारण वगर कार्य उत्पन्न थतु नथी. कारण पण बे प्रकारनां छे. निमित्त कारण अने उपा दान कारण. कदाच निमित्त कारण माँ एक निमित्त कारण . ने बदले बीजो निमित्त कारण चाले परन्तु उपादान कारण वगर चालतु नथी. जेमके घडो बना -ववामां माटी ए उपादान कारण छे अने गवेडो, कुभार, चाकडो विगेरे निमित्त कारण छे. जीव अने कर्म ए बन्ने नु उपादान कारण कोण ? ए प्रश्न थाय ज.माटे ए बन्ने नी उत्पत्ति थती नथी ते सिद्ध थाय छे. जीव एकलो मानिये तो शो दोष ? जीव एकलो मानिये तो ससार मां कोई जीव सुखी, कोई जीव दुखी, कोई रोगी तो कोई निरोगी, कोई राजा तो कोईरंक, कोई बुद्धिहीन तो कोई विद्धान एम जे विचित्रता अने विभिन्नता देखाय छे तेनु कारण शु ? माटे जीव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) साथे कर्म पण रहेलु छे अने कर्मना योगेज प्रा बधी विचित्रता छे, एम निश्वय थाय छे . __जो कर्म एकलु मानिये तो शो दोष ? जो कर्म एकलु मानिये नो जीव बिना कर्म ग्रहण करनार कोण ? वली जीव मात्र मां ज्ञानादि गुणोनो सद्भाव देखाय छे तो जीव बिना ज्ञानादि गुणोनो स्वामी कोण ? माटे जीव पण मानवो जोइये. एटले जीव पण अनादि नो, कर्म पण अनादि नो अने जीवनने कर्म नो संयोग पण अनादि नो छे. एवो जैन शासन नो सिद्धान्त छे ते सत्य छ . जीव अरुपी अने कर्म रूपी ए बन्ने जाति अलग होवा छतां बन्ने नो योग केम थाय ? . प्रत्युत्तर मां जणववानु के सोनु अने पाषाण, अरणी अने अग्नि ए अलग जाति छे छतां जेम बन्ने नो योग थयेलो छ तेम जीव अने कर्म ए वन्ने नी अलग जाति होवा छतां बन्ने नो योग थई शके छे. सोनु तेजवान छे, पाषाण निस्तेज छे' सोनु भारे छे. पाषाण हलको छे. सोनु द्रुत छे, पाषाणबद्ध छे, अने सोनु स्निग्ध अनेपाषाण रूक्ष छे छतां बन्ने नो योग थाय छे . जीव अने कर्म भिन्न जाति वाला होवा छतां बन्ने नो योग थई शके छे ... . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) मूलम् - दूग्धाज्ययोर्वा युगपद्धवोऽस्त्वयं यथा पुनःपावकसूर्यकान्तयोः । सुधासुधाभृच्छिलयोःसहोत्थितः,कतु गुणानामथकर्तृवादिनाम ८ गाथार्थ - दूध अने घीनो, अग्नि अने सूर्य कान्त मणी नो, अमृत अने चन्द्रकान्त मणी नो अने कर्ता ना गुणो नो अने प्राणियोनो योग एक साथे थयेलो छे, तेम जीव अने कर्म नो योग एक साथे थयेलो छे. विवेचन-दूध अने घी नो योग एकसाथेज रहेलो छे. अग्नि अने सूर्यकान्त मणी नो योग एक साथेज रहेलो छे. अमृत अने चंद्रकान्तमणी नो योग एक साथेज रहेलो छे. अने ईश्वर ने कर्ती तरीके माननार ना मते ईश्वर ना गुणो अने प्राणियोनो योग अनादि काल थी एक साथेज रहेलो छे. तेम जीव अने कर्मनो योग पर अनादि काल थी एक साथेज रहेलो छे. सत्व, राजस अने तैजस एम त्रण प्रकार ना गुणो छे. ए त्रणे प्रकृति ना गुणो छे परन्तु आत्मा ना गुणो नही. ईश्वर जगत नो कर्त्ता छे, एम माननार ना सिद्धान्त मां ईश्वर मां निर्गुण पणु अने सगुण पणु एम बे धर्मो मानेला छे. हवे प्रश्न ए थाय छे के जो ईश्वर ने निर्गुण मानवामां आवे तो ईश्वर जगत-कर्ता बनी शकतो नथी. कारण के निर्गुण एवो जगत - कर्ता ईश्वर निष्क्रिय अने निरंजन होवाथी तेना मां सगुरम Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) पर संभवतु नथी. अने सगुणपणा ना प्रभावे ईश्वर मां कर्तृत्व संभवे नहीं, माटे ईश्वर मां निर्गुण परणं संभवतु नथी जो जगत बनाववाना समये सगुणपर अने ते सिवाय ना काल मां निर्गुणपण एम मानवामां आवे तो कर्त्ता तु अनित्यपगु थई जाय. अने जो कर्त्ता अनित्य थई जाय तो जगत बनावी शके नहीं, माटे ईश्वर ने जगत - कर्त्ता माननार ना मते ईश्वर मां सगुणपणु एम बन्ने धर्मो मानेल छे. एटले निरंजन ने निष्क्रिय कर्त्ता मां सगुणपरण अन्दरमानेल छे, माटेकर्त्ता ने गुरगोनो योग पण अनादि कालनो मानेलो छे तेम आत्मा अने कर्म नो योग पण अनादि काल थी मानेल छे. या मत 'जगत नो कर्त्ता ईश्वर छे' एम माननार नो छे हियां तो फक्त जगत कर्तृत्व माननार ने समझाववा माटे दृष्टांत रुपे बतावेल छे . जैन शासनमां ईश्वर राग-द्वेष रहित, निरंजन, निराकार मरणाय छे. सत्त्व, राजस अने तामस ए त्रण गुणो थी मुक्त, अढार दोष रहित ज्ञानादि अनन्त गुणो ना भण्डार अने संसार थी निर्लिप्त होय छे. आवा प्रकार नो ईश्वर कदी पण जगत बनावेज नही. अरे, एवो ईश्वर आवा प्रकार नी उपाधि मां शा माटे पड़े ? एटलेज जैन शासन ईश्वर ने जगत कर्ता तरीके मानतुं नथी. . • Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) जीवो नी कर्मों थी मुक्ति मूलम् - कर्मात्मनोरेवमनादि सिद्धों, योगोऽस्त्ययं केवलिनः समूचुः । अस्यापिभेदोविदितस्तथाविधात् सामग्र ययोगात्कनकाश्मनोरिम गाथार्थ- कर्म अने प्रात्मा नो प्रा योग अनादि सिद्ध छे एम केवल ज्ञानीयो कहे छे . सोनु अने पत्थर नी जेम तेवा प्रकार नी सामग्रीना योगे एनो पण भेद प्रसिद्ध छे . विवेचन- आत्मा अने कर्म नो संयोग बे प्रकारे छे . व्यक्तिगत अने प्रवाह नी अपेक्षाए . व्यक्तिगत रीतिए संसारी प्रात्मा समये – समये आयुष्य छोडी ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय,वेदनीय, मोहनीय नाम, गोत्र अने अंतराय ए सात कर्मो नो बंध करे छे. एटले समये समये अात्मा साथे कर्मनो बंध थाय छे. परन्तु प्रवाह नी अपेक्षाए अात्मा अने कर्मनो संजोग अनादि काल नो छे . जो आत्मा अने कर्मनो संयोग अनादि कालनो छे ते संजोग नो वियोग केवी रीते थाय, ए प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे. तेना प्रत्युत्तर मां जणववानु के सोनु अने पत्थर नो संजोग अनादि काल नो छे परन्तु तेवा प्रकार नी सामग्री ना योगे तेनो वियोग Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) i थाय छे. जेमके माटी थी मिश्रित सोना ने तेवा प्रकार नी सामग्री अने तेवा प्रकारनी तपावणी द्वारा सोनु अने माटी अलग थाय छे तेम ससारी श्रात्मा पण अनादि काल थी आत्मा साथे थयेला कर्मो ना... सम्बन्ध नो मनुष्य भव, प्रार्य क्षेत्र, उत्तम कुल, सद् गुरू नो योग ने धर्म श्रवण आदि सामग्री द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र अने सम्यग् तप द्वारा जैनशासन नी सुन्दरप्राराधना करी नाश करी शके छे अर्थात् अनादि काल नो आत्मा साथे नो सम्बन्ध तोड़ी शके छे T 7 ॥ अथ द्वितीयोऽधिकारः ॥ जीवो नु शुभाशुभ कर्मों नु ग्रहण मूलम्- Z तादृकस्वाभावान्नियतेर्भविष्यत्कालाच्छु नाशोभनभुषित हेतोः । जीवस्तुकरण समाददीत, शुभाशुभानीह पुरः स्थितानि ।।१ गाथार्थ - तेवा प्रकार नो स्वभाव तेवा प्रकार नी नियति, तेवा प्रकार नो काल अने तेवा प्रकार ना सुख दुःख ना भोगना कारण थी जीव मागल रहेला शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे. , Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) .. विवेचन-- जैन शासन कोई पण कार्यं मां स्वभाव, काल , भवितव्यता , कर्म अने उद्यम एम पांच कारणो माने छे . ए पांच कारण विना कोई परंग कार्य थतु नथी. जों के क्वचित् दरेक कार्य मां कोई पण कारण नी मुख्यता अथवा गौणतो होय छे परन्तु दरेक कार्यं मां पांचे कारणो अवश्य होय छे . . सम्यक्त्व नी प्राप्ति मां पांच कारणो केवी रीते कारण भूत बने छे तेअत्रे बराबर समझाववामां आवे छे .............. . . मोक्ष मां जवां माटे अयोग्य ते अभवि अने योग्य ते भवि. अभवि आत्मा कोई पण काले सम्यक्त्व पामी शकतो: नथी परन्तु भवि प्रात्माज सम्यक्त्व पामी शके छे.. एमां भवि प्रात्मा सम्यक्त्व पामे छे तेमां स्वभावज कारण भूत छे . ..... 1. अनंतानंत पुद्गल परावर्तन काल पा संसार मां जीवने परिभ्रमण करतां पसार थई गयो परन्तु ज्यों सुधी भवि प्रात्मा पण छेल्ला एक पुद्गल परावर्तनकाल मां न आवे त्यां सुधी सम्यक्त्व पामी शकतो नथी. ज्यारे छैल्ला पुद्गल परावर्तन काल मां भवि आत्मा पण अवि त्यारेज सम्यक्त्व पामी शके छे. ते समये कालज़ सम्यक्त्व पामवामां कारण भूत छे ... Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) ज्ञानावरणोय कर्म नी उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ा कोड़ी सागरोपमनी, दर्शनावरणीय कर्मनी उत्कृष्ट ३० कोडाकोड़ी सागरोपमनी, वेदनीय कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ा कोड़ी सागरोपमनी, मोहनीय कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा कोड़ी सागरोपमनी, नाम कर्म नी उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ा कोड़ी सागरोपमनी , गोत्र कर्म नी उत्कृष्ट स्थिति २० कोडा कोडी सागरोपमनी अने अन्तराय कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडा कोडी सागरोषमनी एम आयुष्य सिवाय सात कर्मों नी उत्कृ -ष्ट स्थिति खपावीने पल्योपम नो असंख्यात मां भाग न्यून एक कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बाकी रहे . तेने यथा प्रवृत्तिकरण कहेवाय छे , छल्ला एक पुद्गल परावर्तन काल मां आववा छतां पण यथा प्रवृत्तिकरण कर्या वगर कोई पण आत्मा सम्यक्त्व पामी शकतो नथी. परन्तु यथाप्रवृत्ति करण कर्यां पछीज सम्यक्त्व पामी शके छे , तेमां कर्मज सम्यक्त्व पामवामाँ कारण भूत छे . आवु यथा प्रवृत्तिकरण पण आत्मा अनंत वार करे छे, परन्तु यथाप्रवृत्तिकरण करनार बधा आत्माओ सम्यक्त्व पामी शकता नथी. जे आत्मा नी भवितव्यता नी परिपाक स्थिति न थई होय ते भविप्रात्मा पण सम्य क्त्व पामी शकतो नथी. परन्तु जे भवि आत्मा नी भवि Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) तव्यता नो परिपाक स्थिति थई होय तेज आत्मा सम्य क्त्व पामी शके छे. अहियां भवितव्यता नी परिपाक स्थिति मां भवितव्यताज कारण भूत छे. __संसार मां या जीव दरेक प्रकार नी पौद्गालिक वस्तुप्रो प्रत्ये मिथ्यात्व ना योगे राग-द्वेष करतो आव्यो छे. श्रावो राग-द्वेष आत्मा मां दृढ थतो जाय छे. एवा अत्यन्त दृढ थयेला राग-द्वेष ने ज्ञानी भगवंतो राग-द्वेष नी गांठ तरीके वर्णवे छे. ज्यारे प्रात्मा मां कोई पूर्वे नही ग्रावेल एवो जैन तत्वो प्रत्ये नी रुचि जगाडवामां सहायक अने संसार प्रत्ये नी उदा - सीनता रूप भाव प्रगट थाय छे तेने अपूर्वकरण कहेवाय छे अने अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेप नी गांठ तोड़े छे. आत्मा मां रहेल मिथ्यात्व नां दलियां जे उदय मां आवे छे तेने खपाववां अने जे उदय मां नथी पाव्यां ते दबाववां तेनु नाम अनिवृत्तिकरण . छेल्ला एक पुद्गल परावर्तन काल मां अाव्या छतां, यथा प्रवृत्ति करण छतां अने भवितव्यता ना परिपाक थवा छतां पण अपूर्वकरण कर्या वगर भवि अात्मा सम्यवत्व पामी शकतो नथी. परन्तु अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेप नी गांठ नो नाश कर्या पछीज भवि अात्मा सम्यक्त्व पामे छे . अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेष नी गांठ नो नाश करवा मां उद्यम एज कारण भूत छे. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) एम पांचे कारणो मलवाथीज कोई पण कार्य नी उत्पत्ति थाय छे. चौद राज लोक मां सर्वत्र कर्मो रहेलां छे परन्तु ज्यारे जीव मन, वचन अने काया ना योग मां प्रवर्ते छे त्यारे स्वभावादि पांच कारणो ने योगे पोतानी आगल रहेला कर्मो ग्रहण करे छे . मूलम्कर्माणि योगीन्द्र? जड़ानिसन्ति,तानिस्वयंनायितुं क्षमन्ते । प्रात्मातुबुद्धःस्ववमेवजानन्,कर्माण्यशस्तानिकथंहिलाति ।।२।। गाथाथ- हे योगीन्द्र ! कर्मो जड एटले चेतन रहित छे. तेग्रो पोतानी मेले तो जीव नो आश्रय लेवा माटे समर्थ नथी. आत्मा तो ज्ञानी छे एटले जाणतो छतो पोतानी मेलेज अशुभ कर्मों ने शा माटे ग्रहण करे ? विवेचन-- जगत मां पदार्थो बे प्रकार ना छे , चैतन्य वाला अने चैतन्य रहित, ते जड. चैतन्य वालो पदार्थ स्वतन्त्र रीतिये इच्छा मुजब कोई पण प्रवृत्ति करी शके छे परन्तु जड़ पदार्थो स्वतन्त्र रीतिये इच्छा मुजब कोई पण प्रवृत्ति करी शकता नथी. जड़ पदार्थो मां जे प्रवृत्ति देखाय छे तेमां जीव नी अवश्य प्रेरणा होय छे. जीव नी प्रेरणा बिना जड़ पदार्थ थी कई पण प्रवृत्ति थई शके नही. तेथी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) जड़ पदार्थो चेतन एवा जीव नो स्वयं श्राश्रयं लेवाने समर्थ नथी. 6 तमो कहेशो के जड़ एवा कर्मों जीव नो स्वयं आश्रय लेवाने समर्थ न होवा थी जीव नो आश्रय लेता नथी परन्तु जीव स्वयं शुभाशुभ कर्मों ग्रहण करे छे. तमारी मान्यता मुजब जो जीव स्वयं शुभाशुभ कर्मों ग्रहण करे छे तो जीव स्वयं शुभ कर्मो ग्रहण करे ते बाबत तो मानी शकाय परन्तु ज्ञानी एवो आत्मा स्वयं अशुभ कर्मों केम ग्रहण करे ? प्रावो प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे . तेनो प्रत्युत्तर ग्रन्थकार श्री आगल नी गाथा मां आपे छे. मूलम् - को नाम विद्वानशुम हि वस्तु, गृह्णाति मत्वा किलयः स्वतन्त्रः । सत्यं विजानन्नपि भाविकताहक् काल। दिनोदादशुभं हि लाति |३ गाथार्थ - विद्वान् अने स्वतन्त्र एवो आत्मा जाणी ने अशुभ कर्मों ने केम ग्रहण करे ? कर्म ना विपाक ने जाणवा छतां पण भवितव्यता अने कालादि ना प्रेरणा थी अशुभ कर्मो पण जीव ग्रहण करे छे. विवेचन - संसार मां अभयदान प्रने सुपात्र दान विगेरे दानादि अने जिनेश्वर देवना दर्शन-पूजन, भक्ति आदि धर्म क्रिया द्वारा शुभ कर्मों बांधवाथो देव, देवेन्द्र, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) नरेन्द्र, चक्रवर्ती अादि पदवियो, लक्ष्मी, सत्ता, निरो -गता स्वजन मिलन विगेरे शुभ फलो मले छे. अने जीव हिंसा, झूठ, चोरी मैथुन, परिग्रह, विश्वासघात, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, क्लेश, चाड़ी - खावी, कूडू कलंक देवु, रर्ष, शोक, निन्दा करवी, माया-मृषा वाद अने मिथ्यात्व आदि अशुभ कर्मो नो बंध करवाथी नरक गति , तिर्यंच गति , दारिद्रय , दौर्भाग्य , अंधापो , बहेरापणु, लूलापरणु, लंगड़ापरणु पराधीनता, विषकन्यापरणु, बोबड़ापणु, स्वजन-वियोग, कुरूपता, मूर्खपणु विगेरे अशुभ रूपो मले छे, प्रावु जाणनार एवो विद्वान् अने स्वतन्त्र होवा छतां अशुभ कर्मो नो केम ग्रहण करे ? तेना प्रत्युत्तर मां जणाववा नु के विद्वान् अने स्वतन्त्र एवो आत्मा अशुभ कर्मो ना विपाक ने जाणवा छतां पण भवितव्यतादि नी प्रेरणा थी अशुभ कर्मो ग्रहण करेछे. लम्तथाहि कश्चिद् धनवानपीह, खावेद भविष्यन्त्रिपति प्रणुनः। खलं विवोधनपि मोदकादि, स्वादिष्ट वस्तूनियतः स्वयंत्र ।४ गाथार्थ- ते प्रमाणे लाडू आदि स्वादिष्ट वस्तु ना स्वाद ने जाणतो छतो अने स्वतंत्र एवो धनवान पण भवितब्यतादि नी प्रेरणा थी खाल ने पण खाय छे तेम भवितव्यतादिनी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) प्रेरणा थी विद्धान् अने स्वतंत्र एवो जीव पण अशुभ कर्मों ग्रहण करे छे. विवेचन. अहियां ग्रन्थकार श्री गहन वस्तु ने पण दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करतां समझावे छे के जेम मोदक नो स्वाद मीठो अने रस वालो लागे छे अने खाँल नोस्वादफीको अने नीरस लागे छे एम जाणवा छतां पण धनवान मनुष्य खांल ने पण भवितव्यतादि नी प्रेरणा थी खोय छे. तेम विद्वान् अने स्वतंत्र आत्मा पण भवितव्यतादि नी प्रेरणा थी अशुभ कर्मों पण ग्रहण करे छे. मूलम्अनन्य मार्गश्च तथैव कश्चित् स्यानं लिजेष्टं प्रयियासुराशु । शुभाशुमानस्थानभरान्विजानन्, विलंधतेस्वीयपदाप्तिनोदात ५ गाथार्थ-पोताना इष्ट स्थले जल्दी जवानी इच्छा वालो. स्व स्थान नी प्राप्ति नी प्रेरणा थी शुभाशुभ स्थानो ने जाणतो छतो पण मनुष्य बीजो जवानो मार्ग न होवाथी शुभ मार्ग नु उल्लंघन करी कुत्सित मार्गे जाय छे . विवेचन- दरेक माणसनी इच्छा शुभ एटले सुन्दर, सरल, उपद्रव रहित, भय रहित अने जल्दी पहोची शकाय एवा मार्गे जवानी होय छे, ए स्वाभाविक छे. परन्तु तेवा प्रकार नो मार्ग न मले तो जाणतो छतो पण अशुभ एटले खराब, वांको, उपद्रवो वाला, भव वाला अने लांबा मार्गे पण इच्छित स्थाने जवानी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) उतावल ना कारणे माणस जाय छे. तेम जीव अशुभ कर्मी ग्रहण करवानी इच्छा न होवा छतां पण भवि -तव्यतादि ना योगे अशुभ कर्मो ने ग्रहण करे छे . मूलम्तथाच चौरा:परदारगापि, व्यापारियोदशनिनोद्विजास्तथा। विदन्तएतेहि तथा विधीयतेः, शुभाशुभंकर्म समाचरन्ति ।६। गाथार्थ- चोर लोको, परस्त्री गमन करनारायो व्यापारियो , अन्यदर्शनियो अने ब्राह्मणो पोत पोताना कर्म ना फल ने जाणवा छतां शुभाशुभ कर्म करे छे. विवेचनजेम चोरी करनार जाणे छे के चोरी करवाथी वध, बंधन, कैदनी शिक्षा (सजा) विगेरे फल मले छे. परस्त्रीगामी पण परस्त्रीगमन करवाथी राजदंड वध आदि फल मले छे ते जाणे छे. व्यापारियोपण अनोति, विश्वास घात आदि करवाथी अपयश आदि फल मले छे ते जाणे छे. अन्य दर्शनियो अने ब्राह्मणे पण पोताना कर्म न केवा प्रकार नु शुभाशुभ फल मले छे ते जाणे छे छतां पण भवितव्यतादि ना योगे शुभाशुभ कर्म करे छे. तेम जीव पण जाणवा छतां भवितव्यतादि नी प्रेरणा थी शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे. मूलम्मिक्षुस्तथाबन्दिऋषिश्चमिक्षां स्निग्धचिरूक्षापरिबुध्यभुङ क्ते। शूरस्तथा युद्धगतोऽवगच्छन्, शत्रून शत्रूश्च निहन्ति रोधे।७। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) गाथार्थ- भिक्षु, बन्दी अने ऋषि स्निग्ध अने रूक्ष भिक्षा जाणवा छतां खाय छे. युद्ध मां गयेल शूरवीर जाणता छतां पण शत्रु अने मित्र ने हणे छे . विवेचन- भिक्षु अने बन्दी एटले भाट, चारण आ आहार रस वालो अने प्रा आहार नीरस छे एम जाणवा छतां पण परतन्त्रता ना योगे बन्ने प्रकार ना आहार ने खाय छे. ऋषि पण रसवाला अने नीरस आहार ने जाणवा छतां सम भावना योगे बन्ने बन्ने प्रकार ना आहार ने खाय छे अने लड़ाई मां गयेल शूरवीर पण श्रा मित्र छे, अने पा शत्रु छे एम जाणवा छतां पण सेनापति नी आज्ञा नी परवशता ना कारगे बन्ने ने हो छे. तेम जाणवा छतां पण जीव भवितव्यता ना योगे शुभाशुभ बन्ने कर्मो ग्रहण करे छे . मूलम्रोगी यथा वा निजरोग शान्ति-मिच्छत्रपथ्यं ह्यपि सेवतेऽसौ। रोगाभिभूतत्ववशादपायं. जानन्त्वयाविन पात्मगामिनम् । गाथार्थ- पोताना रोग नी शान्ति नी इच्छा वालो रोगी कुपथ्य ना योगे थता कष्ट ने जाणवा छतां पण रोग नी परवशता थी कुपथ्य ने खाय छे . विवेचन रोगी ने पोतानो रोग जल्दी नाश पामे एवी इच्छा अवश्य होय छे अने शरीर ने प्रतिकूल खोराक लेंवा थी रोग नी वृद्धि थांय छे एम जाणवा छतां Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण रोग ना पर वशपण थी प्रकृति वश बनी कुपथ्य नु सेवन करे छे. तेम जीव सुख नो अभिलाषी होवा छतां अने अशुभ कर्म नुपण दुःख होय छे एम जाणवा छतां पण भवितव्यतादि ना योगे जीव अशुभ कर्मो पण ग्रहण करे छे . ज्ञान विना पण जीवों नु कर्म ग्रहण मूलम्एवं हि कर्माण्य सुमान् विलाति शुभाशुभानि प्रविदन्नवश्यम् । जीवस्यकर्म ग्रहणेस्वभावो, ज्ञानं विनाऽप्यस्तिनिदर्शनंयत् ।। गाथार्थ- ए प्रमाणे जाणतो छतो पण जीव अवश्य शुभाशुभ कर्मो ने ग्रहण करे छे. ज्ञान विना पण कर्म ग्रहण मां जीवनो स्वभाव कारण भूत छे ते दृष्टान्त थी बतावाशे . . विवेचन नागमो मां पांच प्रकार नां शरीर बतावेल छे. औदारिक, वैक्रिय, आहारक तैजस अने कार्मण. मनुष्य अने तिर्यच नो जे शरीर देखाय छे ते औदारिक देव अने नारको नु शरीर ते बैक्रिय. वैक्रिय शरीर ना पण बे भेद-मूल बैक्रिय शरीर अने उत्तर वैक्रिय शरीर. देवप्रने नारको नां भव धारणीय जे शरीर ते मूल वैक्रिय शरीर अने तेश्रो कारणवशात् जे नवु शरीर बनावे ते, बिक्रिय लब्धिधारक मनुष्य अने तिर्यचो वैक्रिय लब्धि द्वारा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) जे वैक्रिय शरीर बनावे ते अने वायु काय जे वैक्रिय शरीर बनावे ते उत्तर वैक्रिय शरीर. चौद पूर्वियो ज्यारे पोताने जैन तत्व सम्बन्धी कोई पण प्रकार नो संशय थाय त्यारे तेना निवारण माटे अथवा समवसरण आदि नी ऋद्धि जोवा माटे जे एक चूड़ा हाथ प्रमाण आहारक लब्धि द्वारा जे शरीर बनावे ते आहारक शरीर. शरीर मां रहेली जे गरमी के आहार पचाववामां उपयोगी बने छे ते तैजस शरीर. अने जेना द्वारा जीव कर्म ग्रहण करे छे ते कार्मण शरीर . औदारिक अने वैक्रिय शरीर ते ते भव पूरताज होय छे. उत्तर वैक्रिय अने आहारक शरीर कारण वशात् बनावे त्यारेज होय छे. तैजस अने कार्मण शरीर आत्मा नी साथे अनादि काल थी रहेलांज छे. ए बन्ने शरीरो प्रात्मा ज्यारे कर्म थी मुक्त बने त्यारेज अलग पडे छे . जीव ज्यारे कोई पण प्रवृत्ति वारंवार करे छे त्यारे ते प्रवृत्ति ना योगे वारंवार तेवा संस्कार पड़वाथी ते प्रवृत्ति जीवना स्वभाव रूप बनी जाय छे . तेम अही पणे संसारी आत्मा अनादि काल थी संसार मां राग-द्वेष ना योगे कार्मण शरीर ना कारणे कर्म बंध करे छे . कर्म ना बंध योगे संसार मां जन्म, जीवन अने मृत्यु रूप भव करवा पडे छे. वली कर्म बंध करे छे अने वली पाछा भवो करे छे . आम कर्म बंध नी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) परंपरा अनादि काल थी आत्मा नी चालू होवाथी आत्मानो कार्मण शरीर ना योगे कर्म ग्रहण करवानो स्वभाव थई गयो छे. कार्मण शरीर ना योगेज श्रात्मा संसारी छे अने कर्म ना वियोगे आत्मा परमात्मा बने छे. माटे जाणतां छतां पण जीव शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे. तेमां जीवनो कर्मग्रहण नो स्वभावज कारण भूत छे. कर्म ग्रहण मां जीवनो तेवा प्रकार नो स्वभाव होवाथी ज्ञान विना पण जीव शुभाशुभ कर्म ग्रहण करे छे ते दृष्टांत द्वारा आगलनी गाथाओ मां बराबर समझावाशे. मूलम् - यथैवलोके किल चुम्बकोऽप्ययं, संयोजकैर्योजितमंजसा भृशम् । सारंमतथाऽसारमयोऽविचारितं गृह्णातियेनाव्यवधान भात्मन् । गाथार्थ- जेम लोकमां लोहचुम्बक मूकनार वड़े प्रांतरा रहित मूकायेल लोह चुम्बक नाम नो पत्थर सार वस्तु अथवा असार वस्तु ने विचार कर्या वगर जल्दी निरंतर ग्रहण करे छे. विवेचन लोहचुम्बक नामना पत्थर ने कई वस्तु सारी छे ने कई वस्तु खराब छे तेनुं ज्ञान होतु नथी. छतां पण जो कोई माणस लोहचुम्बक नामना पत्थर ने सारी अथवा खोटी वस्तु नी नजीक मूके तो लोह चुम्बक नो ते बस्तु ने ग्रहण करवानो स्वभाव होवाथी ते सारी अथवा खोटी वस्तु ने पोतानी तरफ खेचे छे. तेम ज्ञान विना Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) परण जीव कर्म ग्रहरण करवानो तेनो स्वभाव होवाथी शुभा शुभ कर्मो ग्रहण करे छे. मूलम् कालात्मभावादिनियोजिता न्यहो, स्वभावशक्तेश्चशुभाशुमानियत् कर्मारिणसामीप्यसमाश्रितान्ययमात्माऽपि गृह्णातितथाऽविचारितम् गाथार्थ - विचार विना परण जीव काल, स्वभाव अने भवितव्यतादिनी प्रेरणा थी पोताना कर्म ग्रहण करवाना स्वभाव नी शक्ति थी नजीक मां रहेल शुभाशुभ कर्मोग्रहरण करे छे. विवेचन स्वभाव, काल, कर्म, भवितव्यता ने उद्यम ए पांचे कारण मलवा थी कार्य नी उत्पत्ति थाय छे. कोई वखत कोई कारण, तो कोई वखत बीजो कारण मुख्य होय छे. परन्तु बीजां चारे कारणो गौण पणे प्रव श्य होय छे. जीवद्वारा विचार विना पण शुभाशुभ कर्मों ग्रहण करवामां बीजां काल, कर्म, भवितव्यता ने उद्यम ए कारणो नी साथे जीव नो कर्म ग्रहण करवानो स्वभाव मुख्य कारण रूप छे. ॥ अथ तृतीयोऽधिकारः ॥ जीव नुं इन्द्रिय अने हाथ विना परण कर्म ग्रहण मूलम् स्वामिशनाकारतया हि जीवों, निरिन्द्रियः केन च लातिकर्म । निरीक्ष्य पूर्व तत श्रात्मलेय, पाण्यादिना न्यावदते पुमांसः | १| Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) गाथार्थ- हे स्वामि, इन्द्रिय अने प्राकार रहित एवो जीव कया कारण थी कर्म ग्रहण करे ? कारण के लोक पण लेवा योग्य वस्तु प्रथम जोई ने पछी हाथ आदि वडे ग्रहण करे छे. विवेचन- जगत ना जीवो नो स्वभाव एवो छे के तेम नी दृष्टि हमेशा प्रत्यक्ष प्रमाण थी जोवा ने टेवायेली छे. तेमां पण संसार व्यवहार मां जे रीते जोवाने टेवायेल होय ते प्रमाणे जीवो जुए छे अने तेनी विरुद्ध ज्यारे कोई पण बाबत आवे एटले शंका पैदा थाय ते स्वाभाविक छे. अहियां पण तेज बाबत बतावे छे के माणस कोई पण वस्तु लेवी होय त्यारे लेवा योग्य वस्तु प्रथम प्रांख थी जुए छे अने पछी हाथ वड़े ग्रहणकरे छे. परन्तु प्रात्मा ने इन्द्रिय नथी अने हाथपण नथी. तो इन्द्रिय बिना आत्मा जोई पण शकतो नथी. एवो प्रश्न जिज्ञासु ने थाय ते स्वाभाविक छे तेनो उत्तर आगल नी गाथामां जणावाशो मूलम्प्रात्मातुनेहक घटतेनचैतत् सत्यं विनाऽपीन्द्रियतोऽप्य यात्मा । भाव्याश्रितं कर्म समाददीत,शक्तेःस्वभावत् चऋणुस्वरुपं ।।२ गाथार्थ- आत्मा तेवा स्वरुप वालो नथी एटले ते वस्तु घटी शकती नथी. ते वस्तु सत्यछे परन्तु इन्द्रिय विना पण आत्मा भविष्य काल मां तेवा प्रकार नु कर्म भोगववानुहोवाथी तथा तेवाप्रकारनी शक्तिना स्वभाव Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) थी कर्म ग्रहण करे छे, तेनु स्वरूप सांभलो. विवेचन-व्यवहार मां कोई पण वस्तु ग्रहण करवी "होय त्यारे प्रथम चक्षु द्वारा ते वस्तु जीव जुए छे अने पछी ते वस्तु हाथ वड़े ग्रहण करे छे परन्तु आत्मा तो इन्द्रिय अने हाथ रहित छे तो कर्म ने जोई पण शके नहीं अने ग्रहण पण करो शके नहीं, एटले अात्मा कर्म ग्रहण केम करे ? अानो ग्रंथकार श्री प्रत्युत्तर प्रापतां जणावे छे के अात्मानु स्वरूप बे प्रकार नुछे-शुद्ध चैतन्य मय अने अशुद्ध चैतन्य मय. आठ कर्मों नो नाश थया बाद अनन्त ज्ञानमय अनन्त दर्शनमय, अनंत चारित्र मय अने अनन्त वीर्य मय एवु कर्म रूप उपाधि रहित शुद्ध चैतन्य मय अने अनादि काल थी कार्मण शरीर ना योगे आत्मा ना असंख्यात प्रात्म प्रदेशे (अाठ नाणी स्थाने रहेला आत्म प्रदेशो छोडी) अनंत कर्म वर्गणाथी पावरायेल आत्मा नु अशुद्ध चैतन्य मय. औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मण ए पांच शरीरो मां थी कोई पण शरीर आत्मा नी साथे होय या न होय परन्तु कार्मण शरीर ना योगेज आत्मा कर्म ग्रहण करे छे. एटले इन्द्रिय अने हाथ होय या न होय परन्तु इन्द्रिय अने हाथ विना पण कार्मण शरीर ना योगे भविष्य काल मां तेवा प्रकार ना कर्म भोगववाना कारणे तथा संसारी आत्मानो कर्म ग्रहण करवाना स्वभाव ना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) होवा थी आत्मा कर्म ग्रहण करे छे. मूलम्यथेन्द्रियाक्कार विजिलोऽयं, कशृिणोत्येव निजाङ्गिजापम् भक्त निरीक्ष्याऽथविलातिपूजा,पारिणविनायोद्धरतीहमक्तान् ।३ गाथार्थ-इन्द्रिय अने आकार रहित जगत् कर्ता परमेश्वर पोताना भक्त ना जाप ने सांभले छे, भक्त ने जोई पूजा ग्रहण करे छे अने अहियां एटले संसार मां हाथ विना भक्तो नो उद्धार पण करे छे. विवेचन- जैन सिद्धान्त मुजब जड़ अने चैतन्य रूप आ जगत ईश्वरे बनाव्यु नथी परन्तु स्वभावेज जगत अनादि काल थी छे. सुख अने दुःख पण ईश्वर आपतो नथी परन्तु जीव पोते उपार्ज़न करेल शुभाशुभ कर्मो ना उदये सुख-दुःख पामे छे. निरंजन, वीतराग अने संसार थी मुक्त बनेल ईश्वर ने जगत बनाववानु कोई प्रयोज़नपण नथी, माटे जगत नो कर्ता ईश्वर नथी. प्रावी जैन शासन नी मान्यता छे. परन्तु जगत मां एक एवी मान्यता पण प्रवर्ते छे के पा जगत ब्रह्मा बनावे छे, विष्णु जगतनु रक्षण करेछे अने महादेव जगतनो नाश करे छे. एवी मान्यता वाला एटले ईश्वर ने जगत-कर्ता तरीके माननार ने ग्रंथकार श्री प्रत्युत्तर प्रापे के के इन्द्रिय अने हाथ रहित एवो ईश्वर जेम कान वगर भक्तोना जाप ने सांभले छे, चक्षु वगर भक्त ने जोई Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) ने हाथ विना पण पूजा ग्रहण करे छे, अने हाथ विना पण जगत ना जीवो नो उद्धार करे छे, तेम इन्द्रिय अने हाथ विना आत्मा नी कर्म ग्रहण करवानी शक्ति ना योगे जीव कर्म ग्रहण करे छे. मूलम्पापं हरत्याशु कृतस्वकर्य-दनन्तशक्तेः सहजात्तथाऽऽत्या । लोके यथावा गुड़को रसस्य,सिद्धो निरक्षेन्द्रिय पारिणमुक्तिः । ४ गाथार्थ-जेम ईश्वर पोताना भक्तो ना पापो ने पोतानी स्वाभाविक अनंत शक्ति थी दूर करे छे अथवा जेम लोक मां इन्द्रिय अने हाथ रहित एवी अचेतन गोली तेवा प्रकारनी औषधि थी संस्कार पामेल होवाथी पारा ना रसने ग्रहण करे छे, तेम इन्द्रिय अने हाथ रहित एवो आत्मा पोताना तेवा प्रकार ना स्वभावथी कर्म ग्रहण करे छे. विवेचन- हवे तेज वस्तूने दृष्टांत द्वारा दृढ करतां जणावे छे के जेम इन्द्रिय अने हाथ वगर पण आत्मा पोताना कर्म ग्रहण करवाना स्वभाव ना लीधे शुभाशुभ कर्मो पण ग्रहण करे छे. चेतन वस्तु नु दृष्टांत प्राप्या बाद हवे तेज वस्तु ने अचेतन वस्तुनु दृष्टांत आपी दृढ़ करता जरणावे छे के अचेतन एवी गोली इन्द्रियादि नहीं होवा छतां पण ते प्रकारनी औषधि थी संस्कार पामेल होवाना कारणे Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) पारा ना रस ने ग्रहण करे छे. तेम इन्द्रियादि रहित एवो प्रात्मा पण तेवा प्रकार ना कर्म ग्रहण करवाना पोताना स्वभाव ना लीधे शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे. मूलम्दुग्धादि पुनीर शोषी सशब्दवेधी बल शुक्रदश्च । सूतोऽपिचैतत्कुरुतेनिरक्षोजीमस्तुशक्तोनकरोतिकिकिम् ५। गाथार्थ-अचेतन एवो पारो पण दुध आदि पिये छे. तरवाना रस नु शोषण करे छे, लक्ष्य नो वेघ करे छ बल अने वीर्य ने आपे छे, तो शक्ति वालो एवो जिव शु-शुन करे ? अर्थात बधुज करे छे. विवेचन-शक्ति बे प्रकार नी छे-एक सामान्य शक्ति अने बीजी वोग, उत्साह, बल, वीर्य एवी विशिष्ट शक्ति सामान्य शक्ति तो जड़ एवा दरेक पदार्थो मां पण रहेली होय छे. पुद्गल एक समय मां चौद रोज लोक ना एक छेड़ाथी बीजा छेड़ा सुधी जई शके छे. ते सिवाय बीजी पण अनेक शक्तियो पुद्गल मय एवा जड़ पदार्थो मां रहेली होय छे परन्तु ते बधी शक्ति प्रो चेतन द्रव्य वगर प्रगट थई शक्ति नथी. जीव स्वयं पोताना उद्यम द्वारा शक्तियो प्रगट करी शके छे. सामान्य शक्ति वालो अने अचेतन एवो पारो पण दूध आदि नु पान करे छे, तरवाना पाणी नु शोषण करे छे, शब्दानु सारे लक्ष्य नो वेध करवानु सामर्थ्य धरावे छे अने Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) बल-वीर्य प्रापे छे तो अनंत शक्ति वालो प्रात्मा पोताना कर्म ग्रहण करवानी स्वाभाविक शक्तिना लीधे केम कर्मो ग्रहण न करी शके ? अर्थात् जरुर ग्रहण करे छे. मूलम्वनस्पतिनामपिवायथाहृति-र्यत्रालिकेऽर्यादिषुदृष्यतेऽपिच । यद्वाघ किलवस्तुसर्व, सड़गृहनीरस्वयमादितस्यात् ।। ६ गाथार्थ- जेम वनस्पतियो नो आहार नालियेर आदि मां देखाय छे, घणुशु कहिये ? सर्व वस्तु पाणीने संग्रही ने पोता नी मेले भोनी थाय छे. विवेचन- स्वाभाविक शक्ति वस्तु मां केवीरीते रहेल छे, ते ग्रंथकार श्री दृष्टांत द्वारा बतावी ते विषय ने विशेष पुष्ट करे छे. दरेक वनस्पति ना मूलमांज पाणी नु सिंचन थाय छे, परन्तु पाणी नालीयेर मां पण जणाय छे: तो मूल मां सिंचायेल पाणी ने वृक्षना टोच सुधी कोण पहोचाड़े छे ? एटले नक्की थाय छे के वनस्पति पोतानी स्वाभाविक शक्ति थी पाणी ने ग्रहण करी ऊचे टोच सुधी पहोचाड़वानु कामकरे छे. वधारेशु कहिये ? बधी वनस्पतियो एज रीते पाणी ने संग्रही ने पोतेज दरेक वस्तु ने भीनी राखे छे. तेवीज रीते अात्मा पण पोताना कर्म ग्रहण कर वाना स्वभाव ना लीधे कर्म ग्रहण करे छे. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) मूलम् नचेति वाच्यं पय सोऽस्तिशक्ति स्तद्भेदनेयद्व्यभिचारितास्ति । नभेदनं मुद्गशिला सुतद्वत्, धान्येऽम्भसः किकटुकानभेद्या । ७ गाथार्थ- पदार्थ भेदवा मां पाणी नी शक्ति छे एम न कहेवु, कारण के मगशेलिया पत्थर ने पणी भेदी शकतु नथी. जो पाणी धान्यने भेदी शके छे तो कांगडु ने पाणी केम भेदी शकतु नथी ? विवेचन- ग्रहीं वादी शंकाउठावे छे के पदार्थं भेदवामा पाणीनी शक्ति छे परन्तु वनस्पति नी शक्ति नथी, एटले वनस्पतिना मूल मां पाणी सिंचवाथी जे वृक्षना टोच सुधी पाणी जाय छे ते शक्ति पाणी नी छे, वनस्पति नी नथी. एम कहे दोषरूप छे. ते बतावतां तेनो प्रत्युत्तर आपतां ग्रंथकार श्री कहे छे के पदार्थ भेदवामां पाणी नी शक्ति छे तो पाणी मगशेलियो पत्थर ने केम भेदी शकतु नथी. वली वादी कहे छे के मगशेलियो पत्थर कठोर होवा थी पाणी मगशेलिया पत्थर ने भेदी शकतु नथी. तेना पण जवाबमां ग्रंथकार श्री जगावे छे के जो मगशेलियोपत्थर कठोर होवाथी पाणी तेने भेदी शकतु नथी, परन्तु ज्यारे बधां धान्यो ने पाणी भेदी शके छे तो शा माटे कांगड़ ने पाणी भेदी शकतु नथी ? एटले निश्चय थाय छे के पदार्थों ने भेदवानी शक्ति पाणी मां नथी तेथीज वनस्पति ना मूल मां सिचायेल पारणी ने टोच सुधी पहो - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) चाड़वानु काम वनस्पति पोतानी स्वाभाविक शक्ति थी करे छे, पाणी नी शक्ति थी नही. दरेक पदार्थ मां पोता नी स्वाभाविक शक्ति रहेली छे. तेवीजरीते आत्मा पोता नी कर्म ग्रहण करवानी स्वाभाविक शक्ति थी कर्म ग्रहण करे छे. मूलम्सिद्ध तथेदगृहणीयमेव, वस्त्वत्र यस्यास्ति तदेव लाति । किचुम्बकोलोहमयाज्म-यघातूनन्यांश्चगह्णातितथास्वभावात् ८ गाथार्थ- एटलु सिद्ध थयु के जे वस्तु ग्रहण करवा योग्य होय तेज वस्तु ने ग्रहण करे छे. शु लोह चुम्बक तेवा प्रकार ना स्वभाव थी लोढा ने छोड़ी बीजी धातुनो ने ग्रहण करे ? विवेचन- प्रा जगत मां पदार्थो बे प्रकार ना छेचेतन अने अचेतन. बन्न प्रकार ना पदार्थो ने पोत पोता ना स्वभाव अवश्य होय छे. स्वभाव प्रमाणे दरेक पदार्थो काम करेज. ज्ञानादि गुणो मां रमणता करवी ए पात्मा नो स्वभाव छे. सड़ण-पड़ण विध्वंस ए पुद्गल नो स्वभाव छे. शीतलता ए पाणी नो स्वभाव छे. उष्णता ए अग्निनो स्वभाव छे. एम दरेक वस्तुनो पोत पोतानो स्वभाव होय छे स्वभाव सम्बन्धमा प्रश्न होई शकतो नथी. जेमके पाणी शीतल केम ? तो एकज जबाब के ते तेनो स्वभाव छे. दरेक पदार्थ पोताना मूल स्वभाव ने छोड़तो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) नथी, परन्तु पोताना मूल स्वभाव पर प्रावी जाय छे. जेमके पाणी गरम करवा छतां पण पाछु शीतल थई जाय छे. तेम लोह चुम्बक पोताना लोढाना आकर्षण करवाना स्वभाव ना कारणे लोढ़ाने छोडो वीजी धातुप्रो ने ग्रहण करतो नथी. मूलम्अप्येवमात्मापरपुद्गलोत्करान्,विहायगृह्णातिहिकर्मपुद्गलान् । याहक्षयादृक्ष भविष्यदायतिः,तादृक्ष सम्प्रेरणपारवश्यतः ।। गाथार्थ- ए प्रमाणे जेवा प्रकार नो भविष्य काल होय तेवा प्रकार नी प्रेरणा ना वश थी अने प्रात्मा ना ग्रहण ना स्वभाव थी पर पुद्गलो छोड़ी कर्म पुद्गलो ने जीव ग्रहण करे छे. विवेचन चौद राज लोक मां आठ प्रकार नां पुद्गलो रहेला छे अर्थात पुद्गलो नी आठ प्रकार नी जाति छे. जैन पारिभाषिक शब्दो मां जाति ने वर्गणा कहे छ(१) प्रौदारिक वर्गणा (२) वैक्रिय वर्गणा (३) आहारक वर्गणा (४) तैजस वर्गणा (५) श्वासोश्वास वर्गणा (६) भाषा वर्गणा (७) मनः वर्गणा (८) कार्मण वर्गणा. जेना द्वारा औदारिकशरीर बनावीशकायते औदारिकवर्गणाजेना द्वारा वैक्रिय शरीर बनावी शकाय ते वैक्रिय वर्गणा, जेना द्वारा प्राहारक शरीर बनावी शकाय ते आहारक वर्गणा, शरीर मां जे गरमी रहेली ते तैजस शरीर अने एवु Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) तैजस शरीर जेना द्वारा बनेलु छे ते तैजस वर्गणा, जेना द्वारा श्वासोश्वास बनावीशकाय ते श्वासोश्वासवर्गणा जेना द्वारा भाषा-वचन योग बनावाय छे ते भाषा वर्गणा जेना द्वारा मन योग बनावाय छे ते मनः वर्गणा अने जे कार्मण नामनु शरीर जेनाद्वारा बनेलु छे ते कार्मणवर्गणा ___ कार्मण शरीर विना आत्मा पाठे वर्गणाप्रो नां पुद्गलो पण ग्रहण करी शकतो नथी अर्थात् कार्मण शरीर द्वाराज आठे वर्गणा नां पुद्गलो ग्रहण करे छे माटे जेवा प्रकार नो भविष्य काल होय तेवा प्रकार नी प्रेरणा ने वश आत्मा ना कर्म ग्रहण करवाना स्वभाव थी जीव अन्य पुद्गलो ने छोड़ी कर्म पुद्गलो ने ग्रहण करे छे. मूलम्सुप्तोयथावाकिलकश्चिदङ्गभत्. स्वप्नानप्रपश्यनकुरुतेसमा:क्रिया नौइन्द्रियेणैव न तत्रकिञ्चनेन्द्रिय द्वयप्राणमहो प्रवर्तते ।।१०॥ गाथार्थ- जेम कोई निद्राधीन प्राणी स्वप्नो ने जोतो छतो मन वड़े सर्व क्रियानो करे छे. तेमां क्यांय ज्ञानेन्द्रिय अने कर्मेन्द्रिय नु तेज प्रवर्ततु नथी. विवेचन इन्द्रिय विना पण जीवो कर्म ग्रहण करी सके छे ते दृष्टांत द्वारा विशेष पुष्ट करतां जणावे छे के इन्द्रियो ना बे प्रकार छे-एक ज्ञानेन्द्रिय अने बीजी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (70) कर्मेंन्द्रिय स्पर्शेन्द्रियं रसनेन्द्रिय. घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय अने श्रोत्रेन्द्रिय अर्थात् चामड़ी, जीभ, नाक, ग्रांख अने कान ए पांच ज्ञानेन्द्रिय; हाथ पर आदि कर्मेन्द्रिय ज्यारे प्राणी ऊंघतो होय त्यारे ज्ञानेन्द्रिय अने कर्मेन्द्रिय एम बे इन्द्रियो मां थी एक पण इन्द्रिय नी प्रवृति होती नथी. छतां पण प्राणी मन बड़े स्वप्न मां बधी क्रियाओ करे छे. तेम इन्द्रियं विना जीव पण कर्म ग्रहण कॅरी शके छे. मूलम् - T ४. जीवस्तथा कर्मभर हिलाति, स्वप्नों भ्रमोऽयं नतु मैत्रमारव्यः । महत्तमे तस्य फले च दृष्टे, पान, हियत्स्वप्नमयं स्मरत्यहो ११ गाथार्थ- तेवीज रोते जीव कर्म समूह ने ग्रहण करे छे स्वप्न ए भ्रम छे एम न कहेवु कारण के उत्तम स्वप्नोनु फल देखाय छे, स्वप्ननु स्मरण थाय छे एम न केहवु, विवेचन- इन्द्रिय विना पण प्राणी स्वप्न मां बधी क्रियाओ मन थी करे हे तेम इन्द्रिय विनापण जीव कर्म ग्रहण करे छे. ते बाबत मां वादी शंका करतां जगावे छे के दृष्टांत बराबर घटतु नथी कारण के स्वप्न ए तो भ्रम छे. कर्मो नुं फल देखाय छे परन्तु स्वप्नो नुं फल देखातु नथी, माटे स्वप्न ए भ्रम छे. तेनु समाधान करतां ग्रंथकार श्री जगावे छे के स्वप्न ए Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) भ्रम नथी. जेम कर्मों नु फल देखाय छे तेम उत्तम स्वप्नो नुपण फल देखाय छे, माटे स्वप्न ए भ्रम नथी हवे वादी बीजी शंका करे छे के स्वप्नो नु तो स्मरण थाय छे परन्तु कर्मो न तो स्मरण थतु नथी. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानु के बधा स्वप्नोनु स्मरण थतु नथी, परन्तु कोई स्वप्न नु स्मरण थाय छे. मूलम्यथा गहत नहि कर्म स स्मरेत्, न स्मर्यते प्रायश एव दृष्टः । स्वतस्तथाकर्मभरोऽपिचात्तः, कश्चित्समरेत्स्वप्नमिमंयथेक्षितम् कर्मस्मरेत् ज्ञान विशेषतस्तथा, प्रधानसेक्षित एव यद्वत् । स्वप्नो यथार्थः फलतीहनून, तथैव कर्मात्तमिदं कृतार्थम् ।।१३॥ गाथार्थ ग्रहण करेल कर्मनु केम स्मरण थतु नथी ? घणु करीन जोयेल स्वप्नपण जेम स्मरण मां प्रावतु नथी तेम कर्म समूह पण स्मरग मां प्रावतु नथी. जेम कोईक स्वप्ननु स्मरण थायछे तेम ज्ञान विशेष थी कोईक विशिष्ट पुरुष ने कर्म नु स्मरण पण थाय छे. प्रा संसार मां कोई विशिष्ट पुरष ने पावेल स्वप्न फलदायक बनें छे. तेम ग्रहण कराएल कर्म पण फल दायक बने छे, विवेचन वादी शंका करे छे के भले बधा स्वप्नोनु स्मरण न थतु होय परन्तु कोईक स्वप्न नु तो स्मरण Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) थाय छे. परन्तु कर्मो न तो स्मरण थतु नथी. माटे स्वप्न नु दृष्टांत बराबर घटतु नथी. तेना प्रत्युतर मां जणाववानु के जेम कोई स्वप्नों न स्मरण थाय छ तेम ज्ञान विशेष थी विशिष्ट ज्ञानी पुरुषो ने कर्मो नु पण स्मरण थाय छे. माटे दृष्टांत बराबर घटे छे एटले जीव जेम इन्द्रिय विना मन थी बधी क्रियानो करे छे तेम इन्द्रिय विना पण जीव को ग्रहण करे छे मूलम्स्यादङ्गिनः संशय एव नात्र, व्यर्थीमवत्स्वप्न मरस्य जन्तोः । स्वप्नोयथाकेवलिनस्तथः स्ति, कर्मग्रहस्तक्षरणनःशनो यत् ।१४ गाथाथ-जेम प्राणी ने स्वप्नो नो समूह व्यर्थ थाय छे या विषय मां प्राणी ने संशय नथी. तेम केवली भगवंत ने पण जे समये कर्म बंध थाय छे तेज समये कर्म नो नाश पण थाय छे. विवेचन- हजू वादी शंका करे छे के स्वप्न सम्बन्धी आपेल दृष्टांत बराबर घटतु नथी, कारण के प्राणी ने जे स्वप्नो आवे छे ते स्वप्नो नो समूह जागृत थया बाद तरतज नाश पामी जाय छे. या बाबत मां कोई पण प्राणी ने संशय नथी, परन्तु कर्मो तो नाश पामतां नथी. तो जवाब मां जणाववानु के जेम स्वप्नो नो समूह तात्कालिक नाश पामे छे, तेम केवली भगवंतो ने पण जे समये कर्म नो बंध थाय छे तेज समये कर्म Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) नो नाश थाय छे. माटे इन्द्रिय विना पण जीव कर्मो ग्रहण करी शके छे. मूलम्तथानिजात्मन्यपि पश्यतोऽत्र, सम्मील्यचेतः परिकल्प्यसुस्थम् । उत्पत्तिक लादवसानस मा-मात्मासृजेत्कार्मणतंजसाभ्याम् १५ गाथार्थ- तेवीज रीते नू अहीं अांखो खोली ने अने मन स्वस्थ बनावी ने जूए तो ध्यान पावशे के आत्मा उत्पत्ति कालथी मांडी अंत समय सुधी तैजस कार्मण वड़े सृजन करे छे. विवेचन-जीव ज्यारे गर्भ मां आवे छे त्यारे तेने शरीर अने इन्द्रिय अादि होतां नथी तो आहारादि ग्रहण रुप क्रिया केवी रीते करे छे ? या बाबत मां तू अांखो खोली अने मन स्वस्थ करी विचारे तो मालूम पड़शे के उत्पत्ति समय थी मांडी अने अंत समय सुधी जीव जे पाहारादि ग्रहण रूप क्रिया करे छे ते सर्व तैजस अने कार्मण शरीर वड़ेज करे छे. तो जेम इन्द्रिय विना आहारादि जीव ग्रहण करे छे तेवीज रीते इन्द्रिय विना पण जीव कर्म ग्रहण करी शके छे. मूलम्गर्भस्थितः शुक्ररजोन्तरागतो यथोचिताहार विधानतोद्रुतम् । धातू श्वसर्वानपिसर्वथास्वय-मात्माविधत्तेऽत्रविनाक्षवीयंतः १६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) गाथार्थ- गर्भ मां रहेल जीव इन्द्रिय विना स्वयं शुक्र अने रज मां रहेल यथोचित आहार करवाथी र. धातुरो ने सर्व प्रकारे करे छे. विवेचन- तेज प्रकारे दृष्टांत द्वारा तेज वस्तु ने पुष्ट करतां ग्रंथकार श्री फरमावे छे के जीव ज्यारे गर्भ मां रहेल होय त्यारे तेने इन्द्रिय आदि होती नथी छतां पण जीव इन्द्रिय नी शक्ति विना पण पोतानी मेले शुक्र अने रज मां रहेल यथोचित आहार करवा द्वारा सर्व धातुमो ने सर्व प्रकारे पुष्ट बनावे छे तेवीज रीते इन्द्रिय विना पण जीव कर्म ग्रहण करी शके छे. मूलम्गर्मात्कृते जन्पनि सर्वदेव गृह्णन किलाहारमथोपलब्धम् । ततस्ततस्तत्रणा तःस्वयं धत्वःदिसंपाद्यकरोतिपुष्टिम् १७ गाथाथ- गर्भ नो वश थी गर्भ मां हमेशां खरेखर मलेल आहार ने ते ते रूपे परिणमावी ने जीव स्वयं धातुप्रो ने उत्पत्र करीने पुष्टि करे छे. मूलम्तथा हति रोममिरादधद्यकः, खलंपरित्यज्यरसान समाश्रयेत् । पुनःपुनःप्रोज्झतितन्मलंबल'त.दधद्रजःसात्त्विकतामसान्गुणान् सज्ज्ञान विज्ञान कषायकामान् हिताहिता चारविचारविद्याः । रोगान् समाधीश्च दधान एव-मास्तेकथं सक्रिय एषदेहे ।।१६। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) गाथार्थ-या जीव रूवाटों वड़े आहार ने खेंची ने धारण करतो छतो रुक्ष भाग ने छोड़ी ने रसादि ने ग्रहण करे. वली बल पूर्वक मलों ने छोड़े छे. अने फरी राजस, सत्व अने तामस गुणों ने धारण करतो छतो फरी सम्यक् ज्ञान, शिल्प विषयक ज्ञान, कषाय, भोगो हितकारक, अहितकारक, सद्व्यवहार, असद् व्यवहार, विचार, विद्य, रोग अने समाधि धारण करे छे. पावो जीव देह मां केवी रीते क्रिया वालो रहे छ ? मूलम्कि देहमध्येऽस्य करेन्द्रियादिकं, मस्तियेनैव करोतितादृशम् । विवेचन प्राप्यचवस्तुत दृश. प्राप्तवधियति गहेश्वरोयथा । २० गाथार्थ- शु शरीर मध्ये रहेल ा जीव ने हाथ अने इन्द्रियादि होय छे ? के जेथी पहेलां बतावेल आहारादि नु ग्रहण करवु, ऋक्ष भाग न छोडवु अने रसोनु ग्रहण करवु विगेरे पूर्ण काल पर्यंत जीव करे छे अने पछी जेम घर नो मालिक पूर्ण काल घरमां रही ने पछी बहार जाय छे तेम जीव पछी बीजा जन्म मां जाय छे. विवेचन्- संसारी जीवन जीववा माटे प्राण अवश्य धारण करवो पड़े छे प्राण धारण कर्या सिवाय संसारी जीवन जीवी शकायज नही. एटलेज प्राण नो योग ते जन्म अने प्रारण नो वियोग ते मरण कहेवाय छे. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय अने श्रोत्रेन्द्रिय ए पांच इन्द्रिय; मन बल, वचन बल अने कायबल ए त्रण बल अने श्वासोश्वास अने आयुष्य एम दश प्राण गणाय छे, एकेन्द्रिय ने स्पर्शेन्द्रिय, कायबल, श्वासोश्वास अने अयुष्य एम चार प्राण होय छे. बेइन्द्रिय ने रसेन्द्रिय अने वचनबल एम बे अधिक गणतां छः प्राण, तेइन्द्रिय ने घ्राणेन्द्रिय बधतां सात प्राण, चउरिन्द्रिय ने चक्षुरिन्द्रिय वधतां पाठ प्राण, असंसी पंचेन्द्रिय ने श्रोतेन्द्रिय वधतां नव प्राण अने संसी पंचेन्द्रिय ने मान बल वधतां दस पारण जाणवा. __कार्य नी उत्पत्ति कारण वगर थती नथी अर्थात कार्यमां कारण नी आवश्यकता अवश्य होयज. प्राण ए कार्य छ अने पर्याप्ति ए कारण छे. तेथी पर्याप्ति विना प्राण बनी शकताज नथी आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति. इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोश्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति अने मन पर्याप्ति ए छः पर्याप्ति छे एकेन्द्रिय आहार, शरीर, इन्द्रिय अने श्वासोश्वास एम चार; बेइ न्द्रिय तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय अने असंसी पंचेन्द्रिय ने एक भाषा पर्याप्ति वधतां पांच पर्याप्ति अने संसी पंचेन्द्रिय ने मन पर्याप्ति वधतां छ: पर्याप्ति होय छे. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.७) जे जीव स्व योग्य पर्याप्ति पूरी करी मरण पामे ते पर्याप्तो कहेवाय छे परन्तु स्वयोग्य पर्याप्ति पूरी कर्या विना मरण पामे ते पर्याप्तो कहेवाय छे. जीव ज्यारे एक भव मां थी बीजा भव मां जाय छे त्यारे ते भव सम्बन्धी शरीर छोड़ी ने जाय छे. परन्तु तैजस अने कार्मण नाम नां बे शरीर मृत्यु पाम्या बाद बीजा भव मां परण साथे लई जाय छे एटले उत्पत्ति स्थान मां पण तैजस ने कार्मण सिवाय एकपण शरीर होतु नथी अने उत्पत्ति स्थान मां जई प्रथम पर्याप्ति रचवानुं कार्य जीव करे छे. संसारी जीवन जीववा माटे पुद्गलो ना प्रालंबन द्वारा जीव जे शक्ति प्राप्त करे छे ते पर्याप्ति कहेवाय छे आहार पर्याप्ति :- उत्पत्ति स्थान मां रहेल ग्राहार नां पुद्गलो ने ले शक्ति बड़े ग्रहणकरी खल एटले मल प्रादि " रस एटले शरीर रचनादिमां उपयोगी रूपे परिणामा वे तेनु नाम आहार पर्याप्ति. शरीरं पर्याप्ति :- रस योग्य पुद्गलो ने जे शक्ति बड़े सात धातु रूपे शरीर मय बनावे ते शरीर पर्याप्ति. इन्द्रिय पर्याप्ति :- रस रूपे जूदां पड़ेलां पुद्गलो मां थी तेमज सात धातु मय शरीर रूपे रचायेल पुद्गलो मां थी इन्द्रिय योग्य पुगद्लो ग्रहरण करी इन्द्रिय रूपे परिणामाव वानी जे शक्ति तेनुं नाम इन्द्रिय पर्याप्ति. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) श्वासोश्वास पर्याप्ति :- जे शक्ति वडे श्वासोश्वास योग्य पुद्गलो ग्रहण करी श्वासोश्वास रूपे परिणमावे ते श्वासो श्वास पर्याप्ति. भाषा पर्याप्ति :- जेशक्ति वड़े जीवभाषा योग्य पुद्गलो ग्रहण करी भाषा रूपे परिणमावे ते भाषा पर्याप्ति. मनः पर्याप्ति :- जे शक्ति वड़े जीव मन योग्य पुद्गलो ग्रहण करी मन रूपे परिणामावे ते मन पर्याप्ति. गर्भ मां पर्याप्ति अने प्राण विगेरे नी रचवानु कार्य, सत्वादि गुणो नुधारण, सम्यक् ज्ञान प्रादि गुणो, कषाय, भोग, सद्व्यवहारादि, अहित हितादि नु ज्ञान, रोग अने समान्ध नु धारण करवु विगेरे गर्भ काल थी जीवन पर्यत शरीर मां रहेल जीव, इन्द्रिय अने हाथ विना शुनथी करतो ? अर्थात् इन्द्रिय अने हाथ आदि विना पण जीव ऊपर जणावेल सर्व बाबतो करे छे, तेम इन्द्रिय अने हाथ विना पण जीव कर्म ग्रहण करे छे. मूलम्यदीदृशोऽपौद्गलिकोऽप्यमूर्तो निराकृतिः सक्रिय एष जीवः । देहस्यमध्येस्थित एक्सर्व-मङ्ग परिव्याप्य करोतिकत्यम् ।।२१ गाथार्थ- पूर्वे कहेल स्वरूपवालो प्राजीव अपौद्गलिक, अमूर्त, निराकार अने क्रियावालो होवा छतां देहनी अंदर रहेलोज सर्व अंग मां व्यापी ने क्रिया करे छे. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) विवेचन - पुद्गल रहित, अरूपी अने निराकार एवो प्रात्मा जेम तेजस कार्मण शरीर वड़े इन्द्रिय अने हाथ विना पण गर्भ मां सर्व प्रकारनी क्रिया करे छे तेम अपौ दगलिक, अरूपी अने निराकार एवो आत्मा इन्द्रिय अने हाथ विना परण तैजस कार्मण शरीर वड़े कर्मो पण ग्रहण करे छे. म्यूलम्-- द्रव्याणिरूपोरिणगुरुरिणत द्वत्, सूक्ष्मारिणबालाति पुरान्तरासुमान् । कर्माणितत्सूक्ष्मतमामिनोकथं गृह्णात्य यंतैजमकर्मणाङ्गतः । २२ गाथार्थ- तेज प्रमाणे शरीरमा रहेल जीव मोटा रूपी द्रब्यो अने राग द्वेषादि सूक्ष्म द्रव्यो तैजस कार्मरण शरीर वड़े ग्रहण करे छे तो सूक्ष्म एवां कर्मो केम ग्रहण न करे ? विवेचन द्रव्य ना बे प्रकार छे. स्थूल एटले मोटों द्रव्यो जेम के आहार आदि मोटां द्रव्यो जे रूपी द्रव्यो गणाय छे. सूक्ष्म एटले तद्दन नानां द्रव्यो जेमके राग-द्वेष आदि. तेमज कर्मो अादि रूपी द्रव्यो होवा छतां लद्दन नानां द्रव्यो. जीव शरीर मां रहेला मोटां आहारादि रूपी द्रव्यो तेमज राग-द्वोष आदि सूक्ष्म रूपी द्रव्यो तैजस कार्मण शरीर वड़े इन्द्रिय अने हाथ विगेरे विना पण ग्रहण करे छे तो जीव इन्द्रिय अने हाथ आदि विना Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) सूक्ष्म एवां कर्मो पण तैजस कार्मण शरीर बड़े केम ग्रहण न करे ? अर्थात् ग्रहण करेज छे. मूलम्जीवः पुना रूपकरादिवजित, ईदृग्वपूरूपि कथं प्रवर्तयेत् । पाहारपानादिकइन्द्रियार्थ के, शुभाशुभारम्भककर्मरणीह । २३ गाथार्थ- रूप अने होथ रहित एवो जीव रुपी एवा शरीर ने इन्द्रियमाटे आहारादि मां अने शुभ-अशुभ उपार्जन करनार कार्यो मां केम प्रवर्तावे ? विवेचन-जीव शरीर ने इन्द्रियादि माटे आहार-पाणी आदि ग्रहण करवामां अने शुभ-अशुभ कार्यो मां प्रवर्ताये छे ते समये जीव ने रुप- इन्द्रिय-हाथ आदि होतां नथी छतां पण ते इन्द्रियादि माटे अाहार- पाणी मादि ग्रहण करवानी अने शुभाशुभ कार्यो नी प्रवृत्ति माटे शरीर ने प्रवर्तीवे छे तो रुप, इन्द्रिय, हाथ आदि विना पण जीव शुभाशुभ कर्मो केम ग्रहण न करे ? अर्थात् ग्रहण करेज . चेदिन्द्रियः पाणिमुखैरथाङ्ग, सपा:क्रियाः स्युभविनं विनैव । तदासमस्ताःकुणपैरजन्तुकः, क्रियाःक्रियन्तेनकथंकरेन्द्रियः ॥२४ गाथार्थ- जो जीव विना इन्द्रियो, हाथ, मुख आदि अवयवो वड़े सर्व क्रिया थाय तो जीव रहित मड़दांनो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ आदि द्वारा सर्व क्रिया केम न करे ? विवेचन- जीव विना इन्द्रियो अने हाथ, मुख आदि अवयवो बड़े सर्व क्रियानो थाय छे एम मनिये तो शी बावकता ? तेना प्रत्युत्तरं मां जणाववानु जे जो जीव विना इन्द्रियो अने हाथ, मुख आदि अवयवो वड़े सर्व क्रिया थाय तो जीव रहित मुड़दांनो पण हाथ आदि द्वारा सर्व क्रियायो केम न करे ? परन्तु जीव रहित मुड़दांनो हाथ आदि द्वारा सर्व क्रिया करतां नथी तेथी जीव विना इन्द्रियो अने हाथ, मुख आदि अवयवो बड़े सर्वं क्रियानो थती नथी. मूलम् - सिद्ध तशैतादशस्त शस्तं. कर्मात्मनैबक्रियते न चाङ्गः। प्ररूपिणा हस्तितश्चकर्म, सूक्ष्मं करानामनगृह्यते तत् ।। २५ गाथार्थ यात्मा वडेज शुभ अने अशुभ कर्मो-कार्यो कराय छे परन्तु शरीरना अंगो वड़े नहीं, एम सिद्ध थयु तो आत्मा वड़े रुपी अने सूक्ष्म एवु कर्म केम न ग्रहण थाय ? विवेचन-आत्मा वड़ेज शुभ अने अशुभ कार्यो थाय छे परन्तु शरीर ना अवयवो वडे अात्मा विना शुभाशुभ कार्यों थतां नथी एम सिद्ध थयु. तो आत्मा जो शुभाशुभ कार्यो करी शके छे तो आत्मा रुपी अने सूक्ष्म एवु कर्म केम ग्रहण न करी शके ? अर्थात् ग्रहण करी शके छे. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) मूलम्ध्यानीपुनबाह्यगतेन्द्रियविना, करोतिकर्माणि यथेप्सितानियत् । जिह्वांविनाध्यायतिमानसंज,शृणोतितंतश्रवसीऋतेतदा २६ गाथार्थ- ध्यानी एवो जीव बाह्य इन्द्रियो विना इच्छित कर्मों करे छे. जेम जीभ विना मानस जाप जपे छे अने कान विना जाप समये सांभले छे. विवेचन- इन्द्रिय विना पण केटलांक कार्यो थई शके छे ते बताववा माटे ग्रंथकार श्री जणावे के ध्यान मां प्रवृत्त थयेल जीव इन्द्रियो विना पण पोताने इच्छित कार्यो करे छे. दाखला तरीके ध्यानी एवो प्रात्मा जीभ विना पण मानसिक जाप जपे छे अने कान विना पण जाप समये सांभले छे. मूलम्विना जलः पुष्य फलश्चदीपः, सद्भावपूजा सफली करोति । ध्यात्वार्थब्रह्मापिचब्रह्मवादी,नब्रह्मतामेषलभेद्विनाखः । २७ गाथार्थ- जल, पुष्प, फल अने दीपक विना पण ध्यानी पुरुष सद्भाव पूजा ने करे छे . ब्रह्मवादी ब्रह्मनु चिन्त्वन करीने इन्द्रिय विना पण शु ब्रह्म ने नथी मेलवतो ? अर्थात् मेलवे छे. विवेचन ध्यानी पुरुष जल, पुष्प, फल अने दीपक विना पण सद्भाव पूजा करे छे. सद्भाव पूजा मां इन्द्रियो नी आवश्यकता होती नथी, कारण के सद्भाव Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा मन वड़े थाय छे, माटे इन्द्रियो विना पण सद्भाव पूजा थई शके छे. वली ब्रह्मवादी ब्रह्म ने मेलवे छे तेमां पण इन्द्रियोनी जरूर पड़ती नथी, कारण के ब्रह्म ने मेलववा मां ब्रह्म ना ध्यान नी जरूर पड़े छे अर्थात् ब्रह्म ना ध्यान बड़े ब्रह्म मेलवाय, अने ध्यान मन थी थाय छे एटले इन्द्रियो विना पर ब्रह्म वादो शु ब्रह्म ना ध्यान बड़े ब्रह्म ने नथी मेलवतो ? अर्थात् मेलवेज छे मूलम्जीवोऽयमेवकरणैःकरादिभि-दिनैवकर्मारिणसम श्रयत्यलम् । अचिन्त्यशक्त्यानियतिस्वभाव-कालैश्च जात्याच कृतप्रणोदः २८ गाथार्थ- पा जीव भवितव्यता, स्वभाव, काल अने जाति नी प्रेरणा थी अने अचित्य शक्ति वड़े इन्द्रिय अने हाथ विना पण कर्मो ने धारण करे छे. विवेचन-पाटलां दृष्टांतो इन्द्रिय अने हाथ विना पण जीव कर्म ग्रहण करे छे ते बाबत मां बताव्या बाद छेक्टे ग्रंथकार श्री जैन शासन नी मान्यता मुजब केवी रीते इन्द्रिय अने हाथ आदि विना पण कर्मो ग्रहण करे छे ते बतावतां जणावे छे के तैजस कार्मण शरीर वालो पा प्रात्मा तेवा प्रकार नी भवितव्यता, कर्म ग्रहण करवानो स्वभाव, काल पण हेतु रूप होय मनुष्य जन्म आदि जाति नी प्रेरणा अने प्रात्मा नी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोतानी स्वाभाविक अचिन्त्य शक्ति बड़े इन्द्रिय अने, हाथ आदि विना पण कर्मो धारण करी शके छ अर्थात् . कर्मो धारण करे छे. जीव साथे लागेलां कर्मों नु अदृश्य पगु मूलम्कर्माणि जीवैकतरप्रदेशे ऽप्यनन्तसङ्क्यानि भवन्ति चेत्तदा । कथंनदृश्यानिहितानिपिण्ड़ी-भूतानिदृष्ट्यानिगदन्तु कोविदाः२६ गाथार्थ- हे विद्वानो, जो आत्मा ना एकेक प्रदेश मां अनंत कर्मो रहेलां छे तो समूह रूप थयेलां कर्मो दृष्टि वड़े केम देखातां नथी ते कहो.. .... विवेचनः-संसार मां जीव ने घणे भागे प्रत्यक्ष नजरे वस्तु जोवानी आदल छे. अने प्रत्यक्ष देखाय त्यारे वस्तु प्रत्येनी श्रद्धा पैदा थाय छे अने ते वस्तु माने छे तेम अहियां कर्मो नजरे प्रत्यक्ष देखातां नथी, तेथी शंका थाय ते स्वाभाविक छे. तेथी संशय थवा थी पूछे के शास्त्र मां कहेल छे के आत्मा ना असंख्यात प्रदेश छे. नाभि स्थाने रहेला पाठ प्रदेशो छोड़ी दरेक प्रात्म प्रदेशे अनंतानंत कर्मो रहेलां छे. जो आत्मा ना एकेक आत्म प्रदेशे अनंत कर्मो लागेला होय तो कर्मो नो आटलो समूह प्रत्यक्ष नज़रे केम देखातो नथी ? आवो संशय थाय छे, माटे हे पंडितो, तमो तेनो उत्तर आपो तेनो उत्तर आगल नी गाथा मां जणावे छे. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) मूलम्सत्यकतिन् ! सूक्ष्मतमानितानि,पश्यन्तिनोचर्मदृशोहिमादृशाः ज्ञानीतुसज्ज्ञान दृशोभृशोदया-त्पश्येद्यपात्रेव निदर्शनंऋणु ३० गाथार्थ- हे पंडित, तारू कथन सत्यछे. कर्मो अत्यन्त सूक्ष्म होवाथी आपणा जेवा चर्म चक्षु वालोरो कर्मो जोई शकता नथी, परन्तु सम्यग् ज्ञान रूपी दृष्टि वाला ज्ञानी पुरुषो कर्मो ने जोई शके छे. तो दृष्टांत सांभल. विवेचन्न-जैन आगमो मां ज्ञान ना पांच प्रकार बताव्या छे-मतिज्ञान, श्र त ज्ञान, अवधि ज्ञानं, मनः पर्याय ज्ञान अने केवल ज्ञान. ए दरेक नो विषय अलग अलग होय छे. मतिज्ञानी पांच इन्द्रिय अने मन द्वारा पोत पोताना क्षयोपशम प्रमाणे द्रव्य अने पर्यायो जागे छे. तेमां इन्द्रिय अने मन नो विषय पण अलग अलग होय छे. सफेद, लाल, पीलो, लीलो अने कालो ए पांच वर्णों ने चक्षु द्वारा जणाय छे. सुगंध अने दुर्गन्ध ए गंधो नाक द्वारा जणाय छे. तीखो, कड़वो तूरो, खाटो अने मधुर ए पांच रसो जीभ द्वारा जणाय छे. ठंड़ो, गरम, चिकाश वालो, लूखो, हलको, भारे, खरबड़ो अने सुवालो ए पाठ स्पर्शो स्पर्शेन्द्रिय द्वारा जणाय छे. सचित, अचित, अने मिश्र ए त्रण प्रकार ना शब्दो कान द्वारा जणाय छे. दरेक पदार्थो नु चिन्त्वन करवू ते मन द्वारा थाय छे. एटले वर्ण, रस, गंध, स्पर्श Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) श्रत ए पाँचे इन्द्रिय नो विषय छे अने पदार्थ नु चिन्त्वन करवु ते मन नो विषय छे. श्रुतज्ञानी पांचे इन्द्रिय अने मन द्वारा पोत पोताना क्षयोपशम प्रमाणे आगम अथवा सांभलेल पदार्थ नु द्रव्य अने पर्याय थी जाणे छे अवधिज्ञानी अमुक हद सुधी इन्द्रिय अने मन विना रूपी पदार्थ नु प्रत्यक्ष पोत पोताना क्षयोपशम प्रमाणे द्रव्य अने पर्याय थी जाणे छे. मनः पर्यायज्ञानी अढी द्वीप मां रहेल संज्ञी पंचेन्द्रिय ना मनोभावो जागो छे. केवलज्ञानो एकज समय मां त्रिकालवी सर्व द्रव्य अने सर्व पर्यायो ने प्रत्यक्ष जागे छे. चक्षु नो विषय रूपी अने स्थूल पदार्थो जोवानो होवाथी चर्म चक्षु वालानो फक्त रूपी अने स्थूल पदार्थो जोई शके छे परन्तु रूपी होवा छतां सूक्ष्म पदार्थो चर्म चक्षु वालाअो जोई शकता नथी. कर्मो रूपी होवा छतां सूक्ष्म होवाथी चर्म चक्षु वालाप्रो जोई शकता नथी, परन्तु केवल ज्ञानी प्रो कर्मसमूहो सूक्ष्म होवा छतां केवल ज्ञान वड़े जाणी शके छे. मूलम्पात्रेववस्त्रादिषु गन्धपुद्गलाः सौगंध्यदौर्गध्यवतो हिवस्तुनः । ज्ञेयानसा तेन हिपिण्डभावं, गता अपीक्ष्या नयनादिभिस्तु ३१ गाथार्थ-पात्रमा अने वस्त्र आदि माँ सुगंध अने दुर्गन्ध Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) वाला पदार्थो ना गंध वाला पुद्गलो पण प्रांख आदि थी जोवा योग्य नथी. विवचन- प्रत्येक इन्द्रिय नो विषय अलग अलग होय छे. जे इन्द्रिय नो जे विषय होय तेज विषय ने इन्द्रिय थी जाणी शकाय,परन्तु अलग इन्द्रिय नो विषय अलग इन्द्रिय थो जागी शकाय नहीं. नासिकानो विषय गंध जागवानो छे तो सुगंधने दुर्गन्ध नासिकाथी जाणी शकायछे पण सुगन्ध अने दुर्गन्ध अांख आदि थी जोई के जाणी शकाय नहीं जेमके पात्र अने वस्त्र आदि मां सुगन्ध अने दुर्गन्ध मय पदार्थों रहेला सुगन्ध अने दुर्गन्ध नाक थी जाणी शकाय छे परन्तु एकठां थयेल सुगन्ध अने दुर्गन्ध वालाँ पुद्गलो अांख आदि थी जोई के जाणी शकाय नहीं. तेम कर्मोनो समूह परण सूक्ष्म होवा थी चर्म चक्षु थी देखी शकातो नथी. मूलम्ज्ञानेन जानात्ययमेव मेतं, कर्मोच्चयं जीवगतं तु केवली। त(य)थापुन:सिद्धरसान्निपीतं,स्वर्णादिनोतरहशाभिदृश्यते ३२ गाथार्थ- जीव मां रहेल कर्म समूह ने ज्ञान बड़े केवली भगवान जारणे छे. दाखला तरीके औषधि थी सिद्ध थयेल पारा मां रहेलु सोनु अांख बड़े जोई शकातु नथी. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) विवेचन-रूपी अने स्थूल पदार्थों जोवानो अांख नो विषय छे परन्तु रूपी अने सूक्ष्म पदार्थो जोवानो अांख नो विषय नथी एटलेज कर्मों रूपी छतां पण सूक्ष्म होवाना कारणे अांख थी जोई शकातां नथी, परन्तु केवल ज्ञोनी भगवंतो केवल ज्ञान वड़े कर्म ना समूह ने जारणी शके छे. अपने केवल दर्शन वड़े जोई पण शके छे. व्यवहार मां पण औषधि थी सिद्ध थयेल पारा मां रहेलु सोनु प्रांख नो विषय होवा छतां पण अांख थी जोई शकतू नथी परन्तु प्रयोग थी ते पण जोई शकाय छे. यदा तु कश्चिद्रससिद्ध योगी, कर्षेद्यदैतन्ननु तस्य सत्ता। एवंहिकर्माण्यपिजीवगानि, ज्ञानीविजानातिनचापरोऽत्र ॥३३ गाथार्थ- जेम कोई सिद्ध पुरुष पारा ना रस मांथी सोनु बहार खेंची काढे छे त्यारे सोनु तेमां रहेलुछे एम नक्की थाय छे. ए प्रमाणे जीव मां रहेल कर्मो पण ज्ञानी जाणे छे परन्तु बीजो जाणतो नथी. विवेचन-पाराना रस मां रहेलु सोनु औषधि आदि ना कारणे अांख थी देखातु नथी परन्तु कोई सिद्ध पुरुष पाराना रस मां रहेल सोना ने बहार खेंची काढे छे त्यारे सोनु अांख थी देखी शकाय छे. ए प्रमाणे जीव मां रहेल कर्मो ना समूह ने ज्ञानी जाणी शके छे अने जोई शके छ परन्तु बीजो जाणी शकतो नथी अने जोई शकतो नथी. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ॥ अथ चतधिकार र जीव अने कर्म नौसाधार आर्धेय सम्बन्ध मूलम्कर्माणि मूर्तीन्य सुमान मूर्तः, साकत्यनाकृत्य भियुक्तिरेषा । न्याय्या कथ येन हि वस्तुभिन्न नाधारकाधेयकता लमते । १ गाथाथ- कर्मो रूपी छे अने प्रात्मा अरूपी छे . तो साकार अने निराकार नो संयोग न्याययुक्त केवी रीते होय ? अलग जाति वाला नो आधार अने आधेय भाव केवी रोते घटे ? विवेचन-सरखा स्वभाव वाली अने एक जाति वाला वस्तु नो संयोग थाय छे. वस्तु भित्र स्वभाव अने भित्र जाति वाला वस्तु नो संयोग केवी रीते थाय एवो प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे. अहियां परण कर्म रूपी छे अने आत्मा अरूपी छे, कर्म साकार छे अने आत्मा निराकार छे. तो ते बत्र नो संयोग केवी रीते थाय आवो प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे; वली जे वस्तु जेमां समाय ते वस्तु आधार कहेवाय छे. अने जे वस्तु समाय छे ते वस्तु प्राधेय कहेवाय छे. जेम के द्रव्य मां गुण समाय छे. माटे द्रव्य आधार गणाय छे अने गुण प्राधेय गणाय छे. आत्मा द्रब्य छे अने सम्यक् दर्शनादि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) आत्मा ना गुणो छे, माटे आत्मा अने सम्यक् दर्शनादि गुणो नो आधार आधेय भाव घटी शकेछे परन्तु पात्मा अने कर्म ए बबनो आधार प्राधेय केवी रीते घटे ? मूलम्- .. प्राकण्यंतामुत्तरमस्य विज्ञाः !, कर्मस्वभावादथजीवशक्तेः । गुणाश्रयों द्रव्यमितिप्रवादात्, संसारिजीवस्य गुणस्तुकर्म ॥२ गाथार्थ-हे पंडित पुरुषो ! आनो उत्तर सांगलो. कर्म नो स्वभाव अने जीव नी शक्ति थी तेवा प्रकार नो संजोग थाय छे. गुणो नो प्राश्रय द्रव्य छे एवा तार्किक वचन ना अनुसारे संसारी जीव नो कर्म पण गुण छे. विवेचन-आत्मा अनादि काल थी छे तेम कर्म पण अनादि काल थी छे. ते प्रमाणे प्रात्मा ने कर्मो नो संजोग पण अनादि काल थी छे. शुद्ध आत्म द्रव्य ने कर्मो लागतां नथी, परन्तु आत्मा ने कार्मण नाम नु शरीर अनादि कालथी लागेलुछे अने कार्मण शरीर ना योगेज आत्मा मन, वचन अने कायाना योग नी प्रवृति करता नजीक मां रहेल कर्मो ने पोताना तरफ खेंची ले छे अने पछी जीव कर्म बंध करे छे. माटे कर्म ना स्वभाव ना लीधे अने संसारी जीव नी तेवा प्रकार नी शक्ति ना लीधे आत्मा अने कर्म नो संजोग थाय छे. 'गुणाश्रयो द्रव्यम्' ए ताकिको नु वचन छे. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) ए वचनना अनुसारे गुणोना आश्रय भूत द्रव्य छ, अर्थात् गुणो हमेशां द्रव्य माँ रहे छे. तो आत्मा द्रव्य छ तेम कर्म ए पात्मा नी अपेक्षाए गुण पण छे. जेम सम्यग् दर्शनादि अात्मा ना गुणो छ तेम कर्म धारी संसारी आत्मा नो कर्म पण गुण होवा थी आत्मा रूप द्रव्य मां कर्म रूप गुण रही शके छे. माटे ए बत्र नो आधार प्राधेय भाव घटी शके छे. मूलम्यहा हि ये केचन विश्वमेतत्, सकर्तृकं प्राहुरहो ! समस्तम् । कल्पान्तकाले महति प्रवृत्त, भाव्येवलीनं खलुविष्णुनाम्नि ३ गाथार्थ- अथवा केटलाक कहे छ के या सर्व विश्व कर्ता थी थयेलुछ तेरोना मते उत्कृष्ट कल्पांत काल थये छते विष्णु नाम ना कर्त्ता मां लीन थई जशेज. विवेचनजे लोकोनी एवी मान्यता छ के विष्णु प्रा सर्व जगत ने बनावे छे परन्तु ज्यारे उत्कृष्ट कल्पात काल आवे त्यारे ा समग्रे जगत विष्णु मां लीन थई जाय छे. एवी मान्यता वाला ने जवाब आपतां ग्रंथकार जणावे छे के जेम तमारा मत मुजब उत्कृष्ट कल्पांत कालना समये या समग्र विश्व विष्ण मां लीन थई जाय छे, तो जेम ईश्वर मां जगत समाई जवाथी ईश्वर अने जगत नो अाधार प्राधेय भाव घटी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) शके छे, तेम आत्मा अने कर्म नो आधार आधेय भाव घटी शके छे. मूलम् - 1 तदायथा भूतगरणा गुरणाश्च, स्थास्यन्ति लीनाननु कर्तृ नाम्नि । यद्वानभोमूत्तं पिदंगुरोर्लघो- मूंर्त्तस्य चामूत्तिमतोनिरतरम् ४ श्रर्थस्य सर्वस्ययथा विचक्षरणा, श्राधारमाख्यन्नविनश्वरं महत् । कथं तथात्मैष न रूपवानपि रूपीणि सर्वारिंग वहत्यनारतम् ५ गाथार्थ- ते समये जेम भूत पदार्थो अने तेना गुणो जगत कर्त्ता मां लीन थई रहेशे अथवा प्ररूपी एवं आकाश मोटा अने नाना रूपी पदार्थों ने हमेशां धारण करे छे. एटलेज अविनाशी अने मोटु आकाश सर्व पदार्थों नुं आधार भूत कहेलु छे. तो अरूपी एवो आत्मा निरन्तर सर्व रूपी पदार्थों ने केम वहन करे ? विवेचन लौकिक दृष्टि ए पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने आकाश ए पांच भूत पदार्थों तरीके मनाय छे. गंध, रस, स्पर्श आदि भूत पदार्थो ना गुण गणाय छे. तेमज सत्त्व एटले जीव विगेरे पण तेना गुण गरणाय छे एम माननार नाम ते कल्पांत काल समये सर्वे भूत पदार्थों ने तेना गुणो ईश्वर मां समाई जाय छे. अथवा अरूपी एवं प्रकाश हमेशां पृथ्वी, पर्वत आदि मोटी वस्तुप्रो घन, वातादि सूक्ष्म वस्तुप्रो, सर्व Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) रूपी द्रव्यो, सिद्ध, धर्मास्ति काय, अधर्मास्ति काय आदि अरूपी द्रव्यो, तथा धर्मास्ति काय, अधर्मास्ति काय अने पुद्गलास्ति काय विगेरे सर्व द्रव्यो धारण करे छे तो अरूपी एवो आत्मा सर्ब रूपी द्रव्यो ने धारण केम न करे ? अर्थात् करेज, एटले आत्मा अने कर्म नो आधार प्राधेय भाव घटी शके छे. मूलम्मिथ्यात्वदृष्टिभ्रमकर्ममत्सराः, कषायकन्दर्पकलागुणास्त्रयः । क्रिया:समग्राविषयाअनेकधा,किनिषत्तेऽत्रवपुर्गतोऽप्ययम् ६ गाथार्थ- शरीर मां रहेल आत्मा, मिथ्यात्व दृष्टि भ्रान्ति, दोष, कषाय, काम, कला, सत्त्वादि गुणो अने अनेक प्रकार नी समग्रे क्रियानो शुशु धारण नथी करतो ? अर्थात् करेज छे. विवेचन-मिथ्यात्व, द्वेष, कषाय विषय विगेरे मोहनीय कर्म ना भेदो छे. भ्रान्ति ए ज्ञानावरणीय कर्म नो प्रकार छे. कला ए बुद्धि नो विषय छे. सत्त्वादि गुणो पण कर्मनाज प्रकार छे. तेमज कर्मना योगे बीजी अनेक प्रकार नी क्रियानो ए बधु जीवमाँज छे, अर्थात् प्रा बधु जीवे धारण करेल छे, तो आत्मा अने कर्म नो आधार आधेय भाव केम घटी न शके ? अर्थात् जरूर घटी शके छे. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) मूलम्मावोचएतद्धि शरीरजागुरणा, प्रमीयतोऽस्मिन् गतपंचकेघने । दृष्यन्तएतेनहि केचनाश्रिता-स्ततोवपुर्गान गुरणास्तुजीवगाः ७ गाथार्थ- आ बधा गुणो शरीर ना छे, एम न कहेवू कारण के जो शरीर ना गुणो होय तो जीव रहित शरीर मां गुणो केम देखाता नथी ? माटे ए शरीर ना गुणो नथी, परन्तु जीव ना गुणो छे... विवेचन- वादी एम कहे छ के मिथ्यात्व आदि प्रा बधा गुणो जीव ना नथी परन्तु शरीर ना गुणो छे. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववा नु के जो मिथ्यात्वादि आ बधा गुणो शरीर ना मानिये तो बाधकता आवे छे, कारण के जो प्रा बधा गुणो शरीरना मानिये तो मरण बाद शरीर तो होय छे, परन्तु शरीर ना गणोता आ बधा गुणो देखाता केम नथी ? तेनु कारण शु ? माटे आ बधा गुणो शरीर ना नथी परन्तु आ बधा गुणो संसारी जीव ना छे. मूलम्संदृश्यमानं पुनरीदृशं वपु-रदृश्य एवैष मवि दधाति चेत् । अरुपिरुपिद्वयसंगमो ह्यसौ, विचार्यमारणःकुरुते न कौतुकम् । गाथार्थ-जो अदृश्यमान एवो जीव दृश्यमान एवा शरीर ने धारण करे छे तो अरूपी अने रूपी ए युगल Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) नो संगम विचार तां शुं कौतुक न करे ? अर्थात् कौतुक करेज. विवेचन- ग्रहियां एक एवी शंका थाय छे के प्रापणे शरीरने देखी शकिये छीये, परन्तु जीव तो देखवामां प्रावतो नथी. तथा जीव रूपी छे, अने शरीर अने तेना आश्रित शरीर नी बधी क्रियाओ, स्निग्ध रुक्ष विगेरे शरीरना बधा धर्मो रूपी छे. ग्ररूपी नो स्वभाव अलग छे अने रूपी नो स्वाव अलग छे तो अरूपी ने रूपी बत्र वस्तुप्रो नुं मिलन विचारतां शु कौतुक न करे ? अर्थात् ज़रूर करेज. तेनो प्रत्युत्तर आगल नी गाथामां बतावाय छे. मूलम् कर्पूरग्वि दिकसुष्टुदुष्टु-वस्तुत्थगन्ध। गगनं श्रिता यथा । तिष्ठन्तियावत् स्थिति तद्वदेवमोः कर्माणि जीवपरिवृत्य सन्ति गाथार्थ - कपूर ने हिंग आदि सारी अने खराब वस्तुप्रो ना गंधो जेम प्रकाश ने प्राश्रयि ने रहेला छे, तेम कर्मों परण जीव ने ग्राश्रयी रहेलां छे. विवेचन- ग्ररूपी अने रूपी पदार्थो नो संयोग केम थाय ? प्रावी शंका समाधान करतां ग्रंथकार श्री जणावे छे के कर्पूर आदि सुगंधी पदार्थो ना सुगंधो अने हिंग प्रादि दुर्गंधी पदार्थों ना दुर्गधी रूपी होवा छतां Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) अरूपी एवा आकाश ने प्रश्रयि ने जेम रहेला छे तेम शरीर, तेना गुणो, तेनी क्रिया आदि अने कर्मों रूपी होवा छतां रूपी एवा जीव ने प्रश्रयि केम न रही शंके ? अर्थात् जेम कर्पूरादि पदार्थो ना सुगन्धो अने हिंग आदि पदार्थोना दुर्गन्धो रूपी होवा छतां पण रूपी एवा आकाश ने आश्रयि ने रहेला छे. तेम शरीर तेना गुणो, तेनी क्रियाप्रो आदि अने कर्मों रूपी होवा छतां पण प्ररूपी एवा जीवने प्रश्रयि ने रहेला छे. मूलम् - इत्यादिभिर्हष्ट निदर्शनेनैस्तथा गुणात्मकैः कर्मभिरेषात्मकः । श्राश्रीयतेनिगु कोऽपि निश्चित-मात्माततः कर्मचितोभवो भवेत् गाथार्थ- पूर्वोक्त प्रत्यक्ष दृष्टांतो वड़े आ जीव गुण स्वरुप कर्मों बड़े आश्रय रुप थाय छे, तथा गुणस्वरुप कर्मो वड़े प्रा जीव मुक्त परण थाय छे अर्थात् गुण स्वरुप कर्मो थी रहीत पण थाय छे. विवेचन-उपर बतावेल दृष्टांतो वड़े कर्म परण संसारी आत्मा नो गुण होवा थी बत्र संजोग परण थाय छे. अने बन्न मां आधार प्राधेय भाव पर घटी शके छे. अने ते गुरण रुप कर्मों थी आत्मा मुक्त पण बने छे, एटले सिद्ध परण थाय छे. 05.00.... *** Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) ॥ अथ पंचमोऽअधिकारः ॥ सिद्ध भगवन्तो ने कर्म नु अग्रहण मूलम्चेदा श्रया श्रेयक भाव एवं सिद्धोऽस्ति कर्मात्म कयोरवश्यम् जीवास्तुसिद्धाप्रपिसन्त्यनन्त चतुष्टयेद्धाः परमेष्ठिसंज्ञा(:) १ पच्छामिपूज्या:! खलुहिसिद्धा-त्मानोनकर्माणि समाददन्ते । कथंतदेषामपिसौख्यसत्त्वा-ल्लातांसुकर्माणि निषेधकःकः ? २ गाथार्थ-जो आत्मा अने कर्म नो आधार प्राधेय भाव सिद्ध थयो तो चार अनंत चतुष्टय वाला अने परमेष्ठि एवा सिद्ध भगवंतो केम कर्म ग्रहण न करे ? एमने पण सुख नो भाव होवा थी तेस्रोने शुभ कर्मो ग्रहण करतां कोण रोके ? विवेचन- प्राण बे प्रकार ना छे-द्रव्य प्राण अने भाव प्राण. पांच इन्द्रिय, मन, वचन अने काया न बल, श्वासोश्वास अने आयुष्य ए दश द्रव्य प्राण छे अने अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अने अनंत वीर्य ए चार भाव प्राण छे. संसारी जीव ने द्रव्य प्राण अने भाव प्राण एम बन्न प्रकार ना प्राणो होय छे, परन्तु सिद्ध भगवंतो ने फक्त ए चार भाव प्राणज Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय छे. जो आत्मा अने कर्म नो अाधार प्राधेय भाव सिद्ध थयो तो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत वीर्य ए चार अनंत चतुष्टय वाला अने परमेष्ठि एवा सिद्ध भगवन्तो कर्मो केम ग्रहण करता नथी ? मानो के दुःखनी इच्छा न होवा थी अशुभ कर्मो ग्रहण न करे परन्तु सुखनी तो इच्छा छ तो शुभ कर्मो केम ग्रहण न करे ? अथवा शुभ कर्मो ग्रहण करतां तेमने कोण रोकनार छ ? तेनो उत्तर आगल नी गाथा मां जरगावाशे. मूलम्सत्य यतस्तैजसकामण ख्य-शरीर योगस्य विनाश मावः । सुकर्मणांतेन गृहीत्ययोगा-ज्ज्योतिश्चिदानन्दमरैश्च तृप्त्या: ३ सुखासुख प्रापरण हेतु काल-प्रयोक्त्र नावादथ निष्क्रियत्वात् । यद्वाप्यनन्तानि सुखानितेषां, कर्माणिसान्तानि भवन्त्यमूनि ४ इतीव तत्सौख्यं भास्य कर्म. हेतर्भवेन्नो यदतुल्यमानात् । इत्यादि कहैतुभिरेवसिद्धा-त्मानोनकर्मारिणहिलांति नित्याः ५ गाथार्थ-तारु कहेवु सत्य छे, परन्तु तैजस कार्मण नामना शरीर नो विनाश थवाथी शुभ कर्मोना ग्रहण ना सम्बन्ध नो अभाव छे. ज्योति ज्ञान अने अानन्द ना समूह थी तृप्ति छे. सुख अने दुःख ना हेतु भूतकाल नी प्रेरणा करनार नथी. सिद्धो निष्क्रिय छे. सिद्धोनु Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) सुख अनंत छे ज्यारे कर्मो नुं सुख अंत वालू छे. सिद्धो ना सुखो मां कारण भूत थई शकता नथी. एटलां कारणोथी सिद्धो निश्चय करीने कर्मो ग्रहण करता नथी. विवेचन- सिद्ध भगवंतो कया कया कारणो थी कर्मो ग्रहण करता नथी. ते माटे नीचे नां पांच कारणो बताव्यां छे. ( १ ) संसारी आत्मा तैजस कार्मण नाम ना शरीर द्वारा कर्मो ग्रहण करे छे, कारण के तेने अनादि काल भी तैजस कार्मण नाम नु शरीर लागेल छे. परन्तु सिद्ध भगवंतो ने ग्राठक ना क्षय समयेज तैजस कारण नाम नु शरीर नाश पामेल होवा थी तेश्रो शुभ के अशुभ बत्र मां थी एक पण कर्म ग्रहण करता नथी. ( २ ) माणस जो भूख्यो होय तोज खावा नी इच्छा थाय छे परन्तु जे पूर्णं भोजन करी तृप्त थई गयो होय तेने खावानी इच्छा थती नथी, तेम सिद्ध भगवंतो ज्योति, आत्म ज्ञान ने आत्मानंद थी तृप्त थयेल होवाथी तेमने बीजी पौद्गलिक सुख नी इच्छा थती नथी माटे तेस्रो कर्म ग्रहण करता नथी. ( ३ ) काल, स्वभाव, भवितव्यतादि नी प्ररणा थी पर जीव कर्म ग्रहण करे छे परन्तु सिद्ध भगवंतो ने कालदिनी प्रेरणा परण होती नथी तेथी सिद्ध भगवंतो कर्मो ग्रहण करता नथी. (४) संसारी जीव क्रियावान् Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) होवा थी कर्म ग्रहण करे छे परन्तु सिद्ध भगवंतो क्रिया रहित होवा थी कर्म ग्रहण करता नथी. (५) कर्मो थी प्राप्त थतु सुख अंत वालूछे, ज्यारे सिद्ध भगवंतो नु सुख अनंत छे. तो अनंत सुख प्राप्त थया बाद अंत वाला सुख माटे कोण प्रयत्न करे ? माटे सिद्ध भगवंतो कर्म ग्रहण करता नथी. वली सिद्ध भगवंत ना सुख मां कर्म कारण भूत बनी शकतु नथी. विगेरे कारणो थी सिद्ध भगवंतो कर्म ग्रहण करता नथी. मूलम्लोके यथा क्षुत्त षया विमुक्तात्मानः सुतृप्तस्यन तृप्तिकालं । जितेन्द्रियस्याप्यथयोगिनोऽपि.तुष्टस्यकिचिद्ग्रहणोनवाञ्छा ६ यद्वान पात्रेपग्मिातिकिचित्, पूर्ण तथासिद्धगताहिसिद्धाः । सदा चिदानंदसुधा प्रपूर्णा, ग्रह्णन्ति नो किंचिदपोह कर्म ७ गाथार्थ- जेवी रीते लोक मां भूख अने तरस थी विमुक्त थयेल अने सारी रीते तृप्त थयेल अात्मा ने तृप्तिकाल नी मर्यादा होती नथी. संतोष पामेल अने इन्द्रिय ने जीतनार योगी पुरुष ने कई पण ग्रहण करवानी इच्छा होती नथी. अथवा पूर्ण भरायेल पात्र मां कई पण समाई शकतु नशी. तेवीज रीते हमेशा ज्ञान रूप अमृत अने आनंद अमृत बड़े परिपूर्ण एवा सिद्ध भगवंतो कोई पण कर्म ग्रहण करता नथी. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) विवेचन - मारगस ज्यारे भूख अने तरस थी पीड़ातो होय त्यारेज तेने खावा अने पीवा नी इच्छा थाय छे. परन्तु पूर्ण पेट भरायेल होय त्यारे भूख अने तरस थी मूकायेल मारणस ने खावानी इच्छा थती नथी. तेमज संसारी जीव ने क्षुधा वेदनीय अने पिपासा वेदनीय ना उदयेज भूख अने तरस लागे छे, परन्तु सिद्ध भगवंतो ने वेदनीय कर्म नो नाश थयेल होवाथी तेमने कोई प्रकार नी इच्छा थती नथी. माटे सदा काल तेरो तृप्तज होय छे. संतोषी अने इन्द्रिय जीतनार एवा योगी पुरूष ने कई पण ग्रहण करवानी इच्छा थती नथी. तेवीज़ रीते सिद्ध परमात्मानो ने पण ग्रहण करवोनी इच्छा थती नथी. पूर्ण पात्र मां जेम कई पण अधिक वस्तु समाई शकती नथी तेम ज्ञान रूप अमृत अने आनंद रूप अमृत थी सिद्ध भगवंतो पूर्ण भरेला छे. एवा कारणो थी सिद्ध परमात्मानो कर्म ग्रहण करता नथी. मूलम्तथा च सिद्धेषु सुखं यदस्ति, तद् वेद्य कर्म क्षयजं वदन्ति । तत्कर्म हेतुर्न हि सिद्धसौख्ये, यत्कर्म सान्तं सुखमेधनन्तम् ८ गाथार्थ-सिद्ध भगवंतो ने जे सुख छे ते वेदनीय कर्म ना नाश थी थयेलुछे, तेथी सिद्ध भगवंतो ना सुख मां कर्म Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (52) कारण रूप थई शकतु नथी. कर्म छे ते अंत वालु छे अने सिद्धो ने विषे सुख अनंत छे. विवेचन - संसार मां जे सुख थाय छे ते शाता वेदनीय कर्मं ना उदय थी थाय छे परन्तु सिद्ध भगवंतो ने जे आत्मा नुं अनंत सुख प्राप्त थाय छे ते वेदनीय कर्म नो क्षय थवाथी थाय छे, माटे सिद्ध भगवंतो ना सुख मां कर्म कारण भूत थतु नथी. जीव प्रथम अहिंसा आदि द्वारा शाता वेदनीय कर्म बांधे छे. पछी ते कर्म तो अबाधा काल पूर्ण थये, ते शाता वेदनीय कर्म उदव मां आवे छे अने ते कर्म नी स्थिति पूर्ण थये नाश पामे छे. एटले संसारी आत्मा प्रोने जे सुख थाय छे ते वेदनीय कर्म ना उदय थी थाय छे. अने ज्यारे वेदनीय कर्म नो नाश थाय, एटले ते सुख नो अंत थाय छे. माटे कर्म थी प्राप्त थतु सुख अंत वालु छे, परन्तु सिद्ध परमात्मानों ने जे सुख " थाय छे ते वेदनीय कर्म ना नाश थी थाय छे, अने ते सुख आत्मा ना घर नुं होवा थी अनंत काल पर्यंत रहे छे. ते खुख शाश्वत ने अनन्त होय छे. मूलम् - सुखमाश्रितानाम् । वद्विश्ववृतान्तसमुत्थनृत्त - प्रेक्षाप्रभूतं सिद्धात्मनां नित्यसुखप्रवर्त्तते, यथानृमापद्भुत नृत्यदर्शिनाम् Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) गाथार्थ जेम विचित्र नाटक जोवाथी मनुष्यो ने सुख थाय छे तेम सिद्ध ना जीवो ने संसार ना बनावो थी उत्पत्र थयेल नृत्य ना जोवा थी शाश्वत सुख थाय छे. विवेचन- सिद्ध परमात्मामो ना सुख नी उपमा संसार नी कोई पण वस्तु नी साथे घटावी शकाती नथी छतां जेम समुद्र केटलो मोटो छे ते बालक ने समझाववा माटे बे हाथ पहोला करी ‘समुद्र पाटलो मोटो छे' एम समझावाय छे. तेम संसारी जीवों ने आत्मिक वस्तु समझाववा माटे कोई पण संसारी वस्तु ना दृष्टांत द्वारा समझावाय छे. एटला मां सिद्ध नु सुख केवा प्रकार नु होय छे ते समझाववा माटे एक गामड़िया नील नु दृष्टांत प्रापवामां आव्यु छे: कोई एक नगर मां एक राजा छे. ते घोड़ा नी परीक्षा करवा माटे घोड़ा पर बेसी जंगल तरफ जाय छे, परन्तु घोड़ो वक्रगति वालो होवा थी जेम-जेम घोड़ा ने ऊभो राखवा राजा प्रयत्न करे छे, तेम-तेम घोड़ो एक भयंकर अटवी तरफ चाल्यो जाय छे, एटला मां स्वाभाविक रीते राजा घोड़ा नु मोकड्डु ढीलु मूके छे, त्यां घोड़ो ऊभो रही जाय छे. राजा घोड़ा पर थी नीचे पड़ी जाय छे अने बेभान थई जाय छे, तथा घोड़ो पण वधु थाक ना कारणे मृत्यु पामी जाय छे. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) एटला मां एक भील त्यां आवे छे, अने राजा ने अचेत जोई शीतल पाणी ना सिंचन द्वारा अने ठंडा पवन द्वारा शुद्धि मां लावे छे. पछी पोतानी झंपड़ी मां लई जई भोजन करावी, ठंडुपाणी पाई, सुन्दर रीते भक्ति करे छे अने राजा पण बराबर स्वस्थ थई जाय छे. थोड़ी वार बाद राजा नुसैन्य पण त्यां प्रावी जाय छे. हवे ज्यारे राजा पोताना नगर तरफ प्रयाण करे छे, त्यारे पोताने जीवनदान देनार महा उपकारी ते भील ने पण अत्यन्त आग्रह पूर्वक पोतानी साथे लई जाय छे. नगर मां भव्य प्रवेश महोत्सव पूर्वक लाव्या बाद राजा ते भील ने पोताना महेल नो नजीक मांज सर्व प्रकार नी सुन्दर सामग्री थी युक्त एक महा प्रसाद मां ऊतारो आपे छे अने अनेक सेवको ने तेनी सेवा मां रोके छे.. हमेशां विविध प्रकार नां पकवानो, शाक, शाल, दाल, आदि द्वारा तेनी सुन्दर भक्ति करवामां आवे छे. विविध प्रकार ना नाटको, गीतो द्वारा तेनु मन रंजन करवामां आवे छे. आम बे महिना पसार थई जाय छे. एक समय पोतानो स्वजनो याद आववाथी पोताना स्थाने जवानी ते भील राजा पासे अनुज्ञा मांगे छे. पोताना उपकारी ने राखवा माटे घणी इच्छा होवाथी तेने रहेवा माटे राजा घणु समझावे छे. छतां पराणे अनुज्ञा मेलवी भील जंगल मां पोताना स्थान Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) पर आवे छे. पोताना बधा सम्बन्धी, कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र ओदि नु मिलन थाय छे अने बधा हर्ष-विभोर बने छे. हवे सम्बन्धीग्रो भील ने कुशल समाचार जाण्या बाद पूछे छे के तमो पाटला बधा दिवस क्यों गया हता ? ते स्थान केवु हतु ? त्यां तमे शेमां रहेता हता ? त्यां शुशु खाधू ? शु शु कयु आदि अनेक प्रश्नो कर्या. या बधा प्रश्नो ना भीले उत्तर प्रापतां जणाव्यु के एक भव्य नगर मां राजा ना जेवा मोटा प्रासाद मां हु रहेतो हतो; पकवान विगेरे खातो हतो अने नृत्य आदि जोतो हतो. __आम नगर नु, महेल नु, भोजन नु अने नाटक आदि ने भीले वर्णन कयु. परन्तु जन्मथीज अटवी मां रहेनार ते लोकोए नगर, महेल, तेवा प्रकार ने भोजन नाटक आदि नु नाम पण सांभल्यु न्होतु. तो तेश्रो ते वस्तु शी रीते जाशी शके के जोई शके, माटे कई पण तेत्रो समझया नहीं. त्यारे छेवटे ते भीले नगर ने पल्ली नी साधे, महेल ने मोटा झुपड़ा साथे, लाडू आदि ने मोटा कोठा ना फल साथे सरखावी समझाव्यु. तेम ज्ञानी भगवंतो पण सिद्ध भगवंतो ना सुख ने संसारी वस्तुप्रो साथे सवावी समझावे छे. तेवीज़ रीते अहियां पण जेम संसारी जीव ने संसार नां विचित्र प्रकार नां नारको जोवाथी जे सुख थाय छे तेम सिद्ध ना जीवो ने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) पण संसार ना बनावो थी उत्पन्न थयेल नृत्य जोवाथी शाश्वत एवं आत्मा नुअनन्त सुख थाय छे. । इन्द्रियो विना पण सिद्धों ने अनंत सुख मूलम्सिद्धषुपूज्यानकिलक्रियेन्द्रियं बुद्धिन्द्रियंनोनचञ्चिनाङ्गम् । अनन्तसौख्यं कथमाप्यते तै-यंज्ञानमेतेषु तदेव सौल्यम् १० गाथार्थ-हे पूज्यो, सिद्ध भगवंतों ने कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय अने शरीर ना अंग विगेरे नथी छतां तेश्रो अनंत सुख केम मेलवे ? तेप्रोने ज्ञाम एज सुख छे. विवेचन- संसारी जीव ने जे सुख नो अनुभव थाय छे ते चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रिय, हाथ आदि कर्मेन्द्रिय अने मुख आदि शरीर ना अवयवो द्वाराज थाय छे. ज्यारे सिद्ध भगवंतो ने चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रिय, हाथ अादि कर्मेन्द्रिय अने मुख आदि शरीर ना अवयवो नथी तो सिद्ध भगवंतो ने सुख नो अनुभव केम थाय ? एम शंका थाय ते स्वाभाविक छे. एटले तेनो उत्तर प्रापतां ग्रंथकार श्री जणावे छे के सुख बे प्रकार नु छे. एक शरीर सम्बन्धी अने बीजुआत्मिक. शरीर सम्बन्धी सुख शुभ कर्मो ना योगे उत्पत्र थाय छे. एटलेज संसारी जीव ने इन्द्रियादि द्वारा सुख नो अनुभव थाय छे, परन्तु आत्मिक सुख Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) वेदनीय कर्म नो नाश थया बाद प्रात्मा ना ज्ञानादि गुणो थी प्राप्त थाय छे. अने सिद्धो ने वेदनीय कर्म नो नाश थवा थी ज्ञानादि गुणों द्वारा आत्मा नु अनंत सुख प्राप्त थाय छे, माटे सिद्धो ने ज्ञान एज सुख होय छे. मूलम्यथेहलोके किल कश्चिदङ्गी, ज्वगदिबापाविधुरः कदाचित् । निद्रां प्रकुर्वनिति तनात सुख करोत्येष नबोधनीयः ११ इत्युच्यतेतस्यनतत्र किच्च च्छतःसुख नापिक्रिया निरीक्ष्यते । तथापि सुप्तस्य नरस्यसौख्यं वाच्यं यथास्याद्भवितद्वदेव १२ जाग्रत्सु सिद्धषु सदैव सौख्यं. विनेन्द्रिय द्वतसमुत्थभोगम् । यहाहि योगो निजक बाधा-मृतबिन्नस्मिसुखोतिपन्ता १३ तथाचकोऽपोहमुनियोक्तः सन्तुष्टिपुष्टाविजितेन्द्रियार्थः । अन्येनपुंसापरिपृच्छयतेचेत्. त्वकोदृशोऽसोतिसुखीसजल्पेत् १४ तस्मिन्क्षणेतस्यनकोऽपिवस्तुनः,शःसतोनवचभुक्तियुक्ति । गन्धग्रहोंनोनचहक्छुतोतदा, नपाणिपादादिभव क्रियापिच १५ तथापि मन्तोषवताहमस्मि, सुखीति भूयः प्रतिगद्यतेऽतः । तज्ज्ञानसौख्यं हिसएक्वेत्ति, न ज्ञानहीनोगदितु समर्थः १६ गाथार्थ- जेम अहियां संसार मां कोई प्राणी ताव आदि नी पीड़ा थी दुःखी थयेलो होय ते समये कदाचित् निद्रा लेतो होय त्यारे सगां संबंधीग्रो एम कहे छे के पा सुख मां छे माटे कोईए जगाड़वो जोइये नहीं. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) ते अवस्था मां तेने कान नु सुख नथी, कोई क्रिया पण तेनी जोवाती नथी तो पण सूतेला मनुष्य ने सुख छे तेम बन्ने प्रकार नी इन्द्रियो थी उत्पत्र थयेला भोग विना पण ज्ञान वाला सिद्धो ने सुख होय छे. अथवा पोताना आत्मबोध रूपी अमृत पान करतो छतो योगी पोताने सुखी माने छे. तेमज संसार मां स्वज्ञान रूप अमृत पान करी, संतोष थी पुष्ट बनेल अने जीतेन्द्रिय एवा मुनि ने बीजो कोई पुरुष पूछे के तू केवा प्रकार नो सुखी छे ? त्यारे ते मुनि कहे छे के हु सुखी छु. ते समये तेने कोई पण वस्तु नो स्पर्श नथी, भोग नो सम्बन्ध नथो, गंध नु ग्रहण करवू नथी, दर्शन के श्रवण नथी अने हाथ-पग आदि नी कोई क्रिया पण नथी. तो पण संतोषी मुनि पोताने सुखी कहे छे, कारण के पूर्व कहेल ज्ञान द्वाराज पोते सुख नो अनुभव करे छे अर्थात् ज्ञान द्वाराज सुखी होय छे. अज्ञानी अात्माते कहेवाने समर्थ नथी. विवेचन- दुःख त्रण प्रकार नु छे-पाधि, व्याधि अने उपाधि नु. आधि एटले मन नु दुःख, व्याधि एटले शरीर नु दुःख अर्थात रोग विगेरे नु अने उपाधि एटले धन कुटुम्ब आदि नदुःख. रोग अने उपाधि संबंधी दुःखो होवा छताँ पण मन पर वधारे आधार छे. बत्रे प्रकार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (52) नुं दुःख होत्रा छतां परण तेनी जो मन पर असर न होय तो दुःख जणा नथी. अने बन्न े प्रकार नु दुःख न होवा छतां पण जो तेनी मन पर असर होय तो दुःख जणाय छे. एटले वास्तविक रीतिए मन नुंज दुःख छे. मन जो शुभ परिणाम मां वर्ततु होय तो दुःख ना प्रसंगे पण दुःख नो अनुभव थतो नथी. अने मन जो अशुभ परिणाम मां वर्ततु होय तो सुख ना प्रसंगे पण दुःख नो अनुभव थाय छे. सम्यग् ज्ञान द्वाराज आत्मा मां शुभ परिणाम प्रगट थाय छे. सम्यग् ज्ञान द्वारा प्रगटेल शुभ परिणाम मां वर्ततो ग्रात्मा सच्चिदानन्द रूप सुखनो अनुभव करे छे. संसार मां पण एक मानस ताव नी पीड़ा थी बहुज व्याकुल थयेल होय अने तेज समये तेने निद्रा प्रवी गई होय त्यारे तेना संबंधी कहे छे के, “भाई सुख मां छे, माटे कोई जगाड़शो नहीं " हवे विचारो के आ समये तेने कान विगेरे कोई इन्द्रियो नुं सुख नयी, हाथपग आदि नी कोई क्रिया पण नथी. छतां पण ते सुखी कहेवाय छे. तेमां मानसिक शान्ति एज सुख गणाय छे. तेम इन्द्रियो थी उत्पन थता भोग बिना परण प्रधि, व्याधि ने उपाधि संबंधी दुःख ना प्रभावे फक्त अनन्त ज्ञान द्वाराज सिद्ध भगवंतो ने सुख होय छे. ग्रथवा कोई योगी पुरुष पोताना आत्मज्ञान मां मस्त बनवाथी पोते Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r . . I 7 . . 1 . . पोता ने सुखी माने छे. अहियां पण योगी पुरुष पासे इन्द्रिय संबंधी भोग नां कोई पण साधनो न होवा छता फक्त प्रात्मज्ञान द्वाराज सुख नो अनुभव करे छे. तेम सिद्ध भगवंतो ने पण अनन्त ज्ञान द्वाराज सुख नो अनभव थाय छे. तेवीज रीते संतोष थी भरपूर, पांचे इन्द्रियो ने जीतनार अने आत्मज्ञान मां मस्त एवा कोई मुनि ने कोई बीजो पुरुष पूछे के तमो केवा प्रकार ना छो ?. त्यारे ते मुनि प्रत्युत्तर प्रापे छे के हु सुखी छु. ते समये पण मुनि ने कोई वस्तु नो स्पर्श नथी, भोग नो पण सम्बन्ध नथी, गंध नो पण योग नथी, दर्शन के श्रवण पण नथी अने हाथ के पग आदि नौ कोई निया पण नथी, तो पण आत्म-संतोषी मुनि पोताने सुखी माने ,छे... ते पोताना आत्म ज्ञान द्वारा मलेल सुखनाज कारणे. तेम सिद्ध भगवंतो ने पण पोताना अनंत प्रात्म ज्ञान द्वाराज सुखनो अनुभव थाय छे, परन्तु अज्ञानी आत्मा ने आत्म सुख नो अनुभव थतो नथी. .. लमइत्यहिसिद्धषुधिनेन्द्रियार्च-स्तथाक्रियाभिः सुखमस्त्यनंतमः । तएवतत्सौख्यभरविदन्त्यपि, ज्ञानीनसक्तोवदितुयतोऽसमम.१७ गाथार्थ-ए प्रमाणे खरेखर इन्द्रियो ना भोग विना अने मन, वचन अने कायानी चेष्टा विना परग. सिद्धो त्मज्ञान 'मलल . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने जे अनंत सुख होय छे ते सुखना समूह ने शाना जाणता छतीं कहेवाने 'समर्थं नथी. विवेचन- जगत मां केटलीक वस्तुप्रो एवी पण छे के जेने जीव पोते जागी पण शकतो होय अने अनुभव पण करी शकतो होय, छतां ते वस्तु केवी छ, त बीजाने बतावी शके नहीं. जेमके घी नो स्वाद लेनार मनुष्य घी ना स्वाद ने पीते जाणे "छे, 'तैनी अनुभव पण पोते करे छे, छतों बीजा ने बतावी शकतो थी. तवाज रीते इन्द्रियों 'ना भोग विना अने मन, वचन, काया नी चेष्टा विना पण सिद्ध भगवंतो ने आत्मा ना अनंत ज्ञान द्वारा जे अनंत सुख होय छे. ते, सुखना समूह ने केवली भगवंतो पोते जाने के छवां बीजा- वे कही. शकता. नथी.. Y .. ॥अथ षष्ठोऽधिकारः ॥ सिद्ध भगवंतो ने कर्म ग्रहण स्वभाव नु वर्जन जोवस्य कर्मप्रहणे स्वभाव-स्तदा स मौलं सहज विहाय । कर्मग्रहास्यं कथमेष सिद्धी, भवेद्विचार: परिपठ्यता भोः १ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) गाथार्थ-जीव नो कर्मग्रहण करवानो स्वभाव छे ते मूलथी उत्पन्न थयेल अने स्वाभाविक छे. एवो कर्मग्रहण नो स्वभाव छोड़ीजीव केवीरीते सिद्धथाय छे ते जणावो. विवेचनः-तैजस अने कर्मण नामनु शरीर जीव ने अनादिकाल नु लागेलु छे तेथीजीव नो कर्म ग्रहण नो स्वभाव पण अनादि काल नो होवाथी ते स्वभाव स्वा भाविक बनीगयोछे. तोप्रावो मूलगत अने स्वभाविकस्वभाव छोड़ी जीव सिद्ध केमबनैएवो प्रश्नथाय ते स्वाभाविक छे तेथी या प्रश्न पूछवामा आवेल छे हवे आगली गाथा मा तेनो उत्तर देवाय छे. नूलम्कर्मात्मनोर्यद्यपिमौलसङ्ग-स्तथापिसामग्रयतथोपलम्भात् । कर्मग्रहप्रोज्मयशिवसमेतः सिद्धोंभवेदत्रनिदर्शनं यत् ॥२॥ गाथार्थ-जोके आत्मा अने कर्म नो सबंध अनादिकाल नो छ परन्तु तेवाप्रकार नी सामग्रीना योगे जीव कर्म ग्रहण नो स्वभाव छोड़ी मुक्तिमां जाय छे. पा विषय मां दृष्टांत कहेवाशे. विवेचन- प्रो संसारमा संबंधो पण अनेक प्रकारना जोवामां आवे छे. जेमके केटलाक संबंधो कोई बे वस्तु ना संबंधो थाय छे एटले नवो संबंध थाय छे अने पछी पाछो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) ए संबंध टूटी पण जाय छे. जेम के सोनानी वीटी मां हीरो जड़वामां आवे छे, त्यारे सोना अने हीरानो जे सम्बन्ध थाय छे ते केटलाक एवा संबंधो पण होय छे जे संबंधो अनादि कालना होय अने अनंत काल सुधी रहे छे. जेमके प्रात्मा नो अने तेना गुण रूप ज्ञानादि नो सम्बन्ध. केटलाक एवा सम्बन्धो पण होय छे के जे अनादि कालथी होवा छता ते सम्बन्धो टूटी पण शके छे, जेमके माटी अने सोना नो सम्बन्ध. एवीज रीते प्रात्मा अने कर्मनो सम्बन्ध अनादि कालनो होवा छतां तेवा प्रकार नी सामग्री ना योगे बन्ने नो सम्बन्ध टूटी पण जाय छे ते माटे दृष्टांत द्वारा बताववामां आवशे . मूलम्सूतेयथाचञ्चलतास्वभावो,पौलस्तथाग्न्यस्थिरभावसंज्ञः । यदातुताहारिकर्मणाकृत-स्तदास्थिरोवह्निगतश्चतिष्ठेत् ॥३॥ गाथार्थ-पारा मां चंचलता नो स्वभाव छे. तेमज अग्नि मां अस्थिरता नो मूल स्वभाव छे. छतां तेवा प्रकार ना संस्कार ना योगे अग्नि मां रहेल पारो स्थिर थाय छे . विवेचनः- पारो एटलो बधो चंचल स्वभाव नो छे के पापणे तेने भेगो करिये तो पण हाथमांथी सरकी जाय छे. छतां तेजपारा ने तेवा प्रकार नी भावना दीधा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) बाद तेज पारो अग्नि मां राखवाथो स्थिर थई जाय छे जेम पारा नो मूल स्वभाव चंचनता वालो होवा छतां तेवा प्रकारना संस्कार ना योगे मूल स्वभाव बदली जायछे तेम प्रात्मा नो कर्म ग्रहण नो मूल स्वभाव होवाछतां तपसंयम नी अराधना द्वारा ते स्वभाव पण बदली जाय छे. मूलम्यथापुनहिकतागुणोऽग्ना-वस्तिस्वभावो ननु मूनजातः । अस्यापिनाशोऽस्तितवाप्रयोगात्,सन्तसतीनवदहेकदापि ।।। गाथार्थ-अग्नि मां बालवानो स्वभाव मूल थी छे, छतां तेवा प्रकारना प्रयोग थी तेनो नाश थाय छे. साधु तथा सती स्त्रीने ते अग्नि कदापि बालतो नथी.. विवेचन:- अग्नि मां बानवानो स्वभाव मूल थी होवा छतां तेनी शक्ति ने घात करनार तेवा प्रकार नी सामग्री ना योगे अग्नि ना मूल स्वभाव नो नाश थाय छे, अथवा तपोबल थी, अथवा सत्यपणाना योगे साधु तथा सत्य वादी ने, तथा शियल ना प्रभाव थी सती स्त्री ने ते अग्नि बाली शकतो नथी. मूलम्बद्धोयबाप्येष च मन्त्रयोगात तथौषधीभिर्नदहेद्विशन्तम । प्रअन्तमरिनच चकोरकतथावह्निर्दहेनोविगतस्वभावः।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) गाथार्थः मंत्र ना प्रयोग थी तथा औषधि बडे बंधायेल अग्नि तेमां प्रवेश करनार ने बालतो नथी. बालवानो स्वभाव नष्ट थवो छे, एवो अग्नि ते अग्नि ने भक्षण करनार चकोर पक्षी ने वालतो नथी. विवेचनः-वली बीजु दृष्टांत पण जणावतां कहे छे के जेम अग्नि नो म ल स्वभाव बालवानो होवा छतां मंत्रना प्रयोग थी अग्नि मां रहेल दाहकता गुण नो नाश थवाथी, अथवा औषधि आदि थो पण दाहकता गुणनो नाश थवा थी ते अग्नि मां प्रवेश करनार ने अग्नि वाली शकतो नथी. अथवा दाहकता गुण नो नाश थया वाद ते अग्नि ने भक्षण करनार चकोर पक्षी ने ते अग्नि वाली शकतो नथी. एटले जेम मंत्र ना प्रयोग थी, अथवा औषधि प्रादि थी अग्नि नो मूल स्वभाव नाश पामी शके छे, तेम अात्मा नो कर्म ग्रहण स्वभाव मूल थी होवा छतां पण तेवा प्रकार नी सामग्री ना योगे नाश पामी शके छे.. मूलम्तथाभ्रकहेम च रत्नकम्बल,सिद्धच सूतनदहेद्ध नाशनः। तदातुयादाहकताविभावसौ,मौलीव्रजेत्ववाथनिगद्यतामिति ६ गाथार्थ-तेवीज रीते अभ्रक, सुवर्ण, रत्नकम्बल, अंने पारो विगेरे अौषधियो थी सिद्ध थयेल वस्तूने अग्नि बालतो नथी. तो ते समय अग्नि नो दाहकता गुण क्यों Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाय छे ? ते बोलो. विवेचन:-तेज वस्तुनी पुष्टी माटे बीजां पण दृष्टांतो बतावाय छे जेम के अभ्रक, सुवर्ण, रत्नकम्बल अने पारो विगेरे औषधि थी सिद्ध थयेल होय तो तेने अग्नि बाली शकतो नथी. तो अग्नि नो मूल स्वभाव बालवानो छे, तो अग्नि मां रहेल दाहकता गुण क्यों गयो? तेनो जवाब आपो. एटले जेम अग्नि मां दाहकता गुण होवा छतां औषधि थी सिद्ध थयेल अभ्रक आदि ने अग्नि बाली शकतो नथी अर्थात् औषधि आदि थी मग्नि नो दाहकता मुण रूप मूल स्वभाव नष्ट थाय छे तेम आत्मा नो कर्म ग्रहण स्वभाव पण तेवा प्रकारनी सामग्रो ना योगे नष्ट थई शके छे. लम्यश्च म्बकग्रावरिण,लोहग्राही,स्वभावप्रास्ते,सहजःसकोऽस्ति तस्मिन्मृते वेतरयोगयुक्ते, -ऽपैतीत्थमेतेष्वपि कर्मयोगः।७। गाथाथ-जेम लोह चुम्बक नामना पत्थर मां लोढ़ पकड़वानो स्वभाव साथेज थयेलो छे परन्तु ते लोह चुम्बक पत्थरने बाल्ये छते अथवा बीजी कोई तेनी नाशक शक्ति सामग्री ना योगे ते स्वभाव नाश पामे छे तेवी रीते सिद्धो मां ते कर्म ग्रहण नो स्वभाव नाश पामे छे. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) विवेचन :- वली लोह चुम्बक नामनो पत्थर एवो होय छे के तेनी पासे लोढू मूकवा मां आवे तो ते लोढाने पोतानी तरफ खेंचे छ कारण के लोह चुम्बक पत्थर मां लोढा ने पोताना तरफ आकर्षवानी शक्ति छे. ते स्वभाव पण लोह चुम्बक नो मूल स्वभाव छे- छतां लोह चुम्बक पत्थर ने जो अग्नि थी बाली ने भस्म करवामां आवे अथवा ते शक्ति नाशक बीजी सामग्री ना योगे लोह चुम्बक मां रहेल लोढ़ पकड़वानो स्वभाव नाश पामे छे, तेम सिद्धो मां पण तेवा प्रकार नी सामग्री नां योगे जीव नो कर्म यहरण नो मल स्वभाव नाश पामे छे. मूलम्:बोजंतथाङ्क रभवंदधाति,मौलात्सवभावादविकारियावत् । तस्मिस्तुदग्धेनकिलाङ्क रोद्भव,एवंतुसिद्ध षुनकर्म बन्धः ।। गाथाथः- बीज विकार रहित थाय त्यां सुधी बीज मां अंकुर नी उत्पत्ति रूप स्वभाव मूलथीज बीज धारण करे छे परन्तु ते बीज बाल्ये छते अंकुर नी उत्पत्ति रूप स्वभाव नष्ट थाय छे, तेम सिद्धो मां कर्म बंध रूप स्वभाव नाश पामे छे. विवेचन:- कोई पण प्रकार ना धान्य मां, कोई पण प्रकार ना बीज मां, अथवा कोई पण प्रकार नी वनस्पति Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) । ना बीज मां अंकुर नी उत्पत्ति थवा रूप स्वभाव मूलथोज छे छतां ते बीजो ने बाली नाखवामां आवे अथवा हवा, पाणी, संधटा आदि ना कारणे बीज मां रहेल अंकुर उत्पत्ति रूप स्वभाव नाश पामे छे; तेम सिद्धो मां कर्म रूप अंकुर नी उत्पत्ति रूप स्वभाव नाश पामी जाय छे. चूलम्:वायोस्तथाचंचलतास्वभावो, यो वर्तमानः सहजः समस्ति । खलस्यमध्येपवने निरुद्ध, कथं प्रयात्येष चल स्वभावः? ।। गाथार्थः-पवन नो चंचलता वालो स्वभाव पण मलथीज छे, छतां खल मध्ये रोकायेल छते ते स्वभाव केम चाल्यो जाय छे ? विवेचन:- पवन नो पण चंचल स्वभाव मूलथीज छे, छतां मसक मध्ये पवन रोक्ये छते पवन नो चंचल स्वभाव क्यां चाल्यो जाय छे ? अर्थात् जेम पवन नो चंचल स्वभाव मसक मध्ये पवन रोक्ये छते रोकाई जाय छे. तेम सिद्धो मां पण तेवा प्रकारनी सामग्री ना योगे कर्म ग्रहण नो स्वभाव नाश पामी जाय छे. मूलन:पाहारमुख्याःसहजाश्चतस्त्रः, संज्ञाइमाःप्रोज्झ्यशुकादयोऽमी । सिद्धाःप्रसिद्धाःपरब्रह्मरूपाः,जातास्ततोऽपतिनिजस्वभावः।१० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) गाथार्थः-शुक आदि मुनिग्रो आदि आदि चार संज्ञानो छोड़ी ने सिद्धि मां गयेला छतां परब्रह्मरूप थया तेथी मूल स्वभाव चाल्यो जाय छे. विवेचनः- अहियां ग्रंथकार श्री शैव मत माननारा ने 'प्राश्रयी ने प्रत्युत्तर आपे छे के संसार मां जीव ने चार संज्ञामो अनादि कालथी रहेली छे. संज्ञा एटले संस्कारए संज्ञाना चार प्रकार छे. आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा अने परिग्रह संज्ञा. ए चार संज्ञाओ तरीके अोलखाय छे. आहार करवानी इच्छा ते आहार संज्ञा, पोतानी वस्तु कोई लई लेशे अथवा कोई पोताने दुःख देशे अथवा पोताने कोई मारी नाखशे ए भय संज्ञा, विषय सेवन नी इच्छा ते मैथुन संज्ञा अने कोई पण वस्तु ने संग्रही राखवानी इच्छा ते परिग्रह. तमारा मत मां पण ए चार संज्ञायो अनादि काल थी जीव ने मानेली छे तो शुक आदि मुनियो मां पण ए चार संज्ञा अनादि काल थी हती अने ते चार संज्ञाप्रो जीवनो मूल स्वभाव होवा छतां शुक आदि मुनियो ए चारे संज्ञानो नो त्याग करी परब्रह्मरूपे थया अर्थात् सिद्धथया. तो ए चार संज्ञाप्रो जीव नो मूल स्वभाव होवा छतां छोड़ी शकाय छे तो जीवनो कर्म ग्रहण नो मूल स्वभाव केम नाश न थई सके ? अर्थात् जरूर नाश थई शके छे. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) मूलम् - इत्यादिदृष्टांतभरैःस्वभावो,मौलो यथा याति तथैव जन्तोः । कर्मग्रहोऽयंसहजःप्रयाति,सिद्धत्वमाप्तस्यकिमत्र चित्रम्? ॥११॥ गाथार्थ - इत्यादि दृष्टांतो बड़े वस्तुप्रो नो मूल स्वभाव जाय छे तो जीवनो कर्म ग्रहण नो मल स्वभाव पण जाय ! छे अने जीव सिद्धत्व पामे छे तेमां आश्चर्य शु? विवेचन:- जीव अने अजीव माँ अनादि काल थी रहेल मूल स्वभाव पण तेवा प्रकारनी सामग्री के प्रयोग द्वारा नाश पामी शके छे. ए माटे जीव अने अजीव संबंधी अनेक दृष्टांतो द्वारा सिद्ध करी बताव्यु. तो जेम जीव अने अजीव मां रहेल अनादि कालनो मल स्वभाव नाश पामी शके छे तेम आत्मा नो पण कर्मग्रहण नो अनादि काल नो मूल स्वभाव पण नाश पामी शके छे अने ते स्वभाव नष्ट थवा थी जीव कर्म थी मुक्त पण बनी शके छ अर्थात् जीव सिद्ध थई शके छे, एम सिद्ध थयु. . ॥ अथ सप्तमोऽधिकारः || मुक्ति प्रवाह नी अविच्छिन्नता अने संसार मां भव्य नी अशुन्यता मूलम् - प्रश्नस्तथैकः परिपृच्छयतेऽसकौ, सिद्धान्समाश्रित्य निजोपलब्धये । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) सर्वज्ञवाक्यात् किल मुक्तिमार्गको, वहन सदास्ते करकस्य नालवत् ॥१॥ नो पूर्यते मुक्तिरसौ कदापि, संसार एषोऽपि च भव्यशून्यः । परस्पर षिवचो विलास नं सङ्गति मङ्गति वाक्यमेतत् ॥२॥ गाथार्थ-पोताना ज्ञान माटे सिद्धो सम्बन्धी एक प्रश्न पूछाय छे के सर्वज्ञना वचन थी मुक्ति नो मार्ग करनाल ना प्रवाह नी जेम हमेशां चालू छे, छतां मुक्ति नु स्थान पूरातू नथी अने संसार भव्यो थी शून्य थतो नथी-तो पा वचनो परस्पर विरुद्ध अर्थसूचक नथी लागतां ? विवेचन. केटलाक प्रश्नो एवा पूछाय छे के जेमां परस्पर वितंडावाद ऊभो थाय छे अने तेनु खास फल कइं पण आवतु नथी. उलटी द्वष-बुद्धि पैदा थाय छे. परन्तु जिज्ञासा बुद्धि थी पूछाता प्रश्नो परस्पर तत्त्वनी वृद्धि करनारा बनें छे. अहियां पण प्रश्नकार पोताना आत्मज्ञान नी प्राप्ति माटे सिद्ध भगवंतों सम्बन्धी प्रश्न पूछतां कहे छे के जैन पागम मुजब परम तारक अनंत ज्ञानी वीतराग परमात्मा श्रीमद् अरिहंत भगवंते स्थापन करेल सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, अने सम्यग् चारित्र रूप मोक्ष नो मार्ग अनादि काल Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) थी चालू छे. एटले अनंतानंत पुद्गल परावर्तन काल मां अनंतानंत जीवो मोक्षे गया छे, छतां मोक्ष नु स्थान केम पूराई जतु नथी. अने अनंतानंत काल थी संसार मांथी भव्य आत्मोप्रोज मोक्षे जाय छे, छतां संसार भव्य आत्मापोथी शून्य केम थतो नथी ? एक पात्र मां थी बीजा पात्र मां एक वस्तु नाखवामां आवे तो अमुक काले एक पात्र जरूर खाली थाय अने बीजू पात्र भराई जाय, छतां पा बाबत मां तेवु न बनवाथी परस्पर विरुद्ध वचन लागे छ तो आ विरोधाभास केम । मूलम् :न हि व्यलोकं भगवद्वचोऽस्त्यदः परं न चित्तेऽल्पधियामभिवजेत् । दृश्योऽस्ति दृष्टान्त इहैव लौकिको, यं शृण्वतां श्रोतृनणां मनः स्थिरः ॥३॥ गाथार्थः - भगवंत नु वचन झळू होतु नथी परन्तु अल्प बुद्धिवाला ना मन मां न पण बेसे-पाज विषय मां लौकिक दृष्टांत विचारणीय छे. जे सांभलतो सांभलनार नु मन स्थिर थाय छे. विवेचन:- कोई पण वस्तु नो निर्णय करवा माटे ज्ञान ए प्रथम साधन छे. ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशम मुजब दरेक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) ने ज्ञान थाय छे, एटलेज केटलीक वस्तुओ विशिष्ट ज्ञानीप्रोज समझी शके छे, परन्तु अल्प ज्ञान वाला प्रात्मानो न पण समझे, एम पण बने. क्वचित् एवं पण बने के एक व्यक्ति कोई पण वस्तु नु साचू स्वरूप समझवा छतां पण स्वार्थ ने वश साची वस्तु नु प्रतिपादन न पण करे, ए पण संभवित छे. माटे सत्य वस्तु समझवा माटे अने सत्य वस्तु नु यथार्थ प्रतिपादन करवा माटे सम्पूर्ण ज्ञान अने राग-द्वेष ना अभाव नी पूर्ण आवश्यकता होय छे. ज्यारे जिनेश्वर देवो सम्पूर्ण ज्ञानी एटले सर्वज्ञ अने राग-द्वेष थी मुक्त एटले वीतराग होवाथी सत्य वस्तु नु यथार्थ प्रतिपादन करी शके छे. माटे एमनु वचन असत्य होतु नथी. कदाच अल्प ज्ञानीग्रो न समझे एम पण बने. माटे तेमने समझाववा माटे लौकिक दृष्टांत बताववामां आवे छे जेथी सांभलनार वर्गनु ते दृष्टांत सांभलतांज मन स्थिर थई जशे. मूलम् :सिद्धालयः स्याल्लवरणोदसोदरः संसार एषोऽस्ति नदीहृदोदरः । नदीप्रवाहाश्च यथा महोदधौ, पतन्ति निर्गत्य नदीहृदान्तरात् ॥४॥ नदीहदा नैव भवन्ति रिक्ता, ___ न चाम्बुधिः कहिचिदस्ति पूर्णः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) नदीप्रवाहोऽपि निरंतरं य द्वहत्यविच्छिन्नतयाऽतिशीघ्र ॥ ५ ॥ इत्थं हि भव्याः परियन्ति मुक्तौ, नदीप्रवाहा इव सागरान्तः । संसार एवं हृदवन्न रिक्तः, पयोधिवन्नव भृतापि मुक्तिः ॥ ६ ॥ गाथार्थ:- मुक्ति लवण समुद्र ना भाई समान छे अने संसार नदियोना द्रह समान छे. जेम नदीना प्रवाहो नदियोना द्रहोमांथी निकली महान् समुद्र मां पड़े छे. नदियोना प्रवाहो प्रांतरा रहित प्रति शीघ्र सतत वहे छे, परन्तु नदीना हो खाली थता नथी अने समुद्र कदी पूर्ण थतो नथी - तेवीज रीते संसार मांथी नदी ना प्रवाह नी जेम भव्य आत्माओ सतत मोक्षे जाय छे. छतां द्रहनी जेम संसार खाली थतो नथी अने समुद्रनी जेम मुक्तिनुं स्थान पूर्ण थतु ं नथी. विवेचनः- एक लाख जोजन प्रमाण वालो ने थालीना जेवा आकार वालो जंबूद्वीप नाम नो द्वीप छे. तेनी चारे बाजू चार लाख योजन प्रमाण वालो लवरण नामनो समुद्र विटलायेल छे. एज जंबूद्वीप मां पद्मद्रह विगेरे घरणा हो आवेला छे. ए द्रहो मांथी गंगा, सिन्धु विगेरे हजारो नदियो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) नीकले छे. ए बधी नदीओ लवण समुद्र मां जाय छे. ए नदियोना प्रवाहो अति शीघ्र अने सतत वहे जाय छे. छतांपद्मद्रह विगेरे द्रहो कदापि खालो थता नथी, अने लवण समुद्र कोई दिवस पण पूरातो नथी. तेवीज रीते संसार मांथी निकली अनादि कालथी अनंतानंत भव्य आत्माओ मोक्ष मां निरन्तर जाय छे. छतां संसार भव्य आत्माअोथी खाली थतो नथी अने मुक्ति नु स्थान भव्य आत्मानो थी पूर्ण भराई जतु नथी. मूलम्दृष्टांतदार्टान्तिकयोरितीदं, साम्यं समालोचयतां नराणां । भवेत्प्रतीतिः परमाहताना-महद्वचस्येव न चापरत्र ॥७॥ गाथार्थः- दृष्टांत अने हार्टान्तिकतु सरखापणु जो विचारवामां आवे तो परम श्रावको ने अर्हद्वचन प्रत्ये श्रद्धा पैदा थायज, परन्तु मिथ्यात्वी आत्माअोने नज थाय. विवेचन:- कोई पण गहन विषय ज्यारे न समझाय त्यारे दृष्टांत द्वारा सुन्दर रीते समझाय छे माटे दृष्टांत आपवामां आवे छे तेम अहियां पण संसार खाली केम न थाय अने मुक्ति केम न पूराय, ए समझाववा माटे सुन्दर दृष्टांत आपवामां आव्यु छे. लवण समुद्र ने मुक्ति ना स्थाननी, संसार ने नदीना द्रहो नी अने सतत मुक्ति जता भव्य Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) आत्मानो ने नदी ना प्रवाहो नी उपमा पापी, सुन्दर दृष्टांत द्वारा शंका नु समाधान कयु छे. पा समाधान थी परम जैन श्रावको ने अरिहंत परमात्मा ना वचन प्रत्ये श्रद्धा थायज, परन्तु मिथ्यात्वी आत्मानो न समझाय तेमां मिथ्यात्व युक्त बुद्धिज कारण भूत छे. अन्योऽपि दृष्टान्त इहोच्यतेऽय माकर्णनीयो विदितप्रमाणैः। यथा हि कश्चित्प्रति भान्वितः स-नाजन्ममृत्यूद् भवमात्मशक्त्या ॥८॥ हिन्दूकषड्दर्शन पारशीक-शास्त्राणि ___ सर्वाणि पठस्त्रिलोक्याः । असंख्य मायुनिवहन्नपीह, हृदस्य पूर्ण न भवेत्कदाचित् ॥६॥ शास्त्राक्षररप्यथ योजनवं, यथैव शास्त्राणि भवस्तथाऽयं । भवन्ति शास्त्राक्षरवद् विमुक्ताः, सुबुद्धिवक्षोवदियं हि सिद्धिः ॥१०॥ प्रश्रान्ततत्पाठवदेव मुक्ति-मार्गो वहन्नस्ति निरन्तरायः। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) शास्त्रष्वधीतेषु न शास्त्रनाश-स्तथैव सिद्धषु भवस्य नान्तः ॥११॥ गाथार्थ :- आ विषय मां बीजू पण दृष्टांत कहेवाय छे, जे दृष्टांत जाणीता प्रमाणो वड़े सांभलवा योग्य छे. जेम कोई अतिशय बुद्धि वालो पुरुष जन्म थी आरंभी मृत्यु पर्यंत पोतानी शक्ति थी हिन्दू धर्म सम्बन्धी छः शास्त्रो, यवनोना शास्त्रो, त्रण लोक नां बधां शास्त्रो भरणतो छतो असंख्य वर्ष नु आयुकाल ने वहन करे तो पण तेनु हृदय कदापि शास्त्रो ना अक्षरोथी भरातु नथी. हवे दार्टान्तिक नी योजना या प्रमाणे:-शास्त्रो एटले संसार, शास्त्रो ना अक्षरो एटले सिद्धो, बुद्धिमान पुरुष नुहृदय एटले मुक्ति नुस्थान, सतत करातो पाठ एटले अंतराय वगर चालू मोक्ष नो मार्ग. शास्त्रोनो अभ्यास कराते छते शास्त्रो नो नाश थतो नथी. तेज प्रमाणे मोक्ष मां भव्य आत्मायो जते छते संसार नो नाश थतो नथी. विवेचन :- ए विषय मां अहीं बीजू दृष्टांत पण जाणीतां प्रमाणो थी भरेलू आप्यु छ के जे खास सांभलवा योग्य छे. जेम कोई अतिशय बुद्धिशाली पुरुष जन्म थी मांडी मृत्यु पर्यन्त पोतानी सर्व शक्ति थी न्याय सम्बन्धी, वैशेषिक सम्बन्धी, सांख्य सम्बन्धी, योग सम्बन्धी, पूर्व मीमांसक Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) अने उत्तर मीमांसक सम्बन्धी, हिन्दू नां शास्त्रो ने यवनो नां शास्त्रो ने तेमज त्ररण लोकनां सर्व शास्त्रो ने जाणतो , छतो असंख्यात वर्ष काल चाल्यो जाय छतां शास्त्र भरणनार नुळे हृदय शास्त्र ना अक्षरो वड़े भरातू नथी ने शास्त्र ना अक्षरो नो नाश थतो नथी. तेम संसार मांथी सतत भव्य आत्मा मुक्ति मां जवा छतां संसार भव्य आत्माथी खाली थई जतो नथी अने मुक्ति नुं स्थान सिद्ध श्रात्मानोथी भराई जतु नथी. मूलम् - दृष्टान्तदान्तिक भावनेयं, विज्ञः स्वयं चेतसि चिन्तनीया । एवं ह्यनेकेऽभिनिषन्ति भूयो, दृष्टान्त संघा अपरेऽपि योज्याः ॥ १२ ॥ गाथार्थ :- विद्वान् पुरुषोए पूर्वे कल दृष्टांत ने दाष्टन्तिक संबंधी विचारणा मनमां पोतानी मेले विचारवी, अने atri अनेक दृष्टांतो आ विषयमा घटाववां. विवेचन :- प्रा विषय मां पूर्वे बतावेल दृष्टांत अने दान्तिक सम्बन्धी घटना पोतानी मेले मनमां घटाववी जोइये. कारण के आ बधा दृष्टांतो विद्वान् पुरुषोए बत. वेल छे. जेथी विशेष श्रद्धा उत्पन्न थाय छे तेमज आ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) विषय मां बीजां पण अनेक दृष्टांतो छे. ते पण जरूर विचारवां जेथी सम्यग् ज्ञान साथे सम्यग् दर्शन मां पण कारण भूत बने. ॥ अथ अष्टमोऽधिकारः ॥ पर ब्रह्म नु स्वरूप मूलम् । स्वामिन् ! परब्रह्म किमुच्यते तत्, लीनं जगद्यत्र भवेद्य गान्ते । तदेव हेतुः पुनरेव सृष्टेः, स्यादीदृशं केन गुणेन वाच्यम् ॥१॥ गाथार्थ :- हे स्वामि, जेमां युग ना अन्ते जगत लीन थाय छे ते पर ब्रह्म शुछे ? अने वली ते कया गुण वड़े सृष्टि नु कारण थाय छे ? ते कहेवा योग्य छे. विवेचन - ब्रह्मवादियो नी एवी मान्यता छ के आ जगत नु निर्माण पर ब्रह्म ना योगे थाय छे. अने युग ना अंते जगत तेमां लीन थई जाय छे. एवा ब्रह्मवादियो जैन मत वादियो ने पूछे छे के युग ना अंते जगत जेमां लीन थाय छे ते परब्रह्म शु छ ? अने बीजो प्रश्न ए छे के जगत ना निर्माण मां पर ब्रह्म कारण रूप बने छे तो कया गुण वड़े तेमां कारण रूप बने छे, एम बे प्रश्नो कर्या. तेनो उत्तर जैन शास्त्रकारो आगलनी गाथा मां पापे छे. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) मूलम् - निशम्यतामार्य ! मनीषिरणामपि, सिद्धान्त वेदान्तविचार वेदिनाम् । स्वरूपमेतस्य निवेदितुं यतो, वाचः स्फुरन्तीह न चर्मचक्षुषाम् ||२|| गाथार्थः- हे आर्य ! सांभलो. सिद्धान्त ज्ञान ना रहस्य ना विचार ने जाणनार विद्वान् पुरुषोनी वारणी एनु स्वरूप कवाने स्फुरायमान थाय छे, परन्तु ए बाबतमां चर्म चक्षु वाला कहेवाने समर्थ नथी. विवेचन :- जगतमां बधा पदार्थों चर्म चक्षु वाला जोई परण शकता नथी ने जारणी पण शकता नथी. मात्र केटलाकज पदार्थों चर्म चक्षु वाला जोई शके छे अने जाणी शके छे. बधा पदार्थो तो फक्त केवलज्ञानी प्रोज जोई शके छे अने जाणी शके छे. तेम पर ब्रह्म पण चर्म चक्षुवालाओ जोई शकता नथी. ने जारणी शकता नथी. ते पण केवली भगवंतोज जोई शके छे अने जारणी शके छे अर्थात् सिद्धान्त ना रहस्य ने जाणनार पुरुषो जैन आगम अनुसार तेनु स्वरूप कहेवाने समर्थ थाय छे परन्तु चर्म चक्षु वालाग्रो तेना स्वरूप ने कहेवाने समर्थ नथी. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) मूलम्ःये योगिनोनिर्मलदिव्यदृष्टय-श्चराचराचारविवेकचिन्तकाः। लब्धाष्टसिद्धिप्रथनाहितेऽप्यहो! ,विचारयन्तोनहिपारमियति३ तथापि येलोकविलोकनक्षमाः, सर्वार्थयाथार्थ्यसमर्थनार्थनाः । सत्केवलज्ञानविशिष्टदृष्टयो,नीरागिणोऽन्योपकृतोपरायरणाः ४ तेत्वीदृशंब्रह्मपरंन्यवेदयन्, निविक्रियं निष्क्रियम प्रतिक्रियम् । ज्योतिर्मयंचिन्मयमीश्वराभिध-मानंदसान्द्र जगतां निषेवितम५ निर्मायऽनिर्मोहमहंकृतिच्युतं, सम्यग्निराशंसमनीहितार्चनम् । महोदयं निर्गुणमप्रमेयकं, पुनर्भवप्रोज्झितमक्षरं यतः ॥६॥ विभुप्रभावत्परमेष्ठयनन्तकं, निर्मत्सरं रोध विरोध वजितम् । ध्यानप्रभावोत्थितभक्तनिर्वति,निरञ्जनानाकृतिशाश्वतस्थिति७ गाथार्थ- निर्मल दृष्टिवाला, स्थावर जंगम रूप संसार ना व्यवहार ना भेद ना चितवन करनारा अने आठ अरिणमादि सिद्धि वाला एवा योगी पुरुषो पण ब्रह्म ना पार ने पामी शकता नथी, तो पण लोक जोवा मां समर्थ, सर्व पदार्थो नी सत्यता ना प्रतिपादक, केवलज्ञानी राग रहित अने परोपकार करवामां तत्पर एवाप्रो ए परं ब्रह्म नु स्वरूप ए प्रमाणे कांछे के परब्रह्म ए विकार रहित, क्रिया रहित, प्रतिकार रहित, प्रकाश रूप, ज्ञानस्वरूप, ईश्वर नाम नु, निरन्तर आनन्द रूप, जगत सेवित, माया रहित, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) मोह रहित, अहंकार रहित, अतिशय निस्पृह, पूजा ना अभिलाष रहित, महा उदय वालू, गुणो रहित, मापी न शकाय एवं पुनर्जन्म रहित, अविनाशी, व्यापक, कान्ति वालू, परम पदे रहेलू, अंत रहित, ईर्ष्या रहित, राग द्वष रहित, ध्यान ना प्रभाव थी भक्तो ने सुख दायक, निरंजन, आकार, रहित, अने शाश्वत स्थिति वालूछे. विवेचन:- अहियां पर ब्रह्म शु छे अने ते जाणवु केटलू कठिन छे, आ बाबत ग्रंथकार श्री दर्शावे छे. आ पर ब्रह्म ने सामान्य आत्मानो तो जाणी शकेज नहीं, परन्तु निर्मल श्रेष्ठ दृष्टि वाला, त्रस अने स्थावर जीवो ना व्यवहार ना विवेक अने भेद ने चिन्त्वनार अने कमल ना जेवा झीणा छिद्र मां पण प्रवेश करवानी शक्ति ते अणिमा, मेरू पर्वत करतां पण मोटु शरीर विकुर्वी शकाय ते महिमा, अत्यन्त भारे थवानी शक्ति ते गरिमा वायु करतां पण हलका थवानी शक्ति ते लघिमा, पृथ्वी ऊपर रह्या छतां अंगुलीना अग्रभाग वड़े मेरू पर्वत नी टोच अने सूर्यादि ने स्पर्श करवानी शक्ति ते प्राप्त पाणी मां पृथ्वी नी जेम पगे चाले अने पृथ्वी ऊपर पाणी नी जेम डूबी जई बहार निकले एवी शक्ति ते प्राकाम्य, स्थावर पण आज्ञा माने तेवी शक्ति अथवा तीर्थंकर चक्रवर्तीनी ऋद्धि ने विस्तारी शके एवी प्रभुता ते ईशित्व जीव अने अजीव सर्व पदार्थ वश थाय एवी शक्ति Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) ते वशित्व विगेरे आठ प्रकार नी सिद्धि वाला एवा योगी पुरुषो पण विचारता छतां पर ब्रह्म ना पार ने पामी शकता नथी. परन्तु चौद राज रूप लोके अने अलोक जोवा मां समर्थ, सर्व रूपी अने अरूपी पदार्थो ना द्रव्य अने पर्यायो ना वास्तविक स्वरूप ना प्रतिपादक, चार घाती कर्म ना नाश थी प्रगट थयेल केवल-ज्ञान अने केवल-दर्शन धरनार, राग-द्वेष रहित एवा वीतराग परमात्मा अने मोक्ष मार्ग नी स्थापना करवा द्वारा परोपकार करवामां तत्पर एवा तीर्थंकर परमात्माअोए परब्रह्म नु स्वरूप एवं बताव्युछे के ए पर-ब्रह्म कोई पण प्रकार ना विकार रहित, क्रिया रहित, दुःखादि थी पराभव होते छते प्रतिकार नी आवश्यकता रहित, ज्योतिर्मय, ज्ञान स्वरूप, ईश्वर नाम नु, निरन्तर आनन्दमय, जगत ना प्राणियोथी सेवायेलू, माया अने मोह रहित, अहंकार रहित, अत्यन्त निस्पृह, पूजाना अभिलाष रहित, महान् उदयवालू, सत्त्वराजस-तामस ए त्रण गुणो रहित, न मापी शकाय एवु, पुनर्जन्म वगर नु, अविनाशी, व्यापक, कान्ति थी युक्त, परम पदे रहेलू, अंत रहित, ईर्ष्या रहित, राग-द्वेष रहित, ध्यान ना प्रभाव थी भक्तों ने सुख दायक, निरंजन, आकार रहित अने शाश्वत स्थिति वालूछे. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) पर ब्रह्म थी जगत नी रचना अने तेमांज प्रलय नी अनुपपत्ति एवंविधं ब्रह्म तदेव तत्कथं, हेतुर्भवेत्सृष्टि कुलालकमरिण । प्रयोजकोब्रह्मरण एवनास्तिय-स्वस्मिन्गतत्वात्सकलस्यवस्तुनः ८ गाथार्थ:- जगत ना सर्जन रूप कुभार नी क्रिया मां एवा प्रकारचें ब्रह्म केवी रीते हेतु भूत थाय ? ब्रह्म नो प्रयोजक पण नथी, कारण के कामादि सर्व वस्तु ब्रह्म मांज रहेली छे. विवेचन :-ब्रह्म वादियो नी मान्यता मुजब जगत नी, रचना करवामां पर ब्रह्म कारण रूप छे. परन्तु जैन सिद्धान्त मुजब पर ब्रह्म जगत रचना मां कारण भूत नथी तेथी जैन शास्त्रकारो पर ब्रह्म जगत रचना मां केवी रीते कारण भूत नथी ते दर्शावतां कहे छे के जगत मां बे प्रकार ना पदार्थो छे-जड़ अने चैतन्य. जड़ वस्तु बनाववामां जड़ नाज स्वभाव अने गुणो उपयोगी बने छे. पर ब्रह्म ए चैतन्य स्वरूप छे. चैतन्य ना स्वभाव अने गुणो अलग छे, ज्यारे जड़ ना स्वभाव अने गुणो अलग छे. चैतन्य नी क्रिया अलग छे, अने जड़ नी क्रिया पण अलग छे. तो अलग स्वभाव अने अलग गुणो वाला पदार्थ थी अलग स्वभाव अने गुणो वाली वस्तु केवी रीते बनी शके? अर्थात् चैतन्य नो स्वभाव Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) श्रने गुणो तथा जड़ नो स्वभाव अने गुणो अलग होवा थी चैतन्य थी जड़ वस्तु बनी शके नहीं एटलेज या प्रश्न थयो छे के जगत रचना रूप घट बनाववा जेवी कुंभार नी क्रिया मां चैतन्य मय पर ब्रह्म केवी रीते कारण भूत बने ? बीजी वात एछे के ब्रह्मवादी एम कहे छे के जगत रचना करवामां पर ब्रह्म भले स्वयं कारण भूत न बने, परन्तु पर ब्रह्म ने जगत रचना करवामां बीजो कोई प्रयोजक मानवामां शु वांधो ? काल, स्वभाव, भवितव्यता, कर्म आदि कोई पण वस्तु बनाववामां अथवा कोई परण बनवामां प्रयोजक तरीके होय छे. हवे ए मांथी जो कोई पण प्रयोजक मानिये तो परण बाधकता आवे छे, कारण के कालादि सर्व वस्तुप्रो पर पर ब्रह्म मां समाई जाय छे माटे कालादि परण प्रयोजक होई शकतो नथी. माटे जगत नी रचना अने संहार करवामां पर ब्रह्म नो कोई परण प्रयोजक होतो नथी. मूलम: कुर्याद्यदीदं जगतां हि सर्जनं, तदेदृशं केन करोति विष्टपम् । जन्मात्ययव्याधिकषायकंतव- कन्दर्पदौर्गत्यभियाभिराकुलम् परस्पर द्रोहि विपक्षलक्षितं दुःश्वापदव्यालसरी सुपालिकम् । साखेटिर्क में निकसौनिकै श्चितं, दुश्चोरजारादिविकारपीडितम् १० 1 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) कस्तूरिकाचामरदन्तचर्मणे, सारङ्गधेनुद्विपचित्रकान्तकम् । दुर्मारिदुभिक्षकविड्वरादिकं, दुर्जातिदुर्योनिकुकोटपूरितम् ।११ अमेध्यदौर्गन्ध्यकलेवराङ्कितं, दुष्कर्मनिर्मापरणमैथुनाञ्चितम् । समाश्रयद्धातुकृताङ्गिपुद्गलं, सनास्तिकं सर्वमुनीशनिन्दितम् १२ कियत्स्वकीयाह्वयबद्धवरं, कियत्स्व पूजा प्रवरणाङ्गिजातम् । नानात्महिन्दूकतुरुष्कलोकं, कियत्परब्रह्मनिरासहासम् ।१३। षड्दर्शनाचारविचारडम्बरं, प्रचण्डपाषण्डघटाविडम्बनम् । सत्पुण्य पापोत्थितकर्मभोगदं, स्वर्गापवर्गादिभवान्तरोदयम् १४ वितर्कसम्पर्क कुतर्ककर्कशं, नानाप्रकाराकृतिदेवताचनम् । वर्णाश्रमाचीर्णपृथकपथग्वृष, सद्र व्यनिद्रव्यनरादिभेदभृत् ।१५ (सप्तभिः कुलंकम्) गाथार्थ: जो पूर्वोक्त स्वरूप वालू पर ब्रह्म जगत नी रचना करे तो जन्म, मृत्यु, रोग, कषाय, कपट, काम अने दुर्गति ना भय वड़े व्याकुल, परस्पर द्रोह करनारा शत्रुओ थी लक्षित, दुष्ट शिकारी पशुप्रो थी युक्त, शिकार करनार सैनिको थी व्याप्त, दुष्ट चोर अने व्यभिचारीयो ना उपद्रव थी पीड़ित, कस्तूरी, चामर, दांत अने चामडू विगेरे थी हरण, गाय, हाथी अने वाघ ना नाश ने जणावनार, दुष्ट मारि रोग, दुष्काल थी युक्त, दुष्ट जाति अने दुष्ट योनि वाला क्षुद्र जंतुनो थी पूरित, मल, दुगंध, मडदु विगेरे थी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) युक्त, पापना कारण भूत मैथुन विगेरे थी युक्त, सात धातुथी बनेला प्राणियोना शरीर वालू, नास्तिको सहित, सर्व मुनिवरोए निंदेल, केटलाक ने ब्रह्म नी साथे वैर होय एवाथी युक्त, ब्रह्मनी पूजा करनार एवा केटलाको थी व्याप्त, हिन्दू ने मुसलमानो थी युक्त, पर ब्रह्म नुं खंडन अने उपहास करनार थी युक्त, सांख्यादि षड् दर्शन ना आचार ना समूह वालू, पाखंडी प्रोथी विडंबना पमाएल, पुण्य, पापना फल ने देनार, स्वर्ग अने मोक्ष विगेरे ना भवन उदय वालू वितर्क नो संयोग अने कुतर्क थी कठोर एव ं वर्णाश्रम ना धर्म वालू, अने धन अने निर्धन मनुष्यो वालु ऐवा प्रकार ना जगत नी रचना केम करे ? , विवेचन:- ब्रह्मवादिश्रो नो एवो मत छे के परब्रह्मज जगत रचनामां कारण भूत छे, परन्तु ते वात घटती नथी. ते माटे जैन शास्त्रकारो ब्रह्म वादिप्रोने जगावे छे के कारण थी कार्यथी उत्पत्ति थाय छे. कारण बे प्रकारनां छे एक निमित्त कारण अने बीजु उपादान कारण. जे वस्तु थी जे वस्तु बने छे, ते उपादान कारण अने जे वस्तु बनवामां जे वस्तु सहायक- निमित्त रूप बने छे, ते निमित्त कारण. जेमके घड़ो बनाववामां माटी ए उपादान कारण छे अने दंड़, चक्र, कुंभार, गधेड़ो विगेरे निमित्त कारण गरणाय छे. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) निमित्त कारण मां एकने बदले बीजी वस्तु पण चाली शके परन्तु उपादान कारण मां तेज वस्तु विना चाली शकतूं नथी. जेमके कुभार नी जग्याए तेनो पुत्र चाली शके, गधेडानी जग्याए बीजू प्राणी पण चाली शके परन्तु माटी विना घडो बनेज नहीं. माटे माटी वगर चाली शकतु नथी. माटे माटी ए. उपादान कारण छे अने कुभार विगेरे निमित्त कारण छ अर्थात् उपादान कारण जेवा प्रकार नु होय छे तेवीज वस्तु बने छे. अहियां उपादान कारण रूप परब्रह्म एटले शुद्ध चैतन्य मय, शाश्वत् चिदानंद मय, सर्व दोष रहित, सर्व गुण सम्पन्न, निष्पाप मय, अनंत ज्ञान मय, अनंत दर्शन मय, अनंत चारित्र मय, अनंत वीर्य मय छे, अने जगत जन्म, मृत्यु, कषाय, काम, दुर्गति, शत्रु, दुष्ट मनुष्य, तिर्यंच, हिंसादि थी भरपूर, अशु च मय, मैथुनादि पाप मय, ब्रह्मनी निन्दा करनार नास्तिको, यवनो, पाखंडिओ, पुण्य-पाप रूप कर्म ना भोग वालू, धर्म अने अधर्म, श्रीमंत अने निर्धन विगेरे विचित्रता वालूछे तो चैतन्य मयादि स्वरूप वालू पर ब्रह्म, जन्मादि वाला अने जड़ स्वभाव वाला एवा जमतनी रचना करवामां कारण भूत केवी रीते बनी शके ? अर्थात् पर ब्रह्म जगत नी रचना करेज नहीं. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) मूलम्: । अनेन कि पल्लवितेन येन, यद् दृश्यते तद् विपरीतमेव । कार्येपुनः कारणजागुणाः स्यु-विद्वांस एवं निगदन्ति तज्ज्ञाः १६ गाथार्थ :- जे वस्तु जगतमां विपरीत देखाय छे तेनो विस्तार करबाथी शुं ? तत्त्वज्ञानी एवा विद्वान् पुरुषो ए प्रमाणे कहे छे के कारण मां रहेला गुणो कार्य मां देखा छे. विवेचन :- जगत मां आपणे प्रत्यक्ष जोइये छीये के कारण मां रहेला गुरण धर्मो कार्य मां देखाय छे. जेमके माटी मां रहेला गुणो घड़ा मां देखाय छे. परन्तु ग्रहियां तो ते विपरीत देखाय छे. परब्रह्म मां ने संसार मां अन्न बन्न मां अलग-अलग गुरण धर्मो रहेला छे. कारण के परब्रह्म मां गुणो रहेला छे। अने संसार मां दुर्गुणो रहेला छे. माटे प्रत्यक्ष रीते जोतां परब्रह्म अने संसार ए बन्न वच्चे कारण- कार्य नो सम्बन्ध घटतो नथी. / मूलम् यदत्र दृश्यं किल वस्त्वनित्यं तद्ब्रह्मरणो जातमिदं हि सृष्टौ तद्योगिनः केन विहाय शीघ्र, जुगुप्स्यमेतद् वृणते विरागम् ॥ ७ गाथार्थ - आ संसार मां खरेखर जे जोवा योग्य वस्तु छे, वस्तु नाशवंत छे. ते वस्तु जगत नी उत्पत्ति समये ब्रह्म ते Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) ने थी उत्पन्न थयेल छे. तो योगी पुरुषो घृणा योग्य वस्तु या कारण थी छोड़ी ने वैराग्य ने धारण करे छे. विवेचन:- ब्रह्मवादिश्रो नो मत एवो छे के ग्रा संसार मां देखती जे वस्तु छे ते बधी वस्तुग्रो संसार नी उत्पत्ति समये ब्रह्म थकीज उत्पन्न थयेल छे. जे वस्तुम्रो उत्पन्न थली छे ते बधी वस्तुओ नाशवंत पण छे. परब्रह्म तो नित्य छे. तो नित्य एवा परब्रह्म थकी अनित्य एवा जगत ना पदार्थो नी उत्पत्ति केवी रीते थई शके ? माटे परब्रह्म थकी जगत नी रचना थई नथी एम नक्की थाय छे. वली परब्रह्म ए परम ऊंच तत्त्व छे अने परम आदरणीय तत्त्व छे. ए कारण थीज योगी पुरुषो परब्रह्म ने प्राप्त करवा माटे घृणा योग्य एवा संसार नो त्याग करी, संयम लई, तप विगेरे नुं सेवन करी अने परब्रह्म नुं ध्यान करी परब्रह्म ने पामे छे. जो संसारनी वस्तुप्रो घरणा योग्य न होत तो योगी पुरुषो संसार नो त्याग केम करती अने जे वस्तु परम ऊंच तत्व मां थी उत्पन्न थयेल होय ते वस्तुप्रो घृणा योग्य परण केम होय ? माटे परब्रह्म मां थी संसार नी वस्तु उत्पन्न थई नथी ते निश्चित छे. मूलम् - यद् द्वेषरागादिविरूपमुज्झ्यं, जगत्स्वरूपं वरयोगवद्भिः । तदेव सर्व खलु ब्रह्मणैव, स्वस्मिन्कथं धार्यमहो युगान्ते ? १८ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) गाथार्थ:- जे ब्रह्म थी उत्पन्न थयेल ने राग-द्वेषादिथी विकृत थयेल एवं जगत नुं स्वरूप योगी पुरुषो वड़े त्याज्य छे. तेज जगत नुं स्वरूप ब्रह्म वड़े युग ना अंते पोताना मां केवी रीते धारण करवा योग्य होय ? एज आश्चर्य छे. विवेचन :- ब्रह्मवादिश्रो ना मत मुजब युग ना अंते आ जगत ब्रह्म मांज लीन थाय छे तेनो प्रतिकार करतां जैन शास्त्रकारो बतावे छे के एक सामान्य माणस पण निन्दनीय अने त्याज्य वस्तु ग्रहण करतो नथी, तो विकृत ने निन्दनीय एवा संसार ने युग ना अंते ब्रह्म पोताना मां केवी ते समावेश करे ? मूलम्: तदा विवेकोऽस्ति न ब्रह्मरूपेऽसौ वा शुकाद्य ेषु न योगवत्सु । कार्यं च धार्यं च यदादिपु सो निन्द्य च हेयं च तदन्यपुंसाम् १६ गाथार्थ ः- त्यारे ब्रह्म रूप मां विवेक नथी अथवा योगी एवा शुकादि मुनियो मां विवेक नथी. कारण के जे जगत शुकादि योगी पुरुषो ने निन्दनीय अने त्याज्य छे ते जगत ब्रह्म केम धारण करे ? ने विवेचन :- विवेकी पुरुषो नी कोई परण प्रवृति हमेशां आदरणीय ने प्रशंसनीय होय छे कारण के तेस्रो जे कोई प्रवृति करता होय छे ते विवेक पूर्वकज करता होय छे. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) परन्तु अविवेकी पुरुषो जे कोई प्रवृति करे छे ते अविवेक पूर्वक करता होवाथी तेमनी प्रवृति आदरणीय तेमज प्रशंसनीय बनती नथी परन्तु उलटी अनादरणीय अने निन्दनीय बने छे. ब्रह्म मां जो विवेक होय तो दुगंछामय अने त्याज्य एवा जगत नी रचना केम करे ? अथवा ब्रह्म जो दुगंछा मय अने त्याज्य एवा जगत नी रचना करे छे, एम मानिये तो ब्रह्म मां विवेक नथी, एम लाग्या वगर रहेतु नथी. परन्तु ब्रह्म मां विवेक नथी एम कहेवु ते पण बराबर नथी. माटे ब्रह्म जगत नी रचना करतो नथी. ___वली शुकादि योगी पुरुषो मां विवेक नथी, एम मानवु ते पण बराबर नथी. कारण के तेमना मां जो विवेक न होत तो निन्दनीय अने त्याज्य एवा जगत नो तेस्रो त्यागज न करत. परन्तु निन्दनीय अने त्याज्य एवा संसार नो तेमणे त्याग कर्यो छे, माटे तेमना मां विवेक छे, ए नक्की थाय छे. तो विवेकी एवा शुकादि योगी पुरुषोए संसार नो त्याग करेल होवाथी ते जरूर निन्दनीय अने त्याज्य छे. माटे निन्दनीय अने त्याज्य एवा जगत नी रचना ब्रह्म केम करे? अर्थात् ब्रह्म जगत नी रचना करतो नथी, एम नक्की थाय छे. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) मूलम् तद्ब्रह्मजा सृष्टिरभापि कल्प-स्तज्जो वदद्भिस्त्विति ब्रह्म मूढं । विज्ञाप्यते किं न च तैस्तथेषां, वान्ताहृतेर्बह्मरिण कि न दोषः २० गाथार्थ :- ब्रह्मथी सृष्टि नी उत्पत्ति ने ब्रह्म थी सृष्टि नो नाश एम कहेनार ब्रह्मवादियो शु पोताना मूर्खपणा ने सूचवता नथी ? एमना मते वमन करेल श्राहार नो शु दोष नथी ? विवेचन :- कोई पण माणस पोते वमन करेल प्रहार ने फरीथी भक्षण करतो नथी छतां ब्रह्मवादिनो ब्रह्म थी उत्पन्न थयेल संसार ने फरीथी ब्रह्म मां लीन थई जव ए माणसे वमन करेल आहार ने फरीथी खावा तुल्य जेवु होवाथी प्रावी बाबत करवी ए ब्रह्म वादिग्रोनी शुं मूर्खाई सूचक निशानी नथी ? वली वमन करेल आहार नो दोष शुं ब्रह्म ने नथी लागतो ? अर्थात् जरूर लागेज. मूलम् लोके तथैकादिक ब्राह्मणादि - घातेऽत्र हत्या महती निगद्या । तन्निघ्नतो ब्रह्मरण एव सृष्टि, साकीदृशी स्याददया दयालोः ? २१ गाथार्थ:- संसार मां एकादि ब्राह्मणादि नो घात करे छते अहियां मोटी हत्या कही छे, तो ब्रह्मनी सृष्टि ने हणतां छतां दयालू एवं तेनी केवा प्रकारनी निर्दयता ? Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) विवेचन:- ब्रह्म एटले ईश्वर. जगत मां बधा प्राणियो करतां ईश्वरं परम दयालू गणाय छे. दयालू तो तेज गणाय के जे कोई पण जीव नी हिंसा करेज नहीं, करावे नहीं अने करनार नी प्रशंसा करे नहीं; परन्तु हिंसा नी वात सांभलतांज जेने कंपारी छूटे. कोई पण सामान्य जीवनी पण हिंसा करवी ते हिंसा गणाय छे. ब्राह्मणादि एक नी हिंसा करवी ते पण हिंसा गणाय छे, तो आखा जगत ना जीवोनी हिंसा करनार ईश्वर ने दयालू गावो के केम ? ते एक प्रश्न छे. ए दृष्टि ए विचारतां पण ब्रह्म ए सृष्टि नो कर्ता अने सृष्टि नो नाश करनार नथी एम नक्की थाय छे. मूलम्:तज्जातसृष्टि न हि तस्य हिंसा, निहिंसतश्चेद् भवतीति चोद्यते सम्पाद्यसम्पाद्यसुतान्स्वकीया-पितुनतस्तहिनकोऽपिदोषः २२ गाथार्थ :- जो ब्रह्म ने पोते उत्पन्न करेल सृष्टि ने हणतां दोष न लागतो होय तो पोताना पुत्रोने उत्पन्न करीने हणतां शुपिता ने दोष न लागे ? : विवेचन:-ब्रह्मवादिनोनु एवु कथन छे के पोताना बनावेल जगत ने हणतां तेने दोष लागतो नथी अर्थात् हिंसा लागती नथी. तेना प्रत्युत्तर मां जैन शास्त्रकारो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) जणावे छे के खरेखर आ तो विचित्र वात कहेवाय. व्यवहार मां पण एक मारगस कोई पण जीव नी हिंसा करे तो हिंसा गणाय छे तो जगत ना बधा जीवो नी हिंसा करतां हिंसा न गणाय ए केम मानी शकाय ? कदाच एम कहेशो के पोते उत्पन्न करेल जगत ने हणतां तेने दोष लागतो नथी तो ते वात पण बराबर नथी, कारण के संसार मां पोताना पुत्रो उत्पन्न करीने तेरणे हणतां शु पिता ने दोष न लागे ? जरूर लागेज. तेम ब्रह्मा ने पण जरूर हिंसा लागे छे. माटे जगत ब्रह्म मां लीन थतु नथी. मूलम्लोलेयमस्यास्ति यदीति चेद्गी-निहिंसतस्तस्य न चास्ति पापम् । एवं हि राज्ञो मृगयां गतस्य,जीवान्घ्नतः पातकमेव न स्यात् ।२३ गाथार्थ :-आतो ब्रह्मनी लीलाछे, माटे जीवो ने हणतां ब्रह्म ने पाप लागतु नथी, एवू जो तेमनु वचन होय तो शिकारे गयेला राजा ने जीवो ने हणतां शु पाप नथी लागतु विवेचन:-ब्रह्मवादिनोनु एवं कथन छ के आतो ब्रह्मनी लीला छे, माटे जीवो ने हणतां ब्रह्म ने पाप लागतु नथी. तेना प्रत्युत्तर मां जैन शास्त्रकारो जणावे छे के लीला एटले बालक्रीड़ा. ब लक्रीड़ा तो लायक होय तेज करे छे Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) अने बालक अज्ञानी होवा थी गमे तेवी रीते बालक्रीड़ा करे तो पण खराब न लागे अथवा तेनी उपेक्षा पण थाय, माटे अज्ञानी जीव नी जेवी बालक्रीड़ा ब्रह्म करे ते केम मनाय ? बीजी वात ए पण छे के बालक अज्ञानी होवा छतां जे धूल नां घर बनावे छे त्यारे तेना घर ने कोई व्यक्ति तोड़े तो तेने घर भांग्या जेटलुज दुःख थाय छे. अने पोताना हाथे तो घरणे भागे धूल ना घर ने भांगतो पण नथी. तो ईश्वर जेवो ज्ञानी पुरुष पोते बनावेल जगत ना जीवो नो नाश केम करे ? अने आवी बालक्रीड़ा ईश्वर करे ए ईश्वर ने शोभतु नथी, तेम मान्यता मां पण आवे नहीं. - वली तमो कहो छे के ईश्वर मात्र लीला खातर सृष्टि नो नाश करे छे, माटे तेने पाप लागत नथी. ते वात पण मान्यता मां न आवे एवी छे, कारण के बीजो माणस हिंसा करे तो पाप लागे अने ईश्वर हिंसा करे तो पाप न लागे ते केम मनाय ? अने प्रावो न्याय पण क्यांनो? जो तमारा मते ईश्वर हिंसा करे तो पाप न लागे, तो शु शिकार करनार राजाओ ने जीव हिंसा नु पाप नथी लागतु ? जरूर लाये छे. माटे ईश्वर सृष्टि नो संहारक छ ते वात बंध बेसती नथी. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) मूलम् - प्रथस्वाभावादथकालतोवा,सृष्टिघ्नतोनास्तिविभोरधाप्तिः । स्वभावकालौयदिचेदबलिष्ठौ,ब्रह्माप्यशस्तेनुदतःक्षयेऽस्मिन् २४ एतौ तदेवात्र च हेतु भूतौ,कि ब्रह्मरणा युक्त्यसहेन कार्यम् । तद्ब्रह्मणःसृष्टिविधितथैव, संहारकत्वं च वदन्ति ये तैः २५ न ब्रह्ममहिमा प्रकटीकृतः किं, निर्दूषणे दूषणमादधे यत् । वन्ध्याममाम्बेतिसमंनिगद्यते,यनिष्क्रियंब्रह्मनिगध कत्रिति २६ गाथार्थः-स्वभाव अथवा कालनी प्रेरणा थी सष्टि ने हणतां ईश्वर ने पाप लागतुन होय अने सृष्टि संहार मां ब्रह्माने ते बे प्रेरणा करता होय तो स्वभाव अने कालने कारण भूत गणो. युक्ति मां न घटे तेवा ब्रह्मनु शु प्रयोजन ? सृष्टि सृजन अने सृष्टि संहार मां कारण भूत ब्रह्म ने कहे छे ते प्रो ब्रह्मनो महिमा प्रगट नथी करतो, परन्तु निर्दोष एवा ब्रह्म मां दोष आपे छे. ब्रह्म ने निष्क्रिय कहीने ब्रह्म ने जगत-कर्ता तरीके कहेवुएटले मारां माता वंध्या छ एम कहेवा बरोबर छे. विवेचनः- ब्रह्मवादिलो हवे एम कहे छे के स्वभाव अने काल नी प्रेरणा थी सृष्टि ने हणतां ब्रह्मने पाप लागतु नथी. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानु के एक माणसे कोई नी प्रेरणा थी खून क्यु-हवे ज्यारे न्यायालय मां तेने खड़ो करवामां आवे अने त्यां न्यायाधीश नी आगल तेने पूछवामां Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) आवतां कहे के में अमुक माणस नी प्रेरणा थी खून कयु छ माटे हुं निर्दोष छ तो शुन्यायाधीश तेना गुन्हा ने माफ करशे खरा ? कदापि नहीं. तेवीज रीते कोई नी प्रेरणा थी पण पाप करवाथी पाप लागतु नथी ते वस्तु बराबर नथी. वली स्वभाव अने कालनी प्रेरणा थी जो ब्रह्म सृष्टि संहार करतो होय तो ब्रह्म करतां पण स्वभाव अने कालने बलवान गणवां पड़े. ते पण ब्रह्मवादिनो ने इष्ट नथी कारण के ब्रह्मवादियो ना मन मुजब स्वभाव अने काल आदि सर्व वस्तुप्रो नो पण ब्रह्म मां समावेश थाय छे. तेथी स्वभाव अने काल ब्रह्म थी बलवान नथी. तेमज स्वभाव अने कालनी प्रेरणा थी ब्रह्म जो सृष्टि नो संहार करतो होय तो युक्ति पूर्वक विचार करतां ब्रह्म ने कारण भूत गणवा करतां स्वभाव अने कालनेज सृष्टि-संहार मां कारण भूत गणवो जोइये. ___जे प्रो ब्रह्म जगत कर्ता अने जगत नो नाश करनार छ एम कही ब्रह्म नो महिमा बताववा मांगे छ तेरो तो ब्रह्म नो महिमा बताववाना बदले उलटो निर्दोष एवा ब्रह्म ने दोषी बनावे छे, कारण के निष्पापी होवा. छतां ब्रह्मने पापी बनावे छे. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) वली ब्रह्म निष्क्रिय एटले क्रिया रहित होवा छतां ब्रह्मने जगत-कर्ता कही सक्रिय बनावे छे एटले 'मारी माता वंध्या छ' एम वदतोव्याघातः जेवु कहे छे. मूलम् - ये केऽपि विज्ञानभतो भवन्ति, सर्वे च ते ब्रह्म विचिन्तयन्ति । ब्रह्मांशकास्तेयदिकोऽस्तिभेदः,कस्मैविचारःक्रियतेतदेभिः।२७ गाथार्थ जे कोई विशिष्ट ज्ञानीग्रो छे ते सर्वे ब्रह्म नु चिन्तन करे छे. तेत्रो सर्वे ब्रह्म ना अंशो छ तो ब्रह्म अने तेमना बे भेद शु? अने तेश्रो शा माटे ब्रह्म नु ध्यान करे छे ? विवेचन:- संसार मां जे विशिष्ट ज्ञानी एवा योगी पुरुषो ब्रह्म ने पामवा माटे ब्रह्म नुध्यान धरे छे. तेो ब्रह्म ना अंशो गणाय छे. अने जो तेश्रो ब्रह्म ना अंशो होय तो तेमना मां अने ब्रह्म मां शो भेद ? अने जो तेमना मां अने ब्रह्म मां भेद न होय तो योगी पुरुषो ब्रह्म नु शा माटे ध्यान करे छे ? अर्थात् ध्यान करवानी जरूर नथी. मूलम् । अंशास्तदीया यदि जन्तवोऽमी, स्वयं स्वपार्श्व हि तदेव नेतृ । विनवकष्टंयदितस्यलब्ध्यै,नीरागतानिःस्पृहतानिकामम् ।२८। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) निर्दोषता निष्क्रियता च तद्व-ज्जितेन्द्रियत्वं च समानभावः । इत्यादिकायैयदितस्यप्रीति- रेष्वेदसिद्ध तदिहाक्रियत्वम् । २६ । थार्थ:- जो आ जीवो तेमनाज अंशो होय तो विना कष्टे पोतानी पासे तेमने लई लेवा जोइये. जो तेमनी प्राप्ति माटे निरन्तर निरागता, निस्पृहता, निद्वेषता, निष्क्रियता, जितेन्द्रिय पर अने समभाव नी जरूर होय तो ते वस्तु प्रत्ये ब्रह्म नी प्रीति छे, एम जररंगाय छे, एटले ब्रह्म मां निष्क्रियतादि छे सिद्ध थाय छे. विवेचन :- संसार मां प्राणियो ब्रह्म ने मेलववा माटे निरोग पशु, निस्पृह पर, निद्व ेष पर इन्द्रिय दमन पर अने सम भाव नी आवश्यकता होय छे; कारण के ब्रह्म ने आटली वस्तु प्रत्ये प्रेम छे. निरागता आदि प्राप्त करवा माटे ब्रह्मनी प्राप्ति इच्छनार ने घरगुज कष्ट करवुं पड़े छे तो प्रश्न ए थाय छे के संसार ना जीवो जो ब्रह्म ना अंश होय तो ब्रह्म तेमने विना कष्टे पोतानीपासे केम लई जतो नथी ? अने तेमने ब्रह्म ना ध्यान नी शी जरूर पड़े ? माटे जगत ना जीवो ब्रह्म ना अंशो नथी एम नक्की थाय छे. वली निष्क्रियता आदि प्रत्ये ब्रह्म ने प्रीति होवाथी ब्रह्म निष्क्रिय छे एम सिद्ध थाय छे. एटले ब्रह्म मां जगत कर्त्ता पर घटतु नथी. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलम् - चेद् वक्ष्यसि ब्रह्मगतःस्वभावो-ऽयमीदृशःसक्रियनिष्क्रियादिः । कर्तुस्त्वनेकैश्च तदास्वभाव-रनित्यतापोह भवेत्कदाचित्।३० द्वषोऽपि रागोऽपि दृशापि वीक्षा,नित्यंतदेवास्ति यदेकरूपम्। आकाशवव्याप्तिरियहियत्र,वाक्येनपञ्चावयवेनक्लुप्ता।३१ गाथार्थ :- जो सक्रियत्व अने निष्क्रियत्वादि रूप प्रावा प्रकार नो ब्रह्म नो स्वभाव कहे शो तो ब्रह्म ना अनेक स्वभावो थशे अने क्वचित् अनित्यादि पण थशे-अनित्य थवा थी द्वष परण थाय, राग पण थाय अने दर्शन पण थाय. जो नित्य होय तो एक स्वभाव छ तथा एमां पंचावयव वाक्य थी आकाश नी जेम व्याप्ति घटे छे. विवेचन:- ब्रह्मवादियो नो एवो मत छे के ब्रह्म ना बे स्वभाव जाणवा-एक सक्रियत्व नो अने एक निष्क्रियत्व मो. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानु के जो तमो ब्रह्म ना सक्रियत्व अने निष्क्रियत्व एवा बे प्रकार ना स्वभाव गणशो तो ते जगत कर्ता ना ब्रह्म ना अनेक प्रकार ना स्वभावो मानवा पड़शे अने अनेक प्रकार ना स्वभावो मानवाथी क्वचित् अनित्यत्वादि स्वभावो पण मानवा पड़शे. अने अनित्यत्व मानवाथी क्वचित् राग पण थाय, क्वचित् द्वेष पण थाय अने ब्रह्म नां दर्शन पण थाय. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) ब्रह्म नो नित्य स्वभाव मानवाथी तो प्रतिज्ञा, हेतु, उदारण, उपनय अने निगम एम पांच अवयव बड़े आकाश नी जेम व्याप्ति लागू पड़शे परन्तु अनेक प्रकार ना ब्रह्म ना स्वभावो मानवामां ब्रह्म एक रूप नहीं होय अने एक रूप न होवाथी अनेक रूपो मानवां पड़े. वली अनेक रूप मानवाथी त्यां आकाश नी जेम पांच अवयवो वड़े व्याप्ति न थाय. माटे बे प्रकार नो सक्रियत्व अने निष्क्रियत्व मानवाथी दोष उत्पन्न थाय छे. मूलम्:कर्तुः स्फुटा सक्रियता मनःस्था, सृष्टौयुगान्तेचतदन्यभावे । स्यानिष्क्रियत्वंचतथैवराग-द्वेषौजनानांसुखदुःखदृष्टया ॥३२॥ याहक्रिया तादृश सौख्यदुःखे, चेदेवमूहो भवतामपि स्यात् । कर्तुंबलकिकिलतहिसिद्ध, स्वपापपुण्येसुखदुःख हेतू ॥३३॥ गाथार्थ :- सृष्टि न सर्जन काले अने संहार काले कर्त्ताना मन मां रहेली सक्रियता अने तेना प्रभाव मां रहेली निष्क्रियता होय. प्राणियो ना सुख-दुःख जोवा थी राग-द्वेष होय. जेवा प्रकार नी क्रिया, तेवा प्रकार नां सुख-दुःख. आ जो तमारो तर्क होय तो पोताना पुण्य-पाप सुख-दुःख ना हेतू छे तो करौना पराक्रम नु शु? विवेचन:-वली ब्रह्म मां सृष्टि ना सर्जन काल मां अने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) सृष्टि ना संहार काल मां सक्रियता अने ते सिवाय ना काल मां निष्क्रियता थाय, एटले ब्रह्म निष्क्रिय होवा छतां ब्रह्म मां सक्रियता आववाथी दोष लागशे. तमारी मान्यता मजब बधा जीवो ने ब्रह्माए बनावेल होवाथी तेमना मां सुख-दुःख जोवाथी ब्रह्माए राग थी जीवो ने सुखी बनाव्या अने द्वेष थी जीवो ने दुःखी बनाव्या. तो ब्रह्मा मां राग अने दोष छ एम लागे. जो ब्रह्म निरंजन होवा छतां राग अने द्वेष रूप दूषण ब्रह्मा ने लागशे. जो तमो एवो तर्क करशो के जीवो ना सुख-दुःख ना कारण मां जेवा प्रकार नी क्रिया तेवा प्रकार नां तेमने सुख-दुःख. तो सुख-दुःख ना कारण रूप पोतानां पुण्य-पाप बन्यां तो ब्रह्मा रूप कर्त्ता नु पराक्रम शु? अर्थात् कर्त्ता तरीके ब्रह्म ने मानवा करतां जीवे करेलां पुण्य अने पापज सुख-दुःख मां कारण रूप मानवां जेथी ब्रह्म ने दोषज न लागे. मूलम्हेब्रह्मवादिन्! यदिजन्तवोऽमी, ब्रह्मांशकास्तहिसमेसमास्युः । तदंशसाम्याबहुभेदभिन्ना-श्वेतहिकश्चिन्ननुतत्करोऽन्यः ॥३४॥ गाथार्थ- हे ब्रह्मवादी ! जो आ जीवो ब्रह्म ना अंशो होय तो तेना अंशो सरखा होवाथी बधा जीवो सरखा होवा जोइये, परन्तु बधा जीवो अनेक प्रकार ना बहु भेद वाला Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) होवा थी ते जीवो नो कर्ता बीजो कोई अन्य होवो जोइये. विवेचन:-आपणा मां कहेवत छे के जेवु झाड़ तेवां पाटियां अर्थात् जेवा प्रकार नी वस्तु होय छे तेवाज प्रकार नी ते मांथी बनेली वस्तुप्रो पण होय छे. एटले जेवा प्रकार नां ब्रह्म होय छे. तेवा प्रकार ना ब्रह्म ना अंशो पण होय छे. जो जीवो ने ब्रह्म ना अंशो मानवामां आवे तो जीवो पण ब्रह्म ना अंशो होवा थी बधा जीवो एक सरखा होवा जोइये. परन्तु बधा जीवो एक सरखा नथी. जूदी-जूदी जात ना अने जूदी-जूदी भात ना छे; एटले नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचिन्द्रिय, त्रस अने स्थावर आदि अनेक भेद वाला जीवो छे, तेथी आ जीवो नो कर्ता ब्रह्म नथी, परन्तु तेनो कोई बीजो कर्ता होवो जोइये. मूलम्ःचेद् ब्रह्मभिन्ना भुवि जन्तवोऽमी, सुखस्यदुःखस्यचकर्तृब्रह्म । हेतोर्यतोदुःखसुखविधत्ते, ब्रह्मासएवाऽस्तुतयोविधाता ॥३५॥ निरञ्जनंनित्यममूर्तमक्रियं, सङ्गोयंब्रह्माऽयपुनश्चकारकम् । संहारकंरागरूड़ादिपात्रकं,परस्परध्वंसिवचोऽस्त्यदस्ततः।३६। गाथार्थ :- संसार मां ब्रह्म थी भिन्न जीवो होय अने सुख-दुःख ना हेतु रूप पुण्य-पाप नो कर्ता ब्रह्मा छे तो ब्रह्म Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) ने निरंजन, नित्य, अरूपी अने अक्रिय करीने ब्रह्म ने जगत नो कर्ता अने जगत नो संहारक अने रागद्वषादि ना पात्र रूप कहेवु एटले परस्पर विरोधी वचन थाय. विवेचन:-ब्रह्मवादिनोनुएवं कथन छे के जगत ना जीवो भले ब्रह्म थी भिन्न होय परन्तु जगत ना जीवो ना सुख-दुःख ना कारण भूत जे पुण्य अने पाप छे तेनो कर्त्ता ब्रह्मा छे. तेना जवाब मां जणाववानु के जे तमो ब्रह्म ने निरंजन एटले रागरहित, नित्य, अरूपी अने क्रिया रहित कहो छो अने बीजी बाजू जगत ना कर्ता अने संहारक तरीके अने राग-द्वेष ना पात्र रूप कहो छो तो तमारा बन्ने प्रकार ना वचन मां परस्पर विरोध जणाय छे. अतो विभिन्न जगदेतदेत-ब्रह्मापि भिन्न मुनिभिर्व्यचारि। अतस्तुसंसारगतामुनीन्द्राः,कुर्वन्तिमुक्त्यैपरब्रह्मचिन्ताम् ।३७। गाथार्थ-एटले मुनिग्रोए विचारेल जगत ब्रह्म थी भिन्न छ एम सिद्ध थयु. एटला माटे संसार मां रहेला मुनि पुगवो मुक्ति माटे ब्रह्म नु चिन्त्वन करे छे. विवेचन:-श्रा जगत ब्रह्म ना अंश रूप नथी परन्तु जगत ब्रह्म थी अलग छे एम मुनि पुगवोए कहेलुते बराबर सिद्ध थाय छे. एटलेज संसार मां रहेला मुनि पुगवो मुक्ति Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) पद पामवा माटे ब्रह्म नुध्यान धरे छे ते बराबर छे. ___ईश्वर नी मायाथी जगत नी अनुपपत्ति मूलम् - येकेऽपिमायामिहविष्णुमाश्रितां, जगद्विधौ हेतुमुदीरयन्त्यथ । प्रष्टव्यमेषामितिकिहिमायां,विष्णुःश्रितोविष्णुमथापिमाया३८ गाथार्थ:-जे केटलाको संसार मां जगत रचना मां विष्णु ना आश्रये रहेल माया ने कारण भूत माने छे तेमने पूछवानु के शुविष्णु ना आश्रये माया रहेली छे के माया ना आश्रये विष्णु रहेला छे. विवेचन:-केटलाक वैष्णवो एम कहे छे के आ जगत विष्णु वड़े सर्जन अने विसर्जन करायुछे. जेम के पद्म पुराण मां तत्त्वानुसारी महादेव कृत भगवत् सहस्त्र पाठ मां प्रतिपादन करेलुछे के सर्वे जीवो युग ना आदि मां उत्पन्न थाय छे अने युग ना क्षये प्रलय ने पामे छे. एवा अनेक पाठो छे. तेस्रोने आश्रयि ने केटलाक वैष्णवो एम कहे छे के आ जगत ना सर्जन मां विष्णु ने आश्रयी ने माया रहेली छे ते कारण भूत छे. आवी माया ने कारण भूत मानता वैष्णवो ने पूछवानुमन थाय छे के विष्णु माया ने आधीन छे के माया विष्णु ने आधीन छ ? आ मान्यता मां शु वांधो आवे ते जैन शास्त्रकार बतावे छे. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) मूलम् माया जड़ा संश्रयितु स्वयं नो, शक्तातुविष्णुःपरब्रह्मतुल्यः । जानन्स्वयंनाश्रयतेहिमायां,यत्पारतन्त्र्यादजड़ोजडंश्रयेत् ।३६। गाथार्थ - जड़ एवी माया तो विष्णु नो आश्रय लेवाने समर्थ नथी. पर ब्रह्म तुल्य विष्णु पण जाणता छता पोते माया नो पाश्रय न ले, जे कारण थी चेतन पराधीन होते छते जड़ नो पाश्रय ले छे. विवेचन:-संसार मां कोई परण प्रवृत्ति करवाने चेतनज स्वतन्त्र छे. जड़ पदार्थ कोई पण प्रवृत्ति स्वतन्त्र रीते करी शके नहीं. आजे जड़ द्वारा जे प्रवृत्ति देखाय छे तेमांप्रेरक तरीके अवश्य चेतनज होय छे. तो माया जड़ होवाथी स्वतन्त्र विष्णु नो आश्रय लेवा समर्थ नथी अने शुद्ध चैतन्य मय एवो आत्मा पण कदापि जड़ वस्तु नो आश्रय लेतो नथी. तेथी पर ब्रह्म तुल्य शुद्ध चैतन्यमय एवा विष्णु पण जाणता छतां जड़ एवी माया नो आश्रय ले नहीं. परन्तु जड़ थी पराधीन बनेल चेतन जड़ वस्तु नो पाश्रय ले छे. मूलम्अथैष विष्णुर्युगपन्नुदेत्ता, पृथक्पृथग्वा प्रतिजीवमी । आद्य यदीमां तु नुदेत्रिलोकी, तदैकरूपास्तु न भिन्नरूपा ।४० तदकरूप्याद्यदि तां पृथक्पृथग्, जीवान्प्रतीत॑नुभवेत्तदानीम् । प्रानन्त्यमस्या इयमप्यनेक-रूपा च जीवामपिभिन्नरूपाः ॥४१॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) गाथार्थः - विष्णु माया ने एक साथे प्रेरणा करे छे के अलग-अलग प्रेरणा करे छे ? जो एक साथे प्रेरणा करता होय तो त्रणे लोक ना जीवो एक सरखा होय परन्तु जूदा रूप वाला नहीं. जो माया ने जूदा-जूदा जीवो प्रत्ये प्रेरणा करे तो माया नु अनन्त पणु थई जाय तो माया पण अनेक स्वरूप वाली अने जीवो पण अनेक स्वरूप वाला थाय. विवेचन:-हवे जो एम मानिये के विष्णु माया ने प्रेरणा करे छे तो शु विष्णु माया ने एक साथे प्रेरणा करे छे के दरेक जीव प्रति अलग-अलग प्रेरणा करे छे ? जो विष्णु माया ने एक साथे प्रेरणा करे छे ए मानवामां आवे तो पण दोष आवे छे, कारण के जो विष्णु माया ने एक साथे प्रेरणा करे तो त्रण लोक ना जीवो एक सरखा होवा जोइये. एटले बधा जीवो सुखी अथवा बधा जीवो दुःखी थवा जोइये, परन्तु भिन्न स्वरूप वाला थवा न जोइये अर्थात् केटलाक जीवो सुखी अने केटलाक जीवो दुःखी न थवा जोइये. परन्तु जीवो जूदा-जूदा स्वरूप वाला होवाथी विष्णु एक साथे माया ने प्रेरणा करे छे ते वात घटती नथी. - जो विष्णु माया ने दरेक जीव प्रत्ये अलग-अलग Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) प्रेरणा करे छे एम मानिये तो दोष आवे छे कारण के दरेक जीव प्रत्ये अलग-अलग जो विष्णु प्रेरणा करे तो माया नु अनन्त पणु थई जाय छे. तो माया पण अनेक स्वरूप वाली थाय अने जीवो पण भिन्न स्वरूप वाला थाय. परन्तु माया एक स्वरूप वाली होवाथी अनन्त स्वरूप वाली माया घटती नथी. मूलम् - नामैवमस्त्वत्र तथापि माया, जडासतीकि चरितुक्षमास्यात् । कर्तुश्च शक्तरथ सा समर्था, तदैवकर्तासुखदुःखदोऽस्तु ।४२। किं कर्तुं रेतैरपराद्धमस्ति, चेदीदृशं तां प्रति जीवमीः । निरागसांप्राणभृताय ई-ग्दुःखादिकर्तासकथंहिकर्ता ?।४३। गाथार्थ:-भले एम हो तो पण माया जड़ होवाथी शु करवाने समर्थ होय ? जो कर्ता नी शक्ति थी समर्थ थाय तो सुख-दुःख नो कर्ता विष्णु थाय. ते जीवोए कर्ता नो शु अपराध कर्यो छे के जेथी विष्णु ते जीवो प्रत्ये तेवा प्रकार नी माया ने प्रेरणा करे ? जो निरपराधी जीवो ना दुःखादि नो कर्ता होय तो ते कर्ता केवी रीते गणाय ? विवेचनः-अनन्त स्वरूप वाली माया तमारा कहेवा मुजब मानिये तो पण जड़ एवी माया कई पण करवाने शु समर्थ थाय ? अर्थात् जड़ एवी माया कई पण करवाने Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) समर्थ नथी. तमो कहेशो के एकली माया कई परण करवाने समर्थ नथी परन्तु कर्त्ता नी शक्ति थी माया कई पण करवाने समर्थ थाय छे. तो ते वात परण बराबर घटती नथी, कारण के जो कर्त्ता नी शक्ति थी माया कई पण करी शकती होय तो सुख - दुःख नो कर्ता माया नथी परन्तु विष्णु थाय. जो विष्णु जगत ना जीवो प्रत्ये माया ने सुख-दुःख आपवा नी प्रेरणा करनार छे एम मानिये तो परण वांधो आवे छे, कारण के जो विष्णु जगत ना जीवो प्रति माया ने सुख-दुःख आपवानी प्रेरणा करे तो जगत ना जीवोए विष्णु नो शो अपराध कर्यो छे के तेमना प्रति दुःख आपवानी विष्णु माया ने प्रेरणा करे छे. अने जो निरपराधी जीव प्रति पर दुःख आपवानी विष्णु माया ने प्रेरणा करे तो परण जगत नो कर्त्ता विष्णु ईश्वर तरीके केम कहेंवाय ? मूलम् : ध्यायन्तियेनेशमिमेऽस्य सागसा - स्तेषामसौदुःखकरः प्रथेत्यहो । ये त्वीशमेनं प्रति सेवमाना, स्तेषामयं सातततिविधत्ते ।४४ | गाथार्थ :- जे प्रो ईश्वर नुं ध्यान करता नथी तेश्रो अपराधी छे. तेमने प्रा ईश्वर दुःख देनार होय छे अने जे ईश्वर नी सेवा करनार होय छे तेमने ईश्वर सुख प्रापनार होय छे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) विवेचन:- वैष्णवो नुएवु कथन छे के जे जीवो ईश्वर नु ध्यान करता नथी ते जीवो ईश्वर ना अपराधी होवाथी तेमने ईश्वर दुःख प्रापे छे. अने जे जीवो ईश्वर नु ध्यान, सेवादि करे छे तेमने ईश्वर सुख प्रापनार थाय छे. मूलम्ःद्वषो चरागी भवतां सकर्ता, यईदृशीमाचरति प्रतिक्रियाम् । नामैवमस्स्वस्तुपरं यएनं, निन्देन्न वन्देत गतिस्तु कास्य ।४५॥ गाथार्थ :- आवा प्रकार नी प्रति क्रिया करवाथी ईश्वर रागी अने द्वषी थशे. भले तेम हो, परन्तु ईश्वर नी निन्दा पण न करे अने वन्दन पण न करे तेनी कई गति ? विवेचन :-जो ईश्वर पोतानु ध्यान करनार ने सुख प्रापे छे अने न करनार ने दुःख आपे छे. एवा प्रकार नो ईश्वर तो रागी अने द्वषी गणाय. तमारा कहेवा मुजब भले ईश्वर रागी अने द्वषी गणाय, एम मानिये तो पण एक बीजो वांधो ए आवशे के ईश्वर नी भक्ति करनार सुखी थशे. अने भक्ति न करनार दुःखी थशे. परन्तु जेनो ईश्वर नी भक्ति करता नथी, नमस्कार करता नथी अने तेनी निन्दा. पण करता नथी तेमनी कई गति थशे ? मूलम्लोके त्रिधा स्याद्गतिरेकवस्तुनो.:: : यत्सेवकासेवकमध्यमात्मिकाः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) आद्यो योश्च द्गतिरस्ति तहि, मध्यस्थजन्तोरपि साऽरतु काचित् ॥४६॥ गाथार्थ:-संसार मां दरेक पदार्थो नी त्रण दशा होय छेसेवक, असेवक अने मध्य प्रथम बन्ने नी गति होय तो मध्य नी कई गति ? विवेचन:-संसार मां दरेक पदार्थ नी त्रण गति होय छे. तेम जीवो ना पण त्रण प्रकार होय छे--सेवक, असेवक अने मध्यम. तेमनी त्रण प्रकार नी दशा होय छे. तेम तमारा कहेवा मुजब ईश्वर ने ध्यान करनार सुखी थाय छे अने ईश्वर नी निन्दा करनार दुःखी थाय छे परन्तु जे ईश्वर नी निन्दा पण करतो नथी अने ईश्वर नु ध्यान पण करतो नथी तेनी एटले मध्यस्थ नी कई गति थाय. मूलम् - अस्यापि काचिनियता गतिः स्या-दस्यागतेस्तहि च कोऽस्ति कर्ता ? । तहाँति वाच्यं सुखदुःखमुख्यं, यथा कृतं कर्म तथैव लभ्यम् ॥४७॥ गाथार्थ:- एनी पण कोई नियत गति होय तो पूर्व कहेल तेनी गति नो कर्त्ता कोण ? तो कहेवु पड़े के तेणे जेवा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) प्रकार नु कर्म करेल होय तेवा प्रकार तु सुख-दुख मले छे. विवेचन:-मध्यस्थ नी पण कोई पण प्रकार नी गति तो अवश्य होय छे. गति वगर केम चाले ? ईश्वर नु ध्यान करनार अने ईश्वर ने ध्यान न करनार एम बे ना सुखदुःख नो कर्त्ता ईश्वर के परन्तु मध्यस्थ ना सुख-दुःख नो कर्ता कोण ? तेनो प्रत्युत्तर वैष्णवो तरफ थी न मलवाथी जैन शास्त्रकारो तेनो प्रत्युत्तर आपे छे के मध्यस्थ पण जेवा प्रकार नु शुभ अथवा अशुभ कर्म करे छे तेवा प्रकार नु सुख-दुःख तेने मले छे. पोतानी मेले ईश्वर द्वारा जीवो नी उत्पत्ति अने संहार नी बन्ने नी अनुपपत्ति मूलम् - इत्थं च ये केचन सङ्गिरन्ते, कर्ता स्वतो जीवगरणान्प्रसृज्य । संसारिभावं प्ररिणदाय तेषां, महालये संहरते पुनस्तान् ।४। वाच्या अमी कि जगदीश्वरोऽयं, जीवान्सतः किप्रकटीकरोति। किंवानवानेवकरोतिकर्ता, चेदादिपक्षःशृणुतहिवार्ताम् ।४६। गाथार्थ केटलाक लोको एम कहे छे के कर्त्ता पोते जीव समूह ने उत्पन्न करी संसारी भाव पमाड़ी महा प्रलय समये फरीने तेमने संहरी ले छे. तेमने पूछवान के शुआ ईश्वर Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) विद्यमान जीवो ने प्रगट करे छे के नवा प्रगट करे छ ? जो आदि पक्ष होय तो तेनो उत्तर सांभलो. विवेचन:- केटलाक यवनाचार्यो एम बोले छे के ईश्वर पोतेज जीव समूह ने उत्पन्न करी संसारी भाव ने पमाड़े छे. अने महा प्रलयकाल समये जीवो ने पोताना मां पाछा संहरी ले छे. त्यारे जैन शास्त्रकारो तेमने पूछे छे के ईश्वर जीवो ने उत्पन्न करे छे ते विद्यमान जीवो ने उत्पन्न करे छे के नवा जीवो ने उत्पन्न करे छे ? जो ईश्वर विद्यमान जीवो ने उत्पन्न करतो होय तो तेनो उत्तर सांभलो. मूलम्:इष्टे पदे चेत्परिरक्ष्य जीवान, यः कार्यकाले प्रकटी करोति । सोऽस्मादृशःकर्मणिवस्तुरक्षी,प्रस्तावनोप्राप्तिभयाद्विभीतः५० गाथार्थ :- जो ईश्वर इष्ट स्थले जीवो ने राखी ने कार्य अवसरे प्रगट करे छे तो अवसरे प्राप्ति ना भय थी डरेल ते ईश्वर क्रिया अवसरे अमारी जेम वस्तु नो संग्रह करनार थाय. विवेचन:-जो प्रथम पक्ष मुजब ईश्वर विद्यमान जीवो ने उत्पन्न करतो होय तो एम नक्की थाय छे के ईश्वर जीवो ने इष्ट स्थले राखी के छे अने कार्य अवसरे प्रगट करे छे. जेम एक सामान्य माणस जे वस्तु नी पोताने जरूर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) छे, ते बस्तु तेने अवसरे मलशे के केम ? एवी वस्तु प्राप्ति ना भय थी वस्तु ने संग्रही राखे छे. तेम ईश्वर पण अवसरे जीवो नी प्राप्ति पोताने थशे के केम ? एवा भय थी जीवो ने संग्रही राखे छे. तो तेम संग्रह करनार मनुष्य भय ना कारणे संग्रह करनार होवाथी ते भयभीत गणाय छे. तेम ईश्वर पण 'मने अवसरे जीवो मलशे के केम' एम भय ना कारणे भयभीत गणाशे. मूलम्ःअशक्तिरप्यस्य निवेदिता य-नो भिन्न भिन्नार्थक मेलवीर्यः । कर्तुस्त्वचिन्त्याकिलशक्तिरस्ति,तत्किसलोभीतिनिगद्यतेहो५१ गाथार्थ-कहेल पक्ष मां का नी अशक्ति जणावी छे, कारण के जूदा-जूदा जीव पदार्थो मेलववा नी शक्ति कर्ता मां नथी. जो वादो कहे के कर्ता नी शक्ति प्राचिन्त्य छे तो ते कर्त्ता लोभी कहेवाय. विवेचन:- ईश्वर प्रथम जीवो ने अमुक स्थले राखी मके छे एटले संग्रही राखे छे अने पछी अवसरे प्रगट करे छे. एम जो तमो मानता हो तो कदाच ईश्वर ने ते वस्तु पाछी मेलववानो जो भय न होय तो ते जीवो अने पदार्थो पाछा मेलववा माटे नी ईश्वर नी शक्ति नथी. त्यारे वादी एम कहे छे के जीवो ने अने पदार्थो ने पाछा मेलववानी ईश्वर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) नी शक्ति के कारण के ते ईश्वर अचिन्त्य शक्ति वालो छे. जो तमो ईश्वर ने अचिन्त्य शक्ति वाला मानो छो तो ईश्वर जीवो ने अने पदार्थो ने संग्रही राखे छे, माटे ईश्वर लोभी होवो जोइये एम लाग्या वगर रहे नहीं. मूलम् : कृत्वा नवानेव यदैव जन्तून, संसारिभावं प्रति लाभयेच्चेत् । मौलानकथंमोचयितुं क्षमोन,येनस्वक्लुप्तानितिकिविडम्बयेत्५२ गाथार्थ:- जो अवसरे नवा-नवा जीवो ने उत्पन्न करी संसारी भाव ने पमाड़े तो ते जीवो ने मुक्त करवाने केम समर्थ नथी के जेथी पोते बनावेल जीवो ने या रीते विडंबना करे छे ? विवेचन:-तमारा कहेवा मुजब सृष्टि सर्जन ना काले ईश्वर नवा-नवा जीवो ने उत्पन्न करी संसारी भाव ने पमाड़ छे एम मानिये तो शु ईश्वर मां नवा-नवा जीवो ने बनावी संसारी भाव ने पमाड़वानी शक्ति छे तो ते बधा जीवो ने मुक्त करवानी ईश्वर नी शक्ति नथी ? जो ईश्वर नी ते जीवो ने मुक्त करवानी शक्ति होय तो पोतानाज बनावेल जीवो ने आ रीते शा माटे विडंबना करतो होय, तो तेनो दया भाव क्यां गयो ? अने ईश्वर ने निर्दय गणवो ते पण ठीक नथी. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) लम् कृतानपीत्थं यदि संहरेत् पुनः कोऽयंविवेकोजगदीशितुःसतः । बालोऽपियोवस्तुनिजप्रक्लुप्तं, धतु क्षमस्तावदयं दधाति ।५३। गाथार्थः जो ईश्वर ए प्रमाणे पोते बनावेल जीवो नो नाश करतो होय तो तेनामां विवेक क्यां थी? बालक पण पोते बनावेली वस्तु ने रक्षण करवाने समर्थ होय तेटला काल सुधी रक्षण करे छे. विवेचन - बालक ज्यारे धल ना घर चौमासा मां बनावे छे. ते घर बनावतां-बनावतां पड़ी जाय छे. छतां ते घर ने साचववा माटे केटलो प्रयत्न करे छे, अने कोई ते घर ने पाड़ी नाखे तो तेने केटलुदुःख थाय छे. कारण के बालक ना मन मां पोताना घर परणा नो भाव बैठो छे, एटले पोते शक्ति मुजब तेनु रक्षण करवा प्रयत्न करे छे तो ईश्वर जेवो शक्तिशाली पोतानाज बनावेला जीवो ने मारी नाखे छे तो शु ईश्वर मां विवेक नथी. मूलम् - लीलेति चेतहि जनोऽपि लीलां, कुर्वन्न निन्द्यो भवति प्रवीणः। सपोयमध्यानमुखैःसलभ्य-श्रेत्तानि रुच्यैयदिसन्ति तस्मै । ५४। एतानि यस्मै रुचये भवन्ति, स नेदृशीं जातु करोति लीलाम् । लोकेऽपिजीवादिकघातनोत्था,लीलानिषिद्धास्तिसमैवतेन।५५ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) गाथार्थ जो आ लीला छे तो लीला करतो मनुष्य विद्वान् पुरुषो वड़े शुनिन्द्य नथी बनतो ? जो तप, यम अने ध्यान वड़े ईश्वर प्राप्त करवा योग्य छे तो तपादि ईश्वर नी प्रीति माटे थाय छे. जो ईश्वर ने तपादि प्रत्ये प्रीति होय तो ते आवा प्रकार नी लीला कदापि करे नहीं. संसार मां पण जीवो ना घात थी उत्पन्न थयेल लीला ईश्वरेज निषेध करेली छे. विवेचनः-जो तमो कहेशो के नवा-नवा जीवो उत्पन्न करवा अने पछी तेनो नाश करवो एतो ईश्वर नी लीला छे. तो तमोने प्रश्न पूछवानुमन थाय छे के एक सामान्य माणस पण आवा प्रकार नी हिंसामय लीला करे तो विद्वान् पुरुषो वड़े निन्दनीय बने छे. तो शु ईश्वर जेवो ज्ञानी पुरुष प्रावी प्रकार नी हिंसामय लीला करे तो निन्दनीय न बने ? अवश्य बनेज.. वली ईश्वर तप, यम अने ध्यानादि बड़े प्राप्त थाय छे. एटले ईश्वर ने तप, यम अने ध्यानादि प्रत्ये प्रीति छ एम नक्की जणाय छे. व्यवहार मां पण माणस जे वस्तु प्रत्ये प्रीति होय छे तेवीज क्रिया करे छे. तो ईश्वर जीवहिंसा वाली आवा प्रकार नी क्रीड़ा केम करे ? कारण के संसार मां पण जीव-हिंसादि वाली सर्व क्रिया ईश्वरे पोतेज निषेधी छे. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) मूलम्-- अन्यानिषेधन्पुनरात्मनासृजं-स्तदासकोऽतीवविनिन्दितःस्यात्। एवं त्वनालोचन कर्मकारं, वयं न कर्तारमिमं वदामः ॥५६॥ गाथार्थ :- जे बीजाने निषेध करतो होय अने पोतेज ते वस्तु करतो होय तो ते अति निन्दनीय बने छे. ए प्रमाणे विचार कर्या वगर करनार ने अमे कर्ता कहेता नथी. विवेचन:-जे वस्तु त्याज्य होय तेनोज निषेध करवामां आवे छे. जे वस्तु नो निषेध ईश्वरे पोतेज कर्यो होवा छतां ईश्वर पोतेज त्याज्य अने निन्दनीय एवी वस्तु करतो होय तो अति निन्दनीय बने एमां शु आश्चर्य ? ईश्वर जेवो ज्ञानी पुरुष आवा प्रकार नी निन्दनीय अने त्याज्य वस्तु ज्यारे विचार कर्या विना पाचरे छे त्यारे एवी रीते विचार कर्या वगर करनार ने अमे कर्त्ता तरीके मानता नथी. मूलम्यत्त्वद्वचोन्यास भरैः स कर्ता, पूतः स्वयं स्वीयजनान्पुनानः । ज्योतिर्मयाद्योत्थगुरणविशिष्टः,सोऽपिस्वकांशान्स्वरसाद्विमोहे५७ संसार भावे विरचय्य सद्यो, जीवत्वमेवं बहुदुःख पात्रं । नुदत्ययं चेन्नहि तहि कर्तु-रंशा इमे प्राण भृतोऽपरेयत्।५८ गाथार्थ :- तमारा वचन मुजब ते कर्ता स्वयं पवित्र छ अने बीजाओ ने पवित्र करे छे, ते ज्योतिर्मय विगेरे थी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) उत्पन्न थयेल गुणो थी विशिष्ट छे. एवो ईश्वर जो पोताना अंश रूप जीवो ने पोताना आनन्द माटे मोह युक्त संसारी भाव पमाड़ी जल्दी अनेक दु:खो ना स्थान रूप जीव भाव ने प्रेरे छे, तो आ जीवो ईश्वर ना अंश रूप नथी परन्तु अलग छे. विवेचन:- तमो पोते मानो छो के ईश्वर स्वयं पवित्र छे, अने बीजा जीवो ने पण पवित्र करे छे. एटलुज नहीं, परन्तु ज्योतिर्मय आदि थी उत्पन्न थयेल गुणो वड़े ईश्वर विशिष्ट छे. पावो ईश्वर पोताना अंश थी नवा जीवो बनावी मोह मय संसारी भाव पमाड़ी अनेक दुःख ना स्थान रूप जीवत्व नी प्रेरणा करे छे. तो या प्राणीमा ईश्वर ना अंश रूप नथी. जो आ प्राणीमो ईश्वर ना अंश रूप होत तो जेम संसार मां मां-बापो पोताना अंश रूप पुत्र-पुत्री आदि कोई ने पण दुःख आपे अथवा दुःखी थाय तेवी प्रेरणा करे एव् क्यारे पण बने खरू ? तेम ईश्वर पण पोताना अंश रूप जीवो ने दुःख आपे अथवा दुःखी थाय तेवी क्यारे पण प्रेरणा करे एम बने खरू ? एटले ईश्वर पोताना अंश रूप जीवो ने दुःखी करे अथवा दुःखी थाय एवी प्रेरणा करे तो ते जीवो ईश्वर ना अंश रूप नथी, परन्तु ईश्वर थी ते जीवो अलग छे. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) मूलम:कर्ता कथं संकटपेटकोदरे, दौर्गत्यदौस्थ्यादिमये भवेऽस्मिन् । जाननिजांशान्सहसैवनुद्यात्,स्वकस्वरूपाद्विनिपात्यरम्यात् ५६ गाथार्थ:- ईश्वर जाणतो छतो विचार कर्या विना पोताना अंशो ने मनोहर एवा पोताना स्वरूप थी पाड़ी ने संकट नी पेटी रूप गर्भ वाला, दुर्गति अने दुःख ना स्थान रूप पा संसार मां केम पाड़े ? विवेचन:- अज्ञानी अने अविवेकी एवां मा-बापो पण पोतानां बालको ने सुख ना स्थान थी दुःख ना स्थान मां पाड़वानी प्रेरणा करतां नथी. तो आ संसार के जे अनन्त दुःख ना भंडार रूप छे. पाबुजाणवा छतां ईश्वर विचार कर्या विना पोताना अंश रूप जीवो ने मनोहर एवा स्वरूप थी पाड़ी ने भयंकर संकट नी पेटी रूप गर्भ वाला, दुर्गति अने दुःख ना स्थान रूप प्रा संसार मां नाखवा नी प्रेरणा केम करे ? अर्थात् नज करे. मूलम् - एषा तु लोलाऽस्ति यदीश्वरस्य, संसार एवैष ततस्तदिष्टः। तदातुसंसारिजनस्तदाप्त्य, कष्टादिकेनाथविधेयमुग्रम् ॥६०॥ गाथार्थ:-ज़ो पा ईश्वर नी लीला छे तो संसार ईश्वर ने Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) पसंद छे. तो संसारी जनोए ईश्वर नी प्राप्ति माटे शा माटे उग्र कष्टादि करवु जोइये? . विवेचन:-संसार मां दरेक माणसो जे वस्तु पोताने प्रिय होय छे तेवा प्रकारनीज क्रीड़ा करे छे. जो जीवो ने पोताना सुन्दर स्वरूप थी पाड़ी ने अनन्त दुःख ना स्थान मां नाखवानी प्रेरणा ईश्वर करे छे तेने जो ईश्वर नी लीला कहेवाती होय तो जीवो ने दुःख ना स्थान मां नाखवानी प्रवृत्ति ईश्वर ने प्रिय छे एम जणाय छे. जो प्रावी प्रवृत्ति ईश्वर ने प्रिय छे तो जगत ना जीवो शा माटे ईश्वर नी प्राप्ति माटे तपादि उग्र कष्ट सहन करे ? मूलम् - पूर्वापराना श्रितवाक्यमेतत्, प्रजल्पतां काऽपि न वाक्प्रतीतिः। य सर्वसद् पगुणानदोषान्, कर्तुर्वरांशानिति पातयन्ति ।६१। गाथार्थः-जे सर्वोत्तम स्वरूप वाला अने दोष रहित एवा ईश्वर ना अंशो ने नाश करे छे, आ पूर्वा पर ा असम्बन्ध वालुवाक्य बोलनार ना वचन नी प्रतीति थती नथी. विवेचनः- कोई पण माणस पोताना श्रेष्ठ भागो ने नाश पमाड़े एवु बनतु नथी. सर्वोत्तम स्वरूप वाला अने दोष रहित एवा पोताना श्रेष्ठ भागो ने ईश्वर नाश पमाड़े एवं Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) परस्पर असम्बन्ध वालु बोलता एवा यवनाचार्यो नुं वचन विश्वासपात्र नथी. कर्म थी जीव ने सुख-दुःख थाथ छे तो पण ईश्वर ऊपर का नुआरोपण नूलम् - किहिवाच्यंशणुकिञ्चिदस्ति, ज्योतिर्मयं चिन्मयमेकरूपम् । द्रष्ट प्रजानां सुखदुःख हेतु,योगीश्वरध्येयतमस्व भावम् ।६२। गाथार्थः तो कइंक कहेवा योग्य छे ते सांभलो. प्रकाश स्वरूप, ज्ञानमय, अद्वितीय स्वरूप, एक रूप, प्रजाना सुख• दुःख ना दर्शक अने योगीश्वरो ने ध्येय रूप एवं ब्रह्म छे. विवेचन:-हवे ईश्वर जगत नो कर्त्ता अने जगत नो नाश करनार छे एवी मान्यता वाला ने जैन शास्त्रकारो प्रत्युत्तर आपे छे के तमो ईश्वर एटले ब्रह्म तेने जगत नो कर्ता अने संहारक तरीके मानो छो, परन्तु पहेलां ब्रह्म - स्वरूप के छे ते सांभलो. प्रकाश स्वरूप, ज्ञान मय, एक रूप, प्रजाना सुख दुःख ना दर्शक अने योगीश्वरो ने ध्येय रूप एवा प्रकार ना स्वरूप वालुं ब्रह्म छे. मलम् : दौर्गत्यदुःखे सुति सुखं च, प्राप्नोति तादृक्कृत कर्म योगात् । जीवो यवा त्वेष समान भावं, श्रयेत्तदागच्छतिब्रह्मभूयम् ।६३। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) गाथार्थ:- जीव तेवा प्रकार ना करेल कर्म ना योगे दुर्गति अने दुःख, सुगति अने सुख प्राप्त करे छे अने ज्यारे आ जीव सम भावना प्राश्रय ले छे त्यारे ब्रह्मत्व ने पामे छे. विवेचन:-संसार मां जीव राग अने द्वेष ने वश बनी जीव हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कजीयो, खोटुं पाल, चाड़ी खावी, आनन्द, शोक, माया मृषावाद अने मिथ्यात्वशल्य विगेरे पापो नु सेवन करवाथी पाप नो बंध थाय छे, अने ते पाप ना उदये निगोद, नरक अने तिर्यंचादि दुर्गति मां जाय छे अने त्यां भूख, तरस, रोग, शोक, दारिद्रय, गर्भवेदना, नरक. वेदना अने निगोद नी वेदना विगेरे अनेक प्रकार नां दुःखो पामे छे. अने दर्शन, पूजा, सामायिक, दान. शियल, तप, भाव, पौषध, प्रतिक्रमण, व्रत, नियम अने ध्यानादि द्वारा पुण्य नो बंध करवाथी ए पुण्य ना उदये मनुष्य गति, देव गति, शरीर नुं आरोग्य, दीर्घ आयुष्य, बुद्धि ना पटुता, इन्द्रिय नी संपूर्णता, लक्ष्मी, मान, यश आदि अनेक प्रकार ना सुखो मेलवे छे परन्तु जीवन मां समता भाव प्राप्त थवा थी जीव ब्रह्मत्व एटले मोक्ष पामे छे. तुष्टिर्जनानां परमेश्वरस्य, चेत्सृष्टि संहारकथाप्रवृत्त्या । स्फूतिप्रभाव प्रतिपादनार्थ,तदेति वाच्या स्तुतिरीश्वरस्या६४। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५ ) गाथार्थ-जो ईश्वर नी सृष्टि रचना अने संहार नी कथा नी प्रवृत्ति वड़े लोको ने तुष्टि थती होय तो देदिप्यमान प्रभाव प्रतिपादन करवा माटे ईश्वर नी स्तुति कहेवा योग्य छे. विवेचन:- जो तमारे लोको ने ईश्वर नो देदिप्यमान प्रभाव प्रतिपादन करवा द्वारा खुश करवा होय अथवा लोको ने खुशी जोइती होय तो ईश्वर नी सृष्टि सर्जन नी कथा अने ईश्वर नो सृष्टि संहार नी कथा करवा करतां ईश्वर नो कोई देदिप्यमान प्रभाव जेमां होय एवी ईश्वर नी स्तुति करवी जोइये. मूलम् प्रास्तामयंश्रीपरमेष्ठिनामा, तद्धयानवानेषजनोऽभिनिष्यात् । कर्तासुखस्यात्मनिसंविधानात्,संहारकश्चात्मतमोपहारात्। ६५ गाथाथ- तमो परमेष्ठि ने कर्त्ता तरीके कहेवार्नु रहेवा दो. परमेष्ठि नुं ध्यान करवाथी पोतानामां सुख ने करवाथी मनुष्य कर्त्ता छे अने पोताना अज्ञान नो नाश करवाथी ते मनुष्य-संहारक छे. विवेचन :-ईश्वर ने जगत नो कर्त्ता अने संहारक तरीके मानवा नुं रहेवा दो, परन्तु मनुष्य परमेष्ठि नुं ध्यान करवाथी पोताना आत्मा मां सुख ने करे छे. माटे ए दृष्टिए Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) मनुष्य सुख नो कर्ता छे अने परमेष्ठि नुं ध्यान करवाथी पोताना आत्मा मां प्रज्ञान रूप अंधकार नो नाश करवाथी ते मनुष्य संहारक छे. मूलम् - यथैव लोके किल कोsपि शूरः स्वाम्यात्तशस्त्रेरपि सर्वशत्रून् सञ्जित्य तत्संहृतिकृन्निजाङ्ग, सुखस्यकृत्यापि भवेत्सक र्त्ता ६६ गाथार्थ - जेम लोक मां कोई शूरवीर स्वामी पासे लीधेल शस्त्रो वड़ े सर्वशत्रुनोने जीती ने शत्रु नो संहारकर्त्ता ने पोताना शरीरे सुख थवाथी सुख कर्त्ता तरीके गरणाय छे. विवेचनः - हवे ग्रंथकार श्री लौकिक दृष्टांत द्वारा ते वस्तु ने स्पष्ट करतां बतावे छे के जेम संसार मां कोई शूर वीर रण योद्धो युद्ध ना समये पोताना स्वामी नी पासे थो शस्त्रो लई ते शस्त्रो वड़े सर्व शत्रुश्रोने जीते छे प्रने जयना कारण थी पोताने सुख थाय छे तेथी शत्रुम्रो नां संहार करवाथी संहारक तरीके गरणाय, अने पोताना सुख नो करनार होवाथी कर्त्ता तरीके गरणाय छे. तेम मनुष्य परमेश्वर नुं ध्यान करवाथी पोताना आत्मा मां सुख थतुं होवाथी पोताना सुखनो कर्त्ता गणाय छे। अने ईश्वर ना ध्यान Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) थी पोताना अज्ञान रूप अंधकार नो नाश करवाथी ते संहारक तरीके गणाय छे. मूलम्यथाऽत्र शस्त्रादिकवस्तुनेतुः,स्था नेस्थितस्यापिन हि प्रयासः। तथेश्वरस्थापिभवेनकाचित,क्रियायतोनिष्क्रियतापिसिद्धा६७ गाथार्थ:- जेम अहीं शस्त्रादिक वस्तुना स्वामी ने पोताना स्थाने बेठेला ने कई पण प्रयास करवो पड़तो नथी तेम ईश्वर ने पण कई क्रिया करवी पड़ती नथी तेथी ईश्वर निष्क्रिय छे एम सिद्ध थाय छे. विवेचनः- ईश्वर जगतनो कर्त्ता नथी अने तेनो संहारक पण नथी, परन्तु ईश्वर मां निष्क्रियता रहेली छे ते बताववा माटे दृष्टांत प्रापवामां आवे छे के जेम पोताना स्थाने बेठेल शस्त्रादिक वस्तुना स्त्रामो ने कई पण प्रयत्न करवो पड़तो नथी. तेम ईश्वर ने पण जगतना सुख-दुःख माटे कई पण क्रिया करवी पड़ती नथी, माटे ईश्वर निष्क्रिय छे ते सिद्ध थाय छे. मूलम् शूरोऽपि चैवं सति शस्त्रभर्त-महोपुकारं किल मन्यतेऽसौ । अधीश भक्तोऽपितदीयनाम-ध्यानोत्थसौख्यस्तकमेववक्ति ६८ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) गाथार्थ-जेम शूरवीर खरेखर शस्त्रना स्वामी नो महान् उपकार माने छे तेम ईश्वर ना नामना ध्यान थी उत्पन्न थयेल सुखनाकर्त्ता तरीके ईश्वर ने माने छे. विवेचन :-व्यवहार मां कारण मां कार्य नो उपचार पण थई शके छे जेमके द्रव्य सामायिक ए भाव सामायिक नु कारण छे. छतां द्रव्य द्रव्य सामायिक करनार परण ‘में सामयिक कयु' एम बोली शके छे अने बोले पण छे. वास्तविक रीते तो समता आवे त्यारेज सामायिक कयु कहेवाय, परन्तु द्रव्य सामायिक ने पण सामायिक कही शकाय छे. तेम आलंबन मां पण कर्त्ता नो उपचार करी शकाय छे. जेमके आत्मा पोताना उद्यम द्वाराज संसार थी तरी शके छे, छतां श्री जिनेश्वर देव नुं आलंबन आत्मा ने संसार तरवा माटे परम आलंबन होवाथी 'हे भगवान, तें मने तार्यो; हे भगवान, तुं मने तार' एम बोलाय छे. अहियां पण आलंबन मां कर्त्ता नो उपचार थाय छे; तेथी तेनो उपकार मानवामां आवे छे. शूरवीर मनुष्य पोताना बलथीज शत्र ने जीते छे, छतां 'शस्त्र आपनार स्वामिए मने जीताड्यो' एम शस्त्रदाता स्वामी नो उपकार माने छे. अहियां पण आलंबन रूप शस्त्रदाता ने कर्ता तरीके माने छे, तेम ईश्वर ना ध्यान थी ईश्वर-भक्त सुख पामे छे, छतां . ईश्वर रूप आलंबन मां Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) कर्ता नो उपचार करी तेने सुख-कर्ता तरीके अने उपकारी तरीके पण माने छे. मूलम्:एवं ह्यनेके खलु सन्ति संतो, दृष्टांतसङ्काः सुधिया सुमुह्याः तथासतीशोमहिमापिविश्रु तो,भक्तुश्च सर्गप्रतिसर्गकर्तृता ६६ गाथार्थ :- ए प्रमाणे खरेखर अनेक दृष्टांत समूहो छे ते बुद्धिमान पुरुषे विचारवां तेमज ईश्वर प्रसिद्ध छे, तेनो महिमा प्रसिद्ध छे अने ईश्वर ना भक्त - सृष्टि सर्जन अने संहारक पणुं पण प्रसिद्ध छे. विवेचन:-हवे उपसंहार करता शास्त्रकार महाराजा फरमावे छे के अनेक दृष्टांतो संसार मां तेमज शास्त्र मां छे तेनो बुद्धिमान पुरुषोए विचार करवो जोइये जेथी ख्याल मां पावशे के ईश्वर जगत-कर्ता नथी अने जगत नो नाश करनार पण नथी. परन्तु ईश्वर ए शुद्ध तत्त्व रूप छे, एम प्रसिद्ध छे. ईश्वर नो महिमा पण प्रसिद्ध छे तथा ईश्वर ना भक्त नुं सृष्टि-सर्जन अने संहारक पणुं पण प्रसिद्ध छे. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) ॥ अथ नवमोऽधिकारः ॥ ब्रह्म नु स्वरूप मूलम्:कि ब्रह्म सिद्धापरनामकीतितं, ध्येयं मुनिनामपि शुद्धचेतसाम् भवागवे यानवदेव योगिनो, जानन्तियन्मुक्तिगहंयियासवः ।। गाथार्थ :- ब्रह्म शु छ ? जेनुं सिद्ध एवं बीजं नाम छे. शुद्ध हृदय वाला मुनिप्रोने ध्यान करवा योग्य छः मुक्ति गृह मां जवानी इच्छा वालाओ जेने संसार रूप समुद्र मां वहागण समान जाणे छे. विवेचन:- हवे ब्रह्म ए शुछे ? एवो प्रश्न करनार ने ग्रंथकार श्री प्रत्युत्तर आपे छे के ब्रह्म नुं बीजुं नाम सिद्ध छे, ए प्रमाणे प्रसिद्ध छ; अथवा आत्मा नी शुद्ध अवस्था एज ब्रह्म नाम नुं तत्त्व छे. जे वस्तु मेलववी होय तेनुं निर्मल चित्ते अने एकाग्र पणे ध्यान करवाथी ते वस्तु नी प्राप्ति थाय छे, एटले आत्मा नी शुद्ध अवस्था प्राप्त करवा माटे निर्मल चित्त नी अने एकाग्रतानी जरूर पड़े छे. माटे मुनियो निर्मल चित्त बड़े अने एकाग्रपणे ब्रह्म नुं ध्यान करता होवा थी ते मुनियो ने ध्येय रूप छे. समुद्र मां मुसाफरी करनार ने वहाण नी अति आवश्यकता होय छे. तेम मुक्ति रूप गृह मां जवानी इच्छा वाला मुनियो ने संसार रूप समुद्र Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) मां ब्रह्म ना ध्यान रूप वहाण नी खास आवश्यकता होय छे. माटे ब्रह्म नुं ध्यान ए वहाग रूप छे. जेम गृह मां प्रवेश पहेलां वहाण नी जरुर पड़े छे परन्तु प्रवेश करतां वहाण नो त्याग करवो पड़े छे, तेम मोक्ष रूप गृह मां प्रवेश करतां ध्यान रूप वहाण नो पण त्याग करवो पड़े छे अने पछी आत्मा पोतानी लुद्ध अवस्था मां स्थिर थई जाय छे माटे मुक्ति रूप गृह मां जवानी इच्छा वाला योगी पुरुषो ब्रह्म ना ध्यान ने भव रूप समुद्र मां वहाण समान छे. कालादि पांच थकी जगत नी उत्तत्ति अने तेनो नाश मूलम् - स्वामिन् ! यदीयंनहिसृष्टिरुत्थिता,सकाशतोब्रह्मणइत्यवाचिचेत् इयं कुतः स्यादपयाति वा कुतो, निगद्यतामद्य रहस्यमेतकद् ।२। गाथार्थ- हे स्वामी, जो ब्रह्म वड़े जगत नी उत्पत्ति न थई होय तो जगत कोनाथी उत्पन्न थयुं अने जगत नो संहार केवी रीते थाय तेनुं रहस्य आप कहो. विवेचन :-हे स्वामी ! आ संसार मां दरेक पदार्थो ना कर्ता पापणे प्रत्यक्ष देखाय छे, अने आप तो कहो छो के जगत नी रचना ब्रह्म थकी थई नथी अने तेनो नाश पण ब्रह्म थकी थयो नथी. तो जगत कोनाथी उत्पन्न थy अने Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) जगत नो नाश कोनाथी थाय छे. एम संशय थाय छे, तो आप तेनुं रहस्य अमोने जणावो. तेनो उत्तर ग्रंथकार श्री आगल नी गाथा मां जगावे छे. मूलम् - त्रिकालविज्ञा इति योगिनोये,निरागिणस्तेऽभिदविशिष्टाः। कालात्स्वभावानियतेश्चवीर्यतःसृष्टिक्षयौस्तःसमवायपंचकात् ३ गाथार्थः- त्रिकाल ज्ञानी, निरागी अने विशिष्ट एवा योगो पुरुषो कहे छे के काल, स्वभाव, नियति, कर्म अने उद्यम ए पांच समवाय कारण ना योगे सृष्टि - सर्जन अने सष्टि नो संहार थाय छे. विवेचन:-जैन शासन नो एवो सिद्धान्त छे के कोई पण कार्य मां पांचे कालादि कारणो अवश्य रहेला होय छे अर्थात् कालादि पांच कारणो कोई पण कार्य मां अवश्य होय छे कदाच गौण-मुख्य पणे होय ते संभावित छे. जेमके आंबा ऊनाला मां थाय छे तेमां काल कारण छे. अांबा नी गोटलीज प्रांबा थाय परन्तु बीज कोई चीज थी प्रांबो न थाय, तेमां स्वभाव ए कारण छे. अथित् प्रांबानी गोटली नो आंबो थवानो स्वभाव छे ऊनालो होवा छतां घरणा प्रांबानो ऊपर आंबा आवता नथी, तेमां काल अने आंबा थवानो स्वभाव छतां भवितव्यता ना कारणे प्रांबा नथी पावता. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेमां भवितव्यता ए कारण छे. ए बधुं होवा छतां अांबा वावनार नां उद्यम अने तेनुं भाग्य होय तोज प्रांबा आवे छे. एम दरेक कार्य मां पांच कारणो रहेलां होय छे. तेम आ जगत नी रचना अने तेनो संहार रूप कार्य मां कालादि पांच कारणो रहेलां होय छे. एटले ए पांच कारणो जगत रचना अने संहार मां कारण भूत छे, एम ज्ञानी भगवंतो नुं कथन छे. . ब्रह्म नुब्रह्म मां लीन थQ अने ज्योति नु ज्योति मां मिलन नूलम् मुनिश्वराः! ब्रह्मरिणब्रह्मलीयते,ज्योतिस्तथा ज्योतिषि संविशेदिति कथं प्रवादो घटते महात्मना-मयं विनाब्रह्मपुराणवेदिनाम् ।४। गाथार्थ :- हे मुनिवरो ! ब्रह्म मां ब्रह्म मुं लीन थवं अने ज्योति मां ज्योति नुं मलq एवं पुरातन तत्त्व ज्ञानी एवा महात्माप्रोनुं पा कथन ब्रह्म विना केम घटे ? विवेचन : जैन शासन नी एवी मान्यता छ के कोई पण संसारी प्रात्मा मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल अने सद्गुरू नो संजोग पामी जिनेश्वर देवनी वाणी न अमत पान करतां सम्यक्त्व पामी संसार नी असारना जाणी, जीवादि तत्त्वो नुं सम्यग् ज्ञान मेलवी सर्व विरति रूप सम्यक् चारित्र नी आराधना करी, चार घाती कर्मो खपावी, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) केवल ज्ञान प्राप्त करी अने चार अघाति कर्मो नो क्षय करे छे; त्यारे ब्रह्म मां ब्रह्म लीन थाय अने ज्योति मां ज्योति मली जाय छे. आq प्राचीन तत्व ज्ञानियोन कथन छे. तो आ कथन ब्रह्म विना केम घटे ? तेनो प्रत्युत्तर आगल नी गाथा मां बतावाय छे. मूलम:निशम्यतां ज्ञानमिदं वदन्ति, ब्रह्मति वा ज्योतिरथेति विज्ञाः तदेकसिद्धस्यहिब्रह्मयावत्, क्षेत्र श्रयेत्सर्वदिशा स्वनन्तम् ।। तावद् द्वितीयस्य तृतीयकस्य, सिद्धस्य ब्रह्माश्रयते तदेव । एवं ह्यनन्तामितसिद्धनाम्नां,ब्रह्माश्रयेत्क्षेत्रमहोतदाश्रितम् ।। तेनेतिगीर्बह्मरिणब्रह्मलीयते,ज्योतिस्तथाज्योतिषिसम्मिलत्यथ अयं प्रवादो मुनिभिःपुरातनैः,समाश्रितोब्रह्मयथार्थवेदिभिः।७। गाथार्थ :- सांभलो, तत्त्व ज्ञानियो ज्ञान ने ब्रह्म अथवा ज्योति कहे छे. तो एक सिद्ध नं ज्ञान सर्व दिशाम्रो मां अनंत प्रमाण क्षेत्र ने आश्रयी रहे छे. बीजा, त्रीजा एम अनंत सिद्धो नुं ज्ञान पण अनंत प्रमाण क्षेत्र ने आश्रयी रहे छे. ते कारण थी ब्रह्म मां ब्रह्म लीन थाय छे, ज्योति मां ज्योति मले छे. एम ब्रह्म ने यथार्थ जाणकार प्राचीन मुनिप्रोनुं आ कथन छे. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) विवेचन:-शब्द शास्त्र मां एक शब्द ना अनेक अर्थो थाय छे. जेमके ‘पयः' एटले 'पाणी' अने 'दूध' पण थाय छे. तेम अहियां ब्रह्म ने ज्ञान पण कहे छे अने ज्योति पण कहे छे. कोई पण आत्मा ज्यारे केवल-ज्ञान पामे छे त्यारे तेमनुं ज्ञान लोकालोक प्रमाण आकाश क्षेत्र ने स्पर्श छे. लोकालोक नुं क्षेत्र अनंत आकाश क्षेत्र प्रमाण छे, तेथी एक सिद्ध नुं ज्ञान सर्व दिशाप्रोमां अनंत क्षेत्र प्रमाणमां व्यापी ने रहे छे. तेम बे सिद्धोनुं, त्रण सिद्धोनू, यावत् अनंत सिद्धोनुं पण ज्ञान सर्व दिशाओ मां अनंत क्षेत्र प्रमाण व्यापी ने रहे छे. माटे प्राचीन तत्त्वज्ञानी मुनि पुंगवो नी वाणी एवी छे के ब्रह्म मां ब्रह्म लीन थाय छे अने ज्योति मां ज्योति मले छे. ब्रह्म अने सिद्धनुअसंकीर्ण पणु मूलम् एवं सतिप्राज्ञवराः! कथं न तत्, क्षेत्रस्य साङ्कर्यमथो भवेत्तथा। परस्परालिङ्गितब्रह्मणोऽप्यहो! ,संकीणता केन भवेन्नतत्र ।। गाथार्थ :-हे श्रेष्ठ विद्वानो ! ए प्रमाणे होते छते क्षेत्र नी संकड़ामण न थाय ? परस्पर आलिंगन पूर्वक रहेल ब्रह्मनी शुं संकड़ामण न थाय ? विवेचन:- व्यवहार मां एम जोवा मां आवे छे के एक . मारणस अथवा एक वस्तु जेटली जग्यो मां रही शके तेट Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) लीज जग्या मां बे माणस अथवा बे वस्तु जो साथे राखवामां आवे तो संकड़ामरण थवानो संभव छे तेवीज रीते एक सिद्धनुं ज्ञान जेटला क्षेत्र मां समाई शके तेटला क्षेत्र मां अनंत सिद्धोनुं ज्ञान समाय छे. एम जे तमो कहो छो तो त्यां शुं संकड़ामरण थती नथी ? अने परस्पर शुं भेगा थई जता नथी ? वो संशय थवाथी वादीए प्रश्न कर्यो छे तेनो उत्तर हवे पछी नी गाथा मां आवे छे. मूलम् - यथैव कस्यापि मनीषिणो हृदि, प्रभूतशास्त्राक्षरसंग्रहे सति । साङ्कर्यमस्यो रसिनैव जायते, न चाक्षराणां परिपिण्डता भवेत् ॥ ६ ॥ एवं चिदाश्लिष्टदिवः समन्ततो, न ब्रह्मभिर्बह्मपरम्पराश्रितैः सङ्कीर्णताऽथोनभसान ब्रह्मणा-मिवोरगाइतिसंविदाज गुः । १० । गाथार्थ जेम कोई पण विद्वान् ना हृदय मां घरणा शास्त्रो ना अक्षरो एकठा थयेल होवा छतां एमना हृदय मां संकड़ा मम थती नथी ने अक्षरो एकठा थई जता नथी. तेवीज रीते ब्रह्म परम्परा थी आश्रितो वड़े, ज्योत परम्परा आश्रितो बड़े अथवा ज्ञान परम्परा श्राश्रितो वड़े ब्रह्म, ज्ञान अथवा ज्योति वड़े एकठा थयेल क्षेत्रनी संकाडामरण थती नथी. अने ब्रह्म, ज्ञान ने ज्योति नी प्रकाश वड़े परण संकीर्णता थती नथी. एम चतुर अने विद्वान पुरुषो कहे छे. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) विवेचन:-ब्रह्म, ज्ञान अथवा ज्योति ए बधा परस्पर प्रालिंगन दईने रहेल होवा छतां एक बीजा परस्पर एकठा केम थई जता नथी, अने एक रही शके तेटली जग्या मां अनंत ब्रह्म, अनंत ज्ञान अथवा अनंत ज्योति रहेवा छतां परस्पर संकड़ामगा केम थती नथी? तेना प्रत्युत्तर मां जणाववान के जेम कोई विद्वान् ना हृदय मां घणा शास्त्रो ना अक्षरो नो संग्रह थयो होवा छतां पण तेना हृदय मां संकड़ामण थती नथी अने अक्षरो एकठा थई जता नथी. तेम ब्रह्म, ज्ञान अथवा ज्योति ए बधा परस्पर आलिंगन दईने रहेल होवा छतां एकठा थई जता नथी अने संकड़ामरण पण थती नथी; एम चतुर अने विद्वान पुरुषो कहे छे. मूलम् - इत्थंहि सिद्ध परिपूरितंशिव-क्षेत्र नसङ्कीर्णमहो! भवेत्कदा । सिद्धास्तथासिद्धपरम्पराश्रिताः,सार्यबाधारहिताजयन्तिभोः११ गाथार्थः-ए प्रमाणे सिद्धो थी पूराएल सिद्ध क्षेत्र सांकडं थतुं नथी अने सिद्ध नी परम्परा थी पाश्रित सिद्धो संकड़ामण अने बाधा रहित जय पामे छे. विवेचनः-जे आत्मामो सकल कर्मो नो क्षय करी मुक्ति मां जाय छे तेमनुं स्थान अने तेयो केवी रीते रहेला छे ते बताववामां आवे छे, ऊर्ध्वलोकमां बार देवलोक, नवग्रेवैयक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) अने पांच अनुत्तर विमानो थी पण ऊपर ४५ लाख योजन लांबी अने पहोली, आठ योजन वचमां जाड़ी अने छेड़ा पर माखी नी पांख जेटली पातली, अर्द्ध चंद्राकार वाली अने श्वेतसुवर्ण जेवी सिद्ध शिला छे. तेना थी एक योजन पछी अलोक रहेलो छे. एक योजन ना चौवीशमा भाग मां अलोक ने अडीने सिद्ध ना जीवो ३३३, मनुष्य प्रमाण मां रहेला छे. कोई पण आत्मा मोक्षे जाय त्यारे तेनुं जे चरम शरीर होय तेना एक तृतियांश भाग अोछो करतां बाकी ना बे तृतियांश भाग जेटली अवगाहना प्रमाणे अलोक ने अड़ी ने ते सिद्ध आत्मा रहे छे. ज्यारे पांच सौ धनुष नी उत्कृष्ट काया वालो जीव मुक्ति ए जाय त्यारे ३३३१ धनुष प्रमाण ते जोव नी अवगाहना होय छे. एटले उत्कृष्ट पणे एक जीव ३३३, धनुष प्रमाण क्षेत्र मां लोक ना अंते अने अलोक ने अड़ी रहे छे. अनादि काल थी अनंतानंत काल मां अनंतानंत आत्माप्रो एज स्थले एटलीज जग्या मां रहेला छे. एटले अनंत सिद्ध आत्माओ परस्पर आलिंगन दई रहेला होवा छतां पण तेश्रो परस्पर एकठा थई जता नथी अने एमने संकड़ा मरण पण थती नथी. तेम ब्रह्म, ज्ञान अने ज्योति परस्पर आलिंगन दई ने रहेवा छतां संकड़ामण थती नथी अने क्षेत्र नी पण संकड़ामण थती नथी. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) ॥ अथ दशमोऽधिकारः ॥ निगोद ना जीवोनु अनंत काल पर्यन्त निगोद ना दु:ख मां रहे मूलम् - प्रश्नःपुनःपृच्छयत्एषपूज्याः!,निगोदजीवानधिकृत्य तद्वत् । निगोदजीवाश्चनिगोदएव,तिष्ठन्ति केनाऽशुभकर्मणा ते ।१। यत्तेहिजन्मात्ययमाचरन्तः,कर्माणि कत्तु न लभन्तिवेलाम् । तत्कर्मणाकेनपरेतदुःखा-नन्तव्यथां तेऽनुभवन्तिदीनाः । २। येतेषुकेचिद्व्यवहारराशि-मायान्ति ते स्युः क्रमतोविशिष्टाः। राशेः पुनर्येव्यवहारनाम्नो,निर्गत्य जीवाअभियान्ति तेऽपि।३। निगोदजीवत्वमथो लभन्ते, कथं व्यवस्था कुत प्राविरस्ति । निशम्यतां सम्यगयंविचारो,विचारसञ्चारितचित्तवृत्ते! ।४। गाथार्थ:-हे पूज्यो, पूर्व नी जेम निगोद ना जीवो ने आश्रयी ने फरी थी प्रश्न पूछू के निगोद ना जीवो कया अशुभ कर्म ना योगे निगोद मां रहे छे. तेोने जन्म अने मरण करता-करतां कर्म करवानो समय पण मलतो नथी. छतां कया कर्म थी नरक ना जीवो करतां अनंत गुणी वेदना, दीन एवा तेत्रो अनुभवे छे. तेमांथी केटलाक व्यवहार राशि मां आवे छे. तेत्रो अनुक्रमे विशिष्ट होय छे. तेरो पण व्यवहार राशि मां थी निकली फरी थी निगोद पणा ने पामे छे, तो कया प्रकारे व्यवस्था छे ? क्याथी Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) प्रगट थाय छ ? विचार मां संचार पामेल मन वाला तमे तेनो उत्तर सारी रीतिए सांभलो. विवेचन:-संसार मां निगोद ना बे प्रकार छे-एक सूक्ष्म निगोद अने बीजी बादर निगोद. सूक्ष्म निगोद गमे तेटली एकठी थवा छतां चर्म चक्ष थी देखी शकायज नहीं. बादर निगोद जे चर्म चक्ष थी देखी शकाय छे, जेमके बटाटा, कांदा,मूला,लसण, गाजर, साकरियां विगेरे कंदमूल जाणवा. __ सूक्ष्म निगोदो चौद राज लोक मां ठांसी ठांसीने भरेल छे. चौद राज लोक मां सूक्ष्म निगोद ना असंख्यात गोला छे. दरेक गोला मां असंख्यात निगोदो छे अने दरेक निगोद मां अनंता जीवो रहेला छे. ए निगोद मां बे प्रकार ना जीवो छे-अव्यवहार राशि वाला अने व्यवहार राशि वाला. दरेक आत्मा अनादि काल थी अव्यवहार राशि मां होय छे. ज्यारे जेटला आत्माप्रो व्यवहार राशि मां थी मुक्ति मां जाय तेटला आत्माप्रो अव्यवहार राशि मां थी व्यवहार राशि मां आवे छे. त्यार बाद ते आत्मानो व्यवहार राशि वाला तरीके गणाय छे. अव्यवहार राशि मांथी एक वार पण व्यवहार राशि मां आव्या बाद फरीथी पण अव्यवहार राशि मां जाय तो पण ते आत्मानो व्यवहार राशि वाला तरीके गणाय छे. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) अनादि काल थी निगोद मां रहेला जीवो अनंत काल पर्यन्त निगोद मां रहे छे, एटले तेस्रोनुं जन्म ने मरण ते निगोद मांज थया करे छे तो कया अशुभ कर्मोना योगे निगोद ना जीवो निगोद मांज रहे छे ? ए प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे. वली निगोद ना जीवो ने जन्म-मरण सतत चालू रहेवा थी कर्म करवानो समय पण मलतो नथी छतां या कर्म ना योग निगोद मां नरक ना जीवो करतां परण अनंत गुणी वेदना निगोद ना जीवो भोगवे छे ? केटलाक जीवो निगोद मां थी निकलो व्यवहार राशि मां आवे छे अने पाछा निगोद मां जाय छे, तेनी व्यवस्था शुं ? अर्थात् कया प्रकारे ? अने क्यां थी प्रगट थाय छे ? आ बधानो प्रत्युत्तर ग्रंथकार श्री तेमने प्रपतां कहे छे के हे बुद्धिमान् ! तमो सुन्दर विचार वाला होवा थी समझ पूर्वक तेनो प्रत्युत्तर सांभलो. मूलम् - निगोदजीवेषु सदैव दुःखं, यदस्ति तत्तादृशजातिभावात् । तथाविधक्षेत्रजनिप्रलम्भान् महात्तिदो दर्कतथाप्ररणोदात् |५| गाथार्थ:- तेवा प्रकार नी जाति ना स्वभाव थी, तेवा प्रकार ना क्षेत्र मां उत्पन्न थवाथी अने दुःख दायक फल Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) उत्तर काल मां जेमने मलवानुं छे एवी भवितव्यता ना योगे निगोद ना जीवो दुःख पामे छे. विवेचन:- निगोद ना जीवो निगोद मां त्रण प्रकार ना कारण थी दुःख पामे छे. प्रथम कारण तो ए छे के निगोद ना जीवो नो तेवा प्रकार नो स्वभावज छे. बीजं कारण ए छे के ते क्षेत्र मां उत्पन्न थयेला जीवो दुःख पामेज छे. अने त्रीचं कारण ए छे के तेयोनी भवितव्यताज एवा प्रकार नी छे के उत्तर काल मां तेमने दुःख मलवानुं छे अर्थात् स्वभाव, क्षेत्र अने भवितव्यता ना कारणेज निगोद ना जीवो त्यां दुःख पामे छे. मूलम् यथैव लोके लवणोदवारि, क्षारं सदा दुःसहकर्मयोगात अनन्तकालेऽपि भवेन्न पेयं, यन्नव वर्णान्तरमाश्रयेत् ॥६॥ गाथार्थ :- जेम संसार मां लवण समुद्र नुं पाणी दुःसह कर्म ना योगे खारू थाय छे. ते अनन्त काले पण पीवा योग्य न थाय अने वर्णान्तर पण न थाय. विवेचन:- दरेक वस्तु नो स्वभाव अलग-अलग होय छे. एटले स्वभाव बाबत मां प्रश्नज न थाय. माटे स्वभाव बाबत नुं दृष्टांत ग्रंथकार श्री आपे छे के जेम संसार मां Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) लवण समुद्र नुं पाणी खारू छे, कारण के एमां दुःखो सहन करी शकाय तेवो तेमना कर्म नो योग छे. ते खारू पाणी अनंत काले पण मीठं थतुं नथी, तेमज तेमां वर्णानन्तर थतो नथी. मूलम् - श्रनन्ततोऽनन्ततरस्त्वनेहा, बभूव वाद्ध लंवरगोदनाम्नः । विनेदृशं कर्म न नाम वाच्यं तत्कुत्र दुष्कर्म कृतं जलेन ॥७॥ गाथार्थ- लवण समुद्र अनन्तानन्त काल थी हतो. तेनुं दुष्कर्म जो न कहेवामां आवे तो जले क्यां दुष्कर्म करेल ? विवेचन :- जगत मां वस्तुनो बे प्रकार नी छे शाश्वत अने अशाश्वत. जे वस्तु नी उत्पत्ति अने नाश होय छे ते अशाश्वत वस्तु गरणाय छे, परन्तु जे वस्तुप्रो नी उत्पत्ति अने नाश नथी, जे कायम नी अने प्रकृत्रिम छे ते शाश्वत वस्तु गरणाय छे. शाश्वत वस्तु अनादि काल थी छे अनंतानंत काल सुधी रहेवानी छे. तेम लवण समुद्र पण अनादि काल थी छे अने अनंतानंत काल सुधी रहेवानो छे, माटे ते परण शाश्वत छे. जले तो एवं दुष्कर्म कर्यं नथी एटले लवण समुद्र नोज कोई दुष्कर्म नो योग मानवो पड़े छे. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) मूलम् : यत्रापि गङ्गादिमहानदीभवं, जलं गतं तद्गतरूपि तद्रसं। निगोदकेषुव्यवहारराशितो,जीवागतास्तेऽपि भवन्तितत्समाः। गाथार्थः जेम गंगादि मोटी नदी नं पाणी लवण समुद्र मां गयेलं तेना जेवू खारू थाय छे तेम व्यवहार राशि मां थी निकली निगोद मां गयेला जीवो निगोद जेवाज थाय छे. विवेचन:-'जेने जेवो संग, रंग तेवो जई बेसे' अर्थात् सोबत जेवी असर थाय छे. सारा नी सोबत थी सारू थवाय छे. अने खराब नी सोबत थी खराब थवाय छे. सज्जन नी सोबत थी सज्जन थाय छे अने दुर्जन नी सोबत थी दुर्जन थाय छे. जेम गंगादि मोटी नदियो नं पाणी लवण समुद्र मां जवाथी ते मीठं होवा छतां खारू थाय छे. तेम व्यवहार राशि मां थी निकली ने निगोद मां गयेला जीवो पण तेना जेवाज थाय छे. मूलम् - तद्वारि मेघस्य मुखं समाप्य, पेयं भवेच्चाथ सुखी भवन्ति । एवं निगोदादपि निर्गता ये, संलभ्य जीवा व्यवहारराशिम् ।। गाथार्थ जेम तेज पाणी मेघ ना संबंध ने पामी ने पोवा योग्य थाय छे, तेम निगोद मां थी निकली ने तेज जीवो व्यवहार राशि ने पामी ने सुखी थाय छे. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) विवेचनः- स्थान नो पण प्रभाव होय छे. जेमके माणस जो दूध पिये तो लोही थाय छे अने तेज दूध जो सर्प पिये तो तेनुं झेर थाय छे. तेज प्रमाणे लवण समुद्र नुं पाणी खारू होवा छतां वादलां नी संसर्ग ने पामी ने पीवा योग्य मीठं पाणी बने छे. तेम निगोद मां थी निकलेला जीवो व्यवहार राशि ने पामी ने सुखी थाय छे. मूलम् यद्वागमज्ञस्य नरस्य कस्यचित्, हृदन्तरोच्चाटन मन्त्रवर्णाः । तिष्ठन्ति तैःकिकृतमत्रदुःकृतं,यदीदृशं नाम निगद्यतेजनः।१०। गाथार्थ :- अथवा कोई मांत्रिक ना हृदय मां उच्चाटन ना मंत्रो रहेला होय छे तेस्रो वड़े आ संसार मां दुष्कृत्य करेलं होय छे तेथी लोको वड़े तेयोनी उच्चाटन संज्ञा कहेवाय छे. विवेचन :-अक्षरो बधा सरखा होय छे, छतां दुर्जनना मुख मांथी निकलेल अक्षरो खराब गणाय छे. तेम अक्षरो बधा सरखा होवा छतां मांत्रिक ना हृदय मां रहेला जे अक्षरोद्वारा दुष्कार्य थयुं होय ते अक्षरो लोको मां उच्चाटन मंत्र नी संज्ञा तरीके अोलखाय छे. मूलम:तरस्थाहिवरायदिकेऽपिशस्त-मन्त्र स्थितास्तेगदिताःप्रशस्ताः। सन्मन्त्रगायेऽपिचमन्त्रवर्णा-स्ते स्युस्तथोच्चाटन दोष दुष्टाः॥११॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) गाथार्थ-जे प्रशस्त मंत्र संबंधी वर्णो मांत्रिक ना हृदय मां रहेला होय छे ते श्रेष्ठ वर्णो कह्या छे. श्रेष्ठ मंत्र संबंधी वर्णो उच्चाटन दोष मुक्त थाय छे. विवेचन:-तेज अक्षरो मांत्रिक ना हृदय मां रहेला जो सारा मंत्र संबंधी होय तो श्रेष्ठ कह्या छे. कारण के सारा मंत्र संबंधी अक्षरो उच्चाटन दोष थी मुक्त होय छे अर्थात् अक्षरो तेना तेज होवा छतां सारा मंत्र संबंधी वर्णो शुभ बने छे अने उच्चाटन मंत्र संबंधी अक्षरो अशुभ बने छे. मूलम्ःक्षेत्र निगोदस्य यथा तथेदं, दुर्मान्त्रिकस्याशुभ वर्णभृद् हृद् । दुर्मन्त्रवर्णाभनिगोददेहिनः, सन्मन्त्रवर्ण व्यवहारिजन्मिनः१२ गाथार्थः- दुष्ट मांत्रिक ना अशुभ वर्ण थी पूर्ण हृदय जेवं निगोद नुं क्षेत्र, उच्चांटन मंत्र ना अक्षरो जेवा निगोद ना जीवो अने सारा मंत्र ना अक्षरो जेवा व्यवहार राशि ना जीवो जाणवा. विवेचन :-दृष्टांत द्वारा वस्तु ने घटाववा थी बराबर समझाय छे. माटे हवे दृष्टांत बतावे छे के अक्षरो बधा सरखा होवा छतां दुष्ट मांत्रिक ना हृदय रूप क्षेत्रना प्रभावे ते अक्षरो खराब तरीके अोलखाय छे. तेम जीवो बधा , Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) सरखा होवा छतां निगोद जेवा क्षेत्र ना प्रभावे निगोद ना जीवो तरीके गणाय छे. अने सारा मांत्रिक ना हृदय रूप क्षेत्र ना प्रभावे ते अक्षरो सारा मंत्र तरीके गणाय छे, तेम व्यवहार राशि रूप क्षेत्र ना प्रभावे व्यवहार राशि ना जीवो गणाय छे अने. ते सारा गणाय छे. मूलम् दृष्टान्तदाान्तिकतेयमात्मना,संयोजनीया समभावभाविना। एवंचसूक्ष्मागुरवश्वपण्डितै-दृश्यास्तुदृष्टांतगणाःस्वबुद्धितः१३ गाथार्थ- दृष्टांत अने दार्टान्तिक नी योजना समभावी आत्मा ए पोतानी मेले घटाववी. ए प्रमाणे नाना मोटां अनेक दृष्टांतो पंडितोए पोतानी मेले बुद्धि थी विचारवां.. विवेचन: ए प्रमाणे शांत चित्र वाला आत्माए पोतानी मेले दृष्टांत अने घटाववा योग्य वस्तु जे दार्टान्तिक नी योजना करवी. फक्त आटलांज दृष्टांतो छ एम नथी परन्तु बीजां नानां मोटां अनेक दृष्टांतो आ बाबत पर छे जेने पंडित पुरुषोए पोतानी मेले विचारवां. निगोद ना जीवो नी अदृश्यता मूलम्ःदक्षाः! निगोदासुभृतःसमस्तं,संव्याप्य लोकं सततं स्थिताश्चेत् ते केन नायान्तिदृशःपथंयके,घनीभवन्तोऽपिनबाधयन्ति ।१४। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) गाथार्थ:-हे चतुर पुरुषो ! जो निगोद ना जीवालोक मां संपूर्ण व्यापी ने रहेला होय तो कया कारण थी दृष्टि पथ मां आवता नथी ? अने परस्पर भीड़ाई ने रहेला होवा छतां केम बाधा पामता नथी ? विवेचन:- जगत मां जे वस्तुप्रो रहेली छे ते वस्तुओ आपणी दृष्टि मां आवे छे तो जैन सिद्धान्त मुजब निगोद ना जीवो चौद राज लोक मां ठांसी-ठांसी ने भरेला होय तो ते प्रो आपणा दृष्टि-पथ मां केम आवता नथी ? अने परस्पर भीड़ाई ने रहेला होवा छतां तेश्रो बाधा केम न पामे ? मूलम् - सत्यं निगोदा अतिसूक्ष्मनाम - कर्मोदयात्सूक्षमतराभवन्ति । एकां तनुतेऽधिगताअनन्ता-स्तथाऽप्यदृश्याननुचर्मदृग्भि ॥१५॥ गाथार्थः-तमारू केहबुं सत्य छे परन्तु निगोद ना जीवो अति सूक्ष्म नाम कर्म ना उदय थी अति सूक्ष्म होय छे. एक शरीर मां अनंता रहेला छे अने चर्म चक्षुथी अदृश्य छे. विवेचन:-जैन सिद्धांत मां ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अने अंतराय एम कर्म नी मूल प्रवृत्ति पाठ छे, तथा उत्तर प्रकृति १५८ छे ते Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) या प्रमाणे:-ज्ञानावरणीय कर्म नी ५, दर्शना वरणीय कर्म नी , वेदनीय कर्म नी २,मोहनीय कर्म नी २८,आयुष्य कर्म नी ४, नाम कर्म नी १०३, गोत्र कर्म नी २ अने अन्तराय कर्म नी ५ जाणवी. नाम कर्म नी १०३ प्रकृति मां सूक्ष्म नाम कर्म नामनी १ प्रकृति छे. ए प्रकृति ना उदये जीवो सूक्ष्म शरीर ने धारण करनारा होवा थी सूक्ष्म होय छे. ए जीवो एक शरीर मां अनंता रहेला छे. आवा अनंता जीवो ए शरीर मां रहेला होवा छतां सूक्ष्म नाम कर्म ना योगे एटला सूक्ष्म होवा थी चर्म चक्षुथी देखाई शकता नथी. परन्तु फक्त केवली भगवंतोज देखी शके छे मूलम्यथोग्रगन्धामृतदेहिरामठा-दिकोत्थगन्धोबहुधा यथा मिथो । श्लिष्टोऽभितिष्ठेन्नतदन्यवस्तुनः, सङ्कीर्णतानापिनभोभुवस्तथा१६ गाथार्थ :- जेम वज, कलेवर अने हिंग आदि थी उत्पन्न थयेलो गंध परस्पर अनेक प्रकारे मले लो रहे छे परन्तु अन्य वस्तु थी संकीर्णता थती नथी, अने आकाश भूमि नी पण संकीर्णता थती नथी. विवेचनः-जेम एक ओरड़ा मां वज, कलेवर अने हिंग आदि अनेक गंध वाली वस्तुप्रो भरेली होय अने ते सिवाय बीजी पण वस्तुओ भरेली होय छे, हवे गंध वाली वस्तुओ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) नो गंध परस्पर अनेक प्रकारे मलेलो होवा छतां बीजी वस्तुप्रो नी साथे संकड़ामण थती नथी, तेमज जग्यानी पण संकड़ामण थती नथी. मूलम् - एवं निगोदासुमतांपरस्परा-श्लषेऽस्ति तेषामतिबाधनं सदा । तथाऽपिचाऽन्यस्यनवस्तुनोऽस्ति,संकीर्णतानवविहायसश्च।१७ गाथार्थः - ए प्रमाणे निगोद ना जीवो परस्पर मलेल होवा थी अति पीड़ा थाय छे परन्तु बीजा पदार्थो ने पीड़ा न थाय अने जग्या नी संकड़ामण पण न थाय. विवेचन:-निगोद ना जीवो एक शरीर मां अनंत रहेला होवा थी तेस्रो परस्पर जरूर अति पीड़ा पामे छे परन्तु बीजी वस्तुप्रो ने पीड़ा थती नथी अने आकाश नी संकड़ामण पण थती नथी. मूलम् - यथाऽनगन्धादिकवस्तुसत्ता,ज्ञया नसा नैव दृशाभिदृश्या । एवं निमोदात्मभृतोऽपिजैन-वाक्याद्विबोध्यामनसानवीक्ष्याः।१८ गाथार्थ जेम अहीं गंधादिक वस्तुग्रो नाक थी जाणवा योग्य छे परन्तु अांख थी नहीं. तेम निगोदादि जीवो जिनवाणी थी मन वड़े जाणवा योग्य छे परन्तु आंख थी नहीं. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) विवेचन:-पांचे इन्द्रियो ना विषयो अने मन ना विषयो अलग अलग होय छे जेमके स्पर्शेन्द्रिय नो विषय स्पर्श करवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, रसेन्द्रिय नो विषय स्वाद करवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, घ्राणेन्द्रिय नो विषय सुंघवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, चक्षुरिन्द्रिय नो विषय जोवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, श्रोत्रेन्द्रिय नो विषय सांभलवा योग्य वस्तु ने जाणवानो अने मन नो विषय विचारवा योग्य वस्तु ने जाणवानो होय छे. तेवीज रीते केटलाक पदार्थो ने केवली भगवंतो केवल ज्ञान वड़ेज जाणी शके छे अने केवल दर्शन बड़े जोई शके छे. तेज प्रमाणे जेम गंधादिक वस्तुनो नाक थी जाणी शकाय छे परन्तु आंख थी नहीं; तेम निगोद ना जीवो जिनवाणी थी-मन थी जाणवा योग्य छे, अांख थी नहीं. मूलम् : ते केवलज्ञानवता हि दृश्याः, यथा हि सर्वत्र रजोऽतिसूक्ष्मम् । उड्डीयमानंनचदृश्यतेऽक्षणा,नचापिराशिभवनेऽपिबोध्यम् ।१६। परं यदाछन्नशुषीनरश्मि-समुत्थवंशीत्रसरेणुरूपम् । प्रकाशयोगादभिवीक्ष्यतेतत दृश्यास्तथादिव्यदृशानिगोदाः।२०। गाथार्श -तेप्रो केवल ज्ञानी थीज जोवा योग्य छे. जेम सर्वत्र रहेल अति सूक्ष्म रज उड़ती छती प्रांखो वड़े जोवाती Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२) नथी अने घणो जत्थो भेगो थवा छतां जणातो नथी, परन्तु जेम आच्छित प्रदेश मा रहेल छिद्र ना सूर्य ना किरणो थी उत्पन्न थयेल किरण नां प्रतिबिम्बो मां उड़ती रज जे त्रस रेणु गणाय छे ते प्रकाश ना संयोग थी देखाय छे, तेम निगोद ना जीवो दिव्य दृष्टि थी देखाय छे. विवेचन:-दरेक पदार्थ चर्म चक्ष थी जोई शकाय छे तेम नथी. जेमके अति सूक्ष्म रज सर्व स्थले उडे छे परन्तु ते रज अांख थी जोई शकाती नथी. वली एज रज नो समूह भेगो थवा छतां परण जोई शकातो नथी. तेम निगोद ना जीवो चर्म चक्षु वड़े जोई शकाता नथी. परन्तु कोई मकान ना छापरा मां जे छिद्र होय छे ते छिद्र मांथी सूर्य नां किरणो थी उत्पन्न थयेल जे किरण नां प्रतिबिम्बो मां जे धूल उड़ती देखाय छे ते त्रस रेणु कहेवाय छे. ते त्रस रेणु सूर्य ना प्रकाश ना संयोग थी देखी शकाय छे. तेम निगोद ना जीवो चर्म चक्षु थी नथी देखाता परन्तु दिव्य दृष्टि थी एटले केवल-ज्ञान थी केवली भगवंतो जोई अने जाणी शके छे. निगोद ना जीवो नु आहार करवा छतां पण भारे पणुनहीं नृलम् स्वामिनिगोदाद्यसुमानन्यदनसन,नगौरवकेनल भेद्गुणेन च । यथाहिसूतोविविधांश्च धातू-नश्रन भजत्येष गरिष्ठतां नो ।२१॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) वस्त्रं यथा चम्पकपुष्पवासितं, यथाचकृष्णागुरुधूपधूपितम् । न मौलभाराननुयातिगौरवं, दृष्टान्तएकःपुनरत्रशास्त्रगः।२२। सिद्धोयथातोलकमानपारदः, स्विन्नः स हेम्नः शततोलकेन । नवर्धतेऽसौ निजतोलकाद्भरा-देवनजीवेऽपिभर कृताहतौ२३ गाथार्थ:- हे स्वामी, निगोद ना जीवो आहार करवा छतां कया गुणती भारे थता नथी तेनो उत्तर छे के जेम विविध प्रकार नी धातुरो नुं भक्षण करतो छतो पारो भारे थतो नथी. चंपक ना पुष्प थी वासित अने कृष्णा गुरु धुप थी धूपित वस्त्र स्वाभाविक भार थी भारे थतुं नथी, तेमज सौ तोला सोना थी पाक थयेल तोला प्रमाण पारो भारे थतो नथी तेम आहार करवा छतां निगोद ना जीवो भारे थतो नथी. विवेचन:-दरेक वस्तु मां बीजी वस्तु भरवाथी तेनुं वजन वधी जाय छे तो हे स्वामिन् ! निगोद आदि ना जीवो आहार करवा छतां कया गुण थी भारे थता नथी ? तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानुं के जेम अनेक प्रकारनी धातुप्रोनुं भक्षण करवा छतां पारा - मूल वजन करतां वजन वधतुं नथी. चंपक ना पुष्प थी वासित अने कृष्णा गुरु धूप थी धूपित थयेल वस्त्र - पण मूल वजन करतां वजन वधतुं नथी. तेमज सौ तोला सोना थी पायेल सिद्ध थयेल एक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) तोला पारा नुं पण मूल वजन करतां वजन वधतुं नथी. तेम निगोद आदि ना जीवो नुं परण प्रहार करवा छतां मूल वजन करतां वजन वधतुं नथी. मूलम्: यथा पुनर्मारुतपूर्णमध्या, हतिः स्वभारादधिकी भवेन्नो । तथैव जीवो विहिताशनोऽपि, स्वगौरवान्नाधिक गौरवचित्। २४ गाथार्थ :- वली जेम पवन थी पूर्ण भरेल मसक पोताना मूल वजन करतां अधिक न थाय तेम आहार करेल पण पोताना वजन थी अधिक वजन वालो थतो नथी. विवेचन:- ए प्रमाणे अनेक दृष्टांतो द्वारा सिद्ध करी बताववामां आवे छे के जीव आहार करवा छतां परण मूल वजन थी अधिक वजन वालो थती नथी. निगोदना जीवो अनंत काल थी दुःखी होय छे अने तेवा प्रकार ना कर्म नुं बंधन करे छे. मूल: साधों ! निगोदाङ्गभृतोऽतिदुःखिताः, स्युं कर्मरणा के ननिगद्यतामिदम् इमं विना केवलिनंनकश्चि द्विज्ञोऽपिविज्ञातुमलं विचारम् ।। २५ ।। तथापि च प्रत्ययहेतवेदः, निगद्यते किञ्चन कर्मजातम् । Recent निगोदजीवाः, स्थूलात्रवान्सेवितुमक्षमा हि। २६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) परन्त्वमी एकतर्नु श्रिता य-त्तिष्ठन्त्यनन्ताः प्रतिजन्तुविद्धाः। पृथक्पृथग्देहगृहप्रमुक्ताः, परस्परद्वषकरात्मसंस्थाः ॥२७॥ अत्यन्तसङ कीर्णनिवासलाभा-दन्योन्यसम्बद्धनिकाच्यवैराः । प्रत्येकमप्येष्वभिवर्तमान-मनन्तजीवैस्तत उग्रवैरम् ॥२८॥ गाथार्थः- हे साधु पुरुषो ! निगोद ना जीवो कया कर्म थी अति दुःखी होय छे ते तमो जणावो ? उत्तर प्रापे छे के आ बाबत ने केवली भगवंत सिवाय कोई विद्वान् पण जाणवाने समर्थ नथी. तो पण जाणवा माटे पा कर्म नो प्रकार जणावाय छे. जो अहियां निगोद ना जीवो स्थूल आश्रवो सेववाने समर्थ नथी, परन्तु प्रत्येक जन्तु ने वींधी ने एक शरीर मां अनंता जीवो रहेला छे, अलग-अलग शरीर थी रहित छे, परस्पर द्वेष ना कारण भूत तैजस कार्मण वड़े स्थिति वाला छे, अत्यन्त संकीर्ण निवास मलवा थी परस्पर बांधेल निकाचित वैर भाव वाला अने प्रत्येक ने अनंत जोवो नी साथे उग्र वैर भाव वाला छे. विवेचन:-निगोद ना जीवो कोई पण जीव नी क्यारेय पण हिंसा करता नथो, क्यारेय पण अठु बोलता नथी, क्यारेय पण चोरी करता नथी, क्यारेय पण मैथुन सेवता नथी तेमज क्यारेय पण अल्प पण परिग्रह राखता नथी; एटले मोटां पापो क्यारेय पण करता नथी. छतां कया कर्म ना योगे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) ए जीवो दुःखी होय छे ? तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानु के आ बाबत संबंधी केवली भगवंत विना कोई विद्वान् पण जाणवा समर्थ नथी. तो पण जाणवा माटे आ कर्म नो प्रकार अहीं जणावाय छे. जोके निगोद ना जीवो मोटा पापो जीव हिंसादि करवाने समर्थ नथी, परन्तु ते अोने अलग शरीर न होवाना कारणे एक शरीर मां अनंता जीवो प्रत्येक ने वींधी ने रहेला होवा थी परस्पर द्वेष भाव रह्या करे छे. अने द्वेष भावना कारणे अत्यन्त कर्म बंध पण थया करे छे. वली जग्यानी पण अत्यन्त संकड़ामण थवा थी परस्पर निकाचित वैर भाव पण बंधाय छे. ए रीते प्रत्येक जीवनी साथे अत्यन्त उग्र वैर भाव बंधावाथी निगोद ना जीवो भयंकर कर्म बांधे छे अने ए भयंकर कर्म ना उदये ए जीवो अत्यन्त दुःखी होय छे. मूलम् . एकस्य जन्तोर्यदपीह वैर-मेकेन जीवेन तदप्यजेयम् । एकस्य जन्तोर्यदनन्तजीवै-वैरं भवेच्चेत्तदनन्तकालः ॥२६।। कथं न भोग्यं पुनरेधमानं, तदेव तेनैव ततोऽप्यनन्तम् । एवं निगोदासुमतां न वैरं,सान्तं न दुष्कर्मचनाऽपि कालः॥३०॥ गाथार्थ:- अहिंयां एक जीव ने एक जीव नी साथे वैर होय तो पण अजेय होय छे तो एक जीव ने अनंत जीवो Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ). नी साथे वैर भाव थाय तो अनंत काले केम भोग्य न बने वली ते वैर वृद्धि पामतु अनंतानंत काल सुधी केम न थाय ? ए प्रमाणे निगोद ना जोवो ने वैर भाव नो अंतावतो नथी, दुष्कर्म नो अंत पावतो नथी अने काल नो पण अंत आवतो नथी. विवेचन:-निगोद ना जीवो अनंत काल सुधी अत्यन्त दुःखी केम होय छे ते बतावे छे के आ संसार मां एक जीवने एक जीव नी साथे वैर भाव बंधाई जाय छे, तो पण गुण सेन अने अग्निशर्मा नी जेम केटलाए भवो सुधी अंत आवतो नथी. तो अनंत जीवो नी साथे एक जीव ने वैर थाय तो अनंत काल सुधी पण वैर नो अंत न आवे एमां आश्चर्य जेवु कइं नथी. वली ते वैर भाव नी परंपरा वधती जाय तो चक्रवर्ती व्याज नी जेम अनंतानंत काल सुधी वैर भाव चाल्याज करे छे. ए प्रमाणे निगोद ना जीवो ने अनंतानंत काल सुधी अनंत जीवो नी साथे वैर भाव रहे छे. वैर भाव ना योगे दुष्कर्म पण बंधाय छे अने दुष्कर्म ना योगे निगोद ना जीवो अनंतानंत काल निगोद मांज रही अनंत दुःख भोगवे छे अर्थात् निगोद ना जीवो ने वैर भाव, दुष्कर्म अने काल नो अंत आवतो नथी. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) मूलम् - लोके यथा गुप्तिगहाश्रिताना-मन्योन्यसंमर्दनिपीडितानाम् । प्रत्येकमाबद्धनिकामवैर-भाजां नारणां किल कर्मबन्धः॥३१॥ भावस्त्वमीषामलमीदृशः स्या-धदेषुकश्चिम्रियतेऽपयातिवा। तदाहमासीय सुखेन भक्ष्य-मायातिकिञ्चिद्घनमंशतश्च॥३२॥ इत्यादिकं वैरमतुच्छमोहक, प्रवर्धमानं प्रतिबन्दि यत्स्यात् । तस्मादमीषामतिदुष्कृतस्या-देवंनिगोदाङ्गभतामपीक्ष्यम्॥३३॥ गाथार्थ:- जेम संसार मां अन्योन्य संमर्दन थी पीड़ा पामता अने प्रत्येक नी साथे बांधेल वैर भाव वाला कैदिनो ने खरेखर कर्म बंध होय छे. एप्रोनो एवो भाव होय छे के एमांनो कोई मनुष्य मरी जाय अथवा नासी जाय तो हं सुखे रहूं अने खावानु पण अधिक मले, ए प्रमाणे अधिक आवा प्रकार नु वृद्धि पामतु वैर भाव प्रत्येक बंदी प्रत्ये ते अोने होय छे. तेथी कैदियो ने दुष्कर्म बंध थाय छे. तेम निगोद ना जीवो ने पण जाणी लेवु. विवेचनः-निगोद ना जीवो ने वैर भाव थी केवी रीते कर्म बंध थाय छे ते समझाववा माटे कैदीप्रोनु सुन्दर दृष्टांत बतावतां ग्रंथकार श्री फरमावे छे के जेम संसार मां एक कैदखाना मां दश समाई शके त्यां पचास भरेला होय अने दश ने जोइये तेटलो खोराक पचास जण ने अपातो होय त्यारे तेत्रो परस्पर संकड़ामरण ना कारणे पीड़ा पामता Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) होवाथी वैर भाव बांधवानो प्रसंग उपस्थित थाय ते स्वाभाविक छे. दरेक कैदी ने ते समये एवा प्रकार ना परिणाम आवे के एमांथी कोई मरी जाय अथवा नाशी जाय तो हुं सुखे रही शकु अने मने तेटलो खोराक नो भाग पण अधिक आवे एटले आवा कलुषित भाव थी दरेक कैदी नी साथे वैर भाव वधतो जाय छे. अने ए वैर भाव ना योगे भयंकर कर्म बंधन पण थया करे छे. तेवीज रीते निगोद मां रहेला जीवो ने पण एक शरीर मां अनंता जीवो रहेला होवाथी संकड़ामण ना कारणे परस्पर पीड़ा पामता होवा थी आ बधा जीवो मरी जाय तो मने रहेवा माटे नी बराबर जग्या मलवाथी हुं सुखे रही शकु अने एक जीवने जोइये तेटला आहार मां अनंत जीवोनो भाग होवा थी आ बधा मरी जाय तो मने खावा ने अधिक मले. एवा कलुषित परिणाम थी अनंत जीवो नी साथे वैर भाव वधतोज जाय छे, अने वैर भाव वधवा ना कारणे अनंत काल सुधी दुष्कर्म बंध थयाज करे छे. अने तेथी अनंतानंत काल निगोदमांज रहे छे अने अनंत दु:खना भोक्ता पण निगोद ना जीवो बने छे. मूलम्ःतथातिसङ्कीर्ण पञ्जरस्थिताः,विद्वेषभाजश्चटकादिपक्षिणः । जालादिगावातिमयोमियोभव-द्विबाधनद्वषचिताःसुदुःखिनः।३।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) गाथार्थ - ते प्रकारे अत्यन्त सांकड़ा पांजरा मां रहेलां चकलां विगेरे पक्षियो वैर युक्त होय छे अथवा जाल आदि बंधन मां रहेलां माछलांगों परस्पर पीड़ा थी वैर युक्त थवाथी अत्यन्त दुःखी होय छे. विवेचन:-तेवीज रीते बीजां दृष्टांतो पण बतावाय छे जेमके अत्यन्त सांकड़ा पांजरा मां रहेल चकलादि पक्षियो अथवा जाल विगेरे मां रहेल एक प्रकार नां माछलां विगेरे परस्पर पीड़ा पामवाथी वैर भाव बांधतां अत्यन्त दुःखी थाय छे. तेम निगोद ना जीवो पण परस्पर पीड़ा पामवाथी वैर भाव बांधी अत्यन्त दुःखी थाय छे. मूलम् । तथा पुनस्तस्करके निहन्य-माने च सत्यामनले विशन्त्याम् । कौतूहलार्थपरिपश्यतांनृणां द्वषंविनोत्तिष्ठतिकर्मसञ्चयः ।३५॥ बुधास्तमाहुःकिलसामुदायिकं, भोमोयदीयो नियतोऽप्यनेकशः। एवंहिचेत्कौतुकतः कृतानां, स्वकर्मणामत्र सुदुर्विपाकः ॥३६॥ अन्योऽन्यबाधोत्थविरोधजन्मना-मनन्तजीवैःकृतकर्मणांतदा । भोगोऽप्यनन्तेऽपगते हिकाले,निगोदजीवनहि जातुपुर्यते ॥३७॥ गाथार्थ:- तेज प्रमाणे चोर हणाये छते अने पतिव्रता स्त्री अग्नि मां प्रवेश करते समये कुतुहल थी जोता छता मनुष्यो ने द्वेष विना पण कर्मनो बंध थाय छे. विद्वान् पुरुषो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१) तेने सामुदायिक बंध कहे छे. एनो अनुभव पण अनेक प्रकारे निश्चित छे. जो ए प्रकारे कुतुहल वश करेल पोताना कर्मो न आ संसार मां अत्यन्त दुःख दायक फल छे. तो अनंत जीवो नी साथे परस्पर द्वष भाव थी उत्पन्न थयेल कर्मो ना फल नो अनुभव अनंत काल व्यतीत थये छते निगोद ना जीवो थी कदाच न पूराय. विवेचन:- केटलीक वखत द्वेष विना मात्र कुतुहल थी पण कर्म बंधाय छे ते बतावतां ज्ञानी भगवंतो कहे छे के चोर ने फांसी देवाती होय अथवा पतिव्रता स्त्री पोताना पति पाछल अग्नि मां प्रवेश करी सती थती होय ते समये कुतुहल थी जोवा छतां पण मनुष्यो ने कर्म नो बंध थाय छे. तेने ज्ञानी भगवंतो सामुदायिक बंध कहे छे. एनु फल पण अमुक प्रकारे भोगवद् पड़े छे. जेमके अग्नि थी अथवा पाणी थी गाम नो नाश थाय त्यारे गामना बधा लोकोनो नाश थवाथी बधां ने एक साथे पाप नो उदय थवाथी पाप नु फल भोगवद् पड़े छे. तेने सामुदायिक कर्मो नो उदय कहे छे. ए प्रकारे आ संसार मां कुतुहल वश करेल पोताना कर्मो नु अत्यन्त दुःख दायी फल भोगवद् पड़े छे. तो अनंत जीवो नी साथे परस्पर द्वष भाव थी उत्पन्न थयेल कर्मो ना फल नो अनुभव अनंत काल व्यतीत थये छते पण Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) निगोद ना जीवो थी कदाच न पूराय एवं परण बने तो आश्चर्य नहीं । निगोद ना जीवो ने मन विना पण कर्म बंधन मूलम् : पूज्याः ! निगोदासुमतांमनोऽस्तिनो, के नेदृशंतन्दुल मत्स्यवभृशम् । प्रजायते कर्म यतस्त्वनन्त कालप्रमारणं परिपाक एवम् ||३८| गाथार्थ :- हे पूज्यो, निगोद ना जीवो ने मत होतु नथी छतां तंदुलिया मच्छ नी जेम कया कारण थी एवा प्रकारनु कर्म बंधाय छे जेथी तेना फल नो अनुभव अनंतकाल पर्यन्त रहे छे ? विवेचन :- शास्त्र मां एम लखेलु छे के 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः' एटले मनुष्यो ने मन एज बंध अने मोक्ष कारण छे अर्थात् शुद्ध मन द्वारा कर्म थी मोक्ष थाय अने अशुद्ध मन द्वारा कर्म नो बंध थाय छे. जेमके प्रसन्नचन्द्र राजर्षिए अशुभ मन द्वारा सातमी नरक नां दलियां एकठां कर्या ने शुभ मन द्वाराज केवल - ज्ञान प्राप्त कयु. तो ए प्रश्न थाय छे के निगोद ना जीवो ने मन नथी होतु ं छतां तंदुलिया मच्छनी जेम कया कारण थी एवा प्रकार नुं कर्म बंधाय छे के जेना फल नो अनुभव अनंत काल पर्यंत करवो पड़ े ? Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) मूलम् - सत्यं यदेतन्न मनोऽस्त्यमीषां, तथापिचान्योऽन्यविबाधनोत्थम् । दुष्कर्म तूत्पद्यत एव यद्व-द्विषं निहन्त्येव यथातथाहृतम् ॥३६॥ गाथार्थ -जो के आ जीवो ने मन नथी होतं ते सत्य छ, तो पण अज्ञान के ज्ञान दशा मां खाधेलु झेर पण हरणे छे. तेम अन्योन्य पीड़ा थी उत्पन्न थयेल दुष्कर्म उत्पन्न थाय छे. विवेचन:- मन ना बे प्रकार छे-द्रव्य मन अने भाव मन संजीपंचेन्द्रिय जीवो ने द्रव्य मन अने भाव मन एम बन्ने प्रकार नुं मन होय छे. परन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय विगेरे ने द्रव्य मन नथी होतं, परन्तु भाव मन अवश्य होय छे. जगत मां केटलीक वस्तुप्रो एवी छे के माणस नी इच्छा होय के न होय तो पण तेनी असर थया वगर रहेती नथी. जेमके औषध माणस नी इच्छा होय के न होय तो पण तेने औषध नी असर थया वगर रहेती नथी. तेवीज रीते जाणतां के अजाणतां पण खाधेल झेर माणस ने हणी नाखे छे. तेम अन्योन्यनी पीड़ा थी उत्पन्न थयेल दुष्कर्म बंधाय छे अने भाव मन रहेलं होवाथी राग द्वेषादि नी असर पण थाय छे. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) मूलम् - सज्ञाश्चतस्रोऽप्यथवैषु मिथ्या,योगःकषायोऽविरतिश्च सन्ति । इमानिसण्यपिकर्मबन्ध-बीजान्यनन्तैस्त्वधिकोविरोधः॥४०॥ गाथार्थ:- निगोद ना जीवो मां मिथ्यात्व, योग, कषाय अने अविरति ए संज्ञाम्रो पण होय छे. ए चार कर्म बंधन नां कारणो छे. तेमां अनन्त जीवो साथे नो द्वेष पण छे, पछी शु कहेवू ? विवेचन:-जोके आहार, भय, मैथुन अने परिग्रह ए चार संज्ञाप्रो ज वधारे प्रसिद्धि मां छे, छतां अहियां ग्रंथकार श्री ए मिथ्यात्व, कषाय, अविरति अने योग ने पण संज्ञा तरीके गणेल छे. ए चारे कर्म बंधना हेतु तरीके गणेल छे, अर्थात् आत्मा आ चार हेतु मांथी कोई पण एक, बे, त्रण अथवा चारे हेतु थी कर्म बंधन करे छे. जिनेश्वर देवोए बतावेल जीवादि नवतत्त्वो प्रत्ये अरुचि तेनं नाम मिथ्यात्व, पंच महाव्रत आदि मोटा व्रतो अने स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि पांच अनुव्रतो त्रण गुणवतो अने चार शिक्षाव्रतो विगेरे बार व्रतो आदि व्रतो ग्रहण न करवां ते अविरति. क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार कषाय ; अने मन, वचन, काया नी प्रवृत्ति ते योग ए चार कर्म वंधन नां मूल कारणो छे. मिथ्यात्व नां पांच प्रकार, अविरति ना बार प्रकार, कषाय ना २५ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) प्रकार अने योग ना १५ प्रकार एम ५७ हेतु कर्म बंधना उत्तर हेतु रूप छे. ए चारे हेतु पण निगोद ना जीवो मां रहेल छे, तेथी निगोद ना जीवो कर्म बंधन करे छे. तेमां पण परस्पर पीड़ा थी उत्पन्न थयेल अनंत जीवो साथे नो द्वेष होय पछी कर्म बंधन - कहेज शं? माटे मन विना . पण निगोद ना जीवो कर्म बंधन करे छे. मूलम् एवंनिगोदासुमतां निदर्शनैः,किञ्चित्स्वरूपं गदितं यथामति । यतस्त्विदंनोकिलकोऽपिवक्तुं शक्तोविनाकेवलिनंकुलीनाः॥४१॥ गाथार्थः- हे कुलीनो ! ए प्रमाणे निगोदना जीवो नं कइंक स्वरूप दृष्टांतो वड़े पोतानी बुद्धि अनुसारे का, कारण के केवली भगवंत विना निगोद नुं स्वरूप कहेवाने कोई समर्थ नथी. विवेचन:- ग्रंथकार श्री पोतानी लघुता तथा निगोदना स्वरुप नी गहनता बतावतां जणावे छे के वास्तविक रीतिए तो निगोद ना स्वरूप नुं वर्णन करणु ते मारा जेवा अल्पज्ञ अने छद्मस्थ जीव नी शक्ति बहार नी वात छे कारण के निगोद चं स्वरूप धरणुज सूक्ष्म छे. एटले केवली भगवंतोज तेनुं वर्णन करवाने समर्थ छे. छतां में मानी बुद्धि अनुसार अनेक दुष्टांतो साथे निगोद ना जीवो - कइंक स्वरूप वर्णव्युछे. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) ॥ अथ एकादशोधिकार: ॥ निगोदथी पूर्ण व्याप्त समग्र विश्वमा बीजा द्रव्योनो समावेश अने आकाश नं अवस्थान मूलम्:स्वामिन्निदं विश्वमशेषमित्थं पूर्ण निगोदर्यदि तहि तत्र । कर्माण्यथोपुद्गलराशयोऽपि,धर्मास्तिकायादिकथंहिमान्ति ॥१॥ गाथार्थः- हे स्वामी ! पा समग्र विश्व निगोदो वड़े पूर्ण भरायेल होय तो ते विश्व मां कर्मो, पुद्गल राशियो अने धर्मास्ति कायादि केवी रीते समाय ? विवेचनः-एक वासण जो कोई पण वस्तु थी पूर्ण भरायेल होय तो तेमां बीजी एक पण वस्तु नो समावेश थई शकतो नथी. तो आ समग्र विश्व जो निगोदो थी पूर्ण भरायेल होय तो तेमां कर्मनी वर्गणाओ, पुद्गल नी राशियो, धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय विगेरे पदार्थो नो ते विश्व मां केवी रीते समावेश थई शके ? मूलम् : सत्यं यथा गान्धिकहट्टमध्ये, कर्पूरगन्धः प्रसृतोऽस्ति तत्र । कस्तूरिकाजातिफलादिसर्व-वस्तूत्थगन्धोननुमातिकिन ॥२॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) गाथार्थ :-तमारी वात सत्य छे छतां जेम गांधी नी दुकान मां कर्पूर नो गंध फैलायेलो होय छे छतां कस्तूरी, जायफल आदि सर्व वस्तु नो गंध पण शुत्यां नथी समातो ? अर्थात् समाय छे. विवेचन:-तमारी शंका बराबर छे, छतां जगत मां केटलाक पदार्थो एवा होय छे के एकज जग्या मां अनेक पदार्थों समाई शके छे. एटला माटे अहियां दृष्टांत पूर्वक वस्तु समझावाय छे. जेमके कोई एक गांधीनी दुकान मां कर्पूर नो गंध चारे बाजू फैलायेलो छे, छतां तेज दुकान मां कस्तूरी, जायफल आदि बीजी वस्तुप्रोनो गंध पण चारे बाजू फैलायेलो छे. एटले जेम एक वस्तु ना गंध नो साथे बीजी अनेक वस्तुप्रो नां गंध पण समाई शके छे, तेम निगोदो थी भरपूर विश्व मां कर्म वर्गणा, पुद्गल राशियो,धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय विगेरे नो पण समावेश थई शके छे. मूलम् - तत्राऽस्ति मार्तण्डतपस्तथैव, धूपस्य धूमस्त्रसरेणवोऽपि । वायुश्चशब्दश्चसुमादिगन्धो,मातोयथास्यादथचाऽवकाश ॥३॥ गाथार्थः- त्यां सूर्य नो ताप, धूप नो धुमाड़ो, त्रस रेणुप्रो वायु, शब्द अने पुष्पादि नो गंध समायेलो छे, तेम बीजी वस्तुओ ना गंध नो पण अवकाश छे. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) विवेचन:- वली तेज वस्तुनी पुष्टि करतां बतावे छे के जेम ते दुकान मां कर्पूरादि नां गंध समायेल छे,तेम सूर्य नो तड़को, धूप नो धुमाड़ो, सूर्य किरणो ना प्रतिबिम्बो, पवन, शब्द अने पुष्पादि तो गंध पण समायेल छे तेम बीजी अनेक वस्तुनो ना गंध नो पण अवकाश छे. तेवी रीते निगोदो थी भरपूर विश्व मां, कर्म वर्गणा, पुद्गल राशियो, धमास्ति कायादि अनेक वस्तुनो नो पण समावेश थई शके छे. पुनश्चकस्याऽपिविचक्षणस्य, वक्षोन्तराशास्त्रपुराणविद्याः । वेदाःस्मृतिमन्त्रकलाश्चयन्त्र-तन्त्राणिसण्यभिधानकोषाः ।।। ज्योतिर्मतिर्व्याकरणादिविद्याः,रागारसाशीविषयाःकषायाः । वार्ताविनोदावनिताविलासाः,दानादयोमत्सरमोहमैत्र्यः ॥५॥ क्षान्ति तिर्दु:खसुखेगुरणास्त्रयः, आम्नायशङ्काभयनिर्भयाधयः। ध्यानादयोमान्तियथैवतद्वद्,द्रव्यारिणलोकेऽपिवसन्तिनित्यम् ।६ गाथाथः - वली कोई विद्वान् पुरुष ना हृदय मां रहेल शास्त्र अने पुराण नी विद्या, वेदो, स्मृति, मंत्र विद्या, सर्व यन्त्र अने तन्त्र, अभिधान नामनो कोश, ज्योतिः शास्त्र, विज्ञान, व्याकरण विद्या, रागो, रसोनी आशीषो, विषयो, कषायो, वार्ता, विनोदो, वनिता ना विलासो, दान विगेरे, मत्सर, मोह, मित्रता, क्षमा, धैर्य,दुःख-सुख, गुणो,अाम्नाय, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) शंका, भय, निर्भय पणुं, आधिप्रो, ध्यानादि जेम समाई जाये छे तेम लोक मां द्रव्यादि पण सतत रहे छे. विवेचन : - वली जेम कोई विद्वान् पुरुष ना हृदय मां अनेक प्रकार ना शास्त्रो नी विद्या, पुराणो नी विद्या, स्मृति एटले ब्राह्मणो नुं धर्म शास्त्र, अनेक प्रकार ना मंत्रो नी विद्याओ, बधां यंत्रो ने तंत्र, अभिधान नामनो कोष के जेमां एक वस्तु नां अनेक नामो आवे छे ते. ज्योतिषशास्त्र, विज्ञान, व्याकरण विगेरे नुं ज्ञान, न्याय शास्त्र, ध्रुव पद विगेरे रागो श्रृंगार, वीर, वीभत्स, युद्ध, हास्य, विगेरे रसना आशीषो, पांचे इन्द्रियो ना विषयो, क्रोध, मान, माया ने लोभ विगेरे कषायो, अनेक प्रकार नी कथाप्रो, मन रंजन करनार उपन्यास विगेरे, स्त्रियो ना अंगो थी उत्पन्न थता हाव भाव आदि चेष्टाओ, दान, शिय क्त, तप आदि प्रवृत्तियो, ईर्ष्या, मोह, अने मित्रता, क्षमा, धैर्य, दुःख ने सुख, सत्त्व, राजस अने तामस विगेरे गुणो; संप्रदाय, स्नेह, भय, निर्भयपणुं, मानसिक उपाधिप्रो, चार प्रकार नां ध्यान विगेरे जेम समाई जाय छे तेम आ विश्व मां जीवादि सर्व द्रव्यो परण समाई जाय छे. ल: लोके यथा वा वनखण्डमध्ये रेणुस्तथामी त्रसरेणवोऽपि । सूर्यातपो वह्नितपः सुमानां, गन्धः समीरः पशुपक्षिशब्द ||७|| " Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) वादित्रनाद छदमर्मरादि, सर्वारिण मान्तीह तथाऽवकाशः । एवं चद्रव्यै निचितेऽपि लोके - वकाशएषोऽपिचतादृशोऽस्ति |८| गाथार्थ-जेम संसार मां वन खंड़ मां धूल, सूर्य ना किरणो नो प्रतिबिम्बो, सूर्य नो ताप, अग्नि नो ताप, पुष्पो नो गंध, पवन, पशु-पक्षी नो शब्द, वाजिंत्र नो नाद, पांदड़ो नो अवाज विगेरे सर्व वस्तुप्रो समाई जाय छे तेम द्रव्योथी प्राप्त एवा लोक मां प्रनो पण तेवीज रीते समावेश थई जाये छे. विवेचन :- अथवा श्रा संसार मां जेम वन खंड़ मां धूल, सूर्य नां किरणो नो प्रतिबिम्बो नी उड़ती रज जे त्ररण रेणु कहेवाय छे ते, सूर्य नो तड़को, अग्निनो ताप, पुष्पादि नो गंध, पवन, पशु-पक्षिो ना शब्दो, अनेक प्रकार ना वाजि - न्त्रो ना प्रवाजो, पांदड़ा नो अवाज विगेरे सर्व वस्तुप्रो समाय छे; तेम निगोदो थी संपूर्ण भरायेल आ विश्व मां कर्मनी वर्गणाप्रो, पुद्गल नी राशियो, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय विगेरे द्रव्यो, बीजा जीवो विगेरे अनेक वस्तुप्रो पण तेमां समाई शके छे. आवी रीते अनेक दृष्टांतो द्वारा वस्तु सिद्ध करवामां आवी छे. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१) ॥ अथ द्वादशोधिकारः ॥ सुख-दुःख नु कारण कर्म,भाग्य स्वभावादि नाम वडे कर्म नुप्रतिपादन. मूलम्पृच्छामिपूज्यानप्रणयादिदानी, जीवस्तुकर्मारिणशुभाशुभानि । भुङ्कतेसुखैषीकिमुदुःखितःसं-स्तदाऽस्तिकश्चिन्ननुकर्मनोदकः।१। गाथार्थ- हे पूज्यो, हुं विनयपूर्वक पूर्छ, छं के जो सुखाभिलाषी जीव शुभाशुभ कर्मो भोगवे छे तो दुःखी केम थाय छ ? कर्म नो प्रेरक कोण ? विवेचन :-प्रश्नकार ने आ जीव सुख नो अभिलाषी अने दुःख नो द्वेषी होवा छतां दुःख ना कारण भूत अशुभ कर्मो केम भोगवे छे, आवो संशय थवा थी पूछे के हे पूज्यो ! हुं विनय पूर्वक आपने प्रश्न पूछं, छ, के जीव सुख नो अभिलाषी होवा छतां शुभा शुभ कर्मो भोगवे छे तो जीव दुःखीं केम थाय छे ? अने ते कर्मो नो प्रेरक कोण ? कर्मो नो प्रेरक कोई अवश्य होवो जोइये. मूलम:विधिग्रहो वा परमेश्वरो वा, कायमोवाभगवानिहाऽस्तु । प्रणोदकः कर्मगरणस्ययेन,दुःखंसुखं वा परिभोज्यतेजगत् ॥२॥ गाथार्थः-श्रा संसार मां विधाता, ग्रहो, परमेश्वर, जगत Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२) कर्ता, यमराज अथवा भगवान कर्म ना समूह नो प्रेरक छ माटे जगत सुख-दुःख भोगवे छे. विवेचनः कर्म ना प्रेरक तरीके विधाता आदि ने माननार कहे छे के जीवने स्वयं दुःख भोगववानी इच्छा होतो नथी. छतां अशुभ कर्म ना योगे जोव ने दुःख भोगववं पड़े छे. माटे कर्म नो प्रेरक होवो जोइये अने तेथी प्रेरक तरीके विधाता, नव ग्रहो, परमेश्वर, जगत कर्ता ब्रह्मा, यमराज अथवा भगवान एमांनो कोई कर्मनो प्रेरक होवो जोइये. मूलम् - नवं यदेतानि भवन्ति कर्म-नामानि शास्त्रे पठितानि तद्यथा । भाग्यं स्वभावो भगवानदृष्टं, कालो यमो देवतदेवदिष्टम् ।३। अहो ! विधानंपरमेश्वरःक्रिया, पुराकृतंकर्मविद्याविधिश्च । लोकःकृतान्तोनियतिश्चकर्ता,प्राक्कीर्णप्राचीन विधातलेखाः।४। इत्यादिनामानिपुराकृतस्य, शास्त्र प्रणीतानितु कर्मतत्त्वगैः । तदात्मनोनस्वकर्मणोविना, सुखस्यदुःखस्यचकारकोपरः ।। गाथार्थः तमारु आ कथन बराबर नथी. जे कारण थी शास्त्र मां कर्म नां नामो कहेलां छे, ते आ प्रमाणे भाग्य, स्वभाव, भगवान्, अदृष्ट, काल, यमदैवत, देव, दिष्ट, विधान, परमेश्वर, क्रिया, पुराकृत, विधा, विधि, लोक, कृतान्त, नियति, कर्ता, प्राक्कीर्ण लेख, विधाता लेख Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) इत्यादि नामो कर्म स्वभाव जाणनारो एज पूर्व करेल कर्मो नां शास्त्रो मां कहेल छे. पोताना करेल कर्मो सिवाय जीवना सुख-दुःख नो कर्ता बीजो कोई नथी. विवेचनः जगत मां जीवनी इच्छा दुःख भोगववानी नथी छतां अशुभ कर्म ना बंध ना योगे दुःख भोगवणुं पड़े छे. माटे कर्म नो कोई प्रेरक होवो जोइये. अने प्रेरक तरीके विधाता आदि मां थी कोई एक होवो जोइये. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानुं के विधाता आदि एमांनो कोई प्रेरक नथी, परन्तु कर्म शास्त्र ना जाणकारो एज भाग्य, स्वभाव, भग वान,अदृष्ट, काल, यम, दैवत, देव, दिष्ट, परमेश्वर, क्रिया, पुराकृत, विधा, विधि, लोक, कृतांत, नियति, कर्ता, प्राक्कीर्ण लेख, प्राचीन लेख अने विधाता लेख विगेरे ने शास्त्रो मां कर्म नां नामो कहेल. छे. माटे ए बधा कर्म ना प्रेरक बनता नथी, परन्तु जीव ना सुख-दुःख नो कर्ता पोताना करेल कर्म सिवाय बीजो कोई प्रेरक नथी. कोई नी पण प्रेरणा विना जोवन स्वरुप नुप्राप्त कर कम नो स्वभाव अने जीवनु स्वरुप नूलम् - स्थाने त्वजीवानिपुनर्जड़ानि, कर्माणिकिंकर्तुं मिहक्षमाणि ? । कश्चित्तदेषांपरिणोदकोऽस्तु, यच्छक्तितोऽमूनिसहीभवन्ति ।६। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४) गाधार्थ:-तमोए कहेल बराबर छे, परन्तु कर्मो अजीव अने जड़ होवाथी कई करवाने समर्थ नथी, माटे ए कर्मो नो कोइक प्रेरक छेले जेनी शक्ति थी कर्मो समर्थ थाय छे. विवेचनः कर्मो ने प्रेरणा करनार कोइक होवो जोइये एवी मान्यता वालो कहे छे के तमोए कहेल के विधाता विगेरे कर्मो नाज नाम छे. ते तमारी वात सत्य छे. परन्तु कों कोई नी प्रेरणा विना कई करवाने समर्थ नथी. कारण के कर्मो अजीव तेमज जड़ छे, ते थीज शंका थाय छे. वली व्यवहार मां पण एमज देखाय छे के जड़ एवी पौद्गलिक वस्तुनो स्वयं कई करवाने समर्थ नथी. पौद्गलिक बधी वस्तुनो - संचालन जीवनी सहाय थीज थाय छे. एवो सर्व ने अनुभव छे. तो कमों अजीव तथा जड़ होवा थी कोई नी प्रेरणा विना कई पण करवाने केम समर्थ थाय ? एटले कर्मो नो कोई पण प्रेरक होवो जोइये अने तेनी शक्ति थीज कर्मों कई पण करवाने समर्थ थाय छे. मूलम्:इदं तु सत्यं परमत्र कर्मणा-मेषां स्वभावोऽस्ति सदेहगेव । विनेरकंयान्यखिलात्मनःस्वयं,स्वरुपतुल्यंफलमानयन्ति ॥७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) गाथार्थः- तमारु कहेवू सत्य छ परन्तु अहियां आ कर्मो नो हमेशां एवा प्रकार नो स्वभावज छे. प्रेरक विना आ कर्मो सर्व जीवो ने पोत पोताना स्वरुप तुल्य फल पमाड़े छे. विवेचन:-तमोने शंका थाय ते बराबर छे. परन्तु जगत मां दरेक वस्तु नो पोत पोतानो स्वभाव होय छे. जेमके अग्नि नो स्वभाव उष्णता छे, जल नो स्वभाव शीतलता छ, जीव नो स्वभाव ऊँचे जवानो छे अने पुद्गल नो स्वभाव नीचे जवानो छे. तेम कर्मो नो स्वभाव पोताना स्वरुप तुल्य स्वयं जीवने फल पमाड़वानो होवा थी कोई नी पण प्रेरणा विना सर्व जीवो ने पोत पोताना स्वरुप तुल्य फल पमाडेज छे. मलम्यतोऽभिवर्तन्तइमेऽत्रजीवाः, अजीवसम्बन्धमधिश्रिताः सदा । जीवन्त्यजीवनय जीवितार-स्त्रोकालिकःसङ्गम एभिरेषाम् ।। गाथार्थ:-आ संसार मां जे जीवो विद्यमान छे, ते अजीव ना संबंध थी हमेशां पाश्रय पामेला जीव्या, जीवे छे अने जीवशे. आ जीवो ना आ कर्मो नी साथे त्रिकाल संबंधी संबंध छे. विवेचन:- जीवो ना बे प्रकार छ-संसारी जीव अने सिद्ध ना जीवो. कर्मो थी रहित थयेला ते सिद्ध ना जीवो अने Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) कर्मो थी युक्त ते संसारी जीवो. संसारी जीवो संसार मां अनादि काल थी अनंतानंत काल थया छे, संसार मां रहेला जीवो ने कर्मों नो संयोग पण अनादि काल थी होवा थी अनादि काल थी अजीव ना संबंध ने तेश्रो पामेला छे. वली कर्मों ना योगे शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा, मन विगेरे संसारी जोवनोपयोगी घणीज सामग्री पण जीव ने प्राप्त थाय छे. एटले संसारी आत्मानो जीवन एटलुं बधुं अजीव ने पराधीन बनेनुं छे के अजीव वस्तु ना विना संसारी आत्मा संसारी जीवन तरीके जीवी शकतो पण नथी. माटेज ज्ञानी भगवंतो नुं कथन छे के संसारी आत्मामो भूत काल मां पण अजीव ना संबंध थीज जीव्या छे. वर्तमान काल मां पण अजीव ना संबंध थीज जीवे छे अने भविष्य काल मां पण अजीव ना संबंध थीज जीवशे. एटले संसारो आत्मा नो पा कर्मो नी साथे भूतकाल, वर्तमान काल अने भविष्य काल एम त्रणे काल संबंधी संबंध छे. मूलम्षड्द्रव्यमध्ये खलुद्रव्यपञ्चकं,निर्जीवमेवं समवायपञ्चकम् । एतैरजीवैरपि जीवसङ्कलं, जगत्समस्तं ध्रियते निरन्तरम् ।। गाथार्थ:- छः द्रव्य मां पांच द्रव्य अजीव छे. पांच समवाय पण अजीव छे. ए अजीव द्रव्यो वड़े जीव युक्त सर्व संसार हमेशां धारण कराय छे. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) विवेचन: - जैन सिद्धान्त नी मान्यता मुजब ग्रा संसार मां छः द्रव्यो छे - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय अने जीवास्तिकाय. ए छः द्रव्यो मां जीवास्तिकाय छोड़ी ने पांच द्रव्यो जीव छे. जीव अने पुद्गलो ने गति करवामां सहायक ने प्ररुपी एवं द्रव्य धर्मास्तिकाय, जीव ने पुद्गलो ने स्थिरता करवामां सहायक अने ग्ररुपी एवं द्रव्यते श्रधर्मास्तिकाय, बधा द्रव्यो ने जग्या आपनार अने ग्ररूपी एवं द्रव्य ते आकाशास्तिकाय, समय नी मर्यादा बतावकार अने अरूपी एवं द्रव्य ते काल, जीव ने पुद्गल द्रव्य प्रसिद्ध छे. काल, स्वभाव, भवितव्यता, कर्म अने उद्यम ए पांच कारणो पर अजीव छे. पांच अजीव द्रव्यो ने पांच समवाय कारणो एम दश प्रजीव द्रव्यो थो जीव युक्त सर्व संसार सतत चाले छे. धर्मास्तिकाय नी सहाय द्वारा जीव ग्रने पुद्गल गति करी शके छे. धर्मास्तिकाय नी सहाय द्वारा जीव ने पुद्गल स्थिरता करी शके छे. प्रकाशास्तिकाय द्रव्य श्री जीव अने पुद्गलों आदि जग्या प्राप्त करी शके छे. पुद्गलास्तिकाय थी जीव ग्राहार आदि क्रिया करे छे. कर्मो पण पुद्गलास्तिकाय होवा थी तेमज अजीव द्रव्यो होवा थी जीव सुख-दुःख नो अनुभव करे छे. काल द्रव्य परण वर्तमान आयुष्य आदि नुं प्रमाण Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८) करवामां उपयोगी बने छे. काल, स्वभाव, भवितव्यता, कर्म अने उद्यम ए पांच समवाय कारणोज जीव ने कर्म ग्रहण करवामां, कर्मो भोगववामां अने कर्मों नाश करवामां कारण भूत बने छे. ए प्रमाणे ए दशे अजीव द्रव्यो जीवो ने संसारी जीवन जीववामां उपयोगी बने छे. माटे अजीव द्रव्यो जीव माटे उपयोगी छे. जीवास्त्विमेस्वोजितकर्मपुद्गलः,संतश्रितादुःखसुखाश्रयीकृताः। द्रव्यारिणषट्यत्समवायपञ्चक-मेतन्मयंह्य वजगन्नचाऽपरम्।१० गाथार्थ:---ा जोवो पोते उपार्जन करेल कर्मो वड़े दुःखसुख ने आश्रित थयेला छे. छः द्रव्य अने पांच समवाय मय आ जगत छे. बीजू कंइ पण नथो. विवेचन:- जीवो पोतेज शुभाशुभ कर्मो उपार्जन करे छे अने ए कर्मो ना उदये जीवो सुखी अने दु:खी थाय छे अर्थात् जीवो दुःख अने सुख ने आधीन बनेला छे. तेमज उपरोक्त कारण थी पांच द्रव्य अने पांच समवाय ने पण आधीन बनेला छे. एटले आ जगत छः द्रव्य अने पांच समवाय ने पण आधीन बनेला छे. एटले आ जगत छः द्रव्य अने पांच समवाय ने पण आधीन बनेला छे, एटले आ जगत छः द्रव्य अने पांच समवाय मयज छे, परन्तु छः द्रव्य अने पांच समवाय सिवाय जगत मां बीजं कंइ पण नथी. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) मूलम्: ततः सचेतः प्रणिचेत चेतसा, जीवेभ्यएते सबला अजीवाः । यतोयथाऽजीवबलप्ररणोदिता, जीवास्तथास्युसुः खदुःखभाजः । ११ नाथार्थः— तेथी सावधान थई मन थी जाणे के जीवो । करतां जीवो बलवान छे, कारण के अजीव ना बल थी प्रेरणा पामेल जीवो जे प्रकारे थाय ते प्रकारे सुख-दुःख वाला थाय छे. विवेचन - जीवो छः द्रव्य अने पांच समवाय कारण ने प्राधीन बनेला होवाथी अजीव द्रव्यो जीवो करतां बलवान छे. ए छः द्रव्यो मां पण कर्म रूप पुद्गल द्रव्य मुख्य पर बलवान छे. कर्म पुद्गल द्रव्यो ने बीजां पुद्गलो, पांच द्रव्यो तथा पांच समवाय नी सहाय थी जीवो करतां अजीव बलवान थवाथी जीवो निर्बल बनेला छे. ए कारणे अजीवोनी जेवा प्रकार नी प्रेरणा होय तेवा प्रकार ना जीवो सुखी अथवा दुःखी थाय छे. द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव नी अनिवार्य शक्ति नी प्रेरणा थी जड़ स्वरूप एवा कर्म नु प्रगट पर · मूलम् : :स्वभावएषोऽस्तियतस्तुजीवाः, गृह्णान्तिकर्माणि शुभाशुभानि स्वकालसीमानमवाप्य कर्माण्यमूनि चंषांसुखदुःखदानि ॥ १२ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१०) गाथार्थ:--जीवो शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे. ते कर्मो पोतानी मर्यादा पामी ने जीवो ने सुख-दुःख देनार छे. विवेचन:-जीवो पांच द्रव्य अने पांच समवाय नी सहाय थी शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे अने कर्मो ज्यारे उदय मां आवे छे त्यारे जीवो ने सुख-दुःख आपे छे. एटले जीवो ने सुख-दुःख आपवानो स्वभाव छे. माटें बीजा कोई नी प्रेरणा नी जरूर पड़ती लथी. चेदित्थमेवेति तदायमात्मा, गृह्णाति कर्माणि शुभाशुभानि । प्रात्माऽपिदुःखानिनभोक्तुकामः, यदेषदुष्कर्मपुरस्करोति ।१३॥ तदोहकर्मारिणकियन्तमुच्चै-विलम्ब्यकालंनिजकारमात्मकम् । सुखं तथा दुःखमिमंनयन्ति, कुतो विना प्रेरकमेतदेष्यम् ।१४। गाथार्थ- जो ए प्रमाणे होय तो आ आत्मा शुभाशुभ कर्मो ग्रहण करे छे, परन्तु दुःख भोगववानी इच्छा न होवा छतां दुष्कर्मो ने आगल करे छे. तो विचारणीय छे के कर्मों केटलोक काल विलंब करी ने पोताना कर्त्ता प्रात्मा ने सुखदुःख पमाड़े छे तो प्रेरक विना केम बने ? विवेचन:- जो आत्मा ने सुख-दुःख देवानो कर्मो नो स्वभाव छ एम मानिये तो जीव शुभाशुभ कर्मों ग्रहण करे छे, परन्तु दुःख भोगववानी जीव नी इच्छा नथी छतां अशुभ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) कर्मो ते ते पागल करे छे ते शं विचारणीय नथी ? केटलोक काल गया बाद कर्मो पोताना कर्ता प्रात्मा ने सुखदुःख आपे छे, तो कोई नी पण प्रेरणा विना कर्मों केवी रीते जीव ने सुख-दुःख आपे छे ? मूलम् - सत्यं तु कर्माणि जड़ानि सन्ति, नाभोगकालंनिजकंविदन्ति । आत्माऽपिदुःखानिनभोक्तुकाम-स्तथापिदुःखान्ययमाश्रयेत। १.५ द्रव्यादिसामग्यतथाऽनिवार्य-शक्त्यैवकर्मारिणतुतादृशान्यपि। स्फुटानिभूत्वास्वककर्तृ कंबला-दात्मानमेनननु दुःखयन्ति ।१६। गाथार्थ- सत्य छे के कर्मो जड़ छे. पोताना भोग काल ने जाणतां नथी आत्मा पण दुःख भोगववानी इच्छा वालो नथी परन्तु द्रव्यादि सामग्री तथा तेनी अनिवार्य शक्ति थीज तेवा प्रकार नां कर्मो प्रगट थई ने पोताना कर्ता आत्मा ने बलात्कारे दुःख पमाड़े छे. ववेचन-तमारो प्रश्न बराबर छ के कर्मो जड़ छे अने पोताना भोगकाल ने जाणतां नथी अने जीव पण दुःख भोगववानी इच्छा वालो नथी तो पण जीव दुःखो नो आश्रय ले छे. परन्तु कर्मो जड़ होवा छतां पण कोई नी प्रेरणा वगर समग्र वस्तु ना उत्पत्ति,स्थिति अने नाश ना हेतु भूत द्रव्य, क्षेत्र काल अने भाव नी सामग्री ना समर ना लीधे Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) तथा तेवा प्रकार नी रोकी शकाय नहीं तेवी तेनी शक्ति नी प्रेरणा थी कर्मों प्रगट थई पोताना कर्ता प्रात्मा ने बलात्कारे दुःख पमाड़े छे. मूलम् - यथोष्णकालादिऋतौ समेते, कश्चिञ्जनः शीतलवस्तुसेवी। मृष्टादिकाम्लादिकरम्भभोजी,स्यात्तस्यतद्योगसमुत्थवातः ॥१७ वर्षाऋतुप्राप्यपुरुप्रकुप्यति, प्रायो वपुःस्थः स समीर उग्र। लब्ध्वाचकालंशरदास्यमेष, प्रायेणसंशाम्यतिपित्तभावात् ।१८ एवं हि दातादिकवस्तुनस्तू-त्पत्तिस्थिति प्रान्त दशात्रयेऽपि । प्रास्माश्रितस्याऽस्यनकश्चिदन्यः,विनवकालादिकमत्र हेतुः ।१६ गाथार्थ-कोई मनुष्य ऊनालादि मां ठंडो वस्तु, मीठी वस्तु अने खाटी वस्तु खाय तेना योगे उत्पन्न थयेल वायु वर्षाकाल मां प्रकोपायमान थाय छे, ते वायु पित्त ना कारण थी शरद ऋतु मां शमी जाय छे. एवी रीते पवन नी जेम आत्मा ने आश्रित कर्मो नी उत्पत्ति, स्थिति अने नाश ए त्रण दशामां कालादि विना कोई हेतु नथी. विवेचन:-कोई नी पण प्रेरणा विना कर्मो कालादि ना योगेकेवी रीते सुख-दुःख आपे छे-ते दृष्टांत द्वारा बतावे छे के जेम कोई मनुष्ये ऊनाला मां ठंडा पदार्थों, मिठाई विगेरे मीठा पदार्थों अने दही विगेरे खाटा पदार्थों खाधा होय अने Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) तेना थी शरीर मां उत्पन्न थयेल पवन वर्षा काल मां प्रकोपायमान बने छे, परन्तु ते उग्र बनेल पित्त ना कारण थी शमी जाय छे. जेम आत्मा ने आश्रित कर्मो नी उत्पत्ति, स्थिति अने नाश ए ऋण दशा मां कालादि विना बीजो कोई हेतु नथी. पवन शरद ऋतु मां तेवीज रीते पवन नी मूलम् कर्मग्रहः स्वेप्सितभुक्तिवत्स्यात्, द्वयोस्तुशान्तिस्थितिकार्यनेहा । समस्तदात्माजित कर्मणांहि, भुलिश्चशान्तिः किलकालद्रव्यैः । २० गाथार्थ -- घटना ए प्रमाणे छे. कर्मग्रहण इच्छित भोजन ना समान छे. कर्म अने पवन ए बे शान्ति ने स्थिति करनार काल समान छे. ते कारण थी आत्माए उपार्जन करेल कर्मो नो भोग, अने शान्ति काल स्वभावादि थी थाय छे. ― विवेचनः- हवे कर्म साथे दृष्टांत घटावे छे. जेम माणस इष्ट भोजन करे छे तेम जीव कर्म ग्रहण करे छे, अने काल ना प्रभावे जेम इष्ट भोजन करनार ने पवन नो प्रकोप थाय छे. तेम काल ना प्रभावे कर्म नो उदय थतां पोतानुं फल कर्मो बतावे छे. अने कालना प्रभावे जेम पवन शान्त थाय छे. तेम काल ना प्रभारे कर्मों नो उपशम अथवा नाश थाय छे. माटे आत्माए उपार्जन करेल कर्मो नी शान्ति अने स्थिरता मां काल स्वभावादि ज हेतु रूप छे. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) मूलम्:एवंतुकालोगदितोऽस्तिकर्मणो, वातादिवस्तुत्रितयस्यचाऽपि । परंयदाकश्चनशान्युपायः,उग्रोभवेत्ता पियातिचान्तरात् ।२१ किञ्चित्कदाचित्स्वदनंयदात्मनः,वातादिकृत्तत्क्षरणतोऽपिजायते कर्मारिणकानीह तथात्मनोऽस्यो-ग्रारिणक्षणात्तत्फलदान्यनीरकम् । गाथार्थ:- वातादि त्रण वस्तु नी जेम कर्म नो पण काल कहेलो छे. परन्तु जो कोई शान्ति नो उपाय उग्र होय तो पहेलां पण शान्त थाय छे. क्वचित् पोते करेल भोजन तत्काल पवनादि ने उत्पन्न करे छे तेम केटलांक कमों जोव ने जल्दी फल देनार बने छे. विवेचनः-वात, पित्त अने कफ नी उत्पत्ति, स्थिति अने शान्ति माटे कालादि ज कारण भूत छे. कोई वखत वायु, पित्त अने कफ नो उग्र उपाय करवाथी तरतज वायु आदि शान्त थई जाय छे. तेम कोई वखत कर्मों पण तेवा प्रकार ना अध्यवसाय ना योगे उदीरणा आदि द्वारा कर्म ना उदयकाल पहेलां पण शान्त थई जाय छे, अथवा नाश पण पामी जाय छे. कोई वखत भोजन करनारने वायु आदि नो तत्काल प्रकोप थई जाय छे तेम उग्र कर्मो जीव ने तत्काल फल दाता पण बने छे. यदा पुनः स्त्री पुरुषं भजन्ती, यदृच्छया स्वार्थपरा विनेरकम् । विपाककालेपरिपूर्णतांगते,प्रसूयमानासुखिताथदुःखिता ॥२३ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) एवं तु कर्माण्यपि दुष्टशिष्टा-न्यनीरकाण्येव निजात्मगानि । स्वकालमाप्यप्रकटीभवन्तियद्,दुःखंसुखंवाऽभिनयन्तिदेहिनम् । गाथार्थः-वली जेम स्वार्थ मां तत्पर एवी स्त्री पोतानी इच्छा मुजब कोई नी प्रेरणा विना पुरुष ने भजती छती, विपाक काल पूर्ण थये छते, प्रसूति करती छती सुखी अने दुःखी थाय छे. कोई नी पण प्रेरणा विना आत्मा मां रहेल अशुभ अने शुभ कर्मो पोताना काल ने पामी ने जीव ने दुःख अने सुख पमाड़े छे. विवेचन :-हवे बीजा दृष्टांत द्वारा तेज वस्तु ने पुष्ट करे छे के कर्मो कोई नी पण प्रेरणा विना विपाक काले अवश्य पोता नुं फल पमाड़े छे. जेम के कोई स्त्री पोताना स्वार्थ मां तत्पर एवो कोई नो पण प्रेरणा विना पुरुष नुं सेवन करे छे अने ज्यारे गर्म काल पूण थये छते पुत्रादि ने जन्म आपे छे, ते समये सुखी अने दुःखी थाय छे. तेम जीव नी साथे रहेलां शुभाशुभ कर्मो पण कोई नी प्रेरणा विना ज्यारे ते कर्मों नो उदयकाल आवे छे त्यारे जीव ने सुख अने दुःख आपनारां थाय छे. मूलम्:यद्वातुरःकोऽप्यगदान किलाहरन,जानातिनासावहितान हितानथ तदीय पाकस्य गते तु काले,सुखं तथा दुःखमयं लभेत ॥२५॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) कर्माण्यपीत्थं पुनरेष प्रात्मा,गृह्णन् न जानाति शुभाशुभानि । यदातुतेषांपरिपाककाल-स्तदासुखोदुःखयुतोऽथवास्वयम् ॥२६ गाथार्थ :-अथवा कोई रोगी औषध खातो छतो श्रा हितकारी अने आ अहितकारी छे, एम जाणतो नथी. छतां तेना विपाक समये सुख अने दुःख ने मेलवे छे-तेवीज कमों ने ग्रहण करतो छतो शुभाशुभ ने जाणतो नथो, छतां विपाक समये सुखी तथा दुःखी थाय छे. विवेचन:-कमों नुं फल सारु मलशे के खराब, ते आ जीव जाणतो न होवा छतां पण कमौं पोतानुं फल प्राप्या वगर रहेता नथी. ते माटे दृष्टांत द्वारा बतावाय छे. जेम के कोई रोगी औषध खातो छतो ते हितकारी छे के अहितकारी छे, एम जाणतो न होवा छतां पण तेना फलना अवसरे ते सुख अने दुःख ने प्रान्त करे छे. तेम आ जीव कमौं ने ग्रहण करवाना समये कमौंना शुभ अने पशुभ फल ने जाणतो नथी. तो पण कोई नो प्रेरणा विना कमौं तेना विपाक समये जीव ने सुखी अने दुःखी बनाव्या वगर रहेतां नथी. मूलम्:विषं तथा कृत्रिममीदृशंस्या-त्तत्कालनाशाय तथकमासात् । द्विमासषण्मासकवर्षकाल-द्विवर्षवर्षयतोऽपिनाशकृत् ॥२७॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) इत्थं च कर्माण्यपि भूरिभेद-भिन्नस्थितीनीह भवन्ति कर्तुः। निजेनिजे कालउपागतेतु,तादृक्फलंतानिवितन्वतेस्वतः ॥२८॥ गाथार्थः- संस्कार पामेलं झेर एवा प्रकार - थाय छे के जे झेर तत्काल, एक महिना मां, बे महिना मां, छः महिना मां, वर्ष मां, बे वर्ष मां अथवा त्रण वर्षे नाश करनार थाय छे. तेम कर्ता नां घणा भेद अने अलग स्थिति वालां कर्मो पोत पोताना उदय काले पोतानी मेले तेवा प्रकार - फल विस्तारे छे.. विवेचन:-कर्मो नो उदय काल आव्ये केटला-केटला काले जीव ने कर्मो फल प्रापे छे, ते माटे विष नुं दृष्टांत आपवामां आवे छे. जेम के झेर अजीव होवा छतां पण संस्कार पामेलुं झेर कोई नी पण प्रेरणा विना कोई तत्काल, कोई एक मास मां, कोई बे मास मां, कोई छः मास मां, कोई : एक वर्ष मां, कोई बे वर्ष मां अने कोई त्रण वर्ष मां जीव ने मारनार बने छे तेम ज्ञाना वरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अने अंतराय ए आठेय । कर्मो नी एक सौ वीस प्रकृति बंध मां अने एक सौ बावीस प्रकृति उदय मां आवे छे, अने एक सौ सुड़तालीस प्रकृति सत्ता मां होय छे. ए कर्मो नो जघन्य बंध अंत मुहूर्त अने उत्कृष्ट ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होय छे. एम Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) अनेक प्रकार ना भेद वालां ने अनेक प्रकार नी स्थिति वालां कर्मों कोई नी पण प्रेरणा विना पोत पोताना उदय काले जीव ने पोतानी मेले तेवा प्रकार नुं शुभाशुभ फल प्रापे छे. मूलम् - सिद्धोरसोवंषभवेदसिद्धः, सर्वोगृहीतोऽभ्यमितेनकेनचित् । समागतेतत्परिणाम काले, दुःखं सुखंवा भजतेतदाशकः ॥ २६ ॥ तथात्मगादुः पिटिकाचवालको, दुर्वातशीताङ्गकसन्निपाताः । स्वयं त्वमी काल बलं समेत्य, तवन्तमात्मानमतिव्यथन्ते |३०| मी तथैते ऋतवोऽपि सर्वे, स्वं स्वं च कालं समवाप्य सद्यः । मनुष्यलोकाङ्गभृतोनयन्ति, सुखंतथादुःखमिमान्स्वभावतः | ३१ एवं हि कर्माणिनिजात्मगानि, स्वकं स्वकंकालमवाप्यसत्वरम् । विनापरप्रेररणमेतमात्मकं, नयन्तिदुःखं सुखमप्यथोस्वयम् । ३२ गाथार्थ- कोई रोगीए सिद्ध के प्रसिद्ध एवो सर्व प्रकार नो ग्रहण करेल पारो परिणाम ना काले तेना भक्षक ने दुःख अथवा सुख आपनार थाय छे. शरीर मां रहेल खराब फोड़ा, वाला नामनो रोग, दुष्टवात, शिताङ्गक, सन्नि पात विगेरे आ रोगों पोतानी मेले काल बल ने पामीने ते रोग वाला ने पीड़ा आपे छे तथा प्रा सर्वे ऋतु पण पोत पोताना काले स्वभाव थी मनुष्य लोक मां मनुष्यों ने सुख-दुख आपे छे तेम पोताना आत्मा मां रहेलां रहेल आ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २१६) कर्मों पण कोई नी प्रेरणा वगर पोतानी मेले पोत पोताना काल ने पामीने ा जीव ने सुख-दुःख पण पमाड़े छे, विवेचन:-सुगम छे. मूलम्:तथापुनःशीतलिकादिवाला-मयोद्भवातप्तिरधिश्रयेत्तनुम् । षण्मासमात्मानमिमंतथैव,श्रयन्तिकर्माणिसमेत्ययत्स्वयम् ॥३३ गाथार्थ:-वली तेवीज रीते शीतलादि बाल रोगो थी थयेल गरमी शरीर नो छः मास सुधी आश्रय ले छे. तेम कर्मो कोई नी पण प्रेरणा विना पोतानी मेले ा जीव नो आश्रय ले छे. विवेचनः-हवे को कोई नी पण प्रेरणा विना केवी रीते जीव नो आश्रय ले छे ते बतावे छे के जेम शीतला, प्रोरी, अछबड़ा विगेरे बाल रोगो थी उत्पन्न थयेल गरमी छः मास सुधी शरीर नो आश्रय ले छे, तेम कोई नी पण प्रेरणा विना कर्मो पोतानो मेले आजीव नो आश्रय ले छे. यक्ष्माक्षिबिन्दूद्धतपक्षघाता, अर्धाङ्गशीताङ्गमुखामया ये । सहस्त्रघस्त्र:परिपाकमेषां वदन्तिवेद्याविदितागमाविदा ।३४ इत्थंहिकेषामिहकर्मणांपरी-पाकस्वकालंसमवाप्ययत्स्वयम् । विनापरप्रेरणमत्रपण्डिताः,पठन्तिसैद्धान्तिकसिन्धुराये ।३५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) गाशार्थ : क्षय रोग, अांख नो रोग, उग्र पक्षाघात, अद्धांग वायु, शीताङ्ग रोग विगेरे रोगो वैद्यक शास्त्र · ना जाण-- कार वैद्यो पोताना ज्ञान थी ते यो नो परिपाक हजार दिवस नो गणाय छे. ते प्रकारे अहियां कोई नी प्रेरणा विना, पोताना मेले काल ने पामीने कमों नो परिपाक पण सिद्धान्त ना जारणकार पंडितोए कहेल छे. विवेचन:--दरेक वस्तु नो परिपाक कालेज थाय छे, एटले फल आपे छे. ते बतावतां जणावे छे के जेम क्षय रोग, आंख नो मोतियो, उग्र एवो पक्षाघात, अर्धांग वायु, अंग ठंडु थई जाय तेवो रोग विगेरे रोगोनो काल वैद्यक शास्त्र ना जाणकार एवा वैद्योए पोताना ज्ञान थी हजार दिवस नो बताव्यो छे. तेम कोई नी पण प्रेरणा विना पोतानी मेले कर्मों नो परिपाक पण थाय छे, एटले कर्मो फल आपे छे, एम जैन सिद्धान्त ना जाणकार पंडितो कहे छे. तापोयथापित्तभवोदशाह, सश्लेष्मिकोद्वादशरात्रमात्रम् । सवातिकस्तिष्ठतिसप्तरानं,औदोषिकःपञ्चदशाहमानम् ।३६ एवं ज्वराणां परिपाककालः, स्वकःस्वकोऽयंपृथगेष उपतः । यथातथैषांकृतकर्मणामपि,पृथक्स्वकीयःस्थितिकालएष्यः ।३७ गाथार्श:-जेम पित्त नो ताव दश दिवस नो, श्लेष्म नो ताव बार दिवस नो, वायु सहित ताव सात दिवस नो अने Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) त्रण दोष नो ताव पंदर दिवस नो होय छे. ए प्रमाणे ताव नो परिपाक काल पोत पोतानो अलग-अलग कहेलो छे. तेम पा करेल कर्मो नो काल पण अलग-अलग कह्यो छे. विवेचन-जेम एकज ताव अलग-अलग प्रकार नो होय छे तेथी तेनो काल पण अलग-अलग प्रकार नां होय छे. तेम कर्मो नो काल पण अलग-अलग बताव्यो छे. जेमके पित्त ना कारणे आवेल ताव दश दिवस, श्लेष्म नो ताव बार दिवस, वायु थी उत्पन्न थयेल ताव सात दिवस सुधी रहे छे अने वात, पित्त, कफ थी उत्पन्न थयेल ताव पंदर दिवस सुधी रहे छे. एम ताव नो परिपाक काल अलग-अलग होय छे. तेम ज्ञानावरणीय प्रादि कमों नो स्थिति काल पण दरेक नो अलग-अलग होय छे. मलम् :यथायथावाचरितंपुरात्मना, फलंग्रहाणामिहभुज्यतेतथा । यावत्स्वसीमांसहजादृशान्त-दर्शादियुक्तंपरिणोदकविना ।३८ कर्माणि कर्मान्तरितानि चैवं, यथात्मनानेन ननु क्रियन्ते । स्वकालमेषांपरिपाकयुक्तं,भुङ क्तेतथात्माफलमीरकंविना ।३६ गाथार्थः -जीवोए जे प्रमाणे पूर्वे शुभाशुभ करेलं होय तें प्रमाणे सूर्यादि ग्रहो न फल कोई नी पण प्रेरणा विना स्वाभाविक पोतानी मर्यादा मुजब दशा अने अंतर्दशा मां भोगवाय छे. तेम जीव थी जे प्रमाणे कर्मो अने अंतकर्मो करायेल होय ते मुजब कोई नी प्रेरणा विना तेनुं फल जीव परिपाक काले भोगवे छे. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) विवेचन:-ग्रहो केवी रीते फल प्रापे छे ते बतावतां कहे छे के सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनी, राहु, केतु, नेप चुन, हर्षल अने प्लुटो विगेरे ग्रहो ते व्यक्ति नी जन्म कुंडली मां पण तेज प्रमाणे आवे छे के ते जीवे पूर्व जन्म मां जेवा प्रकार नां कर्मो करेलां होय छे, अने सूर्यादि नी दशा अने अन्तर्दशा मां तेनुं फल भोगवे छे, तेम को अने अन्तकर्मो पण कोई नी प्रेरणा विना पण तेनुं फल जीव परिपाक काले भोगवे छे. कर्मेदमाहुःकतिधाबुधाःसुधा-किरागिरात्वंशृणुदक्षिण! क्षरणम् भङ्गीचतुष्केनचतुविधं त-तत्राऽऽद्यमत्राऽऽचरितंत्विहोदयेत्।४० कम ना उदये कम आववाना प्रकारो:शस्तंतथाऽशस्तमहोयथाभुवि, सिद्धायवासाधुजनायभूभृते । श्रियाइहस्वल्पमपिप्रदत्तं,चौर्याचशस्तंपुनरत्रनाशकृत् ।।१। गाथार्थ :-विद्वानो अमृत झरती वाणी वड़े 'पा कर्म केटला प्रकार नुं छे' ते कहे छे के हे चतुर पुरुष ! तू एक क्षण सांभल. चतुभंगी वड़े चार प्रकार नुं छे. तेमां प्रथम आ भवे आचरेल आ भव मां उदय मां आवे छे. ते पण बे प्रकार नुं छे-शुभ अने अशुभ. जेम संसार मां सिद्ध पुरुष अथवा साधु पुरुष अथवा राजा ने आपेल लक्ष्मी माटे थाय छे ते शुभ अने चोरी करवाथी आवेल ते नाश माटे. थाय छे ते अशुभ. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) विवेचना-कर्मो केटला प्रकार ना छे एम जिज्ञासा थवा थी पूछे छे के विद्वानो ए केटला प्रकार नुं का छे ? तेनो प्रत्युत्तर प्रापतां जणावे छे के हे चतुर पुरुष ! तुं क्षण मात्र संभल; ते कर्म चतुर्भंगी वड़े चार प्रकार नुं बताव्यु छे (?) आ भव मां करेल कर्म नुं फल आ भव मांज मले छे, जेम के कोई सिद्ध पुरुष ने दान प्रापवाथी पा लोक मां लक्ष्मी आदि मले छे अथवा कोई साधु पुरुष ने दान आपवाथी मूलदेव नी जेम पाभव मां पण राज्य आदि मले छ, अथवा कोई राजा ने भेटणुं विगेरे पापवाथी राजा नी प्रसन्नता प्राप्त थतां या भव मां पण अनेक प्रकार ना लाभो मले छे, ते आ लोक मां शुभ आचरेल तेनुं प्राभव मांज शुभ फल मले छे. अने या भव मां अशुभ आचरेल ते आ भव मां अशुभ आचरेल ते या भव मां अशुभ फल मले छे. जेम के आ भव मां चोरी, जारी विगेरे करवाथी राजा तरफ थी तेने फांसी आदि थाय छे. माटे या भव मां अशुभ आचरेल तेनुं आ भव मां अशुभ फल मले छे. या प्रथम भंग शुभाशुभ नो जाणवो. मूलम:भेदो द्वितीयोऽत्रकृतं परत्र, कर्मोदयेत्र यथा प्रशस्यम् । तपोव्रताद्याचरितं सुरत्वा--विरं तदन्यन्नरकादिदायि ।४२॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) गाथार्थ :-अहियां करेलुं परलोक मां कर्म ना उदये फल मले छे ते बीजो भेद जाणवो. तपव्रतादि या भव मां करेल तेनं फल देव लोकादि ए शभ कर्म नं फल जाणवं, अने अशुभ करेल तेनुं नरकादि अशुभ फल जाणवं.. विवेचन:-हवे बीजो भेद जणावे छे ते या प्रमाणे प्रा लोक मां आचरेल होय अने तेनुं फल परलोक मां तेना कर्म ना उदये मले छे. तेना पण शुभ अने अशुभ एम बे प्रकार जाणवा. जेम के महावीर परमात्मा ना जीवे २५ मा भव मां नंदन ऋषिए संयम अने मासक्षमवादि उग्र तपश्चर्या करी तेनुं फल २६ मा भव मां दशमा प्राणत नामना देवलोक मां स्वर्ग मां देव ऋद्धि पाम्या. ते शुभ संबंधी बीजो भेद जाणवो. अने श्रेणिक महाराजा ना जीवे हरिणी नो शिकार करवा द्वारा हिंसादि करी तेथी पहेली नरक मां गया. ते अशुभ संबंधी बीजो भेद जाणवो... मूलम् - सत्यायथासत्त्वमिहाश्रितंपुनः, शूरेणशौर्यपरजन्मभोगदम् । तृतीय भेदस्तु परत्र कर्म,निर्मातमगासुखसौख्यदायि ।४३। गाथार्थ-जेम अहियां सती रत्रीए पतिव्रतापणुं आचरेल तथा शूरवोरे बतावेल शौर्य परलोक मां भोग देनार थाय छे. परलोक मां आचरेल आ भव मां दुःख अने सुख थाय छे ते त्रीजो भेद जाणवों. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) विवेचन:-वली बीजो भेद बीजां दृष्टांतो द्वारा वधारे पुष्ट करतां जणावे छे के जेम कोई सती स्त्री सीता नी जेम पतिव्रता धर्म नुं पालन करे छे अने परलोक मां देवलोके जाय छे अथवा कोई शूरवीर राजा प्रजा ना हित माटे शूरवीरता बतावे अने परलोक मां अनेक प्रकार ना भोगो प्राप्त करे छे ते आ लोक मां करेलुं अने परलोक मां फल मले छे ते बीजो भेद जाणवो-हवे त्रीजो भेद आ प्रमाणे परलोक मां आचरेल होय तेने आ भव मां फल मले छे. ते त्रीजो भेद जाणवो. .. . मूलम् - एकत्र पुत्र तु तथा प्रसूते, दारिद्रयमात्रादिवियोगयोगः । अस्यग्रहाप्रप्यथजन्मकुण्डली-मध्येनशस्ताःकृतकर्मयोगात् ।४४ अन्यत्र पुगे तु तथा प्रजाते, सम्पत्तिमातादिसुखं प्रभुत्वम् । अपिग्रहालस्यतुजन्मपत्रिका-मध्येविशिष्टा:पतिताःसुकर्मतः । गाथार्थः- एक पुत्र जन्मे छते तेने दारिद्रय अने मातादि नो वियोग थाय छे, अने तेनी जन्म कुंडली मां पूर्वे करेल कर्मोना योगे तेना ग्रहो पण सारा होता नथी. अने बीजो पुत्र जन्मे छते तेने संपत्ति अने मातादि नुं सुख अने प्रभुत्व विगेरे तेने मले छे-तेनी जन्म पत्रिका मां पूर्व ना शुभ कर्म का योगे ग्रहो पण सारा पड़ेला होय छे.. .. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) विवेचन:- हवे परलोक मां आचरेल शुभाशुभ कर्मो न फल आ भव मां मले छे. ते नाम नो त्रीजो भेद बतावे छे. जेमके कोइक जीवे पूर्व जन्म मां कोई ने खावा-पीवा नो अन्तराय कर्यों होय अथवा नानां बच्चों ने दूध नो अन्तराय को होय अथवा माता दिनो वियोग कराव्यो होय. एवा प्रकार ना अशुभ कर्मो नो बंध करवा थी ते आत्मा आ भवे पुत्र रूपे जन्मते छते तेज समये दारिद्रय अने माता दिनो वियोग विगेरे अशुभ फल मले छे अने तेनी जन्म पत्रिका मां सूर्यादि ग्रहो पण अशुभ कर्मो ना योगे बीच स्थान मां पड़ेला होय छे. अने कोइक जीवे पूर्व जन्म मां कोई ने दान विगेरे प्राप्यु होय अथवा बीजं कंइ पण शुभ कार्य कयु होय ते जीव आ भव मां पुत्र रूपे जन्मते छते संपत्ति, मातादि नो योग, शेठाई, सत्तादि मले छे. अने तेनी जन्म पत्रिका मां सूर्यादि ग्रहो पण उच्च स्थान मां पड़ेला होय छे. एम अशुभ अने शुभ रूप ा त्रीजो भेद जाणवो. मूलम्:-- चतुर्थभेदस्तु परत्र कर्म, कृतं परत्रं व फलप्रदं भवेत् । यदत्र जन्मे विहितंतृतीय, भवेविधत्तेफलमात्मगामुकम् ।४६। गाथार्थ:--परलोक मां करायेल तेनुं फल परलोक मां मले ते नाम नो चौथो भेद जाणअथ व वो जे भव मां करायेल होय तेना वीजा भवे प्रात्पा ने फल देनार थाय छे. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ). विवेचन:-हवे परलोक मां करेलुं अने त्रीजा भव मां तेनुं फल मले छे ते संबंधी चौथो भेद बतावाय छे. जेमके कोई आत्माए पूर्व जन्म मां शुभ अथवा अशुभ कर्म करेल होय परन्तु तेनुं फल तेने आ भव मां न मलतां आवता भव मां परलोक मां आत्मा ने फल मले छे ते आ चौथो भेद जाणवो. मूलम् - येनाऽत्र जन्मे व्रतमुग्रमाश्रितं, प्रागेव तस्मात्प्रतिबद्धमायुः । नृदेवपश्वादिभवोत्थमल्पं,तदाततोऽन्यत्रभवेद्भवेऽस्यतत् ।४७ दीर्घायुषाभोज्यमहोमहत्फलं, द्रव्यादिसामग्रयतथोदयाच्च । यथाऽत्रकेनाऽपिचवस्तुकिञ्चित्वातंप्रगेमेभवितेत्यवेत्य ।४८ द्रव्यादिकालादितथाविधौजसा-त्यर्थततद्वस्तु न तेन तत्र । दिनेप्रभुक्तंहिततोऽन्यदात-भोक्तव्यमेताहगिदंतुकर्म १४६ गाथार्थः --जेणे आ जन्म ने आश्रित उग्र व्रत करेल होय ते पहेला मनुष्य, देव अथवा पशु आदि नुं अल्प आयुष्य बांध्यं होय तेने द्रव्यादि सामग्री ना तथा प्रकार ना उदय थी लांबा आयुष्य द्वारा भोगवी शकाय एवं मोटुं फल त्यार पछी ना पर भव मां मले छे. जेम संसार मां कोइए प्रातः काले मारे काम प्रावशे एम धारी द्रव्यादि ना तेवा प्रकार ना औजस थी तेणे वस्तु राखी लीधी होय अने न खाधी Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) त्यार बाद बीजे दिवसे खावा योग्य थशे, तेम तेवा प्रकार नुं जाणवुं. पण विवेचनः -- पूर्व जन्म मां करेल शुभाशुभ कर्म नुं फल तेने प्रा भव मां न मलतां तेना पछी ना जन्म मां फल मले छे. ते चौथो भेद विशिष्ट स्पष्टता करतां जरगावे छे के कोई मनुष्ये पूर्व जन्म मां कोई एवा प्रकार नुं उग्र व्रत, तप आदि क हो परन्तु ते पहेलां मनुष्य भवनुं, देव भव नुं के पशु नुं अल्प आयुष्य बांध्युं होवाथी द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव आदि नी सामग्री ना तेवा प्रकार ना उदय थी लांबा आयुष्य द्वारा भोगवी शकाय तेवुं उग्रव्रत अने तपादि नुं फल या भव मां न भोगवी शकाय एटले ते पछीना जन्म मां तेनुं फल भोगवे छे. ए चौथो भेद जाणवो. फल जेम के संसार मां कोई मनुष्ये पहेलां कोई वस्तु प्राप्त करी लीधी अने ते वस्तु आवती काले प्रातः काल मां काम लागशे एम धारी तेवा प्रकार नी द्रव्यादि सामग्री ना प्रौजस थी ते वस्तु संघरी राखी ते वस्तु बीजे व्विसे खावा योग्य थशे तेम पूर्व जन्म मां करेल शुभाशुभ कर्म नुं फल प्रा भव मां न भोगवतां प्रावता जन्म मां तेनुं फल भोगववा योग्य थशे एम जाणवं. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) एवं चतुर्भङ्गिकया स्वकर्म, भोग्यं भवेदाप्तवचः प्रमारणात् । । कर्मस्वरूपंप्रतिवेदितुनो, क्षमविनाकेवलिनोयथार्थम् ।५० गाथार्थ:-ए रीतिए प्राप्त परुष ना वचन ना प्रमाण थी चार प्रकार ना भेद बड़े पोतानुं कर्म भोगववा योग्य थाय छे. केवली भगवंत विना यथार्थ रीते कर्म न स्वरूप जणाववाने कोई बीजो समर्थ नथी. विवेचन:- कोई पण प्रकार हैं शुभाशुभ कर्म ऊपर बतावेल चार प्रकार ना भेद थी भोगववा योग्य थाय छे, अर्थात् भोगवाय छे. हमेशां प्राप्त पुरुषो ना वचन थोज ते वस्तु प्रमाण भूत थाय छे. प्राप्त पुरुषो तरीके केवली ज्ञानी भगवंतोज जैन शासन मां गणेल छे. ते केवली भगवंतो नुं वचन एटला माटे ज प्रमाण गणाय छे के तेश्रो वीतराग होवा थी असत्य बोलवान तेमने कोइज कारण नथी, वली तेश्रो सर्वज्ञ होवाथी वस्तु स्वरूप ने यथार्थ रीते जाणी शके छे माटेज का छे के कर्म ना वास्तविक स्वरूप ने यथार्थ रीते केवली भगवंतो सिवाय जरणाववा ने कोई समर्थ नथी. ईदृग्विधंकर्मकियद्विधंस्या---रित्रधेतितत्किंशणुभण्यमानम् । भुक्तंचभोग्यपरिभुज्यमानं, शुभाशुभंसर्वमिदंसहनम् ॥५१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) आवा प्रकार नुं कर्म केटला प्रकार नुं थाय ? 1 ते त्रण प्रकार नुं छेः-भोगवेलुं भोगववा योग्य अने भोगवासुं - सर्व शुभाशुभ कर्म संबंधी जाणवु. गाथार्थ. - विवेचन: -- शुभाशुभ कर्म चार भांगावालुं होय छे ते जणाव्या बाद हवे प्रश्न करवा मां आवे छे के ते चार भांगावालुं शुभाशुभ कर्म केटला प्रकार नुं होय छे ? तेनो प्रत्युत्तर आपतां जणावे छे के ते कर्म त्ररण प्रकार नुं छे. ते त्रण प्रकार कया छे ? तो जणाववानुं के भुक्त भोग्य भोज्यमान. एटले जे कर्म बंधाया बाद उदय मां प्रावी ने भोगवाई गयेलुं होय ते भुक्त कर्म कहेवाय छे. जे कर्म बंधTयT बाद भविष्य मां उदय मां आवी भोगवाशे ते भोग्य कर्म. अने जे कर्म बंधाया पछी वर्तमान काल मां उदय मां आवी भोगवाय छे ते भोज्य मान कर्म कहेवाय छे. कर्मनो भुक्त, भोक्ष्यमाण अने भुज्यमान अवस्था मूलम् विद्यथा वारिदबिन्दु वृन्दं वसुन्धरायां पतितं प्रशुष्कम् । तदद्भुक्तवत्तत्रचभोग्यवत्कि, यावत्पतिष्यत्परिशोष्यमस्ति । ५२ निपत्यमानं परिशुष्यमाणं यावद्यदेतत्परिभुज्यमानयत् । ग्राह्योगृहीतः परिगृह्यमाणो, यथागुङोवाकिलकर्मतद्वत् ॥ ५३ गाथार्थ-जेम पृथ्वी ऊपर पड़ेला वरसाद ना बिन्दु ना समूह नी जेम भोगवेलुं कर्म होय छे, पड़वा योग्य भोग्य कर्म Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) होय छे, पड़तुं भोगववानुं कर्म होय छे अथवा गोल नुं दृष्टांत पण जाणवं. विवेचन:-जेम वरसाद ना पाणी ना टीपां नो समूह पृथ्वी ऊपर पड़वाथी सूकाई गयेलां होय छे, तेम जे कर्म उदय मां पाव्या बाद भोगवाई गयेलं होय छे ते मुक्त कर्म जाणवं. जे वरसाद ना पाणी नां टीपां नो समूह पृथ्वी ऊपरं पड़ीने भविष्य मां सूकाशे एटले सूकावा योग्य पाणी ना टीपां ना समूह नी जेम जे कर्म भविष्य मां उदय मां आवशे त्यारे भोगवाशे ते भोग्य कर्म-वली जे वरसाद ना पाणी नां टीपां नो समूह पृथ्वी ऊपर पड़े छे अने सूकाय छे, तेम जे कर्म वर्तमान काल मां उदय मां आवे छे ते भोगवाय छे ते भोज्यमान कर्म एटले भांगवायूँ कर्म जाणवू अथवा बीजें गोल नुं दृष्टांत जाणवं. चवाएला गोल नी जेम भुक्त कर्म, चवावा योग्य गोल नी जेम भोग्य कर्म अने चवाता एव गोलनी जेम भोज्य कर्म जाणवं. मूलम् - संसारिजोवा वतिनोऽव्रता वा, तेषां तु कर्मत्रयमेतदस्ति । वसुन्धरायाधन बिन्दुवृन्दवत्,भुक्तंचभोग्यपरिभुज्यमानकम्।५४ कैवल्यभाजस्तुयकेमहान्त-स्तेषांतुकर्माणिशिलाग्रवृष्टिवत् । अल्पस्थितीन्येवतथापितदृशा-त्रयंतुतत्रापिगवेषरणीयम् ॥५५ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २३२ ) गाथार्थः-व्रतधारी अथवा अवतो एवा संसारी जीवो ने पृथ्वी ऊपर पड़ेला वरसाद ना बिन्दुप्रो ना समूह नी जेम भुक्त, भोग्य अने परिभुज्यमान एम त्रणे प्रकार नुं कर्म चिरस्थायी होय छे, परन्तु केवली भगवंतो ने शिला ऊपर पड़ेल वृष्टि नी जेम अल्प स्थिति वालुं होय छे, तो पण केवली संबंधी कम सत्ता मांत्रण दशा विचारवा. विवेचन:-संयमी अने असंयमी एवा सर्व संसारी जीवो ने पृथ्वी ऊपर पड़ेला, पड़शे अने पड़ता एवा वरसाद ना बिन्दुओ ना समूह नी जेम भुक्त, भोग्य अने परिभुज्यमान एम त्रण प्रकार - कर्म छे. परन्तु ते लांबा काल थी स्थिर रहे एवं होय छे, वली केवली भगवंतो ने शिला ऊपर पड़ेल वृष्टि नी जेम अल्प काल वालुं भुक्त, भोग्य अने परिभुज्य मान कर्म होय छे. केवली भगवंतो ने केवल ज्ञान पाम्या पछी पोताना आयुष्य ना छेल्ला बे समय सुधी प्रति समय भुक्त, भोग्य अने भुज्यमान एम त्रणे प्रकार नें कर्म होय छे. आयुष्य ना अंत समय ना पहेला समये भुक्त अने भुज्यमान एम बे प्रकार - कर्म होय छे अने आयुष्य ना अंत समये भुक्त फकत एकज प्रकार नुं कर्म होय छे, कारण के सर्व कर्म नो अंत समये क्षय थाय छे.... .... Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) मूलम् सर्वत्र कर्त्रादिपरप्ररणोदनां विनैव द्रव्यादिचतुष्टयस्य । तादृक्स्वभावादिहकर्मरणांत्रयी, भुक्तादिकाऽसौभषिमुक्तजीवग । गाथार्थः सर्वत्र कर्त्ता नी पर प्रेरणा विना द्रव्यादि चतुष्ट ना तेवा प्रकार ना स्वभाव थी भवि ने केवली जीवो ने भुक्तादि त्रण प्रकार नुं कर्म होय छे. विवेचन - भव्य ने केवली भगवंतो ने ऊपर बतावेल मुजब सर्व ठेकाणे कर्त्ता विगेरे बीजा नी प्रेरणा विना द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चार ना तेवा प्रकार ना स्वभाव थी भुक्त कर्म, भोग्य कर्म अने भुज्यमान कर्म एम र प्रकार नुं कर्म होय छे. मूलम् - सिद्धात्मनां सिद्धतया दशात्रयी, न कर्मरणां तत्कृतपूर्वनाशतः । भुक्ताऽप्यवस्था भवदेषुकेवलि भवावसानंनतदत्रकाऽपिसा ॥५७ गाथार्थ :- सिद्ध थयेल एवा सिद्ध भगवंतो ने पूर्व कर्मो नो नाश थयेल होवाथी ए दशात्रयी होती नथी. भुक्तावस्था पण केवली भगवंत ना आयुष्य ना अंत सुधी होवा थी ते पण सिद्धो ने होती नथी. विवेचन: -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अने अन्तराय एम आठ कर्मो नो Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) नाश थवाथीज सिद्ध पणुं प्राप्त थाय छे एटले कर्मों नो नाश थयेल होवाथी सिद्ध भगवंतो ने भुक्तावस्था, भोग्यावस्था अने भुज्य मानावस्था एम त्रणे प्रकार नी दशा होती नथी. सिद्धो ने भुक्तावस्था तो होवी जोइये न ? एवा प्रकार नो प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे, कारण के भुक्तावस्था एटले भोगवाई गयेलां कर्मों एवी अवस्था अने सिद्धो ने पण कर्मो तो भोगवाई गयेलां छेज, तो सिद्धोने भुक्तावस्था केम न होय ? तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानुं के भुक्तावस्था केवली भगवंतो ना आयुष्य ना अंत समय सुधी होय छे. तेथी सिद्ध भगवंतो ने भुक्तावस्था होती नथी. मूलम् - मयाविचारोऽयमवाचिकर्मरगा-मजानता लोकगतंनिदर्शनैः । सामान्यलोकप्रतिबोधनाय, ज्ञेयः प्रवीणैस्तुपुराणयुक्तिभिः । ५८ गाथार्थ ज्ञान रहित एवा में साधारण लोको ना ज्ञान माटे लोकप्रसिद्ध दृष्टांतो बड़े आ कर्म नो विचार कह्यो. विद्वान पुरुषोए प्राचीन युक्तिश्रो वड़े जाणवो. विवेचनः - ग्रहियां ग्रंथकार श्री पोतानी लघुता बतावतां कहे छे के मारा मां तेवा प्रकार नुं विशिष्ट ज्ञान नथी तेथी सामान्य लोक ना प्रतिबोध माटे लोक- प्रसिद्ध दृष्टांतो वडे कमों नो विचार कह्यो छे. परन्तु विद्वान पुरुषो तो युक्तिश्रो वड़ेज कर्म नो विचार समभी शकता होवाथी Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) तेस्रोए तो प्राचीन युक्तिमो वड़ेज आ कर्म नो विचार जाणवो जोइये. मूलम्:इत्थं विना प्रेरकमत्र कर्मणां, भुक्ताविहोदाहरणान्यनेकशः। विचारितान्येवविचारचञ्चुरै-स्तद्वाक्प्रमारणंकिलपारमेश्वरी। गाशार्थ : ए प्रमाणे कोई नी पण प्रेरणा विना कर्मो ना भोग मां विद्वानो ए अनेक दृष्टांतो विचारेलां छे. तेथी परमेश्वर सम्बन्धी वाणी प्रमाण भूत छे. विवेचन:-कर्मो जड़ अने अजीव होवा छतां कोई नी पण प्रेरणा विना कर्मो ना भोग संबंधी विद्वान् पुरुषोए अनेक दृष्टांतो द्वारा स्पष्टता करी छे, एटले राग-द्वेष रहित एवा वीतराग भगवंतो नी वारणी प्रमाण भूत मनाय छे. ॥ अथ त्रयोदशोधिकारः ।। इन्द्रिय मात्र नी प्रत्यक्षता स्वीकार वामां दोषःमूलम्:मुनीश! केचिद् भुविनास्तिका ये, न पुण्यपापे नरकं न मोक्षम् । स्वर्गनचप्रेत्यभवं वदन्ति,को नामतर्कःखलुतःश्रितोऽस्ति? ॥१॥ गाथार्थ:- हे मनिराज ! केटलाक जे नास्तिको ले तेस्रो पुण्य, पाप, नरक, मोक्ष, स्वर्ग अने परलोक मानता नथी, तो तेप्रोनो शुं मत छ ? Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २३६ ) विवेचनः-या जगत मां जैन, वेदांतिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, बौद्ध अने जैमिनी विगेरे छः दर्शनो प्रसिद्ध छे. या बधा दर्शनो, पुण्य, पाप, नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म अने मोक्ष विगेरे माने छे. फक्त चार्वाक नामनो नास्तिक वादी आत्मा पुण्य, पाप विगेरे ने नथी मानतो. तो तेश्रोनो शं मत छे ? ते जणावो. मूलम:ते नास्तिका दृश्यपदार्थसक्ता, नोइन्द्रियादेयविचारमुक्ताः । प्रत्यक्षमेकं वृणुते प्रमारणं, पञ्चेन्द्रियाणांविषयोऽस्ति यत्र ।२ गाथार्थ-ते नास्तिको देखाता पदार्थ ने माननार अने मन थी जाणी शकाय एवा विचार थी रहित छे. जेमां पांचे इन्द्रियो विषय छे एवा एक प्रत्यक्ष ने प्रमाण भूत माने छे. विवेचन:-स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय अने श्रोत्रेन्द्रिय ए पांचे इन्द्रियो ना आठ प्रकार ना स्पर्श, पांच प्रकार ना रस, बे प्रकार ना गंध, पांच प्रकार ना वर्ण अने त्रण प्रकार ना शब्द एम पांचे इन्द्रियो ना त्रेवीश विषयो के जे प्रत्यक्ष थो देखो शकाय अने जारणी शकाय तेज वस्तु ने माननारा छे अने मनथी जे पदार्थो विचारी शकाय एवा अने बीजा जे अवधि ज्ञान, मनपर्यवज्ञान अने केवल ज्ञान थी जाणी शकाय के देखी शकाय तेने नास्तिको मानता Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २३७ ) नथी एटलेज तेश्रो पुण्य, पाप, नरक, स्वर्ग, मोक्ष अने आत्मादि मानता नथी. मूलम् - पृच्छाऽस्तितःसार्धमसौमुनिनां,चेन्नास्तिकरिन्द्रियगोचरःश्रितः। सद्वस्तुदृश्यंयदिहिवस्तुकिं,यन्नेन्द्रियारणांविषयःसमेषाम् ।३ गाथार्थ:-मुनियो नास्तिको ने पूछे छे के जो इन्द्रियो ने प्रत्यक्ष एवो तमारो मत होय तो जे देखाय छे तेज सद्वस्तु छे. ते शुं एवी वस्तु के के जे बधी इन्द्रियो ने गोचर.नथी? विवेचन-नास्तिको पुण्य, पाप आदि मानता नथी एटले आस्तिको नास्तिको ने या प्रश्न पूछे के इन्द्रियो ने प्रत्यक्ष एवो तमारो मत होय तो तेनो अर्थ एज थयो के जे प्रत्यक्ष देखाय छे तेज वस्तु विद्यमान छे तो एवी कई वस्तु छे के जे बधी इन्द्रियो ने विषय भूत नथी ?. ... मूलम्ःरामादिकेवस्तुनिसर्वश्रोतसां,किंगोचरोनेतियदाहनास्तिकः । रात्रावतद्वस्तुनिशब्दरूप-समेऽपितद्वस्तुभ्रमो नकिस्यात्।४ गाथार्थ- रामादि वस्तुप्रो सर्व इन्द्रियो ने गोचर नथी ? एम नास्तिको कहे छे. तो ते विचारणीय छे. जे रात्रे रामादि थी भिन्न पदार्थों के जे शब्द अने रूप मां सरीखा होय छे तेमा भ्रम नथी थतां ? अर्थात् थाय छे.. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) विवेचन :- एवी कई वस्तुनो बधी इन्द्रियो ना विषय भूत नथी थती ? तेना प्रत्युत्तर मां नास्तिको प्रश्न करे छे के शुं रामा आदि वस्तु बधी इन्द्रियो ने विषय भूत नथी थती ? अर्थात् थाय छे. त्यारे आस्तिको एम कहे छे के आ बाबत जरूर विचारणीय छे कारण के रामादि थी भिन्न पदार्थों के शब्द अने रूप मां सरीखा होय छे तेमां रामादि नो भ्रम नथी थतो ? अर्थात् तेमां जरूर भ्रम थाय छे. जेमके रात्रे कोई पुरुष स्त्री नो वेष धारण कर्यो होय ते पुरुष ने विषे नास्तिको ने पण स्त्री नी भ्रान्ति थायज छे. एटले इन्द्रियो ने गोचर एज सत्य वस्तु छे एम बराबर नथी. मूलम् - सत्यंहिरात्रो सकलेन्द्रियारिण, प्रायेण मुह्यन्त्यवबोधहान्याः । तस्मादतद्वस्तुनितग्रहःस्यात्, तच्छ्रोतसांचिन्नसचैव सत्या 1५ गाथार्थः - सत्य छे, ज्ञान थी हानि थी रात्रे बधी वस्तुग्रो प्रायः मुंझाय छे तेथी रामादि थी भिन्न पदार्थो मां रामादि नी भ्रान्ति थाय छे एम नास्तिको कहे छे. तो ते वस्तु थी नक्की थाय छे के इन्द्रियो नुं ज्ञान सत्य नथी. विवेचन :- नास्तिको कहे छे के तमारी वात सत्य छे के रामादि थी भिन्न पदार्थो मां पण रामादि नो भ्रम थाय छे. परन्तु तेमां ज्ञान नी हानि कारण भूत छे, एटले ज्ञान नी Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) हानि थी रात्रे बधी इन्द्रियो मुंझाय छे. तेथी रामादि थी भिन्न पदार्थो मां रामादि नो भ्रम थाय छे. त्यारे प्रास्तिको नास्तिको ने कहे छे के तो एक वस्तु नक्की थाय छे के इन्द्रियो नुं ज्ञान सत्य नथी ? मूलम् पुनर्यथापश्यजनेन नीरूजा, शङ्खः सितोऽस्तीतिनिरीक्ष्यगृह्यते । पुनश्च तेनैव रूजादितेन स गृह्यते कि न बहूत्यवर्णः | ६ गाथार्थ - वली तूं जो, के जेम नीरोगी पुरुष थी शंख सफेद छे एम जोईने ग्रहण कराय छे. कालान्तरे रोगी एवा तेज पुरुष थी बहु वर्ण वालो शंख छे, एम शुं ग्रहण नथी करतो ? विवेचन :- मनुष्यो ने इन्द्रिय ज्ञान थी भ्रम केम थाय छे ते जणावतां कहे छे के जेम कोई नीरोगी मनुष्य थी शंख सफेद छे एम सारी रीते जोई ने निश्चय कर्या पछी ते शंख ग्रहरण कराय छे. वली थोड़ा दिवस पछी तेज मनुष्य ने कमला नो ( पीलियो) रोग थयो होय त्यार बाद तेज सफेद शंख ने घरगा रंग वालो शंख छे एम तेने शुं नथी लागतुं ? अर्थात् लागेज थे, माटे इन्द्रिय ज्ञान सत्यज होय छे एम. नथी. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) मूलम्:यथा पुनः स्वस्थमनाः स्वबन्धन,जानाति नैवं मधुमत्त एषः । सन्त्येषुतान्येवकिलेन्द्रियारिण,कथंविषर्यासइयानभिष्यात्? ७ गाथार्थ.-वली जेम स्वस्थ मन वालो पोताना बंधुओ ने जाणे छे तेम मदिरा पीनार आ जाणतो नथी. ऊपर नां दृष्टांतो मां तेज इन्द्रियो विपरीत केम जाणे छे ? ..... विवेचन:-वली जेम स्वस्थ मन वालो मनुष्य पोताना बंधुनो ने जाणे छे तेम मदिरा पीनार माणस पोताना बंधुनो ने जाणतो नथी. पुरुष ने स्त्री तरीके जाणनार, कमला ना रोगवालो सफेद शंख ने घणा वर्ण वाला शंख तरीके जाणनार, पोताना संबंधियो ने मदिरा पीधा बाद विपरीत तरीके जाणनार, या बधुं सत्य करतां विपरीत जाणे छे. तो आ बधी बाबतो मां इन्द्रियो नुं ज्ञानज प्रमाण भूत होय तो भ्रम केम थाय छे ? त्यारे नास्तिको कहे छे के इन्द्रियो विपरीत जाणती नथी, परन्तु रात्रि, रोग अने मदिरा ना कारण थी विपरीत जणाय छे. हवे नास्तिको ने पूछवारों के रात्रि विगेरे मां पदार्थ ना आकार, वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श विगेरे शुन्य छे ? परन्तु हाथ मां रहेल आमला नी जेम ते कहे पण अशक्य छे. माटे नास्तिको नी तेज इन्द्रियो नी प्रत्यक्षता अप्रमाणिक केम छे ते बतावे छे.. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलम्: ( २४१ ) पुरातनंज्ञानमयेन्द्रियाणां सत्यं तथा चाऽऽधुनिकं प्रमाणम् । नेदं वरं किन्तु पुरातनं सत्, तान्येव खानीहरुको विशेषः ? ८ गाथार्थ -: इन्द्रियो नुं प्राचीन ज्ञान सत्य छे के हमणां नुं ? बराबर नथी. परन्तु प्राचीन नुं सत्य छे. तो इन्द्रियो तो प्रथम ने हमणां पण तेज हेती, तो विशेष शुं ? विवेचन :- स्त्री ने विषे स्त्री परणा नुं ज्ञान, सफेद शंख मां सफेद पणा नुं ज्ञान अने स्व बंधुप्रोमा स्व बंधु परणा नुं ज्ञान ए प्राचीनज्ञान सत्य छे के पुरुष ने विषे स्त्री पणा नुं ज्ञान, सफेद शंख मां बहु वर्ण पणा नुं ज्ञान ने माता-पिता आदि मां स्त्री आदि पणा नुं ज्ञान ए आधुनिक ज्ञान प्रमाण भूत छे. परन्तु प्राचीन ज्ञानज सत्य छे. तो फरी थी नास्तिको ने पूछवानुं के पहेला अने पछी पण इन्द्रियो तो तेनी तेज छे तो प्रथम नेपछी मां विशेषता शुं छे, ते जरणावो ? मूलम्: पूर्व मनोऽभूदविकारि यस्मात्, तत्साम्प्रतं यद्विकृतं बभूव । तो मिथो भेद इयान् सकस्य, भेदोऽस्त्ययं मानसिकस्तदत्र 18 दृश्यं मनोनास्तिनवर्णतोवा, कीदृग् निवेद्य भवतीतिभण्यताम् । न दृश्यते चैन्नहि वर्ततेतत्, खान्येव तानीहकथं विकारः ? ॥१० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) गाथार्थ:-पहेला मन अविकारी हतुं. हमणां ते विकारी थy. ा कोनो भेद छ ? ते मन नो भेद छे. मन देखातुं नथी अने रंग थी पण जणातुं नथी. तो केवी रीते जणावाय ते कहो. तमारा मते तो जे देखाय नही, ते होतुं नथी. तो इन्द्रियो नो अहीं विकार केम? विवेचन:--प्राचीन ज्ञान सत्य छे अने अर्वाचीन ज्ञान असत्य छे. तो इन्द्रियो तो ए नी एज छे तो तेमां विशेष शुं ? तेना जवाब मां नास्तिक कहे छे के पहेलां मन विकार वगर नुं हतुं, परन्तु पाछल थी विकार वालुं थवाथी भ्रम उत्पन्न थाय छे. हवे आस्तिक पूछे छे के मन विकार रहित अने विकार वालं आ भेद कोनो छ? एम पूछवाथी नास्तिक जवाब आपे छ के आ भेद मन नो छे. त्यारे आस्तिक नास्तिक ने पूछे के मन तो देखातुं नथी अने रंग थी पण जणातुं नथी. तो केवी रीते जणावा योग्य छ ? ते कहो. कारण के तमारा मत मुजब जे न देखाय ते होतुं नथी. तो ते उदाहरणो मां इन्द्रियो नो विकार केवी रीते होय छे. नूलम्ःअयं विकारस्तु बभूव साक्षाद, यं सर्व एते निगदन्ति तज्ज्ञाः। त्वंपश्यचेदृष्टपदार्थकेष्वपि,मोहोभवेदित्पमिहैव खानां ।११ तोन्द्रिज्ञानमिदं हि केन, सत्यं सता सर्वमितीव वाच्यम् । तदेवसत्यंयविहोपकारिण,उपादिशदिव्यदृशोगतस्पहाः ।१२ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) गाथार्थ:-आ विकार साक्षात् हतो, जेने आ सर्व तत्वज्ञो कहे छे. तुं विचार, जो पा जन्म मांज दृष्ट पदार्थो मां पण इन्द्रियो नो मोह होय तो इन्द्रियो नुं ज्ञान सत्य केम कहे? सत्य ज्ञान तो तेज छे के जे उपकारी, गत स्पृहा वाला अने दिव्य दृष्टि वालाग्रोए कहेलुं छे. विवेचनः-सत्य वस्तु मां जे भ्रम थयो ते विकार हतो एम बधा तत्वज्ञ कहे छे. तो तुंज विचार करके प्रा जन्म मां पण देखी शकाय एवा पदार्थो मां पण इन्द्रियो नो मोह एटले भ्रान्ति थाय छे. तो परलोक ना पदार्थो मां इन्द्रियो नो मोह थाय तेमां नवाई शी? माटे मोहवालं एवं इन्द्रियो नं ज्ञान सत्य केम होई शके ? खरेखर सत्य ज्ञान तो परम उपकारी, निस्पृह अने दिव्य दृष्टि वाला केवल ज्ञानीप्रोज बतावे छे तेज होई शके छे. स्वस्थ मनस्त्वं बुध ! सन्निधाय,विचारमेतंकुरु तत्त्वदृष्टया । शब्दाइमेज्ञानवतोपदिष्टा-स्तेऽमीयथार्थाभवताऽपिवाच्याः।१३ गाथार्थ- हे चतुर, तुं मन स्थिर करी ने दिव्य दृष्टि ए विचार कर. पा शब्दो ज्ञानीग्रोए बतावेल छे ते तमारे परण यथार्थ करवा जोइये. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) विवेचना-हवे आस्तिक वादी नास्तिक वादी ने कहे छे के तुं बुद्धिशाली छे, तो तुं मन स्वस्थ करीने तत्त्व दृष्टि थी विचार कर के इन्द्रियो ना विषय थी थतुं प्रत्यक्ष प्रमाण वालुं ज्ञान सत्य छे के ज्ञानी भगवंतोए बतावेल ज्ञान सत्य छ ? दिव्य दृष्टि वाला ज्ञानी भगवंतोए आ शब्दो बतावेल होवा थी यथार्थ छे अने तमारे पण तेज शब्दो साचा कहेवा जोइये. मूलम:आनन्दशोकव्यवहारविद्या, आज्ञाकलाज्ञान मनोविनोदाः। न्यायानयोचौर्यकजारकर्मरणी, वर्णाश्चत्वारइमेतथाश्रमाः ।। प्राचार सत्कार समीर सेवा, मैत्रीयशोभाग्यबलं महत्त्वम् । शब्दस्तथार्थोदयभङ्गभक्ति-द्रोहाश्चमोहोमदशक्तिशिक्षाः ।१५ परोपकारोगुरगखेलनाक्षमा, मालोचसङ्कोचविकोचलोचाः । रागोरतिर्दुःख सुखे विवेक-ज्ञातिप्रियाःप्रेमदिशश्चदेशाः।१६ ग्रामःपुरं यौवनदाधकास्था,नामानिसिद्धयास्तिकनास्तिकाश्च। कषायमोषौविषयाःपराङ मुखा-श्चातुर्यगाम्भीर्यविषादकैतवम्। चिन्ताकलङ्कश्रमगालिलज्जा, सन्देहसंग्राम समाधि बुद्धि । दीक्षापरीक्षादमसंयमाश्च,माहात्म्यमध्यात्मकुशीलशीलम् ।१८ क्षुवापिपासार्धमुहूर्तपर्व-सुकालदुःकालकराल कल्प्यम् । दारिद्रयराज्यातिशयप्रतीति-प्रस्तावहानिस्मृतिवृद्धिद्धिः ।१६ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) प्रसाददैन्यव्यसनान्यसूया--शोभाप्रभावप्रभुताभियोगाः । नियोगयोगाचरणाकुलानि,भावाभिधा प्रत्यययुक्तशब्दाः ।२० गाथार्थः -प्रानन्द, शोक, आचार, विद्या, आज्ञा, कला,. ज्ञान, मन नी पानंद दायिक, प्रवृत्ति, न्याय, अनोति,चोरी, जार कर्म, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अने शूद्र ए चार वर्णो; एटले जातिओ, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ अने संन्यास ए चार आश्रमो; आचरण, आदर, पवन सेवा, मैत्री भाव, यश, भाग्य, शक्ति, महिमा, शब्द तथा अर्थ; उदय, भंग, भक्ति, वैर भाव, अज्ञान, अहंकार, बल, शिक्षण, परोपकार, गणो रूप विगेरे, क्रीडा, क्षमा, पालोचन (जोवं ते), संकोच, गमनादिक, दर्शनादि, राग, खुश थर्बु ते, दुःख, सुख, विवेक, ज्ञान, प्रिय, स्नेह, पूर्व आदि दिशाओ, देश, गाम, नगर. यौवन, वृद्धावस्था, सिद्धि, आस्तिक, नास्तिक, कषाय, असत्य, शब्दादि विषय, विमुख, चातुर्य, गांभीर्य,खेद, कपट, कलंक, श्रम, अपशब्द, लज्जा, संग्राम, समाधि, बुद्धि, दीक्षा, परीक्षा, दमन, संयम, माहात्म्य, अध्यात्म, कुशील, शील, भूख, तरस, मूल्य, मुहूर्त, पर्व, सुकाल, दुष्काल,. भयंकर, आरोग्य, निर्धनता, राज्य, अधिक पणुं, विश्वास, प्रसंग, हानि, स्मृति, उन्नति, आसक्ति, प्रसन्नता, दीनता, व्यसन, ईर्ष्या (गुण ने विर्षे दोषारोपण) शोभा, प्रभाव, Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) प्रभुता, अभियोग, अधिकारादि,चित्तवृत्ति नो रोध, व्यवहार, कुल अने भाववाचक शब्दो जाणवा. विवेचन:-सुगम छे. इत्यादिशब्दा बहवो भवन्ति ये,जिहादिवत्तेन हि शब्दवन्तः। स्वर्णादिवन्नोइह रूपवन्तः,पुष्पादिवन्नोऽत्र चगन्धवन्धुराः।२१ सितादिवन्नो रसवन्त एवं, न स्पर्शवन्तः यवनादिवच्च । किन्त्वेककर्णेन्द्रियरूपग्राह्या-स्ताल्वोष्ठजिह्वाविपदप्रवाच्याः। स्वस्वोत्थचेष्टादिविशेषगम्याः,स्वाभ्याससम्प्राप्तफलानुमेयाः। स्वनामयाथार्थ्यकथानिधायिनः,स्वीयप्रतिद्वन्द्विविनाशकारिणः । मद्यो विरोध्युत्थनिजाह वयान्ताः,इतिदृशाः सर्वजनप्रसिद्धाः। शब्दाःस्वकीयोत्थगुणप्रधाना,वाच्यानरैरास्किनास्तिकश्च।२४ गाथार्थः-या शब्दो जिह वादिनी जेम शब्द वाला नथी, सोनानी जेम रूपवाला नथी, पुष्पादिनी जेम सुन्दर गंध वाला नथी, साकर नी जेम रसवाला नथी, पवनादि नी जेम स्पर्शवाला नथी, परन्तु श्रोत्रेन्द्रिय थी ग्रहण करवा योग्य छे. तालु, प्रोष्ठ, जिह वा आदि स्थानो थी बोलवा योग्य छे. पोत-पोतानी चेष्टा आदि थी जाणवा योग्य छे. पोताना अभ्यास थी प्राप्त थयेल फल थी अनुमान करवा योग्य छे. पोताना नाम ने यथार्थ कथन ने धारण करनारा, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) पोताना शत्रु ने नाश करनारा पोताना शत्रु नी उत्पत्ति थतांज पोते नाश थनारा अने पोताना थी उत्पन्न थयेल गुण प्रधान एवा प्र शब्दो प्रास्तिक ने नास्तिक बन्न ने कहेवा योग्य छे. विवेचन :- प्रा शब्दो बधी इन्द्रियो थी ग्राह्य नथी, ते बतावतां कहे छे के ग्रा शब्दो जीभ नी जेम शब्द वाला नथी; सोना नी जेम देखीशकाता नथी, पुष्पादि नी सुगंध जेम सुंघी काय तेम नथी, साकर जेम स्वाद करी शकाय तेम नथी, पवन नी जेम स्पर्श करी शकाय तेम नथी. फक्त एक कानथीज ग्रहण करी शकाय तेवा, छे. तालू, होठ, जीभ विगेरे स्थानो थी बोली शकाय छे. एमां केटलाक शब्दो फक्त क्रोध, मान आदि नी जेम पोत पोतानी चेष्टा आदि थी जारणी शकाय छे. केटलाक शब्दो क्षमा आदि नी जेम पोताना अभ्यास थी प्राप्त थयेल फल थी अनुमान करी शकाय छे. केटलाक शब्दो विवेक आदि नी जेम पोताना नामना यथार्थ कथन ने धारण करनारा छे. केटलाक शब्दो आनंद विगेरे नी जेम पोताना शत्रु ना शोक विगेरे ने नाश करनारा छे. केटलाक शब्दो दुःख विगेरे नी जेम पोताना शत्रु ने सुख उत्पन्न थतांज पोतानो नाश करनारा छे. केटलाक शब्दो चार आश्रम, चार जाति विगेरे नी जेम गुण प्रधान छे. ए रीते आस्तिक ने नास्तिक बन्न े ने ए मान्य छे. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) यदोदृशा अप्ययि सिद्धशब्दाः,येषां नसाक्षात्कृतिरिन्द्रियःस्वैः। तत्पुण्यपापादिकवस्तुनीहा-प्रत्यक्षके कस्य च खस्यवृतिः ।२५ गाथार्थ:-श्रा संसार मां पूर्व करेल प्रकार वाला सिद्ध थयेल शब्दो छ तेरोनो साक्षात्कार नास्तिको ने पण पोतानो श्रोत्रेन्द्रियोथी नथी थतो तो अप्रत्यक्ष एवा पुण्य पाप आदि पदार्थो मां कोनी इन्द्रियो नं प्रवर्तन थाय ? अर्थात् न थाय. विवेचनः-प्रथम बतावेल शब्दो ज्यारे नास्तिको ने पण पोतानी श्रोत्रोन्द्रियोथी प्रत्यक्ष थता नथी, तो पछी पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, आत्मा, मोक्ष आदि आ अप्रत्यक्ष पदार्थों मां केवी रीते इन्द्रियो प्रवृति करे ? अर्थात् ज्यां प्रत्यक्ष पदार्थो पण बधी इन्द्रियो थी जाणी शकाता नथी तो अप्रत्यक्ष पदार्थो नी तो वातज क्यां करवी ? माटे प्रत्यक्ष देखाय तेज साचं एवा नास्तिको नो मत खोटो ठरे छे. ॥ अथ चतुर्दशोऽधिकारः ॥ परोक्ष प्रमाण पण मानवा.. योग्य छ मूलम्:अतो य एतन्मनुते वदावदः, प्रत्यक्षमेकं हि.मम प्रमारणम् । तच्चिन्त्यमानंन विवेकचक्षुषाम,शक्तंभवेत्सर्वपदार्थसिद्धय ।१ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) गाथार्थ -नास्तिको माने छे के एक प्रत्यक्षज प्रमाण छे. तो विवेकी आत्मानो ने विचारणीय छे के ते सर्व पदार्थो नी सिद्धि माटे शक्तिमान थतुं नथी. विवेचन:-आटलुं समझाववा छतां हजु पण नास्तिकवादी न कहेवं एवं छे के मारे तो प्रत्यक्ष प्रमाण एज मान्य छे. त्यारे आस्तिक वादी समझावे छे के दरेक पदार्थ नुं ज्ञान करवामां आपणी चर्म चक्षुत्रो काम लागती नथी, अथवा पांच इन्द्रियो द्वारा बधा पदार्थो नुं ज्ञान थई शकतुं नथी. माटे विवेक चक्षु वालाअोए तो प्रत्यक्षज मान्य छे. ए बाबत जरूर विचारवी जोइये, कारण के बधा पदार्थो नी सिद्धि करवामां प्रत्यक्ष प्रमाण काम लागतुं नथी, अर्थात् बधा पदार्थो नी सिद्धि करवामां प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नथी. मूलम्: किहि सत्यनिजगादनास्तिक-स्तदुत्तरंयच्छतुशुद्धमास्तिकः। यदेकशब्देन निमद्यमानं, तत्सत्पदं प्राहुरिति प्रवीणाः। तद्विद्यते यन्ननुसत्पदेन, वाच्यं भवेद् वस्तु तदत्र किं स्यात्?। यच्छब्दजातं गदितं पुरैव, तथा पुनः किंचिदनुच्यतेऽत्र ।३ गाथार्थ-त्यारे नास्तिके कह्य के सत्य शं छे तेनो शुद्ध उत्तर प्रापो. एटले आस्तिके कह्य के जे एक शब्द 'वड़े Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५०) कहेवातुं होय ते सत्पद छे,एम चतुर पुरुषो कहे छे. जे सत्पद वड़े कहेवा योग्य होय छे ते वस्तु होयज छे. त्यारे नास्तिक कहे छे के सत्पद शुं छे ? आस्तिक कहे छे के जे शब्द नो समूह मे पूर्वे कहेल छे ते सत्पद वाच्य छे छतां फरी थी कहेवाय छे. विवेचन:-नास्तिक कहे छे के जो बधा पदार्थो नी सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण थी नथी थती तो सत्य शुं छे ? तेनो शुद्ध उत्तर प्रापो, हवे आस्तिक कहे छे के कोई पण वस्तु ना समस्त स्वरुप नुं ज्ञान जेना थी थाय ते सम्यग् ज्ञान कहेवाय छे, अने तेनेज प्रमाण कहेवामां आवे छे. ते प्रमाण जैन आगमो मां बे प्रकारे बतावेल छे-प्रत्यक्ष प्रमाण अने परोक्ष प्रमाण. मन अने इन्द्रियो नी सहाय विना आत्मा द्वारा जे प्रत्यक्ष ज्ञान थाय छे ते प्रत्यक्ष प्रमाण जाणवं. जेम के अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान अने केवल ज्ञान ए त्रणे मन अने इन्द्रियोनी सहाय विना आत्मा आत्माने प्रत्यक्ष थाय छे तेथी ए त्रणे प्रत्यक्ष ज्ञान गणाय छे. मन अने इन्द्रियो द्वारा आत्मा ने जे ज्ञान थाय ते परोक्ष ज्ञान गणाय छे, जेमके मति ज्ञान अने श्रुत ज्ञान ए बे ज्ञान मन अने इन्द्रियो नी सहाय द्वाराज आत्मा ने थाय छे तेथी ए बे परोक्ष ज्ञान गणाय छे. परन्तु नैयायिको विगेरे चार प्रमाण माने छे. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) तेमां इन्द्रियो ने जे प्रत्यक्ष थाय ते प्रत्यक्ष प्रमाण. जेम के पांचे इन्द्रियो द्वारा जे वस्तु जाणी शकाय छे ते प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान ना आधारे जे वस्तु नक्की थाय छे ते अनुमान प्रमाण. जेम के मन्दिर नी ध्वजा जोवाथी लागे के अहीं मन्दिर होवू जोइये अने घुमाड़ो जोवाथी अहियां अग्नि होवो जोइये विगेरे अनुमान प्रमाण, अर्थात् लिङ्ग जोवा थी वस्तु नुं अनुमान करवू ते अनुमान प्रमाण जाणवू. आगम अथवा शास्त्र द्वारा जे नक्की थाय ते आगम प्रमाण. जेमके कंदमूल मां अनंत जीवो होय छे ते आगम प्रमाण जाणवं. कोई पण वस्तु नुं उपमा द्वारा ज्ञान थाय छे ते उपमा प्रमाण. जेम के रोझ गाय जेवं होय छे, ते उपमा प्रमाण, अर्थात् जंगल मां रोझ ने जोया बाद विचार आवे के पा शंहशे ? त्यारे 'गाय जेवं रोझ होय छे' ते याद प्रावतां 'गाय जेवं आ रोझ छे.' एम जे ज्ञान थाय ते उपमा प्रमाण जाणवू. अहियां आगम प्रमाण बतावे छे के कोई पण वस्तु नुं पागम थी सिद्ध करवू होय तो सत्पद द्वारा सिद्ध थाय छे. शब्दो नो समह ते सत्पद थी कहेवा योग्य छे, अने प्रथम कहेल छतां फरीथी हवे कहेवाशे. मूलम्: कालःस्वभावोनियतिःपुराकृतं,तथोद्यमः प्राणमनोऽसुमन्तः। प्राकाश संसारविचारधर्मा,--धर्माधिमोक्षानरकोलोको ४ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) विधिनिषेधःपरमाणुपुद्गलः,कर्माणिसिद्धाःपरमेश्वरस्तथा । इत्यादिशब्देषु न चेष्टयाऽपि,केचित्सुधीभिःप्रतिपादनीयाः।५ किन्त्वेकतः सत्पदतः प्ररूप्याः, तथैककर्णेन्द्रियग्राह्यवर्णाः । स्वस्वस्वभावोत्थिततत्तथाविध-फलानुमेयाःकिलकेवलीक्ष्याः । गाथार्थ:-काल, स्वभाव, भवितव्यता, पूर्वे करेल कमों तथा अद्यम ए पांच समवाय कारण, हृदय मां रहेल वायु, मन, दश प्राण, आकाश, संसार, विचार, धर्म, अधर्म, प्राधि, मोक्ष , नरक, ऊर्ध्वलोक, विधि, निषेध, परमाणु, पुद्गल, कार्यो, सिद्धो, इश्वर इत्यादि शब्दो चेष्टा द्वारा पण केटलाक विद्वानो वड़े प्रतिपादन करवा योग्य नथी. परन्तु सत्पद थी प्ररूपणा करवी तथा एक कानथीज ग्रहण करवा योग्य छे. तेमज पोत पोताना स्वभाव थी उत्पन्न थयेल फल बड़े अनुमान करवा योग्य छे. खरेखर केवली भगवंतो थी जोवा योग्य छे. विवेचन:-सुगम छे. येसन्ति शब्दास्तुपदद्वयादिना,संयोगजास्ते भुविसन्ति वा नो। यथाहिवन्ध्याऽस्तिसुतोऽपिचाऽस्ति,वन्ध्यासुतश्चेतिनयुक्तशब्दः। गाथार्थ:--बे पद आदि संजोग वाला शब्दो वाली वस्तुनो जगत मां होय छे अथवा नथी पण होती. जेमके वंध्या छे अने पुत्र पण छे परन्तु वंध्या-पुत्र नथी. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) विवेचन:-जे शब्द अथवा पद घणा अक्षरो नो बनेल होय अने जेमांथी अर्थ निकलतो होय ते शुद्ध पद कहेवाय छे. एवा एक पद वाली वस्तुप्रो जगत मां अवश्य होय छे. ज्यारे बे पद, त्रण पद, चार पद आदि संजोग वाली वस्तुओ जगत मां होय छे, अथवा नथी पण होती. जेमके वंध्या छे अने पुत्र पण छे, परन्तु वंध्या पुत्र जगत मां नथी. वली बे पद संजोग वाली वस्तुप्रो होय पण छे ते राजपुत्र. मलम्ःएवं नभः पुष्पमरीचिकाम्भ:--खरीविषारणप्रमुखा अनेके । एतादृशा ये किल सन्तिशब्दाः,संयोगजास्तेकिलनवयुक्ताः। गाथार्थ :-ए प्रमाणे आकाश पुष्प, मृगतृष्णा जल, खर विषारण विगेरे अनेक शब्दो एवा प्रकार ना पद संजोग वाला छे ते योग्य नथी एटले आ बाबत मां योग्य नथी. विवेचन:-बीजा पण बे पद संजोग वाला शब्दो अनेक छे, जेमके आकाश छे अने पुष्प पण छे परन्तु आकाशपुष्प नथी. मृगतृष्णा एटले सूर्य नां किरणो के अने जल पण छे परन्तु मृगतृष्णा जल नथी. खर एटले गधेड़ो छ सींगडुं नथी. एटले ए प्रकार ना पदसंजोग वाला शब्दो पा बाबत मां योग्य नथी एटले जगत मां होता नथी. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) लम्:कर्णेन्द्रियबाह्यतयापि नैषां,सत्ताऽस्ति तन्नेन्द्रियगोचरः सन् । केचित्तु संयोगभवा हि शब्दाः,सन्त्येव ते तद्विरहो न प्रायः ।। यथाहि गोशृङ्गनरेन्द्रकजा-वनीरुहागोपतिभूधराद्याः । संयोगजाःसन्ति वियोगतश्च,शब्दा अनेकेविबुधर्विवेच्याः।१० गाथार्थः-आ शब्दो कर्णेन्द्रिय थी ग्राह्य छतां तेनी सत्ता नथी. तेथी श्रोत्रेन्द्रिय नो विषय होवा छतां सत्ता नथी. केटलाक शब्दो संयोग वाला होवा छतां तेनो प्रायः वियोग नयी. जेमके गोश्रग, नरेन्द्र केश, अवनीरुह, गोपति अने भूधर विगेरे अने केटलाक संजोग थी उत्पन्न थयेला अने वियोग पण थाय छे. ते पंडितोए स्वयं जाणवा. विवेचनः- वंध्या सुत, आकाश पुष्प, मृगतृष्णा जल, खर विषाणु विगेरे शब्दो जोके कान थी सांभली शकाय छ, परन्तु ते नामनी वस्तु जगत मां विद्यमान होती नथी. एटले इन्द्रियो थी ग्राह्य होवा छतां ते वस्तु जगत मां नथी. केटलाक शब्दो संजोग थी उत्पन्न थयेला छे परन्तु ते बे वस्तु अलग पड़ती नथी. जेमके गोशृग, नृपति केश, अवनिरुह, गोपति, भूधर, विगेरे जाणबा. केटलाक संजोग थी उत्पन्न थयेला शब्दो जूदा परण पड़ी शके छे, ते विद्वान पुरुषोए स्वयं जाणवां, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) मूलम्श्रोत्राक्षिमुल्येन्द्रियरूपग्राह्य, परन्त्वतन्नामनि तस्य नाम्नि । अर्थे तथाऽन्याश्रितरूपवेषके,ज्ञानं न नेत्रश्रवसोस्तदर्थकृत् ।११ गाथार्थः -कान अने अांख थी ग्राह्य पदार्थ मां अने तेना जेवाज तेनाथी भिन्न पदार्थ मां अांख अने कान थी थतुं ज्ञान तेना अर्थ ने जणावनार थतुं नथी. विवेचन:-इन्द्रियो संबंधी ज्ञान सर्वथा अर्थ ने जणावनार होतुं नथी ते कहेवानी इच्छा वाला ग्रंथकार श्री फरमावे छे के कान अने आंख थी जाणी शकाय एवा कर्पूरादि मां अने तेना जेवाज वर्णवाला अने आकार वाला मीठं अने खांड़ मां कान अने अांख थी थतुं ज्ञान बराबर भेद पाड़ी शकतुं नथी. माटे इन्द्रियोथी थतुं ज्ञान बराबरज होय छे एम नथी. मूलम:यथा सिताभ्रादिसुगन्धिवस्तुषु, श्रोत्राक्षिनासारसनासमुत्थं । जानं यदप्यस्तितथापिकेषुनि-तेषुप्रमाणंरसनावबोधनम् ।१२ गाथार्थ- जेम साकर, कर्पूरादि सुगंधवाली वस्तुप्रो मां कान, प्रांख, नाक अने जीभ थी उत्पन्न थयेलुं ज्ञान होय छे तो पण केटलाक पदार्थो मां जीभ न ज्ञान प्रमाण रूप थाय छे. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) विवेचन:-साकर, कर्पू रादि सुगंध वाली वस्तुप्रो कान, अांख, नाक अने जीभ ए चारे इन्द्रियो द्वारा जारणी शकाय छे एटले ए पदार्थो नुं ज्ञान चारे इन्द्रियो द्वारा थाय छे. परन्तु तेमां केटलाक पदार्थों नुं ज्ञान बीजी इन्द्रियो थी स्पष्ट थतुं नथी, परन्तु जीभ द्वाराज तेनुं ज्ञान स्पष्ट थाय छे. अने ते प्रमाण भूत मनाय छे. स्वर्णादिके दस्तुनि कर्णनेत्र-ज्ञानं स्फुरत्येव तथापि तत्र । निर्घर्षणादिप्रभावोऽवबोध--स्तदर्थसत्याय न केवलाक्षम् ॥१३ गाथार्थ--सोनादि वस्तु मां कान अने आंख ज्ञान स्फुरायमान थाय छे तो पण तेमां निर्घर्षणादि थी उत्पन्न थयेल ज्ञान तेना निश्चय माटे थाय छे परन्तु केवल इन्द्रियो थी उत्पन्न थयेल ज्ञान निश्चय माटे थतुं नथी. विवेचन:-सोनुं विगेरे वस्तुप्रोमां जोके कान अने अांख संबंधी ज्ञान उपयोगी बने छे, तो पण तेनो साचो निर्णय करवा माटे सोना ने घस, कापवं, तपाववं अने कूटवू पड़े छे. परन्तु केवल नेत्र थी उत्पन्न थयेल ज्ञान वड़े सोनादि नो सचोट निर्णय थई शकतो नथी. मूलम्मारिणक्यमुख्येषु पदार्थराशिषु, समाक्षविद्रत्नपरीक्षिकातः । तथापितेषामधिकोनवक्रयो,निगद्यतेरत्नपरीक्षकःकिम्? ॥१४ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) सर्वेषु सर्वाणि समानि खानि, तदा कथं भिन्नविभिन्नवक्रयः। परन्तुकश्चित्प्रतिभाविशेषो, येनोच्यतेतद्गतमूल्यानिश्चयः ।१५ गाथार्थ-माणिक्य विगेरे पदार्थो ना समहो मां इन्द्रियो नुं ज्ञान समान होय छे तो पण रत्न परीक्षा ना शास्त्र द्वारा रत्न ना परीक्षको थी तेप्रोन मूल्य अधिक अोछं थाय छे. तोशुं कहेवाय? सर्व रत्न परीक्षकोनी इन्द्रियो समान छे, तो अधिक अोछु मूल्य केम थाय ? परन्तु माणिक्य नुं अधिक अोछु मूल्य कोई नी प्रतिभा विशेष थी कहेवाय छे. विवेचन:- कोई माणिक्य आदि रत्नोनी परीक्षा रत्न परीक्षा ना शास्त्र थी रत्न-परीक्षको करे छे. त्यारे बधा रत्न--परीक्षको बधा रत्नो नी कीमत सरखी करता नथी. परन्तु एक माणिक्य नी कीमत अधिक तो बीजानी कीमत ओछी आंके छे. बधा रत्न परीक्षको नी इन्द्रियो समान छे. एटले बधानी इन्द्रियो नुं ज्ञान पण समान होवा छतां मूल्य अधिक के अोछु आंकवामां तमारा मत मुजब शुं कारण होय छे? ज्यारे अमारी मान्यता मुजब तो रत्नो नी कीमत वधु के अोछी प्रांकवामां ते रत्न परीक्षको नी प्रतिभा विशेष कारण भूत छे. नूलमतथाहिफेनादिकजोटकेषु, प्रायो विमुह्यन्ति समेन्द्रियाणि । प्रमारणमेतेषु तदुत्थमत्तता, तेनेन्द्रियज्ञानमृतं न सर्वम् ।१६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८) गाथार्थ-ते प्रमाणे अहिफेनादि (अफीण प्रादि)पदार्थों मां प्रायः सर्व इन्द्रियो मुंझाय छे. तेमां अहिफेनादि थी उत्पन्न थयेल उन्मत्तताज इन्द्रियो ना मुंझावा मां कारण भूत बने छे. ते कारण थी श्रोत्रेन्द्रियादि नुं ज्ञान सत्य होतुं नथी. विवेचन:-कोई माणसे अफीण आदि पदार्थों नुं भक्षण कयु. त्यार बाद तेनी इन्द्रियो मुंझावा माड़े छे, एटले ते इन्द्रियो थी स्पष्ट ज्ञान थतुं नथी. अफीण भक्षण कर्या पहेला पण इन्द्रियो तेनी तेज हती अने अफोण भक्षण कर्या बाद पण इन्द्रियो तेज छे. इन्द्रियो मुंझाय छे तेमां अफीण आदि पदार्थो नी उन्मत्तताज कारण भूत छे, माटे इन्द्रियो मुंज्ञान सत्य होतुं नथी. मूलम्:तथौषधीमन्त्रगुडाविशेष--ौकाजनैर्गुप्तनोनरस्य । मूर्तिस्तुमोदृक्पथमेतिनुरणां,तत्किसनास्तीति न गृह्यतेखैः ।१७ तदाश्रितार्थादिकृतेस्तुतस्य, सता तथा शक्तिमहेशवीराः। भूतं सती जाङ गुलिका सपत्नी,सिद्धायिकादेरपि तद्वदेव ।१८ गाथार्थः-तेवीज रीते औषधि, मंत्र गुटिका तथा अदृश्य थई शके तेवं अंजन विगेरे थी अदृश्य थयेल शरीर माणसोना जोवा मां आवतुं नथी, तो शुं ते मनुष्य नथी ? जो मनुष्य होय तो इन्द्रियो थी केम देखातुं नथी ? अदृश्य Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) शरीर मां चेष्टा होय छे तेथी तेनी सत्ता छे. तेवीज रीते शक्ति, महेश, वीर, भूत, सती, जांगुलिका, सपत्नी अने सिद्धायिका नी सिद्धि पण जाणवी. विवेचनः कोई मनुष्य, औषधि, मंत्र, गुटिका अथवा अदृश्य थई शकाय एवा अंजन थी अदृश्य थई गया बाद तेना शरीर ने माणसो जोई शकता नथी. तो शुं अदृश्य थनार माणस नुं शरीर नथी ? जो माणस नुं शरीर होय तो इन्द्रियो वड़े केम देखातुं नथी ? ते माणस नुं शरीर अदृश्य थवा छतां लेबुं, मूक विगेरे क्रियानो माणसो जोई शके छे एटले शरीर नी हयाती छे, एम नक्की थाय छे. माटे इन्द्रियो नुं ज्ञान सत्य नथी. तेवीज रीते शक्ति, महेश, वीर, भूत, सती, जांगुलिका, सपत्नी तथा सिद्धायिका विगेरे नी सिद्धि पण जाणी लेवी. चेष्टा थी अदृश्यपणु मानवू मूलम्:एतस्य सिद्धौ हि परोक्षसिद्धिः, तत्सेधनात् स्वर्गपरेतसिद्धिः। न दृश्यते यन्ननु चेष्टयपिःकथं हि तद्वस्तुसदिष्यते भोः।१६ स्थाने परं सर्वमिदं हिकेवली,ज्ञानेन जानाति यदेववस्तु सत् । प्रतस्तदीयं वचनं प्रमाणं, यदुच्यते तेन परावबुध्य ।२० गाथार्थ! -ए सिद्धिप्रोमां परोक्ष नी सिद्धि थाय छे. तेनी सिद्धि थी स्वर्ग अने परलोकनी सिद्धि थाय छे. जे वस्तु Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) चेष्टा द्वारा पण न देखाय, ते वस्तु नी सत्ता केम मनाय ? तेनो उत्तर छे के तमारू कथन बराबर छे. परन्तु जे वस्तु छे ते केवली भगवंत केवल-ज्ञान थी जाणे छे. केवली भगवंतो बीजा ना बोध माटे कहे छे. माटे तेम नुं वचन प्रमाण भूत मनाय छे. विवेचन:--औषधि, मंत्र, गुटिका अने अदृश्य थवाना अंजननी सिद्धि थवाथी परोक्ष वस्तुनी सिद्धि थाय छे. तेमज परोक्ष वस्तु नी सिद्धि थवाथी स्वर्ग अने परलोकनी पण सिद्धि थाय छे. प्रश्नछे के जे वस्तु अदृश्य थया बाद तेनी चेष्टा विगेरे पण न देखाय तो ते अदृश्य वस्तु केम मानी शकाय? तेना उत्तर मां जणावबानुं के तमारू कथन बराबर छे. परन्तु प्रा संसार मां जेटली वस्तुअोनी हयाती छे ते बधी वस्तुप्रो केवली भगवंतो केवल-ज्ञान थी जाणे छे. कारण के केवली भगवंतो द्वारा जे कहेवाय छे ते बीजाना ज्ञान माटे कहेवाय. माटे केवली भगवंत नुं वचन प्रमाण भूत मनाय छे. त्वंपश्यलोकेऽपिजन चान्य-र्यज्ज्ञायते तत्किल दृश्यतेऽलम् । नैमित्तिकैरेव यथोपरागो, ग्रहोदयों गर्भधनागमादि ।२१ गाथार्थ :-तं जो; संसार मां पण जे वस्तु अन्य माणसो थी न जाणी शकाती होय ते वस्तु तेना जाणकार थी जाणी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) शकाय छे. जेम ग्रहो ना उदय, मेघ नी वृष्टि आदि बीजारो थी न जणाय परन्तु निमित्तिानो थी जणाय छे. विवेचन:-वली बीजा दृष्टांत द्वारा ते वस्तुनी पुष्टि करतां जणावे छे के तुं बराबर विचार कर. संसार मां पण केटलीक वस्तुग्रो एवी होय छे के बधा माणसो ते वस्तुओ जाणी शकता नथी. परन्तु ते वस्तुओना विशिष्ट रीतिए जाणकारोज ते वस्तुओ जाणी शके छे. जेमके सूर्यादि सूर्य आदि ग्रहो ना उदय, अस्त, संक्रमण, वक्री, मार्गी विगेरे तथा मेघनी वृष्टि, अतिवृष्टि, अनावृष्टि विगेरे वस्तुप्रो बधा माणसो जाणी शकता नथी; परन्तु ज्योतिषियो, निमित्तियानो विगेरे ते वस्तुओ जाणी शके छे. मूलम्तथा व्यतीतं सकलं ब्रवीति, पृष्टं तु चूड़ामणिशास्त्रवेदी। निदानवैद्योऽखिलरुग्निदानं, निवेदयत्याशुनचाऽन्यलोकः ।२२ परीक्षको वेत्त्यथ नारणकस्य, यथा परीक्षां न परो मनुष्यः। पदं पदज्ञः शकुनच तज्ज्ञो,यथाविजानातिपरोनतद्वत् ।२३ अतस्त्वविद्धिजनोऽखिलोऽन्यः,सर्वेन्द्रियोऽप्यत्रनवेत्तितद्वत्। यथैव नैमित्तिकमुख्यलोक-स्तदक्षतःकोऽप्यपरोस्तिबोधः ।२४ गाथार्थः-चूडामणी शास्त्र जाणकारो भूतकाल मां बनेल पूछवाथी सर्व कहे छे; निदान ना जाणकार वैद्य बधा रोगो Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) नुं निदान जल्दी जणावे छे परन्तु बीजा लोको नहीं; नाणां नी परीक्षा करनार जेम नाणांनी परीक्षा करी शके छे, परन्तु बीजो पुरुष नहीं; पगी अने शकुन नो जाणकार जेम पगलां अने शकुन ने जाणे छे परन्तु बीजो माणस नहीं. माटे तुं जाण के बधी इन्द्रियो थी पूर्ण एवा पण मनुष्यो बधी वस्तु जाणी शकता नथी.जेम निमित्तिया विगेरे इन्द्रियो थी नथी जाणी शकता परन्तु बीजा ज्ञान थी जाणे छे. विवेचन:-चुडामणी शास्त्र जाणकारो भूतकाल मां माणस ना जीवन मां जे कंइ बनेल होय ते संबंधी प्रश्नो पूछवाथी जाणी शके छे, परन्तु बीजो कोई मनुष्य ते वस्तु ने जाणी शकतो नथो. रोग - निदान करवामां जाणकार वैद्यज बधा रोगो नुं निदान करी दर्दी ने जणावे छे, परन्तु बीजा सामान्य वैद्यो के बीजा सामान्य माणसो पण रोग नुं निदान यथार्थ करी शकता नथी. नाणांनी परीक्षा करवामां तज्ज्ञ नाणांनी परीक्षा बराबर करी शके छे, परन्तु बीजा सामान्य माणसो नाणांनी परीक्षा बराबर करी शकता नथी. पगीयो चोर नां पगलां विगेरे बराबर ओलखी शके छे-पारखी शके छे, परन्तु बोजा माणसो पगलां बराबर अोलखी शकता नथी. शकुन ना जाणकारो दुर्गा, गणेश, हनुमान, खर, भैरव विगेरे शकुनो बराबर जाणो शके छे Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) परन्तु बीजा माणसो तेवा प्रकार नां शकुनो विगेरे जाणी शकता नथी. माटे तुं बराबर विचार कर के बधी इन्द्रियो थी पूर्ण होवा छतां बधा मारणसो बधी वस्तु बराबर बराबर जाणता नथी, परन्तु अपूर्ण इन्द्रिय वाला एवा निमित्तिया, वैद्य, नारणा परीक्षक, पगीश्रो अने शकुन जारणकारो विगेरेज जारी शके छे. वली निमित्तिया विगेरे पण इन्द्रियो द्वारा नथी जाणी शकता परन्तु बीजा ज्ञान थी जाणे छे. माटे इन्द्रियो ने प्रत्यक्ष साचूं छे ते बराबर नथी. मूलम् एवं परोक्षार्थमिमं समस्तं ज्ञानी विजानाति न सर्वलोकः । प्रायस्त्विदं वेत्ति परोपदेशा-ज्जनः स्वतो नेन्द्रियकेषुसत्सु । २५ गाथार्थ:-- ए प्रमाणे परोक्ष संबंधी या सर्व ज्ञानी जाणे छे परन्तु सर्व लोक जारणता नथी. इन्द्रियो होवा छतां बीजो मनुष्य प्रायः पोतानी मेले जाणतो नथी, परन्तु बीजाना कहेवाथी जारणी शके छे. विवेचन :- जे वस्तुनो प्रत्यक्ष नथी देखाती ने परोक्ष गरणाय छे, एवी बधी वस्तुग्रो सर्व लोको जाणी शकता नथी परन्तु केवली भगवंतो जागी शके छे. ज्यारे बीजा लोको परोक्ष वस्तु जाणी शकता नथी. तो तेश्रो केवी रीते जाणी शके ? तेना उत्तर मां लखवानुं के बीजा लोको Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ इन्द्रियो होवा छतां परोक्ष वस्तुस्रो पोतानी मेले जाणी शकता नथी. परन्तु ज्ञानी भगवंतो ना सदुपदेश थीं अथवा शास्त्र श्रवणादिथी बीजा लोको परण परोक्ष वस्तुओ ओ जारणी शके छे. मूलम्: श्राचारशिक्षागमसाधनानि, रसायनं व्याकरणादिविद्याः । चरित्रवृत्तीपरदेशवार्त्ता, स्वादिन्द्रियाद्वेत्तिनकिन्तु चाऽन्यतः । गाथार्थ:- प्राचार, शिक्षण, मन्त्र नो श्राम्नाय सिद्धि नी विधि, रसायन, व्याकरण विगेरे विद्या, चरित्र, वर्तन ने परदेशनी वार्ता पोतानी इन्द्रियो होवा छतां स्वयं जाणता बथी, परन्तु बीजाना कथन थी जागी शके छे. विवेचन: - बीजी केटलीक वस्तु पण पोतानी मेले दरेक माणसो जाणी शकता नथी, ते बतावतां जगावे छे के दरेक प्रकार नो व्यवहार, दरेक प्रकार नुं व्यवहारिक शिक्षण, दरेक मंत्र ना आम्नाय दरेक प्रकार नी सिद्धि नी विधियो, लोढा मांथी सोनुं विगेरे बने तेवा रसायनो, व्याकरण विगेरे विद्या, अनेक प्रकार नां चरित्रो, वर्तन, परदेशनी वार्ता, आबधी वस्तु बधा मनुष्यो पोतानी सर्व इन्द्रियो होवा छतां पोतानी मेले जागी शकता नथी, परन्तु बीजाना कथन थीज जाणी शके छे. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) मूलम्:हेतोरतः सुष्ठु विधाय चित्तं, विचारयेदं स्वविकल्पमुक्तः । ग्राह्य यदेवाऽस्तिनणांनिजःखै-स्तदेवगृह्णन्तिहितानिखानि । गाथार्थः आ कारण थी चित्त ने स्वस्थ करीने पोताना तर्क रहित थयो छतो आ विचार के मनुष्योनी पोतानी इन्द्रियो वड़े जे ग्रहण करवा योग्य होय तेज ग्रहण कराय छे. विवेवनः तेज वस्तुनी पुष्टि करतां जणावे छे के ज्यां सुधी चित्त बीजा विकल्पो छोड़ी ने स्थिर बनतुं नथी त्यां सुधी साची विचारणा थई शकती नथी. माटे तुं प्रथम सर्व बीजा विकल्पो छोड़ी ने मन स्थिर करीने विचार कर तो जरूर मालूम पड़शे के मनुष्यो तो पोतानी इन्द्रियो वड़े ग्रहण करी शकाय तेटलीज वस्तुप्रो ग्रहण करी शके छे परन्तु इन्द्रियो ना विषय नी बहार नी वस्तुप्रो इन्द्रियो ग्रहण करी शकती नथी, एम सिद्ध थाय छे. मूलम्ज्ञानं परोक्षं हियदिन्द्रियाणां, तज्ज्ञायतेमङ क्षु परोपदेशात् । शस्तंतथाऽशस्तमिदंसमस्तं, विस्तारसंक्षेपतईक्ष्यतेऽन्यतः।२८ गाथार्थ-: जे ज्ञान इन्द्रियो ने परोक्ष होय ते परोपदेश थी शीघ्र जणाय छे. श्रेष्ठ तथा खराब आ समस्त विस्तार थी अथवा संक्षेप थी बीजा द्वारा जणाय छे. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६) विवेचन:-जगत मां बधी वस्तुग्रो इन्द्रियो द्वारा जाणी शकाती नथी अने इन्द्रियो द्वारा न जाणी शकाय ते परोक्ष ज्ञान द्वारा जाणी शकाय छे. परोक्ष ज्ञान बीजा ना उपदेश थी थाय छे. तथा जगत मां जे सारी वस्तुप्रो छे अने खोटी वस्तुप्रो छे ते बधी वस्तुप्रो यथार्थ अने अयथार्थ रीतिए ए बधुं विस्तार थी अने संक्षेप थी बीजा द्वारा जाणी शकाय छे. मूलम्:यथान्त्र शुक्र कफपित्तवात-नाडीभ्रमं गुल्मयकृन्मलाशयाः । गण्डोलतापाधिकताप्तिवालकाः,कपालरोगा गलरोगविद्रधी। इत्यादिकं यत्तनुमध्यवस्तु, सामान्यमयनिजकेन्द्रियः स्वयम् । न ज्ञायते किन्तुपरोक्तिश्रुत्या, ज्ञेयं तदस्यप्रशमात्स्वसत्ता।३० गाथार्थः-जेम प्रांतरडां संबंधी, वीर्य संबंधी, कफ, वायु, पित्त, नाड़ी भ्रम, गुल्म, गलाशय रोग, करमिया, तावनी अधिकता, उष्णता, वाला नाम नो रोग इत्यादि जे वस्तुप्रो शरीर मां रहेल होय ते सामान्य माणसो पोतानी इन्द्रियो द्वारा पोतानी मेले जाणी शकता नथी; परन्तु बीजाना कहेवाथी जाणे छे. वली रोग नी सत्ता अने शान्ति सामान्य मारणसो पण जाणे छे. विवेचनः-जेम प्रांतरड़ा नी हानि के वृद्धि, वीर्य नी हानि के वृद्धि, कफ नो रोग, पित्तनो रोग, वायु नो रोग, नाड़ी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) नो भ्रम, गुल्म एटले गोलो चढवो, गलाशय नो रोग, करमिया, ताव नी अधिकताथी गरमी, वाला नाम नो रोग, कपाल नामनो रोग, गला नो रोग, विद्रधि इत्यादि शरीर मां रहेल बधा रोगो सामान्य माणसो पोतानी मेले जाणी शकता नथी, परन्तु बीजाना कथन थी जाणे छे. वली पोताना शरीर मां रोगो रहेला छे एवं अने औषधि आदि थी रोगो शान्त थया छे एवं सामान्य माणसो जारणी शके छे. मूलम् । इदं विदां सुन्दर! स त्वमैदं-पय्यं विजानीहि मयोच्यमानम् । वस्त्वस्ति यत्प्रारणभृदङ्गभाग-भूतं प्रदृश्यं न परन्त्वमूतम् ।३१ गाथार्थ:-हे विद्वान् ! में पूर्वे कहेल अने वर्तमान मां कहेवाता तत्त्व ने तुं जाण, के जे वस्तु प्राणियोना शरीर ना अवयव भूत छे ते देखावा योग्य छे; परन्तु अरूपी वस्तु देखी शकाती नथी. विवेचन:-नास्तिक प्रत्ये आस्तिक कहे छे के तुं खरेखर विद्वान छे तो में पूर्वे जे वस्तुप्रो कही छे अने वर्तमान काल मां माराथी जे कहेवाय छे. ते बधी वस्तुप्रो नुं तात्पर्य अथवा रहस्यनो विचार. कारण के प्राणियोना शरीर ना अवयवो देखी शकाय छे, कारण के ते रूपी अने स्यूल होवा थी देखी शकाय छे. परन्तु जे वर्ण, गंध, रस अने Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) स्पर्शथी रहित एवी अरूपी वस्तुओ चर्म चक्षुथी देखी शकती नथी. मूलम् :अतःकिलाकारवतोऽङ्गिनोगजंतद्ङ्गभूतं च यदस्ति वस्तु । दृश्यं तदेवाथन सन्त्यनाकृते-र्जीवस्ययेऽनाकृतयोगुणास्ते ॥३२ गाथार्थः --एटला माटे खरेखर आकार वाला प्राणियोना अंग थी उत्पन्न थयेल तथा प्राणियो नां शरीर ना अंग भूत जे वस्तुप्रो होय ते देखाय छे, परन्तु आत्मा ना अनाकार एवा ज्ञानादि गुणो जोई शकाता नथी. विवेचनः-सुगम छे. मूलम्:इतीयता सिद्धमिदं यदत्र खै-- ह्य तदेव प्रतिगृह्यते तैः । अन्यद्य दाप्तरुदितं तदेव,सत्यं नृणां खानि तुसर्व शिनो।३३ गाथार्थ:--एटलुं कहेवा वड़े सिद्ध थयु के संसार मां जे इन्द्रियो वड़े ग्राह्य होय छे तेज वस्तु ने इन्द्रियो ग्रहण करी शके छे. परन्तु तेना थी भिन्न जे होय ते प्राप्त पुरुषोए कहेल छे, तेज सत्य छे; कारण के लोकोनी इन्द्रियो सर्व जोनार होय छे. विवेचन:-पाटला विस्तार पूर्वक कहेवाथी ए सिद्ध थयु के इन्द्रियो नो जे अने जेटलो विषय होय तेज अने तेटलं Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) इन्द्रियो ग्रहण करी शके छे. परन्तु तेनाथी जूदी वस्तुप्रोनी बाबत मां तो यथार्थ वादी ने प्राप्त एवा केवली भगवंती ना वचन ने प्रमाण भूत मानवुं पड़े, कारण के जगत मां रहेला रूपी ने प्ररूपी, सूक्ष्म ने बादर बधा पदार्थो मारणसो नी इन्द्रियो थो जारणी शकाता नथी. ॥ अथ पञ्चदशोऽधिकारः ॥ अदृष्ट स्वर्ग आदि नुं प्रमाण परशु मूलम् पुनश्च यद्द हबहिःस्थवस्तु, दृश्यं तदेवाङ्गिभिरीक्ष्यतेऽक्षैः । ग्राह्यं तु यन्नास्ति नगृह्यते तत् परोक्तिशक्त्यातदपीहमन्यते । १ गाथार्थ :- वली शरीर नी बहार रहेली जे दृश्य वस्तु छे तेज प्रारिणोथी इन्द्रियो वड़े जोवाय छे, अने जे इन्द्रियो वड़े ग्राह्य नथी ते वस्तुओ इन्द्रियो थी ग्रहण कराती नथी, परन्तु बीजाना कथन थी मनाय छे. विवेचनः -- नास्तिक मत ना परिहार माटें अने सैद्धान्तिक मत नी पुष्टि माटेज बाकी रहेल वस्तु बताववामां आवे छे के जे वस्तु शरीर नी बहार रहेली होय ने देखी शकाय तेवीज होय, तेनेज प्राणिप्रो इन्द्रियो वड़े जाणे छे Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) अने जुए छे. परन्तु जे वस्तु इन्द्रियो ना विषय नी बहार होय ते देखी शकाय नहीं. तेवी वस्तु बीजा ना कहेवाथी जरूर जाणो शकाय छे. मूलम् सोयथाकस्यचिदस्तिकन्धरा-पृष्ठस्थितोवंशकमध्यगोवा । भङ्गोऽथवालक्ष्मचकालकादि, स्वयंनजानातिसतानिजःखैः।२ गाथार्थ :-जेम कोई पुरुष ना डोक ना पुंठ ना भागे अथवा वांसा ना पुंठ ना भाग मां रहेल भमरो, चिन्ह अने तिलक विगेरे होय तेने पुरुष पोताना इन्द्रियो बड़े जाणी शकतो नथी अने जोई शकतो नथी. विवेचनः-शरीर ना बहार भाग मां रहेली वस्तु पण देखी शकाय तेम होय तोज देखी शकाय छे. ते वस्तु दृष्टांत द्वारा बतावे छे के जेम कोई मनुष्य ना डोक ना पाछल ना भाग मां अथवा वांसा ना मध्य भाग मां भमरो, स्वस्तिक विगेरे चिन्हो अथवा तिलक एटले तल, मसा विगेरे मनुष्य पोते पोतानी इन्द्रियो बड़े जोई शकतो नथी, परन्तु बीजाना कहेवाथी माने छे. मूलम्यदा तु मात्रादिनिजाप्तवृद्ध -स्तवाऽत्र भृङ्गादि निमद्यतेऽदः । तदापि तेनाऽप्यनुमन्यते तत्,परन्तु खैः स्वैर्नकदाचिदीक्ष्यम् ।३ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) गाथार्थ-ज्यारे माता आदि प्राप्त जनो 'तारे भमरादि चिन्हो छ' एम कहे छे त्यारे पण तेनाथी अनुमान कराय छ, परन्तु पोतानी इन्द्रियो वड़े जोवातां नथी. विवेचनः-पोताना शरीर ना पाछल ना भाग मां रहेल भमरादि चिन्हो पोते जोई शकतो नथी, परन्तु ज्यारे तेनी माता आदि कोई पण प्राप्त जनो कहे के तारे पाछल ना भाग मां आवा प्रकार ना चिन्हो छे, त्यारे पण ते मनुष्य अनुमान करे छे; परन्तु पोतानी इन्द्रियो वड़े जोई शकतो नथी. मूलम्ःविद्वन्! यथास्येक्षकमानवास्ततो-ऽनेकेपरेसन्तितथास्वरीक्षकाः घनानतस्यत्वनिरीक्षकासको,ऽङ क्येवैककस्तेनसमंनचोत्तरम् । गाथार्थ:-हे विद्वन्! जेम एना जोनार बीजा अनेक मनुष्यो छे तेवीज रीते स्वर्ग ने जोनारो घणा नथी. चिन्ह नहीं जोनार, एक चिन्ह वालो एकज छे तेथी तेनो उत्तर भिन्न छे. विवेचन:-नास्तिक आस्तिक ने कहे छे के आनो उत्तर बराबर नथी अर्थात् भिन्न छे, कारण के चिन्ह ने जोनारा घणा मनुष्यो छे परन्तु स्वर्ग ने जोनारा घणा नथी. चिन्ह ने नहीं जोनार चिह्न वालो फक्त एकज छ अर्थात् कदाच Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) चिन्ह ने एक जोनार न होय परन्तु घरणा जोनार होवा थी मनी वात मान्य थाय छे. परन्तु स्वर्ग ने जोनार घणा नथी माटे ते वात मान्य नथी. तेनो उत्तर हवे बतावे छे. मूलम्: युक्तं परं नास्तिकतोघनाजनाः, सन्त्यास्तिकाप्राप्तवचः प्रमारणकाः तत्प्रेत्यदर्शानिवसन्तिभूरिशो, लक्ष्मेक्षवन्नास्तिकवत्तुलक्ष्मवान् । गाथार्थ एवं विवेचन :- नास्तिक प्रत्ये प्रास्तिक प्रत्युतर पे छे के तारी बात सत्य छे. परन्तु जगत मां प्राप्त पुरुषो ना वचन ने मान्य करनार प्रास्तिको घणा छे अने नास्तिको थोड़ा छे. तेवीज रीते चिन्ह ने जोनार नी जेम परलोक ने जोनारा घणा छे, ज्यारे चिन्हह्वाला नी जेम नास्तिक तो एकज छे. माटे घरणा माननारा होय ते वात मान्य होय तो प्रास्तिको घणा होवा थी तारे प्रास्तिको कहे ते वात मान्य राखवी जोइये. मूलम्: सत्यं मुने ! तत्फलतोऽपि पृष्ठगं, लक्ष्मावसेयं हि भवेदवश्यम् । परन्तु न स्वर्गपरेतलोको, कयाऽपि बोध्यौ ननु चेष्टयाऽपि । ६ गाथार्थ - हे मुनि, सत्य छे परन्तु चिन्ह छे ते बाबत तेना फल थी जारणवा योग्य छे. स्वर्ग अने नरक विगेरे चेष्टा बड़े पण क्यारेय जाणवा योग्य नथी. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) विवेचन हवे नास्तिक आस्तिक प्रत्ये कहे छे के हे मुनि! तारी वात ठीक छे परन्तु एक शंका थाय छे के चिन्ह भले न देखाय पण चिन्ह आदि नुं फल तो माणस ने प्रत्यक्ष मले छे, माटे चिन्ह नी वात मान्य थाय छे. स्वर्ग-नरकादि नुं फल मलतुं , नथी अने चेष्टा वड़े पण स्वर्ग-नरक क्यारे जाणी शकातां नथी माटे केवी रीते मान्य थाय. नूलम्:मैवं वद कोविद ! शक्तिशम्भु-गणेशवीरादिकदेवसंहतिः । शंव ङ्गिमान्याऽथतुरुष्कपूज्याः,फिरस्तपेगम्बरपीरमुख्याः १७ तदीयसेवोत्थिततादृशेन, फलेन वेद्या न हि सन्ति ते किम? सन्तोतिचेत्ते त्रिदशानमाः,प्रायोनदृश्याःकलिकालयोगतः। दूरस्थतद्योग्यनिवासभूमे---रगम्यतत्क्षेत्रपथा मनुष्याः । परन्तु सिद्धास्त्विदमीयसत्ता, नो मादृशैरा गतैः प्रदा । गाथार्थ-हे विद्वान् ! एम न बोल. शक्ति, शंभु, गणेश, वीर विगेरे देवो नो समूह शैव धर्मीप्रोने मान्य छे. फिरस्त, पेगम्बर अने पीर विगेरे यवनो ने मान्य छे. तेमनी सेवाथी तेमने फल मले छे तेथी जाणवा योग्य छे. तेथी शुं तेरो नथी ? जो छे तो तेरो देव छे, मनुष्य नथी. कलिकाल ना योगे तेश्रो देखाता नथी. तेमनुं निवास स्थान दूर होवाथी Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) मनुष्यो ना जोवा मां आवता नथी, परन्तु देवोनी सत्ता छे. तेम सिद्धो पण छे. मारा जेवा मनुष्यो थी जोवाय तेवा नथी. विवेचन:-नास्तिक ने आस्तिक प्रत्युत्तर आपे छे के तुं पावू न बोल. जेम पोताना पाछल ना भाग मां रहेल चिन्हादि न जोनार ने ते चिन्हादि ना फल थी तेनुं अनुमान थाय छे. तेम शक्ति, शंभु, गणेश, वीर आदि देवो ना समह ने शैवधर्मीयो माने छे अने फिरस्त, पेगम्बर अने पीर आदि ने यवनादिको माने छे अने तेओने तेनुं फल विगेरे मले छे. माटे तेयोनी सेवा आदि थी देवो जाणवा योग्य छे. जो देवो नी हयाती न होत तो तेप्रोने तेनुं फल मलत नहीं. फल मले छे, माटे देवो नी सत्ता छ अर्थात् ते देवो छ परन्तु मनुष्य नथी. तमे कहो छो के देवो फल विगेरे आपे छे, तो ते देवो आजे केम देखाता नथी ? तेनो प्रत्युत्तर ए छे के कलिकाल ना योगे प्रायः देवो आजे देखाता नथी. वली ते देवोनुं स्थान घणुं दूर होवाथी मनुष्यो ना जोवामां आवता नथी. परन्तु देवो छे ते नक्की छे. तेमज सिद्धि पद ने पामेला सिद्धो पण छे, परन्तु मारा जेवा मनुष्योथी जोई शकाय तेवा नथी. मूलम: . त्वं चेतसि स्वे परिभावयवं, लङ्काऽस्ति वा नो ननु वर्तते सा। त्वया मया सर्वजनैरपीय-माकर्ण्यते केन न मन्यते सा?॥१० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) गाथार्थः-तुं पोताना मन मां विचार कर. जो लंका छे के नहीं ? जो छे तो तारा-मारा सर्व जनो वड़े पण पा संभलाय छे तो लंका कोण न माने? विवेचन:-नास्तिक ने आस्तिक फरीने कहे छे के तं पोताना मन मां बराबर विचार के लंका छ के नहीं ? जो तुं कहीश के बंका छे, तो ताराथी, माराथी अने सर्व जनो बड़े आ लंका छ एम संभलाय छे. जो ए प्रमाणे लंका संभलाय छे तो लंका ने कोण न माने ? अर्थात् जो बीजा बड़े संभलाती वस्तुओ मनाय छे तो सर्वज्ञ भगवंतो बड़े कयन कराती आत्मादि वस्तुओ केम न मनाय ? अर्थात् मनायज. मूलन्त्वमित्थमेवाऽऽत्मनिमानयात्र,स्थितैस्तुलङ्कानयथानिरीक्ष्यते। लस्वर्गमोक्षादिपदं तथैव,छद्मस्थपुम्भिः परिवीक्ष्यमत्रगैः ।१२ गाथार्थः-आ रीते तं आत्मा मां विचार कर के जे प्रकारे पा स्थले रहेलामो वड़े लंका न देखाय तेम छद्मस्थ प्रात्मानो बड़े स्वर्ग मोक्षादि न देखाय. विवेचन:-आस्तिक नास्तिक प्रत्ये कहे छे के तुं तारा मात्मा मां शान्त चित्ते, सारी रीते विचार कर के जेम Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६) अहियां रहेला मनुष्यो द्वारा दूर रहेली लंका जोई शकाय तेवी नथी, तेवीज रीते केवल ज्ञान रहित एवा छद्मस्थ आत्मानो द्वारा पण स्वर्ग अने मोक्ष आदि पदार्थो जोई शकाय तेवा नथी. माटे परोक्ष वस्तुप्रो बीजाना कथन थी जाणी शकाय तेवी होवाथी परोक्ष वस्तुप्रो पण मान्य करवी जोइये. ॥ अथ षोडशोधिकारः ॥ स्वर्ग अने मोक्ष नां साधनो ने यथाशक्ति सिद्ध गुण नी सेवा बड़े सिद्ध थवायं अथाऽऽस्तिकं नास्तिक आह शस्तधी रस्त्वस्त्विदं स्वर्गपदादि निश्चितम् । परं किलतस्य यदस्ति साधनं, ___ तद् ब्रूहि मे साम्प्रतमादरेण ।। गाथार्थ:-हवे निर्मल बुद्धि वालो नास्तिक आस्तिक ने कहे छे के आ स्वर्गपदादि निश्चित भले होय परन्तु एवं साधन मने आदर पूर्वक कहो. विवेचन:-पूर्वे कहेल दृष्टांतो सांभलवाथी परोक्ष एवा स्वर्गादि प्रत्ये निर्मल बुद्धि थये छते नास्तिक हवे आस्तिक ने कहे छे के भले स्वर्ग अने मोक्ष विगेरे निश्चित होय Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) परन्तु ज्यारे स्वर्ग अने मोक्ष होय छे तो तेने प्राप्त करवा माटे तेनां साधनो पण होवां जोइये. माटे तेना साधनो पण आदर पूर्वक बतावो. नूलम्:महो! त्वया साधु वचः समीरितं,धर्मश्रुतौ ते यदभूदिदंमनः । एकाग्रचेतः शृणु तर्हि मद्वचो,यथा तवाऽप्यस्तु सुधीःसुधर्मे ।२ गाथार्थः--अरे, तें सारू वचन का के जे तारू मन धर्म सांभलवामां छे. एकाग्रचित्त थी मारू वचन सांभल जेथी तारी बुद्धि सारा धर्म मां थाय. विवेचन:-सुगम छे. मूलम्हिंसामृषादत्तग्रहाङ्गनागमाः, परिग्रहश्चेति समे समन्ततः । दिवर्जनीयायदिमानविवर्य, सिद्धोऽभवच्छीभगवान्प्रसिद्धः।३ गाथार्थ:- हिंसा, मृषा, चोरी, मिथुन अने परिग्रह ए सर्वे सर्व प्रकारे छोड़वा जोइये कारण के एमने छोड़ी ने प्रसिद्ध सिद्ध भगवंत थवाय. विवेचन:- ज्ञानी भगवंतो फरमावे छे के धर्म नी पाराधना कर्या विना जीव स्वर्ग के मोक्ष मेलवी शकतो नथी. पाप नो त्याग कर्या सिवाय वास्तविक रीते धर्म नी आराधना थई शकती नथी. जैन शासन मां अढार प्रकार नां पाप Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) बतावेलां छे तेमो हिंसादि पांच मोटा पाप गणावेल छे. बीजा धर्म वालासोए पण आ पांच मोटां पाप बताव्यां छकोई पण त्रस के स्थावर, सूक्ष्म के बादर जीव ने हणवो नहीं; हणाववो नहीं अने हणता ने अनुमोदवो नहीं; झुठं बोलवू नहीं; झूठं बोलावq नहीं अने झुठं बोलनार नी अनुमोदना करवी नहीं; चोरी करवी नहीं, चोरी कराववी नहीं अने चोरी करतां ने अनुमोदवी नहीं; अने परिग्रह राखवो नहीं, परिग्रह रखाववो नहीं अने परिग्रह राखनार नो अनुमोदना करवी नहीं. ए प्रमाणे हिंसादि पांचे पापो नो त्याग करवाथी धर्म नी प्राप्ति थाय छे. माटे तेनो अवश्य त्याग करवो. ए प्रमाणे त्याग करवाथी चार घाती कर्म नो नाश थवाथी केवल ज्ञान पामी जीव सिद्ध भगवंत थाय छे. मूलम्:ये सत्यशीलक्षमतोपकारिता-सन्तोषनिर्दूषरणवीतरागताः । निःसङ्गताचाप्रतिबद्धचारिता-सज्जानितानिविकृतिप्रसन्नताः सद्गोष्ठितानिश्चलताप्रकाशिता-अस्वामिसेवित्वमतीवसत्त्वता निर्भीकताऽल्पाशनताविशिष्टता-संसारसम्बन्धजुगुप्सतादयः । प्रोदृशा अल्पगुरणा अभूवन,सिद्धिश्रितांते तु भवन्त्यनन्ताः । क्षेत्रस्वभावादथसिद्धभावा-धद्वाशिवात्केवलिवाक्प्रमाणात् ।६ गाथार्थ:-जे सत्य, शियल, क्षमता, उपकार, संतोष,दूषण रहित पणुं, वीतरागता, निसंगपणुं, अप्रतिबद्ध गमनागमन, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) श्रेष्ठ ज्ञान युक्त पणुं, विकार रहित पणुं, प्रसन्नता, श्रेष्ठ कथा पालाप करवा पणुं, चंचलता रहित, पदार्थ ना समूहो नुं यथार्थ प्रकाश करवा पणुं, स्वामी सेवा रहित पणुं,प्रतीष सत्त्वपणुं, भय रहित पणुं, अल्पाहार पणुं, विशिष्टता, संसार प्रत्ये दुर्गच्छता, एवा प्रकार ना अल्प गुणो मुमुक्षोनो ने हता. मोक्षे गयेला मुमुक्षुत्रो ने ते अल्प गुणो अनंत गुणो थाय छे. ते अनंत गणो गणो तेस्रोने क्षेत्र ना प्रभाव थी प्राप्त थाय छे अने तेनो निर्णय केवली भगवंत ना वचन थी थाय छे. विवेचन:-मोक्ष मां जवानी इच्छा वाला आत्मायो मुमुक्षुत्रो कहेवाय छे. जे आत्मानो ने संसार नी भयंकरता समझाय छे ते अात्मायो दुर्गुणो नो त्याग करी गुणो मेलववा माटे प्रयत्न करे छे. त्यारे तेमनामां प्रथम अल्प गुणोनी प्राप्ति थाय छे. तो आ प्रमाणे मुमुक्षुत्रो मां अल्पगुणो होय छे, जेमके तेत्रो पोताना स्वार्थ खातर कदी पण सत्य ने छोड़ता नथी, ब्रह्मचर्य धारण करवामां दृढ होय छे, गमे ते वा प्रसंगे क्षमा धर्म नो त्याग करता नथी, स्वार्थ नो त्याग करी परोपकार करवामां रसिक होय छे, लालसा नो त्याग करी संतोष धारण करे छे. तेमनुं जीवन निर्दोष होय छे. संसारी वस्तुप्रो प्रत्ये राग अने द्वेष नो प्रभाव होय छे, संग रहित होय छे, कोई पण वस्तु नो प्रतिबंध नो अभाव होवाथी जवापाववामां स्वतंत्र होय छे, श्रेष्ठ ज्ञान धारण Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८०) करनार होय छे, पांचे इन्द्रियोना विकार विनाना होय छे, प्रसन्नता गुण युक्त होय छे, आत्म गुण करनार एवी श्रेष्ठ कथानो कहेनार होय छे, चंचलता वगर ना होय छे, दरेक प्रकार ना पदार्थो ना समह ने यथार्थ रीते प्रकाश करनारा होय छे, स्वामी सेवक भाव वगर ना होय छे, अत्यन्त सत्त्व ने धारण करनारा होय छे, भय थी रहित होय छे, अल्प आहार करनारा होय छे, विशिष्ट गुण ने धारण करनारा होय छे, संसार प्रत्ये दुर्गछा भाव धारण करनारा होय छे, एवा प्रकार ना अनेक गुणो ना धारण करनारा होय छे. अने ते मुमुक्षु आत्मानो ज्यारे मोक्ष मां जाय छे त्यारे तेमने अनंत गुणो नी प्राप्ति थाय छे. ते अनंत गुणो तेमना मां सिद्ध क्षेत्र ना प्रभाव थी उत्पन्न थाय छे अने तेनी प्रतीति अनंत ज्ञानी केवली भगवंतो ना वचनथीज थाय छे. मूलम्:तत्सेवकेनाऽपि तदीयशील-विधायिनाभाव्यमिति प्रतीतम् । तथा च सिद्धा यदमूर्तरूपा, गताशना नोरुषवीतरागाः ।७ निरञ्जनानिष्क्रिय कागतस्पृहाः, अस्पर्धकाबन्धनसन्धिर्वाजताः सत्केवलज्ञाननिधानबन्धुरा,निरन्तरानन्दसुधारसाञ्चिताः। प्रतस्तदुत्पन्नगुणानुगामिभि--महानुभाव निििवधीयते । तेषांगुरणानामनुयानमात्मा-नुरूपशक्त्या तदवाप्तिकांक्षया । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१) गाथार्थ :-ए प्रसिद्ध छे के सेवके स्वामी ने अनुसखं जोइये. तो मुमुक्षुप्रोए सिद्धो ना गुणो मेलववा माटे अमूर्त, निराहार, गतद्वेष, वीतराग, निरंजन, निष्क्रिय, गतस्पृहा, स्पर्धा रहित, बंधन संधि रहित, केवल-ज्ञान रूप निधान थी सुन्दर अने निरन्तर आनन्द रूप पियूष रस थी पूर्ण एवा गुण मय सिद्धो होवाथी तेमना गुणो नुं अनुकरण यथाशक्ति करवू जोइये. विवेचन:- व्यवहार मां एक वात प्रसिद्ध छे के स्वामी ने अनुसखाथी स्वामी ना नुणो सेवक मां आवे छे. माटे सेक्के स्वामी ने अनुसऱ्या जोइये. तेम अहियां पण मोक्ष ना अर्थी आत्माोए सिद्ध ना गुणो मेलववा माटे सिद्धो मां रहेला अरूपी पणुं, अनाहार पणुं, द्वेष रहित पणुं,, वीतरागता, निरंजन पणुं, निष्क्रियता, स्पृहा रहित पणुं, स्पर्धा रहित, पणुं, बंधन अने संधि रहित पणुं, सत्केवल ज्ञान, निरन्तर आत्मानंद रूप पियूष रस थी पूर्ण पणुं विगेरे गुणो नुं यथा शक्ति अनुकरण करवू जोइये. यद्यप्यमीषां न गुरणान्समस्तान, पूर्णानिमेसेवितुमत्र शक्ताः । तथाप्यमीसापवमात्मयोग्य,श्रित्वावलंसिद्धगुणानश्रयन्ति ।१. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) नाथार्थ:-- जोके श्रा संसार मां एमना पूर्ण प्रने समस्त गुणो ने सेववा माठे आ साधुप्रो शक्तिमान नथी, तो पण पोताना योग्य बल ने श्राश्रयी ने सिद्ध ना गुणो ने भजे छे. विवेचन :- सिद्ध भगवंतो मां अनंत गुणो रहेला छे अने मां अनंत शक्ति छे. एटले तेमना समस्त गुणो सेववानी अल्प बल वाला मुनि - महात्माओ नी शक्ति नथी, तो पण तेमना समस्त गुणो पामवा माठे अर्थात् सिद्ध जेवा थवा माटे सिद्ध ना गुणो ने पोताना बल मुजब सेवे छे. मूलम् - तथाहि सिद्धाः परिभान्त्यमूर्त्ता, अमी तथा देहममत्वमुक्ताः । रूपरस्ते तदिमे शरीर-संस्कारसत्कारनिकारकाराः । ११ मुक्ताशनास्तेऽत इमे क्वचित्क्वचि - दाहार वर्जाः पुनरेवतेतु । विद्वेषमुक्ता इति सर्वसत्त्व - मंत्री वहा एत इतीव रुच्याः । १२ ते वीतरागा इति बन्धुबन्ध-च्युता इमे ते तु निरञ्जनाख्याः । इमे ततः प्रीतिविलेपनाद्य, शून्याश्चते निष्क्रियकास्ततोऽमी |१३ प्रारम्भसंरम्भ विलम्भरिक्ता, गतस्पृहास्तेऽत इमे निराशाः । स्पर्धकास्ते तदमी परंस्तु, वादविवादरहितास्तथा च । १४ निबंन्धनास्तेऽथस देवकलृप्त--स्वेच्छाविहारास्तदिमेऽथ तेऽपि । निः सन्धयोऽमीतु परस्परोत्थ- सख्याद्विरक्ताश्रथ के वलेक्षाः । १५ ते सन्त्यमी सर्वजगत्स्वभावा - नित्यत्वदर्शाः पुनरेव ते तु । प्रानन्दपूर्णास्तदिमेसदान्तराः, सन्तोषपोवात्समभावभाविनः । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) गाथार्थ:--सिद्धो अशरीरी, अरूपी, मुक्त्ताशना, द्वेषरहित, वीतराग, निरंजन, निष्क्रिय, गतस्पृह, अस्पर्धक, निर्बन्धन, निसंधिवाला, केवलदर्शी अने आनन्द पूर्ण छे. तो साधुअोए अनुक्रमे शरीर ममत्व रहित, शरीर सत्कारादि रहित, आहार त्याग वाला, सर्व जीवो प्रत्ये मैत्री भाव वाला, बंधुप्रो ना बंधन रहित, प्रीति अने विलेपन रहित, प्रारंभ समारंभ थी शून्य, आशा रहित, वाद विवाद रहित, स्वेच्छाए विहार करनारा, परस्पर मैत्री थी रहित, सर्व जगत ने अनित्य जोनारा, शुद्ध भाव वाला अने समता वाला थवा प्रयत्न करवो जोइये. विवेचनः- सिद्ध भगवंतो ना गुणो प्राप्त करवा साधुग्रोए शुं करवं जोइये ते बतावे छे के सिद्ध भगवंतो शरीर रहित छे, तो साधुअोए 'पा शरीर मारू नथी' एम शरीर ऊपर थी ममत्व घटाऽवं जोइये. सिद्धो अरूपी छे तो साधुनोए स्नान नो त्याग अने शरीर प्रत्ये नो प्रेम एम शरीर संस्कार अने सत्कार नो त्याग करवो जोइये. सिद्धो आहार थी रहित छे, तो साधुओए उपवास, आयंबिल द्वारा आहार त्याग करवानो प्रयत्न करवो जोइये. सिद्धो द्वेष रहित छ, तो साधुअोए प्राणी मात्र प्रत्ये मैत्री भाव धारण करवो जोइये. सिद्धो वीतराग छे, तो साधुअोए स्वजन, परिवार, बंधु मादि ना बंधन रहित थवं जोइये. सिद्धो निरंजन छ, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) तो साधुग्रोए कोई ना प्रत्ये प्रेम रहित अने विलेपन रहित थर्बु जोइये. सिद्धो निष्क्रिय छे, तो साधुओए आरंभसमारंभ नां कार्यो नो त्याग करवो जोइये. सिद्धो स्पृहा रहित छे, तो साधुअोए कोई पण प्रकार नी आशा रहित थर्बु जोइये. सिद्धो स्पर्धा रहित छे, तो साधुओए वाद-विवाद थी शून्य थq जोइये. सिद्धो बंधन रहित छे, तो साधुप्रोए इच्छा मुजब विहार करवा वाला थq जोइये. सिद्धो संधि रहित छे, तो साधुअोए परस्पर मैत्री भाव थी रहित थर्बु जोइये. सिद्धो केवल दर्शन वाला छे, तो साधुओए सर्व जगत स्वभाव ने अनित्य रूपे जोनारा थq जोइये. सिद्धो आनन्द थी पूर्ण छे, तो साधुओए अन्तः करण शुद्ध राखq जोइये, अने समता भाव वाला थq जोइये. मूलमःइत्यादिका ये भगवद्गुणौघाः,शास्त्रेषुदृष्टा प्रथतान्प्रकल्प्य । मुमुक्षवोऽमी अपिशक्तियोग्य-माहत्यसिद्धन्त्यपितेक्रमेण ।१७ गाथार्थ:- विगेरे भगवंत ना गुण समूह जे शास्त्र मां प्रसिद्ध छे, तेमने अवलंबीने साधुनो यथा शक्ति ते गुणो ने आदरे छे ते ओ अनुक्रमे सिद्धि ने प्राप्त करे छे. विवेचन:-गणो नी प्राप्ति हमेशां गुणी पुरुषो नी पाराधना द्वाराज श्राय छे. हे मुमुक्षु आत्माओ ! जो तमारे पण Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) गुणो प्राप्त करवानी भावना होय तो श्री सिद्ध भगवंत ना गुणो शास्त्र प्रसिद्ध छे ते गुणो ने साधुओए शक्ति मुजब आदरवा जोइये जेथी अनुक्रमे घाति कर्मो नो नाश करी,केवल ज्ञान पामी प्रात्मा मुक्ति पद ने पामे छे. एज तत्त्व रूप छे. मूलम:येऽन्यगृहस्थाःखलुतेस्वकीय-शक्त्यातथादेशतएतकान्गुणान् । दुष्कर्मशान्त्यर्थमनुश्रयन्तः, क्रमेण चैतेऽपि सुखीभवन्ति ।१८ गाथार्थ:-जे बीजा गृहस्थो छ तेरो पण दुष्कर्म नी शान्ति माठे पोतानी शक्ति मुजब देश गणो नो आश्रय ले छे ते प्रो पण सुखी थाय छे. विवेचन:-सर्व त्यागी एवा साधु भगवंतो सिद्ध भगवंत ना गुणो नो आश्रय ले छ अर्थात् गुणो प्रत्ये आदर करे तो लाभ मेलवेज, एमां कई पण आश्चर्य नथी. परन्तु प्रारंभ समारंभ वाला एवा गृहस्थो पण देश गुणो नो दुष्कर्म ना नाश करवा माटे पोतानी शक्ति मुजब आदर करे तो तेरो पण सुखी थाय छे. मूलम्एवं तु ये केऽपि जनाः स्वशासने,सत्तांश्रिताःश्रीपरमेश्वरस्य । तत्प्रीतयेतेऽपिगुणानिमाननु-यान्तिविज्ञाः परब्रह्मलिप्सवः ।१६ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) गाथा - प्रमाणे जेकेटलाक लोको पोताना मते ईश्वर ने मानता परब्रह्म मेलववा नी इच्छा वाला ने विद्वान् एवा परमेश्वर नी प्रीति माटे ते गुणो नो आश्रय ले छे. विवेचनः ग्रन्य दर्शन वाला प्रो परण टश गुणो नो आश्रय छेते बतावतां कहे छे ते के ए प्रमारणे नैयायिको, वैबेषिको, सांख्यो, मीमांसको विगेरे केटलाक लोको ईश्वर नी सेवा थी मुक्ति थाय छे एवा सद्भाव थी ईश्वर नी मान्यता वाला विद्वान् अने परब्रह्म एटले मोक्षनी इच्छा वाला ईश्वर नी प्रीति माटे क्षमा आदि गुणो नो आश्रय ले छे. गृहस्थो थो द्रव्य धर्म नु सेवन अने व्यवहार थी पालन मूलम्: साधो ! गृहस्था अपि देशतोऽमी, श्रयन्तवमूनेव गुरणांश्विराय । परन्तु यत्कर्मरिण जीवहिंसा, श्रयन्ति चेत्तन्न परं तदेषाम् । २० गाथार्थ - हे मुनि ! आ गृहस्थो पण देश थी दीर्घकाल पर्यंत या गुणो तो श्राश्रय ले छे. परन्तु जे कार्य मां जोव हिंसा थाय ते कर्म नो जो ते गृहस्थो श्राश्रय ले तो ते श्रेष्ठ नथी अर्थात् सारू नथी. विवेचन:- हे मुनि ! या गृहस्थो क्षांत्यादि देश गुणो नो आश्रय ले छे ते वात तो ठोक छे एम नास्तिक कहे छे, परन्तु नास्तिक बीजो एक प्रश्न करे छे के तेस्रो जीव हिसादि Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८७) वालां कार्यों पण करे छे ते ठीक नथो. माटे तेमने जीव हिंसादि कार्यो नो निषेध करवो जोइये. तेनो प्रत्युत्तर पागल नी गाथा मां आपे छे. लम्:सत्यं गृहस्थाःखलुते भवन्ति,प्रायोहितेस्थूलधियोऽतिचिन्ताः । प्रारम्भवन्तश्चपरिग्रहादराः,सूक्ष्मेक्षिकालोकनकुण्ठबुद्धयः ।२१ एते विनालम्बनमत्र तत्त्व-त्रये विमुह्यन्तिततः शुभार्थम् । साकारपूजां धृतसाधुवेष-सेवां च दानादि सृजन्तुनित्यम् ।२२ गाथार्थः-तारी वात सत्य छे परन्तु खरेखर ते गृहस्थो प्रायः स्थूल बुद्धि वाला, अधिक चिन्ता वाला, प्रारंभ युक्त, परिग्रह ना आदर वाला सूक्ष्मदृष्टिए मंद बुद्धि वाला अने प्रालंबन विना तत्त्वत्रयी मां मुंझाता एवा होय छे. ते कारण थी तेमना कल्याण माटे तेत्रो प्रभुनी द्रव्य पूजा, वेष धारण करनार साधुओ नी सेवा अने दान-धर्म भले नित्य करे. विवेचन:- साधुअो नं जीवन, आचार-विचार, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अने अवस्था अलग होय छे अने गृहस्थो नी अवस्था, जीवन, प्राचार, विचार आदि अलग होय छे. एटले साधुप्रो सर्व प्रकार ना हिंसादिनो त्याग करी शके छे. परन्तु गृहस्थो. तेवा प्रकार ना हिंसादि नो त्याग करवाने समर्थ नथी कारण के तेश्रो स्थूल बुद्धि वाला होवा थी Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) धर्म नी समझ अल्प होय छे. आर्थिक, शारीरिक, कौटुम्बिक आदि अनेक प्रकार नी गृहस्थ जीवन नी चिन्ता थी भरेला होय छे. तेमज गृहस्थ जीवन ना निभाव माटे अनेक प्रकार ना प्रारंभ-समारंभ वाला होय छे. वली धन, धान्य, परिवार आदि अनेक प्रकार ना परिग्रह मां आदर वाला होय छे. सूक्ष्म बुद्धि नी दृष्टिए विचारतां अल्प बुद्धि वाला पण होय छे. तेमज मंद बुद्धि ना कारणे कोई पण प्रकार ना आलंबन वगर सुदेव, सुगुरु अने सुधर्म रूप तत्त्वत्रयो मां मुंझायला होय छे छतां तेमना अात्म कल्याण माटे जिनेश्वर देव नी द्रव्य पूजा, साधुअोनी सेवा-भक्ति अने सुपात्रादि स्थाने दान-धर्म हमेशां भले करे. मूलम्उच्चैः कुलाचारयशोऽवनार्थम्,श्रितोगृहस्थैः सकलोऽपिधर्मः । तद्रव्यतोभावतमात्मसम्पदे,द्विधापिधर्मगृहिणःश्रयन्त्वमी।२३ गाथार्थः-ऊच कुल ना प्राचार अने यश ना रक्षण माटे सर्व प्रकार नो धर्म नो आश्रय गृहस्थो वड़े लेवायेलो छे. या गृहस्थो द्रव्य अने भाव एम बन्ने प्रकारे आत्म संपत्ति माटे धर्म नो आश्रय ले. विवेचन:- जोके गृहस्थोए पोताना ऊंच कुल ना रक्षण माटे अने पोतानी कीत्ति ना रक्षण माटे सर्व प्रकार ना Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६) धर्म नो पाश्रय लीधेलोज छे. तो हवे तेसो पोतानी आत्मसंपत्ति-प्रात्म कल्याण माटे द्रव्य अने भाव एम बन्ने प्रकार ना धर्म नुं पाराधन करे एज तेमना माटे हितकर छे. मूलम् - प्रायेण सावधरता गहस्थाः, सदैहिकार्थाधिकृतौ प्रसक्ताः। कुटुम्बपोषाहतभूरिसङ्घयो-च्चीनीचवार्ताःपरतन्त्रखिन्नाः ।२४ तेऽमी स्वचेतः प्रतिभातपुण्य-कार्योद्यता प्रात्मरुचिप्रवृत्ताः। यदेव ते स्वीयमनोऽभितुष्टय,कुर्वन्तिपुण्यं किलकुर्वतांतत् ।२५ गाथार्थ -पाप व्यापार मां तत्पर, सांसारिक 'द्रव्य उपार्जन करवामां आसक्त, कुटुम्ब पोषण मां आदर वाला, आजीविका ना कारणे पराधीन पणा थी दुःखित अने पोताने मान्य पुण्य मां तत्पर एवा तेरो प्रायः पोतानी रुचि प्रमाणे प्रवृत्ति करे छे. तेथी तेमना मनना संतोष माटे जे पुण्य करे ते भले करे. विवेचन:- गृहस्थो न जीवन लगभग पाप व्यापार मांज व्यतीत थाय छे. कारण के तेश्रो संसार नुं जीवन चलाववा माटे रात-दिन धन उपार्जन करवामांज मशगूल होय छे. वली कुटुंब, परिवार आदि प्रत्ये आदर भाव वाला होवाथी आजोक्किा चलाववानी प्रवृत्ति ना कारणे पराधीन पणे अनेक प्रकार ना दुःखो ना भोक्ता बने छ, आवी परिस्थिति Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) मां तेस्रो धर्म नी प्रवृत्ति मां एक दम आगल वधवा कठिन होवाथी पोतानी मान्यता मुजब पुण्य मां तत्पर होवा थी पोतानी रूचि प्रमाणे जे पुण्य करे छे, ते भले करे. मूलम्: एते गृहस्था हृदये विदध्यु - रितीव संकल्प्य च द्रव्यधर्मम् । द्रव्येण कर्माणि समाचारय्य, यथा मनस्तुष्टिमिदंनिधत्ते । २६ तथैव धर्माण्य पिकानिचिच्चेद्, द्रव्येणकृत्वा स्दमनः प्रसन्नम् । कुर्मोऽत्र येनैव गृहस्थसत्को, व्यापार एष द्रविणेनसिध्येत् । २७ गाथार्थ - गृहस्थ हृदय मां दृढ़ संकल्प करीने द्रव्य द्वारा धर्म ने करे जेथी द्रव्य द्वारा कर्मों आचरी ने आ मन संतोष पामे तेज प्रमाणे केटलांक धर्म कार्यों द्रव्य वडे श्रमे पोतानुं मन प्रसन्न करिये छिये एम लागे, कारण के गृहस्थ संबंधी या व्यापार द्रव्य थीज सिद्ध थाय छे. विवेचन : पूर्वे बनावेला या गृहस्थो पोताना मन मां दृढ़ निर्णय करीने द्रव्य द्वारा धर्म ने करे कारण के तेमना मन मां एम लागे छे के जेम द्रव्य द्वारा संसार नां कार्यों करावी ने अमो मन मां संतोष करिये छीये, तेवीज रीतिये द्रव्य द्वारा धर्म नां कार्यो करीने अमारा मन ने अमो प्रसन्न करिये छीये. एटले ए रीते परण द्रव्य थी तेस्रो धर्म करे तो Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ / पण सारू कारण के प्र संसार मां गृहस्थो संबंधी बधी प्रवृत्ति द्रव्य थीज सिद्ध थाय छे, मूलम्: एषां यतो द्रव्यवतां स्वधर्म, द्रव्येस साद्ध भवतीह चेतः । युक्तं ह्यदो यस्य बलं यदीयं, बलेन तेनैव मतं निजंक्रियात् ॥ २६ गाथार्थ - धनवान गृहस्थो पोतानो धर्म द्रव्य थी साधवा इच्छता होय तो ते योग्य छे. जेनुं जे संबंधी बल होय, तेना वड़े पोतानो धर्म करे. विवेचनः ज्ञानीश्रोतुं कथन एवं छे के संसार मां जीवो ने बधी शक्तिश्रो सरखी प्राप्त थती नथी. तथा जीवो नी भावना पण सरखी होती नथी. एटले जे शक्ति मली होय तेनो सदुपयोग थाय तो सारू. तेथीज धनवान गृहस्थो ने द्रव्य द्वारा धर्म करवानी इच्छा होय तो तेस्रो द्वव्य द्वारा धर्म करे ते योग्य छे. एटलेज पोताने जे बल मल्युं होय ते नो पोताना धर्म मां उपयोग करे एज ठीक छे. मूलम् बल तद्रव्यधमं गृहिरणां प्रकुर्वतां, संसारकार्यान्मनसोऽस्तुसंवृत्तिः । यथा तथैते दधतांमनःस्वकं, सालम्बनेपुण्यविधावपेक्षणम् ॥२६ गाथार्थः द्रव्य द्वारा धर्म करता गृहस्थो जेम पोताना संसार ना कार्योथी निवृत्त थाय ते प्रकारे आलंबन वाला पुण्य कार्यों मां अपेक्षा पूर्वक पोतानुं मन स्थापे. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) विवेचन:-द्रव्य द्वारा धर्म करतां पण गृहस्थो न संसार ना कार्यो मांथी पोतानुं मन पाछु हठे छे ते केवी रीते ? ते बतावतां कहे छे के द्रव्य थी धर्म करता गृहस्थो नी संसार ना कायों मांथी मन नी निवृत्ति थाय ते रोते गृहस्थो जिनेश्वर देव नी द्रव्य पूजा, साधुअोनी सेवा, प्रति लेखना प्रमार्जना अने दानादि कार्यो मां अपेक्षा पूर्वक पोताना मन ने स्थापे. मूलम्:तद्यावतामी निजकेन्द्रियाणि, संवृत्य संसारभवक्रियातः । तदेव पूजादिकमाश्रयन्ता,मनः स्थिरं येनमनागपि स्यात् ।३० गाथार्थ:--ते कारण थी आ गृहस्थो पोतानी इन्द्रियो ने संसार नी क्रियानो थी रोकी ने जेटला प्रमाण मां थोडं पण मन स्थिर थाय ते प्रमाणे पूजादि करे. विवेचनः-संसार मां डूबेला गृहस्थो नुं मन चौवीशे कलाक संसार नी पाप क्रिया मांज रत होय छे तो तेमन मन धर्म मां केवी रोते स्थिर थाय, ते अहियां बतावे छे के गृहस्थो पोतानी इन्द्रियो संसार कार्यों थी रोकीने थोड़े पण मन स्थिर बने ते मुजब जिनेश्वर देवनी पूजादि तथा दानादि करे जेथी मन नी स्थिरता थाय. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३) मूलम्ःयावत्त्वनाकारपदार्थचिन्ता-कृतौ मनो न क्षममस्ति तद्वत् । सुसाध्वसाधुप्रतिपत्तियोग्यो, ज्ञानोदयो यावदहो भवेन्नो ।३१ तावत्स्वकीयव्यवहाररक्षा, कार्या कुलीनेन सनिश्चयेन । सनिश्चयः सव्यवहार एवं,निन्द्यो गृहस्थो न परैर्यतोभवेत् ।३२ गाथार्थ:-ज्यां सुधी निराकार पदार्थों में ध्यान करवामां मन समर्थ न थाय तथा सुसाधु अने असाधुप्रो एवो बोध न थाय त्यां सुधी निश्चय नय मां रत एवा गृहस्थोए पोताना व्यवहार नी रक्षा करवी जेथी व्यवहार सहित निश्चय वालो बीजाप्रो ने निन्दा पात्र न बने. .. विवेचन:- व्यवहार धर्म - पालन पण जरूरी छे. व्यवहार ना पालन विना गृहस्थ लोको मां निन्दा पात्र बने छे. माटे ज्यां सुधी मन निश्चय धर्म मां दृढ न बने त्यां सुधी व्यवहार - पालन जरूरी छे. ते बतावतां कहे छ के ज्यारे निराकार पदार्थ नुं ध्यान करवामां मन मजबूत न बने अने सुसाधु अने असाधु एवो भेद समझवानी शक्ति न आवे त्यां सुधी व्यवहार सहित निश्चय वाला गृहस्थे पोताना व्यवहार नी रक्षा करवी जेथी लोको मां निन्दा पात्र न बने. मूलम्: स्थिरं यदा चित्तमनाकृतावपि,तदातु सिद्धस्मरणं विधेयम् । तत्सेधने साधुगृहस्थ मुख्य-रात्मावबोधे परियत्न एष्यः ।३३ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४) गाथार्थ:-जे काले अनाकृति पदार्थ मां मन स्थिर थाय त्यारे सिद्ध नुं स्मरण करवं जोइये. सिद्ध ना स्मरण नी साधना माटे साधु अने गृहस्थो विगेरेए आत्म ज्ञान माटे प्रयत्न करवो जोइये. विवेचन:-प्रथम साकार पदार्थ नं ध्यान करी मन ने स्थिर करवा प्रयत्न करवो जोइये. पछी अनाकार पदार्थ ना ध्यान मां मन ने जोडवं अने अनाकार पदार्थ ना ध्यान मां मन स्थिर थाय त्यार बाद सिद्ध भगवंतो नुं स्मरण करवं जोइये. साधु अने गृहस्थोए सिद्ध भगवंतो नुं स्मरण नी साधना माटे प्रात्म ज्ञान नी प्राप्ति थाय तेवो प्रयत्न करवो जोइये. मूलम्पौर्वो विधिर्योऽखिलद्रव्यभाव-भिन्नां स हि द्वारधरोपलब्ध्य । निर्वाणधाम्नोवरयानवत्स्या-त्तस्यप्रवेशेऽयमिहाऽऽत्मबोधः।३४ तदङ्गने पादविहारवद्यः, शिवालयावस्थितिकृन्महात्मनां । तेनात्मबोधःपरमोऽस्तिधर्मो,यत्सेधनान्नितिरेवनिश्चिता।३५ गाथार्थः- पूर्व कहेल द्रव्य अने भाव रूप धर्म मुक्ति रूपी महेल ना द्वार नुं प्रांगणुं प्राप्त करवा माटे श्रेष्ठ वाहन तुल्य छे. अने मुक्ति रूपी महेल ना प्रांगणा मां पहोंच्या . बाद तेमां प्रवेश करवा माटे आत्म ज्ञान प्रांगणा मां पाद , Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) विहार सरीखा महात्मानो ने शिवालय मां स्थिति करी आपनार छ, अर्थात् आत्मज्ञान ए परमधर्म छे जेनी साधना थी मोक्ष निश्चित थाय छे. विवेचन:-मोक्ष ना अर्थी आत्माए द्रव्य अने भाव एम बन्ने प्रकार ना धर्म नी आराधना करवी जोइये, बन्ने प्रकार ना धर्म नी आराधना द्वारा जीव मुक्ति नी नजीक पहोंचे छे. पछी पागल वधवा माटे आत्म ज्ञान नी पावश्यकता रहे छे. एज आत्म ज्ञान द्वारा जीव मोक्ष पुरी मां स्थिर वास थाय छे. एज वस्तु बतावतां अहियां कहे छे के द्रव्य अने भाव धर्म ए मुक्ति महेल मां प्रवेश करवा माटे आत्म ज्ञान मुनियोना पाद विहार तुल्य छे अने अंते मुक्ति रूपी महेल मां स्थिर बनावे छे, माटे आत्मज्ञानए परम धर्म छे अने तेनी साधना थी निश्चये मोक्ष थाय छे. मूलम्सन्त्यत्र यद्बोधनदर्शनाख्य-चारित्रमुख्याः सकलागुणौघाः। सात्मबोधोजयतिप्रकृष्टं,ज्ञानादिशुद्ध यदिहास्त्यनन्तम् ।३६ गाथार्थ :-आत्म बोध मां ज्ञान, दर्शन अने चरित्र विगेरे बधा गुणो नो समह वर्ते छे, ऐवा प्रकार नो आत्म बोध उत्कृष्ट रीतिए जय पामे छे, कारण के आत्म बोध मां ज्ञानादिनी शुद्धि अंत रहित रहेली छे. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) विवेचन:-आत्म बोधनुं महत्त्व केटलुं छे ते बतावतां कहे छे के सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान अने सम्यग चारित्र ए मोक्ष नो मार्ग छे. या मोक्ष ना मार्ग रूप सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान अने सम्यग् चारित्र विगेरे बधा गुणो आत्म बोध मांज रहेला छे. तेथो आत्म बोध जगत मां उत्कृष्ट रीतिए जयवंता वर्तो वली आत्म बोध थी सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान अने सम्यग् चारित्र नी शुद्धि पण थाय छे. ते शुद्धि अनंत काल पर्यंत रहे छ, अर्थात् टकी शके छे. तच्छोधनेऽनन्त चतुष्टयाप्ति-र्यवीयपारप्रतिप्रतिकार्ये ।। ज्ञानंनकस्याऽपिसदाप्रभुस्या-त्सर्वात्मनाकाशदृशीवशाश्वतम्३७ गाथार्थः-ज्ञानादिनी शुद्धि थी अनंत चतुष्टयनी प्राप्ति थाय छे. जे सम्बन्धी पार गमन करवामां आकाश दर्शन नी नेम निरन्तर सर्व स्वरूप थी कया जन ने आत्म बोध समर्थ न थाय ? विवेचन:- सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान अने सम्यग् चारित्र नी शुद्धि पूर्वक आराधना करवाथी आत्मा ना चार भाव प्राण स्वरूप अने मुख्य गुण रूप अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत वीर्य नी प्राप्ति थाय छे,अने अनंत चतुष्टय नो पार पामवा माटे नाकाश दर्शन नी जेम आत्म ज्ञान एटले केवल ज्ञान सिवाय कोण समर्थ छ ? अर्थात् बीजू कोई ज्ञान समर्थ नथी. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) ॥ अथ सप्तदशोऽधिकारः ॥ प्रभु प्रतिमा पूजन थी पुण्य नो संभव: मूलम्: श्रथेत्यसौनास्तिकप्राख्यदास्तिकं, यदुच्यतेभोःप्रतिमार्चनाद्भवेत् । पुण्यं न तत्सम्भवतीषदार्या, प्रजीवतः का फलसिद्धिरस्ति ? । १ गाथार्थ :-- श्र नास्तिक प्रास्तिक ने कहे छे के हे आर्यो ! जे कहेवाय छे के प्रतिमा पूजन थी पुण्य थाय छे ते संभ नथी, कारण के अजीव थी कया फल नी सिद्धि थाय ? विवेचनः घणा ना मन मां आवो संशय थाय छे के प्रतिमा पूजन थी शुं फल थाय ? तेवोज प्रश्न नास्तिक ना हृदय मां परण थवाथी नास्तिक प्रास्तिक ने प्रश्न करे छे के तमो कहो छो के प्रतिमा पूजन थी पुण्य थाय छे; परन्तु प्रतिमा पूजन थी पुण्य उपार्जन थतुं नथी कारण के प्रतिमा अजीव छे, अने अजीव एटले जड़ एवी प्रतिमा नुं पूजन करनार ने केवी रीते फल आपे ? अर्थात् श्रजीव थी कई सिद्धि थाय ? मूल नैवं स्वचित्ते परिचिन्तनीय-मजीव सेवाकररणाद्भवेत् किम? | पद्यादृशाकारनिरीक्षणं स्यात्प्रायो मनस्तद्गतधर्मचिन्ति ॥२ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८ ) गाथार्थ:-पोताना चित्त मां एवं न विचार के अजीव नी सेवा थी शुं फल मले? कारण के जेवा प्रकार ना आकार में निरीक्षण करे छे तेवा प्रकार ना आकार मां रहेला धर्म नं प्रायः मन चिन्त्वन करनार थाय छे. विवेचन:-हवे नास्तिक ने आस्तिक प्रत्युत्तर प्रापतां कहे छे के प्रतिमा अजीव छे अने अजीव नी सेवा थी शुं फल मले छे आवो विचार तमारे न करवो कारण के प्रतिमा पूजन मां प्रतिमा फल नथी आपती, परन्तु प्रतिमा ना आलेखन थी मन ना अध्यवसायो बदले छ अर्थात् तेना आलंबन थी मन पर असर थाय छे. कोई पण वस्तु ना गुण धर्म नुं चिन्त्वन कर, ए मन नो विषय छे. साची वस्तु ना गुण धर्म - चिन्त्वन पण मन करे छे. प्रायः करीने जीव जेवा प्रकार ना आकार वाली वस्तु नुं निरीक्षण करे छे, तेवा प्रकार ना आकार मां रहेला गुण धर्मो नुं मन चिन्त्वन करे छे. एटले सारा आकार वाली वस्तु ना दर्शन थी मन पण सारी वस्तु ना गुण धर्म - चिन्त्वन करवाथी शुभ अध्यवसाय रूप फल मले छे. माटेज शुभ अध्यवसाय माटे प्रतिमा ना आलंबन नी जरूर छे. मूलम्यथा हि सम्पूर्णशुभानपुत्रिका, दृष्टा सती तादृशमोहहेतुः । कामासनस्थापनतश्चकाम-केलीविकारान्कलयन्तिकामिनः।३ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) योगासनालोकनतोहियोगिनां,योगासनाभ्यासमतिःपरिष्यात् । भूगोलतस्तद्गतवस्तुबुद्धिः,स्याल्लोकनालेरिह लोकसंस्थितिः । गाथार्थ:-जेम संपूर्ण अने सारा अंग वाली पुतली जोवाती छती तेवा प्रकार ना राग नुं कारण थाय छे. वली कामी पुरुषो काम नां आसनो नां चित्रोथी काम क्रीडा नी विकृति नो अनुभव करे छे. योग संबंधी आसनो जोवाथी योग ना प्रासन करनारायो ने योग ना आसन ना अभ्यास नी बुद्धि थाय छे. भूगोल विद्यार्थी पृथ्वी ऊपर रहेल पदार्थो नुं ज्ञान थाय छे तथा लोक नाड़ी थी लोक रचना-नुं ज्ञान थाय छे. विवेचनः- अहियां अजीव एवी वस्तुओ ना दर्शन थी पण मन पर केवी असर थाय छे ते बताववा आस्तिक नास्तिक ने कहे छे के अजीब एवी पण सर्व अवयव थी परिपूर्ण अने सर्वाङ्गे सुन्दर एवी पुतली जोवाथी संपूर्ण अने सौन्दर्य शाली साक्षात् युवती जोतां छतां जेवा प्रकार नो राग उत्पन्न थाय छे तेवा प्रकार नोज राग उत्पन्न थाय छे. अर्थात् स्त्री संबंधी विषय ने याद करावे छे. विषय ने उत्पन्न करनार एवां काम ना आसनो नां चित्रो जोवाथी पण कामी पुरुषो काम क्रीड़ा ना विकार नो अनुभव करे छे. योग ना पासन जोवाथी योग ना अभ्यासीनो ने योग ना अभ्यास Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) संबंधी बुद्धि थाय छे. भूगोल विद्यार्थी पृथ्वी ऊपर रहेल गाम, नगर, पर्वत, नदी, देश विगेरे अनेक प्रकार ना पदार्थो नं ज्ञान थाय छे. तथा लोक नाड़ी जोवाथी लोक. रचना नुं ज्ञान थाय छे, तेम प्रतिमा ना पूजन थी जे देव नी प्रतिमा छे ते देव ना गुणो नुं स्मरण थाय छे ? चूलम्:कर्माहिकालानलाकोटचक्र -स्तदाश्रितज्ञप्तिरिह स्थितानाम् । शास्त्रीयवर्णन्यसनात्समग्र-शास्त्रावबोधस्तदभीक्षकारणाम् ।५ गाथार्थः- कर्म चक्रादि चक्रो वड़े प्रा संसार मा रहेला मनुष्यो ने ते चक्रो ने आश्रित रहेला पदार्थो नुं ज्ञान थाय छे. शास्त्र संबंधी वर्ण नी स्थापना थी सकल शास्त्र नुं ज्ञान शास्त्र ना जोनार ने थाय छे. विवेचन-कर्म चक्र, अहि चक्र, सूर्य कालानल चक्र, चंद्र कालानल चक्र अने कोट चक्र विगेरे अनेक प्रकार नां चक्रो छे. ते ते चको जोवाथी प्रा संसार मां रहेला मनुष्यो ने ते ते चक्र संबंधी जे पदार्थो होय छे तेनुं ज्ञान थाय छे. वली शास्त्र संबंधी अक्षरो जोवाथी सकल शास्त्र नं ज्ञान पण शास्त्र जोनार ने थाय छे. मूलम्नंदीश्वरद्वीपपुटात्तथा च, लङ्कापुटात्तद्गतवस्तुचिन्ता । एवंनिजेशप्रतिमाऽपिदृष्टा,तत्तद्गुणानांस्मृतिकारएंस्यात् ।६ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) गाथार्थः - नंदीश्वर द्वीप ने लंका नुं चित्र जोवाथी तेमां रहेला पदार्थो नुं चिन्त्वन थाय छे. एवी रीते पोत पोताना भगवान नी मूर्ति जोवाथी तेमना गुणो नुं स्मरण थाय छे. विवेचन :- नंदीश्वर द्वीप नं चित्र जोवाथी नंदीश्वर मां रहेला अंजनादि पर्वतो नुं, त्यां रहेल शाश्वत बावन जिन मंदिरो तथा तेनी रचना नुं प्रने त्यां रहेल वावो विगेरे नुं ज्ञान थाय छे. तेम लंका नुं चित्र जोवाथी लंका ना पदार्थों नुं चिन्त्वन थाय छे, अने त्यार बाद तेनुं यथार्थ ज्ञान पण थाय छे; तेवीज रीते पोत पोताना भगवंत नी मूर्ति ना दर्शन-पूजन थी ते मूर्ति मां रहेला गुणो नुं स्मरण मूर्ति जोनार ने अवश्य थाय छे. मूलम् यदा तु साक्षान हि वस्तु दृश्यं, तत्स्थापनासम्प्रतिलोक सिद्धा । तथा च पत्यौपरदेशसंस्थे, काचित्सती पश्यति यत्तदर्चाम् ॥७ गाथार्थः :- ज्यारे साक्षात् वस्तु जोवा न मले त्यारे ते अदृश्य वस्तु नी स्थापना हमणां संसार मां प्रसिद्ध छे. जेम के कोई सती पोतानो स्वामी परदेश मां होय त्यारे तेनी प्रतिमा ने जुए छे. विवेचनः - संसार मां पण प्रसिद्ध छे के ज्यारे लोको ने ज़े वस्तुं प्रत्ये सद्भाव होय छे अथवा जे व्यक्ति प्रत्ये पूज्य भाव होय छे त्यारे ते साक्षात् वस्तु नी गैर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२) हाजरी मां तेनी स्थापना, मूत्ति, बावलां, चित्र विगेरे नो उपयोग करे छे अने तेना दर्शन-पूजन द्वारा साक्षात् वस्तु जोया नो अनुभव कहे छे. जेमके सती स्त्री पण पोतानो स्वामी परदेश गयो होय त्यारे तेना पति नी प्रतिमा, चित्र विगेरे ना दर्शन आदि करी तेना पति ना साक्षात् दर्शन नो अनुभव करे छे, तेवीज रीते भगवान नी प्रतिमा ना दर्शनपूजन थी पूजक ने भगवान ना गुणो नुं स्मरण थाय छे. मूलम् - यदन्यशास्त्रेऽपि निशम्यतेऽदः, श्रीरामचन्द्र परदेशसंस्थे। तत्पादुकांसोऽपिचरामवत्तदा-ऽभ्यपूजयत्धीभरतोनरेश्वरः। सीताऽपिरामाङ्गलिमुद्रिकांता-मालिङ ग्यरामाऽप्तिसुखंन्यमस्त रामोऽपिसीताश्रितमौलिरत्न-मासाद्यसीताप्तिरतिव्यजानात्।। गाथार्थ:-अन्य शास्त्र मां पण संभलाय छे के श्री रामचंद्र परदेश मां होते छते श्री भरत राजाए तेमनी पादुका श्री राम नी जेम पूजी हती. सीताजी पण रामचन्द्रजी नी वींटी ने आलिंगन दई रामचंद्रजी नी प्राप्ति ना सुख नो अनुभव करवा लाग्यां. अने रामचंद्रजी पण सीताजो ना मुगट रत्न ने प्राप्त करी सीताजी प्राप्ति ना सुख ने अनुभव करवा लाग्या. विवेचन:-हवे ग्रंथकार श्री अन्य शास्त्रो द्वारा प्रतिमा पूजन संबंधी दृष्टांतो आपी तेज वस्तु ने दृढ़ करतां जणावे Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३ ) छे के रामायण मां पर एक प्रसंग आवे छे के ज्यारे रामचंद्रजी वनवास गया त्यारे तेमना भाई भरतजी नी अनिच्छा छतां पराणे भरतजी ने राज्य गादी सुप्रत करी हती. ते समये रामचंद्रजी प्रत्ये ना भक्ति भाव थी भरतजी राजा होवा छतां पण श्री रामचंद्रजी नी जेम तेमनी पादुका स्थापन करी तेमनी पूजा करता हता. सीताजी पण रामचंद्रजी ना वियोग मां रामचंद्रजी नो वींटी ने प्रालिंगन दई रामचंद्रजी मल्या तुल्य आनन्द अनुभववा लाग्यां अने रामचंद्रजी पण सीताजी ना मुगट- रत्न ने जोवा थी सीताजी नी प्राप्ति तुल्य सुख अनुभववा लाग्यां. मूल: नात्राऽस्ति कश्चित्तुतयोः शरीश-कारस्तथापीहतयोस्तथाविधम् । सुखं समायाद्यदजीवतोऽपि, तहश्वरार्चाऽपि सुखाय कि न? | १० गाथार्थ - राम ने सीता ना शरीर नो आकार नथी. ते वस्तु अजीव होवा छतां ते वस्तुओ ने जोई ने ते बन्ने ने सुख नो अनुभव थाय छे. तो ईश्वर नी प्रतिमा पण सुख ना माटे केम न थाय ? अर्थात् थायज. विवेचन :- जेम रामचंद्रजी नी वींटीं मां रामचंद्रजी नो प्राकार होतो अने सीताजी ना मुगट मां सीताजी नो आकार होतो, वली ते बन्ने चीजो अजीव पण हती, छतां रामचंद्रजी तथा सीताजी ने बे ने वस्तुप्रो जोतां मलवा Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) जेटलो आनन्द थयो. तो ईश्वर नी प्रतिमा जड़ होवा छतां तेना दर्शन-पूजन करनार ने केम सुख न थाय? अर्थात् थायज. इत्थं चरित्रेऽस्ति च पाण्डवानां,यद्रोणसूरिप्रतिमापुरस्तात् । भिल्लकलव्यस्यकिरीटिवद्धनु-विद्यासुसिद्ध तिजगत्प्रतीतम् ।११ गाथार्थ-पांडवोना चरित्र मां ए प्रमाणे छ के भोलों मां श्रेष्ठ एकलव्य नाम ना भीले द्रोणाचार्य नी प्रतिमा आगल धनुष विद्या अर्जुन तुल्य सिद्ध करी एम संसार मां प्रसिद्ध छे. विवेचन:- प्रतिमा नुं महत्व बतावतां कहे छे के महाभारत मां एक एवो प्रसंग छे के एक वखत एकलव्य नाम नो मुख्य भील द्रोणाचार्य नी पासे धनुर्विद्या शीखवा गयो परन्तु तेनुं कुल हलकं होवाथी द्रोणाचार्य तेने धनुर्विद्या शोखः बवानी ना पाड़ी. त्यारे ते एकलव्ये जंगल मां जई त्यां द्रोणाचार्य नी मूर्ति बनावी, तेनी पागल धनुर्विद्या शीखवा लाग्यो. द्रोणाचार्य न होवा छतां तेनी प्रतिमा आगल धनुविद्या शीखी ने अर्जुन तुल्य धनुविद्या नी सिद्धि प्राप्त करी, एम लोक मां प्रसिद्ध छे. मूलम्ः -- तथा च चञ्चादिकवस्त्वजीवं, क्षेत्रादिरक्षाकरणे समर्थम् । छायाऽप्यशोकस्यचशोकहीं,कलेस्तुसास्यात्कलहाय नृणाम् । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५) गाथार्थ :--अजीव एवो पण चंचा पुरुष क्षेत्र नं रक्षण करवा समर्थ बने छे. अशोक नी छाया शोक नो नाश करनार थाय छे अने बहेड़ां नामना वृक्षनी छाया मनुष्यो ने क्लेश माटे थाय छे. विवेचन:-अजीव वस्तु पण संसार मां केवा प्रकार - फल आपे छे ते वस्तु बतावतां जणावे छे के जेम क्षेत्र मां धान्य ना रक्षण माटे पुरुष जेवा आकार नो चंचा पुरुष बनावे छे ते अजीव होवा छतां पण रक्षा करवा मां समर्थ बने छ, अने अशोक नो छाया अजीव होवा छतां तेनी नीचे बेसनारना शोक नो नाश करे छे. बहेडां नाम ना वृक्ष नी छाया पण अजीव होवा छतां तेनी नीचे बेसनार मनुष्य ने विद्वेष थाय छे. अजारजोमुख्यमथाऽप्यजीवं, पुण्यादिहान्य भवतीति लोकः । अस्पृश्यकच्छायमजीवमेवं, यल्लवमानस्यनिहन्तिपुण्यम् ।१३ गाथार्थः-गभिणी स्त्री नी छाया उल्लंघन करनार भोगी पुरुष न अथवा सर्प न पुरुषत्व हणे छे. महादेव नी छाया उल्लंघन करनार पुरुष ऊपर महादेव नो रोष थाय छे. विवेचनः सुगम छे। .... ... Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) मूलम्:एवं पदार्था बहवोऽप्यजीवाः,सुखस्य दुःखस्य च हेतवः स्युः । देवाधिदेवप्रतिमाऽप्यजीवा, सती न कि सा सुखहेतुरत्र ।१५ गाथार्थः ए प्रमाणे घणा पदार्थो अजीव होवा छतां सुख दुःख ना कारण रूप थाय छे, तो देवाधिदेव नी प्रतिमा पण अजीव होवा छतां सुखना हेतु रूप केम न थाय ? अर्थात् थायज. विवेचन:-ए प्रमाणे घणां दृष्टांतो द्वारा बताववामां आव्यं के घणा पदार्थो अजीव होवा छतां पण जीवो ना सुख अने दुःख ना हेतु माटे थाय छे. तो देवाधिदेवनी प्रतिमा अजीव होवा छतां पण तेमना भक्तोना सुख ने माटे थाय तेमां शुं अाश्चर्य ? अर्थात् जरूर भक्त जनोना सुख ने माटे थाय छे. वरं निजेशप्रतिमाऽपि तहि, दृष्टा सती भक्ततमांसि हन्तु । परन्तुयाऽस्याःक्रियतेसपर्या,साजीवतःकस्यचकिम्फलास्थात् ? गाथार्थ-पोताना स्वामी नी प्रतिमा ना दर्शन थी भक्त जनो नो अंधकार भले नाश पामे परन्तु तेनी पूजा कराय छे तो प्रतिमा अजीव होवा थी केम फल वाली थाय ? ... विवेचन:-प्रतिमा पूजन ना विषय मां शंका करे छे के मानो पोताना स्वामी नी प्रतिमा तेना दर्शन करनार अथवा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) भजन करनार भक्तो नां अज्ञान रूप अंधकार भले नाश करे, परन्तु ते प्रतिमा अजीव होवा थी भक्तो ने फल देनार केम बने ? मूलम्:नैवंत्वजीवाऽपि सतीश्वरार्चा, सचिता पुण्यफलाय नूनम् । त्वंविद्धिचित्तेप्रतिमायदीया,यायासकास्वोत्थगुरणप्रदास्यात्।१७ गाथार्थ:-एम न कहेवं. अजीव पण ईश्वर नी प्रतिमा पूजाती छती निश्चय पुण्य फल माटे थाय छे. तुं तारा हृदय मां जाण के जे संबंधी जे जे प्रतिमा होय छे ते ते प्रतिमा पोताना थी उत्पन्न थयेल गुणो देनार होय छे. विवेचन:- अजीव एवी प्रतिमा फल देनार नथी होती एम तारे न बोलवू, कारण के अजीव एवी ईश्वर नी प्रतिमा पण भक्त जनो वड़े पूजाती छती पोताना भक्तो ने पुण्य फल देनार थाय छे. तुं तारा हृदय मां बराबर जाण के जे जे सम्बन्धी जे जे प्रतिमा होय छे ते प्रतिमा पोताना थी उत्पन्न थयेल गुणो देनार होय छे. अर्थात् पूजन थी पुण्य फल तथा गुणो नी प्राप्ति थाय छे तेमां संशय नथी. यथा ग्रहाणां प्रतिमा अजीवाः,सत्योऽपितत्पूजनतस्तदीयम् । गुरषं ददत्येव तथा सतोना,क्षेत्राधिपानामथ पूर्वजानाम् ।१८ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) विधेर्मुरारेश्च शिवस्य शक्तेाःस्थापनास्ता अहिताहितावा। प्रमानिताश्चाऽप्यभिमानिताःस्युः,स्तूपंतथावाफलवकिस्यात्? गाथार्थ. जेम ग्रहोनी प्रतिमा अजीव छतां पण तेना पूजन थी तेना संबंधी गुण आपे छे, तथा सतीप्रो, क्षेत्राधिपो, पूर्वजो, ब्रह्मा, कृष्ण, शिव, शक्ति विगेरे नी मूर्तियो न मानवा थी अहित अने मानवा थी हित थाय छे. वली यज्ञ ना स्तूप - फल शुं नथी मलतुं ? विवेचन:-सूर्यादि ग्रहोनी प्रतिमा अजीव होवा छतां पण ते ते ग्रहो नुं पूजन, जाप विगेरे करवाथी ते ते ग्रहो थी उत्पन्न थयेल पीड़ा शांत थाय छे. सती स्त्रियो, क्षेत्रपालो, पितरो-पूर्वजो, ब्रह्मा, कृष्ण, महादेव अने शक्ति विगेरे नी प्रतिमानो पण अजीव होवा छतां तेश्रोने न मानवाथी अहित थाय छे अने मानवाथी हित थाय छे. तेवीज रीते यज्ञ नो स्तंभ पण अजीव होवा छतां पण पूजवाथी शं फल वालो नथी थतो? अर्थात् थाय छे. मूलम् रेवन्तनागाधिपपश्चिमेश--श्रोशीतलादिप्रतिमा अजीवाः । सम्पूजितास्तद्गतकार्यसिद्धि,कुर्वन्तियवच्चतथाऽधिपार्चा ।२० गाथार्थ:-रेवनी, नागाधिप, पश्चिमेश, श्री प्रतिमा अने शीतलादिनी प्रतिमानो अजीव छतां पूजाएली छती तत्संबंधी Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) कार्यो नी सिद्धि थाय छे तेज प्रकारे देवाधिदेव नी प्रतिमा पण पूजाएली छती तत्संबंधी कार्यो नी सिद्धि करे छे. विवेचनः-सुगम छे. मूलम्ये कार्मणाकर्षणवेदिनस्तथा, नाम्नव येषां मदनादिपुत्रके । निर्जीवकेतविधिमाचरन्त्यहो, यस्मात्सजीवानपिमूर्छयन्तितान गाथार्थ:- तथा जेनो कामण अने आकर्षण जाणनारा छे ते ओ जीव रहित एवा मदनादि थी बनावेल पुतलां ऊपर जेयोना नाम थी ते विधि आचरे छे ते जीवित एवा तेमने तेथी मछित करे छे. विवेचन:- तेनी स्थापना द्वारा तो कार्य नी सिद्धि थाय तेमां कंइ आश्चर्य नथी परन्तु मात्र नाम वड़े पण केवी असर थाय छे, ते बतावतां कहे छे के जेनो कामण, टूमण, आकर्षण, वशीकरण विगेरे विद्या ना जाणकारो छ तेरो कामण आदि करवा माटे जीव रहित एवा मदनादि थी बनावेल पुतली ऊपर जेना ऊपर कामण आदि करवानुं होय तेना नाम थी ते संबंधी विधि करवामां आवे छे तेथी जीवित एवा तेमने मूर्छा पमाड़े छे, तो शुं अजीव नुं आ फल नथी ? अर्यात् छेज.. नलम: एवं निजेशप्रतिमामजीवां, तन्नामग्राहं स्तवनां विधाय । समर्चयभिःकुशलःसपर्या, सम्प्रापितोज्ञानमयःप्रमुस्यात् ।२२ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) गाथार्थ.-ए प्रमाणे अजीव एवी पोताना स्वामी नी प्रतिमा ने तेना नाम ग्रहण पूर्वक स्तवना करीने पूजनारा कुशल पुरुषो वड़े ज्ञानमय स्वामी पूजा ने प्राप्त थयेल होय छे. विवेचन:-ए रीते पोताना स्वामि ना नाम लेवा पूर्वक स्तवना-स्तुति करीने अजीव एवी स्वामि नी प्रतिमा ने पूजता एवा कुशल पुरुषो ज्ञानमय प्रभुनी पूजाने प्राप्त थयेल होय छे अर्थात् तेरो पूजाना फल ने प्राप्त थयेला होय छे. तथा नियोज्यानपि कांश्चिदात्मनो,मूर्तिप्रभुर्मानयतोऽवसाय । तुष्यत्यसौतेषुतथैवमीशो-ऽचितोभवेत्तत्प्रतिमार्चनात्स्यात् ।२३ गाथार्थ:-जेम लौकिक स्वामि पोतानी मति ने मानता पोताना सेवको ने जारणी ने तेमना ऊपर खुश थाय छे, तेवीज रीते आ स्वामि तेनी प्रतिमा पूजवाथी पूजायेला थाय छे. विवेचन:-व्यवहार मां पण कोई शेठ पोतानी मूति,छबी, बावला विगेरे ने मानता एवा पोताना सेवको ने जाणी तेमना ऊपर खश थाय छे तेम आ लोकोत्तर स्वामि पण पोतानी प्रतिमा पूजन थी पूजायेला होय छे. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरागी अने निस्पृही नी सेवा थी परामर्थ सिद्धिः सत्यं बुधतत्परमत्र यस्मा-द्विशेष एषोऽभिनिरीक्ष्यते महान् । देवायदेतेकिलसन्तिरागिरणः,पूजाथिनोनोभगवान्सईदृशः।२४ गाथार्थ:-हे पंडित, ए ठीक छे, परन्तु जे कारण थी अहियां घणो भेद देखाय छे के आ देवो खरेखर रागी छे परन्तु आवा प्रकार ना भगवान पूजाना अर्थी नथी. विवेचन:- नास्तिक आस्तिक ने कहे छे के हे पंडित ! आ पूर्वे कहेल वस्तु बराबर छे. परन्तु पहेलां बतावेल बाबत मां पा वीतराग देव बाबत मां मोटो भेद रहेलो छे, केम के तमोए जे दृष्टान्तो आप्यां छे ते तो रागी एवा देवो छे. रागी देवो तो पूजा ना अर्थी होय अने पूजाना अर्थी होवाथी भक्त ऊपर खुश पण थाय अने न पूजा करे तो दुःख पण आपे. परन्तु ा परम ऐश्वर्यशाली वीतराग भगवंत पूजाना अर्थी नथी माटे या दृष्टांत बराबर नथी. मूलम्तदा त्वतीवाऽस्तुवरं यतः स्या-दनीहसेवा परमार्थसिद्धये । यथाहिसिद्धस्यचकस्याचिद्वा, स्पृहावतःसेवनमिष्टलब्धये ।२५ गाथार्थः-तो घणुं सारू. जे कारण थी अनीह नी सेवा परमार्थ नी सिद्धि माटे थाय छे. जेम के निस्पृह एवा सिद्ध पुरुष नी सेवा इष्ट पदार्थ नी सिद्धि माटे थाय छे. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) विवेचनः हवे आस्तिक नास्तिक प्रत्ये प्रत्युत्तर आपे छे के तारो प्रश्न पण ठीक छे. परन्तु निस्पृह एवा पुरुष नी सेवा निष्फल जती नथी, कारण के निस्पृह पुरुष नी सेवा थी परमार्थ सिद्धि थाय छे. जेम व्यवहार मां पण कोई निस्पृह एवा सिद्ध पुरुष नी सेवा थी पोतानी इष्ट सिद्धि अथवा इष्ट कार्य सिद्ध थाय छे. तेम निस्पृह एवा वीतराग नी सेवाथी परमार्थ सिद्धि एटले आत्मा ने लाभ थाय छे. - प्रतिमा अज व छतां तेनाथी पुण्य नी सिद्धिः - मूलम्:सिद्धस्तुसाधो! वरिवतिसाक्षादेशोत्वजीवाप्रतिमाप्रतिष्ठिता। नाऽयं विचारः परिपूजनीये,द्रव्ये यतः पूज्यत एव पूज्यः ।२६ गाथार्थः-हे साधु ! आ तो प्रत्यक्ष सिद्धि जणाय छे परन्तु ईश्वर नी प्रतिमा अजीव रहेली छे. तेनो उत्तर छे के पूजन लायक द्रव्य मां आ विचार न करवो, कारण के पूजा ने लायक होवा थी निश्चे पूजाय छे.. विवेचन:-नास्तिक आस्तिक ने कहे छे के आ सिद्ध पुरुष नुं दृष्टांत आप्युं ते बराबर घटतुं नथी. कारण के सिद्ध पुरुष ना दृष्टांत मां तेमनी सेवा थी प्रत्यक्ष सिद्धि देखाय छे. वली सिद्ध पुरुष नो सजीव छ ज्यारे आ ईश्वर नी प्रतिमा तो अजीव छे अने प्रत्यक्ष फल पण देखातुं नथी. तेना उत्तर मां आस्तिक जणावे छे के द्रव्य पूजा ने योग्य Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) होय तेमां आ विचार न करवो, कारण के पूज्य एटले पूजाने योग्य एवा भगवंत नी प्रतिमा निश्चय पूजाय छे. मूलम्: यद्दक्षिणावर्तककामकुम्भ - चिन्तामणिचित्रकवल्लिमुख्याः । कानोन्द्रियाणीहवहन्तियत्ते ऽचिताः प्रकुर्वन्ति मतं जनानाम् ॥२७ गाथार्थः- दक्षिणा वर्त शंख, काम कुम्भ, चिन्तामणि अने चित्रवेली विगेरे पूजायेली छती मनुष्यो ने इष्ट वस्तु आपे छे, एम संभलाय छे. विवेचनः -प्रजीव छतां पण मनुष्य ने इष्ट फल आपे छे माटे दृष्टांत पूर्वक जणाबाय छे के दक्षिणावर्त नाम नो शंख, कामकुम्भ, चिन्तामरिण रत्न ग्रने चित्रवेली विगेरे अजीव वस्तुप्रो छे. एवी अजीव वस्तुप्रो पण पूजवाथी पूजायेली छती पूजनार ने इच्छित फल प्रापे छे एम संसार मां संभलाय छे. मूलम्: वस्तुस्वभावाद्यदमीग्रजीवाः, स्वतोऽस्पृहावन्तइहाऽङ्गिकामान् । यच्छन्तियद्वत्खलुपारमेशी, पुण्यस्यसिद्धयंप्रतिमाऽचितातथा । २८ गाथार्थ :- अजीव एवी श्रा पोते स्पृहा रहित छतां पण वस्तु ना स्वभाव थी संसार मां प्राणिप्रोने इच्छित फल Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) आपे छे. तेवीज रीते खरेखर परमेश्वर नी प्रतिमा पूजायेली छती पुण्य नी सिद्धि माटे थाय छे. विवेचन:-अजीव एवा या दक्षिणावर्त शंख विगेरे स्पृहा वगर ना होवा छतां पण पोत पोताना वस्तुगत स्वभाव विशेष थी पा संसार मां प्राणियो ने इच्छित वस्तुप्रो आपे छे. तेवीज रोते खरेखर वीतराग देवनी या प्रतिमा पण पूजवाथी पूजनार ने पुण्य नी सिद्धि माटे थाय छे. प्राप्त नियुक्त वस्तु नी विशेष मान्यताःचूलम्:सत्यं मुने! ऽदोऽस्ति परं य एते,स्युर्दक्षिणावर्तमुखाः पदार्थाः । अजीववन्तोऽपिविशिष्टजाति-भेदात्तथादुर्लभवस्तुभावात् २६ आराधिता अङ्गिमतं दिशन्ति,नेताहगर्चा किल पारमेश्वरी । अहो यदेषा सुलभोपलादि-मयी तदा कि सदृशीत्वऽमीभिः।३० गाथार्थ:-हे मुनि, या सत्य छे परन्तु दक्षिणावर्त विगेरे पदार्थो अजीव छतां विशिष्ट जाति ना भेद वाला होवाथी तथा दुर्लभ वस्तुप्रोना स्वभाव ना कारणे आराधायेल प्राणियो ने इच्छित फल आपे छे. परन्तु पारमेश्वरी प्रतिमा विशिष्ट जाति वाली नथी अने सुलभ पाषाण नी बनेली होवाथी दक्षिणावर्त शंख तुल्य केवी रीते थाय ? Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३१५ ) विवेचन:-नास्तिक आस्तिक ने कहे छे के तमारू कथन बराबर छ परन्तु दक्षिणावर्त शंख विगेरे नं दृष्टांत बराबर घटतुं नथी. कारण के दक्षिणावर्त शंख विगेरे पदार्थो अजीव होवा छतां विशिष्ट जाति वाला छे. वली ते वस्तुप्रो. दुःखे करी प्राप्त करी शकाय एवी छे. ते वस्तुप्रो पूजायेली . छती प्राणि प्रोने इच्छित. वस्तु आपे छे, परन्तु परमेश्वर नी प्रतिमा विशिष्ट जाति वाली नथी तथा सुलभ पाषाण थी. बनेली होवाथी दक्षिणावर्त शंख विगेरे नी तुल्य केवी रीते थाय ? माटे या दृष्टांतो बराबर नथी... . मूलम्अहो! विचारिन विचारितं मा, वदस्त्वमेवं जगतीह पश्य । यन्मूलतोवस्तुगुरिणप्रतीतं,ततोऽपियत्पञ्चकृतंःगुणाढ्यम् ।३१ गाथार्थ हे विचारशोल ! तुं अविचरित मत बोल. तुंज पोते आ जगत मां जो के जे वस्तु मूलथीज गुणवाली प्रसिद्ध होय तेने जो पांच मनुष्योए मानेली होय तो ते वधारे गुणवाली थाय छे. विवेचन:- हवे आस्तिक नास्तिक ने प्रत्युत्तर प्रापे छे के दक्षिणावर्त शंखादि विशिष्ट जाति वाला होवाथी अने दुर्लभ होवाथी पूजनीक छे ने इच्छित फल ने आपे छे. परन्तु परमेश्वर संबंधी प्रतिमा विशिष्ट जाति वाली नथी अने सुलभ पाषाण Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) वाली होवाथी दक्षिणावर्त शंखादि नी जेम परमेश्वर संबंधी प्रतिमा केवी रीते इच्छित फल प्रापी शके ? आम बोलवुं योग्य नथी. कारण के प्रा संसार मां जे वस्तु स्वाभाविक रीते गुणवाली होय छे अने तेमां पण पांच सारा माणसोए ए वस्तु मान्य करेल होय तो ते प्रथम करतां विशिष्ट गुणवाली बने छे. ए प्रमाणे परमेश्वर संबंधी प्रतिमा पण स्वाभाविक रीते गुणवाली छे. अने इन्द्रादि अने चक्रवर्ती आदि वड़े पूजायेली एटले मान्य होवाथी विशिष्ट गुण वाली बने छे. मूलम्: यथाहि कश्चित्किल राजपुत्रः, प्रायेणवीर्यादिगुरणास्पर्ष स्यात् । तंप्रोज्झ्यचेद्द बेलवंशसम्भवं, पुण्याच्च राज्येविनिवेशयन्ति । ३२ प्रामाणिकाः पञ्चयदातदात्वयं, राजन्यकंमौलमपि प्रशास्ति । यदा तदुक्तं न करोति कश्चित्स शास्यते नन्दवदेव तेन ॥३३ नाथाथ जेम कोई राजपुत्र प्रायः वीर्यादि गुण वालो होय ते छोड़ी ने दुर्बल वंश वाला ने पांच प्रामाणिक पुरुषो तेना पुण्य थी राज्य ऊपर स्थापन करे छे. ज्यारे आ राजा मूल राज पुरुष ने आज्ञा करे छे अने तेनी प्राज्ञा न माननार राज-पुत्र ने नंदन राजा नी जेम ते दंड करे छे. विवेचनः प्रहियां खास ए बाबत जणावी छे के गुणवान होवा छतां पांच प्रामाणिक माणसोए मान्य न करेल होय Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७) तो ते पूजनिक बनतो नथी अने गुणवान न होवा छतां पांच प्रामाणिक मारणसोए मान्य करेल होवाथी ते पूजनिक बने छे. जेमके कोई राजपुत्र प्रायः वीर्यादि विशिष्ट गुणवालो होवा छतां तेने छोड़ी ने पांच प्रमाणिक मनुष्यो कोई निर्बल वंश वाला ने तेना पुण्य थी राज गादी ऊपर स्थापन करे छे. हवे आ निर्बल वंश वालो राजा गुणवान एवा राजपत्र ने आज्ञा करे अने जो राजपुत्र आज्ञा न माने तो तेमनो राजा ते राजपुत्र ने नंदन राजा नी जेम शिक्षा पण करे. विचार्यते चेन्मनसा मनुष्य-मौलो गुणी राजसुतः स योग्यः। परन्तुयःक्षुद्रकुलोपिराजा, सएक्सेव्यःखलुपञ्चपूजितः ।३४ गाथार्थ :--जो मनुष्यो बड़े मन थी विचाराय तो उत्तम कुलवान अने गुणवान राजपुत्र तेज राज ने योग्य छ, परन्तु क्षुद्र कुलवालो पण राजा पंच थी पूजित होवाथी ते सेववा योग्य थाय छे. विवेचनः- वास्तविक रीते तो दरेक मनुष्य ना हृदय मां एम लागे छे के जे उत्तम कुल मां उत्पन्न थयेल होय अने वोर्यादि गुण वालो होय ते राज्य ने योग्य छे, परन्तु तेने पांच प्रमाणिक पुरुषोए मान्य करेल नथी तेथी ते सेववा Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१८.) योग्य नथी बनतो. ज्यारे क्षुद्र कुल मां उत्पन्न थयेल होवा छतां पण पांच प्रमाणिक मनुष्योए मान्य करेल होवाथी सेववा योग्य बने छे. मूलम्एवं हि चिन्तामरिणमुख्यमेतद् वस्तु प्रधानं निजकस्वभावात् । ततोऽपिमान्यंभुविपारमेश्वरं,बिम्बंयतःपञ्चभिरपूजितम् ३५ गाथार्थः-ए रीते चिन्तामणि विगेरे वस्तुओ पोताना स्वभाव थी मुख्य छ परन्तु संसार मां परमेश्वर नी प्रतिमा पांच प्रमाणिक पुरुषोथी पूजित होवाथी तेना करतां पण वधारे मान्य छे. विवेचन:-अहियां एक वस्तु स्वभाव थी श्रेष्ठ छे परन्तु बीजी वस्तु पांच उत्तम पुरुषोए पूजेल होवाथी तेना करतां पण वधारे मान्य छे ते बतावे छे. जेम चिन्तामणि रत्न विगेरे वस्तुप्रो पोताना स्वभाव थी श्रेष्ठ गणाय छे परन्तु संसार मां परमेश्वर नी प्रतिमा पांच प्रमाणिक पुरुषोथी पूजायेली होवाथी चिन्तामणि रत्न विगेरे थी पण अधिक मान्य गणाय छे. लोके यदेवाहतमस्तिपञ्चभिः, तदेवमान्यक्षितिपरपि ध्र वम् । ययाविवाहार्थनपाःमहाजना,न्यायाड्रिपुत्रावपरेऽपिचेत्थम्।३६ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) येपञ्चभिस्तत्कृतभाग्यनोदा-त्संस्थापिताः सन्तित एवमान्याः । तथास्वपूजा ह्वयकर्मवीर्या-त्कृताऽस्तियंशीप्रतिमासकाऽर्च्य । ३७ गाथार्थ:-संसार मां पांच जनोए जे स्वीकारेल होय. ते राजाओ ने पण निश्चे मान्य होय छे, जेथी वर राजा, महाजन, दत्तक पुत्र ने बीजाप्रो पण पोत पोताना भाग्य थी पांच जनोए स्थापेल होय छे, तेज मान्य छे. तेवीज ते पोताना सौभाग्य नामना कर्म ना बल थी ईश्वर नी प्रतिमा करायेली छे, ते प्रतिमा पूजनीय छे. विवेचन: संसार व्यवहार मां पण पांच प्रमाणिक पुरुषो जे करे ते मान्य करवुं पड़तुं हतुं तेने ते देश-काल मां पंच नी सत्ता गणाती हती, एटले पांच कहे ते परमेश्वर अर्थात् पांच प्रमाणिक पुरुषो कहे ते प्रमाणिक ने परमेश्वर ना वचन तुल्य गणातुं हतुं. तेथीज तेमणे स्वीकारेलुं राजाओ ने परण मान्य गरणातुं हतुं. जेथी ते समये वर राजा, श्रेष्ठि पद, दत्तक पुत्र विगेरे बीजी बाबतो पण पांच प्रमाणिक पुरुषो थी तेमना भाग्य मुजब स्थापाती हतो, अने तेज मान्य थती हती. तेवीज रीते पोताना सौभाग्य नाम ना कर्म ना बल थी ईश्वर नी प्रतिमा पण बनावेली छे, तेथी ते प्रतिमा पण पूजनीय छे, Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) प्राज्ञा य एते गदिताः पदार्था-स्ते सर्व प्राकारयुक्ता भवन्ति । श्रतस्तदीया कृतिमन्तरात्मनः कृत्वाऽर्चयन्तेऽत्रतदीयबिम्बम् । ३८ ईश्वर निराकार छे तो तेनी प्रतिमा केम थाय ? श्राकारमुक्तो भगवान्प्रसिद्ध-स्ततस्तदीयं प्रतिबिम्बमेतत् । कृत्वा कथं पूज्यत एवमत्र, दोषस्त्वद्वस्तुनि तद्ग्रहौ यः ॥ ३६ गाथार्थ - हे विद्वानो ! आ पूर्वे कहेम ते सर्वे पदार्थो प्राकार वाला कहेला छे. तेथी ते संबंधी ते आकार ने अन्तरात्मा मां धारण करीने तेमना बिम्ब नी पूजा करवामां श्रावे छे, परन्तु भगवान आकार मुक्त प्रसिद्ध छे. तेथी ते संबंधी प्रतिमा बनावीने केवी रीते पूजाय ? अ भगवान मां भगवान 'एवी बुद्धि दोष रूप छे. विवेचन: - हवे नास्तिक ग्रास्तिक ने प्रश्न करे छे के हे विद्वानो ! तमोए पहेलां दक्षिणावर्त शंख, चिन्तामणि रत्न, कामकुंभ अने चित्रवेली विगेरे नां जे दृष्टांतो श्रापेल छे ते बधा पदार्थो आकार वाला छे. एटले आकार वाली वस्तुप्रो ना प्रकार ने पोताना अन्तरात्मा मां धारण करीने तेमना बिम्ब ने पूजवामां आवे छे. एटले ते तो बराबर छे परन्तु जे भगवान नी प्रतिमा बनाववामां आवे छे ते भगवान तो निराकार छे. तेथी ते संबंधी प्रतिमा करीने केवी रीते पूजाय ? वली भगवान नी प्रतिमा मां भगवान नो आकार न होवाथी ते बिम्ब पण भगवान थी भिन्न थशे अने ते Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२१) बिम्ब पूजबाथी अभगवान मां भगवान नी बुद्धि थशे. माटे अ भगवान मां भगवान नी बुद्धि रूप दोष लागशे. मूलम्साधूच्यतेऽदस्त्वयकाविवारिणा-ऽनाकारिणस्त्वाऽऽकृतिरेवनेष्टा इदं तुयद्भागवतंहिबिम्ब, तच्चावताराकृतिक्लुप्तरूपम् ।४० गाथार्थ:-विचारशील तें ठीक कह्य. अनाकार वाली वस्तु नो अनाकार इष्ट नथी. भगवंत संबंधी प्रतिमा भवना आकार नी अपेक्षाए बनावेल छे. विवेचनः हे विचारशील ! तें कह्य के आकार वाली वस्तु नो आकार होय परन्तु भगवान तो आकार रहित एटले अनाकार छे. तेथी अनाकार वाला भगवान नी प्राकृति ते इष्ट नथी. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानुं के भगवान नी जे प्रतिमा बनाववामां आवे छे ते प्रतिमा भगवान ना अंतिम भव ना शरीर नी अपेक्षाए बनाववा मां आवे छे. कारण के भगवान निराकार तो सिद्ध थया बाद होय छे. ज्यों सुधी तेरो मोक्ष मां न जाय त्यां सुधी भगवान साकार होय छे, माटे दोष लागतो नथी. याहक्तु संघारकृतावतारोऽभून्नयासि ताहग्भगवान्महद्भिः। पायाह्यवस्थाचितानयेभ्यः, साऽहोतदर्थःपरिपूज्यतेतः ।४१ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) गाथार्थः-अंतिम भव मां जेवा प्रकार नो प्राकार हतो तेवा प्रकार नी प्रतिमा महापुरुषोए स्थापेली छे. भगवान नी जे अवस्था जेने रूची होय तेवा प्रकार नी अवस्था नी प्रतिमा बनावी ने तेना अर्थीयो वड़े ते प्रतिमा पूजाय छे. विवेचन:-भगवान जिनेश्वर देव जे भव मांथी मोक्ष मां जाय ते तेमनो छेल्लो भव गगाय छे. तेमां जिनेश्वर देवनी जन्म अवस्था, राज्यवास्था, श्रमणावस्था केवली अवस्था अने सिद्ध अवस्था ए प्रमाणे अनेक प्रकार नी अवस्थाो . होय छे. तेमांथी जे अवस्था नी जेने रुचि होय तेवा प्रकार नी अवस्था नी प्रतिमा बनावी ने तेना अर्थीग्रो वड़े ते प्रतिमा पूजाय छे. ॥ अथ अष्टादशोऽधिकारः ॥ निराकार नुपण पूजन, तेनी स्थापना अने तेनी पूजानु फल:मूलम्यद्वाऽस्त्वनाकारवतोऽपि बिम्ब,सिद्धस्य शुद्ध भगवत्सुनाम्नः। तत्तत्स्वचित्ताशयचिन्तिताशां, साक्षादिवेदंवितरत्वशङ्कम् ।१ गाथार्थ:--निराकार एवा पण भगवान नाम ना सिद्ध नं निर्मल बिम्ब पण साक्षात् सिद्ध नी जेम तेवा प्रकार नी मन मां विचारेल आशा निशंक पणे विस्तारे छे. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) विवेचन :- भगवान नी प्रतिमा ना पूजन नो जे विषय बाकी छे तेज वस्तु ने कहे छे के प्रथम प्राकार निराकार संबंधी जे हकीकत कही छे ते रहेवा दो. परन्तु निराकार एवी पण सिद्ध भगवंत नी निर्मल प्रतिमा साक्षात् सिद्ध भगवंत नी जेम तेवा प्रकार नी मन मां विचारेल प्रशा ने निशंक पणे विचारे छे. मूलम् यत्स्थापनासास्वकचित्तकल्प्या, सतोऽसतोवास्त्विहवस्तुनः सा । सर्वाऽपियादृग्निजभावसेविता, तादृक् फलंयच्छतिनाऽत्र संशयः । गाथार्थ - जे जे स्थापना होय छे ते पोताना चित्त मां कल्पेली होय छे ते स्थापना या संसार मां सद्वस्तु नी होय के प्रसद्वस्तु नी होय, परन्तु ते सर्वे पण जेवा प्रकार ना पोताना भाव थी सेवायेली होय ते तेवा प्रकार ना फल ने आपे छे, एमां शंका नथी.. विवेचन :- कोई पण वस्तु नी स्थापना करवामां आवे छे त्यारे पोताना मन मां कल्पेल होय तेवा प्रकार नी स्थापना थाय छे. स्थापना ना बे प्रकार छे. एक जे वस्तु जेवी होय तेवा प्रकार नी प्रकृति वाली ते सद्भाव स्थापना; अने जे वस्तु जेवी न होय तेवी कोई पण वस्तु मां जे स्थापना करवामां श्रावे ते असद्भाव स्थापना अथवा विद्यमान वस्तु अथवा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) अविद्यमान वस्तु नी स्थापना करवामां आवे छे. आवा कोई पण प्रकार नी स्थापना जेवा प्रकार ना भाव थी पूजवामां आवे छे तो तेने तेवा प्रकार ना भाव मुजब अवश्य फल मले छे तेमां शंका नथी. भूलम् - लोकेऽप्यनाकारमयस्य वस्तुनः, आकारभावःपरिदृश्यतेयथा। प्राज्ञास्त्यसो भागवतीति वाचं-वाचतुलेखाक्रियतेमनुष्यैः ।३ तां लङघते यःस तदा न साधु-नौल्लङघतेसैषजनेषुसाधुः । प्राम्नायशास्त्रोषुमरूद्यवोःस्यात्, तथाऽऽकृतिमंडलतोविलेख्या । गाथार्थ:-संसार मां अनाकार वस्तु नी आकृति जोवाय छे जेम आ भगवान नी आज्ञा छ एम कहेतां मनुष्यो वड़े रेखा कराय छे. जे तेने उल्लंघन करे छे ते सारो नथी. अने जे तेने उल्लंबन नथी. करतो ते सारो गणाय छे. आगम शास्त्र अथवा मंत्र शास्त्री मां पवन, आकाश नी मंडल द्वारा रेखा कराय छे. विवेचनः-संसार मां पण साकार वस्तु नी जेम अनाकार वस्तु नी पण आकृति जोवा मां आवे छे. दाखला तरीके पा भगवान नी आज्ञा छे ते बसावा माठे बोलता बोलतां मनुष्यो बड़े धून मां रेवा कराय छे. जोके आज्ञा स्वयं साक्षात् आकार रहित छ परन्तु ते रेखा रूप आकार कल्पाय Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) छे. अने जे आज्ञा छे ते आज्ञा पण अरूपी एवा भगवान आदि नी प्रताप संबंधी छे. तेथी पहेलां भगवान आदि नो प्रताप पण अमूर्त हतो. अमूर्त एवा भगवान आदि नी प्रताप पण अमर्त अने ते अमूर्त नी आज्ञा पण अमूर्त.अने आज्ञा नो रेखा रूप आकार मनुष्यो थी कल्पाय छे. वली मनुष्यो मां जे आज्ञा नुं उल्लंघन करे छे ते सारो नथी.: जे आज्ञा नुं उल्लंघन करतो नथी ते सारो छे. आगम शास्त्र अने मंत्र शास्त्रो मां पवन अने आकाश नी मंडल द्वारा रेखा कराय छे. एटले रेखा द्वारा एम बताववामां आवे छे के पा रेखा वायु नी छे अने आ रेखा आकाश नी छे. चूलम्स्वरोदयस्याऽथविचारशास्त्रे,तत्त्वानिपञ्चाऽपिचसाकृतीनि । अनाकृतंवस्त्वितिसाकृतंयथा,स्यादित्थमाकारइहाऽप्यनाकृतेः। गाथार्थ विचार शास्त्र मां स्वरोदय नां पांच तत्त्वो आकृति सहित होय छे. जेम अनाकार वस्तु साकार मनाय छे, तेवी रीते आ संसार मां अनाकार सिद्ध नी पण आकृति थाय छे. विवेचन:-वली बीजां उदाहरणो बतावतां कहे छे जेम के प्रश्नादि विचार रूप आगम मां स्वरोदय संबंधी ज्ञान बताव्यं छे, तेमां स्वर नाड़ी ना त्रण भेद बताव्या छे-सूर्यनाड़ी,चंद्रनाड़ी अने मध्यनाड़ी. जमणी बाजू नी नासिका मां पवन नुं वहे ते सूर्यनाड़ी, डाबी बाबू नी नासिका मां पवन नुं Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) वहेवुं ते चन्द्र नाड़ी अन्ने बन्ने बाजू नी नासिका मां पवन नुं वहेवुं ते मध्य नाड़ी. ते दरेक स्वर मां पांच तत्त्वो होय छेपृथ्वी तत्त्व, जल तत्त्व, अग्नि तत्त्व, वायु तत्त्व अने आकाश तत्त्व - ए तत्त्वे अनाकार छे, छतां तेमनी प्राकृति होय छे. जो अनाकार एवा तत्त्वोनो प्रकृति होय छे तो अनाकार एवा सिद्ध भगवंत नी प्रकृति केम न होय ? अर्थात् होय छे. मूठम्: पुनर्बुधेक्षस्व यतीह सन्ति, लोकेषु लोकाः किल लब्धवर्णाः । सर्वेश्वतैराकृतिर्वा जताश्रपि वर्णाः प्रक्लृप्ताः स्वकनामसाकृताः । गाथार्थ - वली हे पंड़ित ! तुं जो; श्रा संसार मां-लोक मां जे साक्षरो छे तेस्रो प्रकार रहित एवा पण अक्षरो ने पोत पोताना नाम सहित अक्षरो बतावेला छे. विवेचनः - हे विद्वान्, तुं बराबर जो प्राकार रहित वस्तु ने साकार केम बनाववामां आवे छे ते दृष्टांत सहित बतावाय छे. जेम के आ संसार मां लोको मध्ये जे साक्षर लोको छे, ते सर्वे ए आकार रहित अक्षरो ने पोत पोताना नाम देवा पूर्वक साकार बनाव्या. जेमके आ 'क' आा 'ख' अने 'ग' विगेरे 'अ' थी मांड़ी 'ह' पर्यंत स्वर अने व्यंजनो 2 ना आकार बनाव्या. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७ । भूलन:यद्याकृतिः स्यानियताक्षराणां,तदा समेषांसहगाकृतिःस्यात् । सानास्त्यतोभिन्नकभिन्निकैव, वर्णाकृतिःकाऽपिनतत्रतुल्या 1७ गाथार्थ. जो सर्वे अक्षरो नी आकृति निश्चित होत तो सर्वे अक्षरो नो आकार सरखो होत, परन्तु सरखो आकार नथी. एथी सर्वे अक्षरो नो आकार भिन्न छे. तेमां कोई अक्षर नी आकृति तुल्य नथी. विवेचन:-या अक्षरो नी स्थापना महापुरुषोए करेली छे. एम केम मनाय ? आवो प्रश्न करनार ने उत्तर आपवामां आवे छे के प्रा अक्षरो नी स्थापना महापुरुषोए करेली न होत तो अने शाश्वत होत तो बधा अक्षरो सरखा होत. परन्तु आ अक्षरो नी स्थापना महापुरुषोए करेली होवाथी अक्षरो सरखा नथी अने शाश्वत पण नथी. वली बधा अक्षरो नी कल्पना महापुरुषोए जूदी-जूदो करेल होवाथी तेनी लिपि मां पण जूदा-जूदा अक्षरो छे.. मूलम् - ... यावन्ति राष्ट्राणि च सन्ति विश्वे, वर्णाकृतिस्तेष्वपरापरव । तद्व्यक्तिकाले तु समोपदेश-स्तैःकार्यमप्यत्र विधीयते समम् गाथार्थ:- आ विश्व मां जेटला देशो छे ते सर्वे ना अक्षरो नी आकृति भिन्न-भिन्न छे. ते व्यक्ति ना काल मां वर्णों Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) ना प्रकट समये समान उपदेश होय छे अने कार्य पण समान होय छे. विवेचन:-आजे पण विश्व मां जेटला राष्ट्र एटले देशो छे ते दरेक नी भाषा जेम अलग होय छे तेम प्रायः करीने अक्षरो नी आकृति पण अलग-अलग होय छे. जेमके इङ्गलिश, बंगाली, मराठी, कन्नड, तेलगू, गुजराती विगेरे भाषाप्रो छे. तेमनी भाषा पण अलग अने तेमनी आकृतिम्रो पण अलग होय छे. परन्तु ते व्यक्ति ना काल मां वर्णो ना प्रकट समये उपदेश समान होय छे अने कार्य पण समान होय छे. पुनश्चपश्यत्वमिमा:समालिपी-मिथ्याविधानहिकोऽपिशक्तः। यायेषुसिद्धाःकिलतैश्चताभिनलिपिभिः प्रविधीयतेफलम् । गाथार्थ:-वली तुं जो आ सर्व लिपिनो मिथ्या करवाने कोई समर्थ नथी. तो लोक मां जे लिपियो प्रसिद्ध छे ते पूर्वे कहेल मनुष्यो ते लिपियो द्वारा फल नुं विधान करे छे. विवेचन-लिपि मां जे अक्षरो छे के जे अनाकार नी आकार वाली वस्तुओ छे ते बधांने मान्य छे तथा तेनुं फल पण छे. ते बतावतां कहे छे के आ सर्व लिपिनो ने मिथ्या करवाने कोई समर्थ नथी. अने लिपिनो द्वारा ते पुरुषो वड़े तेना फल नुं विधान कराय छे. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) + 5 लिप्यो विभिन्ना इह यद्यपीमा,व्यक्तिःसमैवाऽस्तितुपाठकाले । नुरणांतथाकार्यकृतिःसमस्ता, ताभिःसमानाभवतीत्यवेहि ।१० गाथार्थ:- प्रा लिपिनो जो के अलग-अलग होय छे परन्तु पठन काले सरखी होय छे अने मनुष्यो नु कार्य आथी सरखं थाय छे. विवेचन:-सुगम. घनं किमाकारविजिताना-मिहाक्षराणामियमाकृतिःकृता। प्रस्या अपिस्थापनमन्यदन्यत्,कृतंबुधःस्वस्दसुगुप्तवेदने ॥१॥ गाथार्थ -घणं शं कहिये ? पा संसार मां आकार रहित अक्षरो मी आ आकृति बनावेली छे. ते आकृति नी स्थापना विद्वानोए पोत पोताना सुगुप्त प्राशय जगाववा माटे जूदीजूदी आकृति बनावी छे. विवेचन:- वधारे शें कहिये ? जूदी-जूदी प्राकृतियो बनाववानुं कारण जणाबतां कहे छे के प्राकार रहित एवा अक्षरो नी आकृतियो विद्वान पुरुषोए पोत पोतानो गुप्त आशय जणाववा माटे बनावी छे. पुनश्च रागा अपिशाब्दरुप्या-दाकारमुक्ताश्चतथाऽपितबुधः। तेरागमासाहयपुस्तकेतु,यस्ताकिलाकारमृतःसमस्ता॥१२॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) गाथार्थः- वली रागो शब्द, स्वरूप अने प्राकार रहित छे तो पण ते राग ना जारणकारो ए बधा रागो रागमाला नामना ग्रंथो मां प्रकृति युक्त स्थापन करेला छे. विवेचन :- वली जे भैरवी, कल्याण, प्राशावरी, मालकोश, भीमपलास, कालिंगड़ो विगेरे बधा रागो शब्द स्वरूप छे तेथी आकार रहित छे. तो पण ते रागो ना जाणकारो ए रागमाला नाम ना ग्रंथ मां रागो आकृति युक्त स्थापन करेला छे. लम्: एवं त्वनाकारवतोऽप्यधीशितु - राकार एषप्रविकल्प्य सद्भिः । यं यं वशं साधुसमिष्यपूज्यते, सर्वोऽप्ययं तेषुफलत्यवश्यम् ।। १३ ।। गाथार्थ:-- ए रीते अनाकार वाला स्वामिनी प्राकृति सारा मनुष्यो ए कल्पी ने जे जे इच्छा थी सारी रीते पूजे छे, ते सर्व पण तेश्रोने विषे अवश्य फले छे. विवेचन :- ए प्रमाणे अनाकार एवा प्रभु नी आकृति सारा माणसोए कल्पी ने जे जे इच्छा थी सारी रीते पूजे छे, ते ते सर्व इच्छा तेनी पूजा करनार ने अवश्य फले छे. मूलम् यद्वा हि पूजा परमेश्वरेऽत्रा - लिप्तेऽथनिन्दा नलगेत्समाऽपि । तैयादृशेत्र कृतेतुतादृशे श्रम्येतश्रात्मानमिमं स्वकीयम् ॥ १४ ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ । गाथार्थ:- अलिप्त परमेश्वर ने सर्व पण पूजा अने निन्दा लागती नथी, परन्तु तेश्रोने जेवा प्रकार नुं कर्ये छते तेवा प्रकार, प्रा पोताना जीवने लागे छे. विवेचन:-भगवान नी पूजा के निन्दा करवायी भगवान ने कई पण फल मलतुं नथी कारण के तेरो तो वीतरागी होवाथी कोई पण प्रकार नी स्पृहा वगर ना छे, अने अलिप्त छे. माटे तमो भगवान नी पूजा करो या तो निन्दा करो परन्तु भगवान ने कई परण असर थती नथी. वास्तविक रीते तो निर्लेप एवा भगवान नी तमो पूजा करो तो पूजा - फल अने निन्दा करो तो निन्दा नुं फल तमारा जीवनेज लागे छे. कुड्ये यथा वज्रमये नरेण, क्षिप्ता मरिगर्वा दृषदप्यथापरा । ते अपि क्षेपकमभ्युपेते,नजातुयातस्तमतीत्यकुत्रचित् ॥१५॥ गाथार्थ:-पाषाण नी भींत तरफ फैकेल मणि अथवा पत्थर ए बन्ने फेंकनार तरफ आवे छे, परन्तु जेना तरफ फैकवानुं छे तेना तरफ क्यांय जता नथी. विवेचन:-पाषाण नी भींत तरफ फैकेल माण अथवा पत्थर जे माणस फेंके छे तेना तरफ ते आवे छे, परन्तु भीत तरफ क्यांये जता नथी. तेवीज रीते भगवंत ने करेल Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) पूजा अने निन्दा पूजा तथा निन्दा करनार नैज लागे छे; अर्थात् पूजा तथा निन्दा नुं फल तेना करनार नेज मले छे. कश्चिद्रवेःसम्मुखमात्मनारजो-ज्यवासिताम्र क्षिपतिक्षमास्थः। तत्सर्वमस्यबसमेतिसम्मुखं,नयातिसूर्यचतयोच्चखं प्रति ॥१६॥ गाथार्थः- पृथ्वी ऊपर रहेल कोई मनुष्य सूर्य सामे पोते धूल अथवा कपूर फेंके तो ते सर्वे एनाज तरफ आवे छे.. सूर्य के प्रकाश ने लागती नथी. विवेचनः-जेम पृथ्वी ऊपर रहेल कोई मनुष्य सूर्य नी सामे धूल अथवा कपूर फेंके छे त्यारे ते धूल तथा कपूर फैकनार तरफज आवे छे. सूर्य तथा आकाश ने लागतां नथी. तेम निर्लेप एवा भगवान ने पूजा तथा निन्दा लागतां नथी परन्तु तेनुं फल पूजा तथा निन्दा करनार ने मले छे. मूलम:यद्वा पुनः कश्चन सार्वभौमःसंस्तौतितस्यैव फलाय स स्यात् । निन्देदथेशंयदिकश्चिदङ्गी,स्यात्सव दुःखोजनतासमक्षम् ॥१७॥ गाथार्थ:-कोई पण मनुष्य ज्यारे चक्रवर्ती राजा नी प्रारीते स्तुति करे छे त्यारे ते स्तुति तेना फल माटे थाय छ, अने निन्दा करे तो जनता समक्ष ते दुःखी थाय छे. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३३ ) विवेचन:-जेम चक्रवर्ती राजा नी स्तुति तथा निन्दा करनार मनुष्य सुखी अथवा दुःखी थाय छे, तेम भगवान नी पण पूजा तथा निन्दा करनार सुखी अथवा दुःखी थाय छे. स्तुतेऽधिकंस्यानाहिसार्वभौमे,विनिन्दितेऽस्मिंस्तुनकिञ्चिदूनम् । नवं प्रभौपूजननिन्दनाभ्या-माधिक्यहानीस्तइमे तुकर्तुः॥१८॥ गाथार्थ:-जेम चक्रवर्ती नी कोई स्तुति करे तो तेने अधिक सुख थतुं नथी अने तेनी कोई निन्दा करे तो तेने हानि थती नथी. तेम परमेश्वर नी कोई पूजा करे के निन्दा करे तो परमेश्वर ने कई परण थतं नथी. करनार ने लाभ अथवा हानि थाय छे. विवेचन:-जेम कोई मनुष्य चक्रवर्ती राजा नी स्तुतिसेवा करे तो ते चक्रवर्ती ने कई पण लाभ थतो नथी. कोई मनु चक्रवर्ती नी निन्दा करे तो चक्रवर्ती ने कई नुकसान थतुं नथी, परन्तु स्तुति अने निन्दा करनार नेज लाभ तथा हानि थाय छे. तेम प्रभु नी पूजा-स्तुति आदि करवाथी प्रभु ने लाभ थतो नथी अने प्रभुनी कोई निन्दा करे तो प्रभु में हानि पण थती नथी. स्तुति अने निन्दा करनार नेज लाभ अथवा हानि थाय छे. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) . मूलम्-: यद्वा पुनः कश्चिदपथ्यपथ्या- हारीह दुःखं च सुखं च भुङ्क्ते । नस्तस्तुते श्राहृतवस्तुनोयड्, एवं च सिद्धार्चनमात्मगामि ॥ १६ ॥ गाथार्थ :- वली जेम श्रा संसार मां कोई अपथ्य अथवा पथ्य भोजन करनार दुःख श्रने सुख ने भोगवे छे, परन्तु प्रहार करेल पदार्थ ने सुख अथवा दुःख थतुं नथी. ए. ते सिद्ध भगवंत नुं पूजन पूजन करनार ने आत्म प्राप्ति करावे छे. विवेचनः - हवे उपसंहार करतां जगावे छे के जेम कोई मनुष्ये अपथ्य आहार कर्यो तो ते दुःखी थाय छे अने पथ्य आहार कर्यो तो सुखी थाय छे, परन्तु खावा योग्य पदार्थ ने कई पण दुःख अथवा सुख थतुं नथी. तेम सिद्ध भगवंत नी पूजा करवाथी पूजन करनार नेज श्रात्म प्राप्ति थाय छे. एम ग्रंथकारे प्रभु पूजा नी सिद्धि करी बतावी. : ॥ अथ एकोनविंशोऽधिकारः ॥ प्रतिमा पूजन नुं श्रा भव मां फल न मले तेनां कारणो. - मूलम्: साधो ! वरंप्रोक्तमिदंपरं यथा, चिन्तामणिमुख्यमिहार्थकानाम् । सद्यः फलत्येवतथाऽत्रपार - मेशीफलेनोप्रतिमाचिताऽसौ ॥१॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५) गाथार्थ:-हे साधु ! तमे आ सत्य का परन्तु जेम चिन्तामणि रत्न विगेरे पूजनारायो ने अहीं जल्दी फल मले छे. तेवीज रीते परमेश्वर संबंधी पूजायेली आ प्रतिमा अहियां फलती नथी. विवेचनः नास्तिक आस्तिक ने कहे छे के तमोए पूर्वे जे दृष्टांतो पाप्यां ते बराबर छ, परन्तु चिन्तामणि रत्न विगेरे पूजनार ने प्रा संसार मां शीघ्र प्रत्यक्ष फल मले छे अने आ भगवान संबंधी जे प्रतिमा छे ते पूजायेली छती चिन्तामणि रत्न नी जेम जल्दी फलती नथी. कारण के लोक स्वभाव तो. प्रत्यक्ष फल जोनार छे माठे प्रावो प्रश्न उपस्थित थाय छे. सत्यं त्वदुक्तं परमत्र साधो! ,संस्थाप्य चेतःस्थिरमित्यवेहि। यद्वस्तुनोयोऽस्ति फलस्यकालस्तत्रेव तद्वस्तु फलत्यशङ्कम।।२।। गाथार्थ:-हे साधु ! तें अहियां कह्य ते सत्य छ परन्तु हृदय स्थिर करी ने तुं प्रा जो. जे वस्तु नो जे फल नो काल छे ते काले ते वस्तु निस्संदेह फले छे. .. विवेचन:-चिन्तामणि रत्न आदि नं प्रत्यक्ष अने शीघ्र आ भव मां तेना पूजन करनार ने फलदे खाय छे परन्तु भगवान नी प्रतिमा नुं फल आ भव मां जल्दी देखातुं नथी. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवा नास्तिक ना प्रश्न नो उत्तर प्रापतां मास्तिक जणावे छे के हे साधु ! तारो प्रश्न बराबर छे. परन्तु तेनो उत्तर ए छे के तुं बराबर हृदय मां विचार स्थिर करी ने जो तो मालूम पड़शे के दरेक वस्तु नो फल आपवानो समय होय छे. जे काले जे बस्तु फल प्रापवानी होय छे ते कालेज ते वस्तु फल आपे छे, तेमां शंका नथी. यथाहि गर्भो नवभिस्तु मासैः, पूर्णर्लभेत् सूतिमिहैव नादि । तथापुनःकाश्चममन्त्रविद्याः,लक्षणकोट्यावफलन्तिजापैः॥३॥ गाथार्थ- जेम संसार मा गर्भ नव मास पूर्ण थये छते जन्म थाय छ, पहेलां नही वली कोई मंत्र विद्या लाखें अथवा करोड़ जाप बडे फले छे. - विवेचन:- हमेशां दरेक वस्तु फलवानो पण काल होय छे अने ते वस्तु ते कालेज फले छे. एम दृष्टांत बतावतां कहे के के जेम प्रा संसार मां बालक नो जन्म थाय छे ते पण नव मास गर्भ मां पूर्ण थया बादज थाय छे. नव मास पहेला बालक नो जन्म थतो नथी. तेवीज रीते मंत्र अने विद्या फलवानो पण काल होय छे. कोई मंत्र अथवा विद्या एक लाख नो जाप थाय त्यारे फले छे अने कोई मंत्र के विद्या एक करोड़ नो जाप पूर्ण थाय त्यारे फले छे. एमां काल नी मुख्यता छ.. . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३७ ) मूलम्: वनस्पतिर्वा समयेस्वकीये, सर्वः फलत्येष न चाऽऽत्मशैप्रयात् । सेवाऽपि राजत्रिदशेश्वरादि-सम्बन्धिनी वा फलतीहकाले ॥४॥ गाथार्थ - अथवा सर्व वनस्पतिम्रो पोताना समये फले छे परन्तु परणी उतावल थी फलती नथी. राजा अने इन्द्र संबंधी सेवा परण आ संसार मां पोताना समयेज फले छे. * विवेचनः - व्यवहार मां कहेवत छे के उतावले प्रांबा न पाके एटले जे वस्तु जे काले फलवानी होय छे तेज काले फले छे. उतावल करवाथी जल्दी फल मलतुं नथी. तेम सर्व प्रकार नो वनस्पति परण जे काले फलवानी होय छे तेज काले फले छे परन्तु प्रापणी उतावल थी जल्दी फल आपती नथी. जेमके अमुक वनस्पतिम्रो बे-चार वर्ष मां फले छे, ज्यारे अमुक वनस्पति फलवामां पचास वर्ष पण लागे छे माटे कालेज वस्तु फले छे. राजादिनी तथा इन्द्रादिनी सेवा परण पोताना कालेज फले छे. मूठम्: संसाध्यमानोऽत्ररसोऽपिकाले, सिद्धः फलायाऽस्तिनसाध्यमानः । तथाऽन्यदेशव्यवहारकर्म, तत्कालपूत फलति प्रकामम् ॥५॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) गाथार्थ:-श्रा संसार मां सिद्ध थतो पारो पण काले सिद्ध थयेलो फल आपे छे, परन्तु सिद्ध थता काल मां फल आपनार थतो नथी. तेवीज रीते देश अने व्यवहार सम्बन्धी कार्य पण कालेज अत्यन्त फलदायी थाय छे. विवेचन:- आ संसार मां औषधि आदि थी पारो सिद्ध करवामां आवे छे-ते पारो सिद्ध थाय ते कालेज फलदायी थाय छे. हजु सिद्ध न थयो होय ते काल मां फल देनार थतो नथी-तेवीज रीते देश संबंधी कार्यों अने व्यवहार संबंधी कार्यो बराबर काल परिपाक थयेज अत्यन्त फलदायी थाय छे. ते पहेलां फलदायी थता नथी. तथैव पूजादिकमत्रपुण्यं, काले स्व एवाऽस्ति भवान्तराख्ये। फल प्रदायीतिततो न वक्ष-रौत्सुक्यमेष्यं फलदे पदार्थे ॥६॥ गाथार्थ:- तेवीज रीते आ संसार मां पूजादि धर्म कार्य अन्य भवे पोताना समये फलदायी थाय छे. तेथीज चतुर पुरुषोए फलदायिक वस्तु मां उतावल न करवी जोइये. विवेचनः-संसार मां पण शुभ अथवा अशुभ कार्यों न फल अवश्य मले छे, अने ते पण ते कालेज ते वस्तु अवश्य फले छे. माटे स्थिरता राखवी जोइये. ते बतावतां कहे छे के जेम शुभ अने अशुभ कार्यो नुं फल ते कालेज मले छे, Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६) तेम भगवान नी पूजादि शुभ कार्यो नुं फल पण अन्य भव मां पोताना समये अवश्य मले छे. माटे विचारशील पुरुषोए फलदायिक पदार्थो मां उतावल न करवी जोइये. मूलम् - पुनर्बुधाऽवस्य हृदि स्वकीये, पूर्वे प्रणीता य इमे पदार्थाः । ते चैहिका ऐहिकदायिनस्तत्,फलन्त्यथाऽत्र वयतोऽग्नतोन॥७॥ गाथार्थ:- वली हे विद्वान्, तुं पोताना हृदय मां विचार के जे पूर्वे कहेला पदार्थो पा लोक ना फल ने देनार होवाथी आ लोक मां फले छे. आगला जन्म मां फल आपता नथी. विवेचन:-हे विद्वान्, तुं तारा हृदय मां बराबर विचार के जे वस्तु नो जे फल देवानो जे काल होय तेज काले फल आपे छे, बीजा काल मां फल आपता नथी. जेमके दक्षिणावर्त शंख आदि वस्तुप्रो संसार मां तैना आराधक ने आ जन्म मां फल देवाना स्वभाव वाली होवाथी प्रा जन्म मांज फल आपे छे, परलोक मां फल आपती नथी. मूलम्मनुष्यसम्बन्धिभवस्य तुच्छ-कालीनभावादिति तुच्छमेभ्यः । प्राप्यं फलं तेन मनुष्यजन्म-न्यवाऽत्र मेभ्योऽस्ति फलं परत्रा। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४०) गाथार्थ:- मनुष्य भव अल्प काल होवाथी ए पदार्थो नुं तुच्छ फल मले छे. तेथी मनुष्य जन्म मांज तेमने तुच्छ फल मले परन्तु परलोक मां फल न मले. विवेचन- चिन्तामणि रत्न आदि पदार्थो आ भव तुच्छ फल आपनारा छे. वली ते अल्प काल सुधी फल आपनारा छे. मनुष्य जन्म पण अल्प काल वालो छे तेथी चिन्तामणि रत्न आदि पदार्थो नुं अल्प कालीन अने तुच्छ फल मनुष्य जन्म मांज फले छे. तेमनुं फल परलोक मां मलतुं नथी. .. . इदं सुहृत् ! पुण्यभवं फलंतु, महत्ततःस्याबहुकालभुक्त्यै । प्रभूतकालस्तु विना भवान्तरं,देवादिसम्बन्धिन वर्तते यतः ।। गाथार्थ:-हे मित्र, आ पुण्य थी उत्पन्न थयेल पुण्य मोटुं होय छे, तेथी लांबा काल सुधी भोगवाय छे. अने लांबो काल देवादि संबंधी भवांतर विना संभवतो नथी. विवेचन:- जे वस्तु नं फल घj मलवान होय अने लांबा काल सुधी चाले तेवू होय तो एवं फल भोगववा माटे लांबा काल वालो अने सारो भव जोइये. मनुष्य भव लांबा काल वालो नथी अने एकदम पुण्य भोगववा माठे सारो भव परण नथी. ते वस्तु समझाववा माटे कहे छे के हे Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) मित्र, आ पुण्य थी उत्पन्न थयेलुं फल घणुं मोटुं होय छे अने लांबा काल सुधी भोगवाय ते, होवाथी ते माटे मनुष्य भव उपयोगी बनतो नथी. आवो सारो अने लांबो काल देव भव सिवाय भवांतर मां नथी. मूलम्:तत्पुण्यलम्यं फलमेंतदस्ति, प्रायोऽन्यजन्मान्तरयातजन्तोः । यद्यत्र जन्मन्युपयाति पुण्य-फलं तदा मड्क्षु विनाशमेव ॥१०॥ गाथार्थ:-ते पुण्य संबंधी फल प्रायः अन्य जन्म मां जता जीव ने होय छे, जो ते पुण्य नुं फल मनुष्य जन्म मांज प्राप्त थाय तो जल्दी नाश पामी जाय. विवेचन:-ते पुण्य संबंधी फल मोटु तथा लांबा काल सुधी भोगवाय तेवू होवाथी जे प्राणी बीजा भव मां जाय छे तेनी साथे परलोक मां जाय छे. जो मनुष्य भवमांज ते पुण्य फल प्राप्त थतुं होय तो ते भव अल्प काल वालो होवा थी वचमांज तरतज पुण्य फल नाश पामी जाय, माटे ते पुण्य नुं फल परलोक मां भोगवाय छे. मूलम्यतो मनुष्यापुरतीव तुच्छं, मानुष्यकं देहमिदं शरारु। तभुज्यमानमरणान्तरागमात्,सन्युट्यतीदंपृथुपुण्यजंफलम्॥११॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) गाथार्थ:-जेथी मनुष्य आयुष्य घणुं तुच्छ छे, मनुष्य नुं आ शरीर नाशवंत छे, भोगवातुं एवं पुण्य फल मरण वच मां प्रावतां टूटी जाय छे, परन्तु आ विशाल पुण्य लांबा काले भोगवाय छे. विवेचन:-जो पुण्य फल मनुष्य भवमांज भोगवातुं होय तो ते पुण्य फल लांबा काल वालुं होवा थी अने मनुष्य भव तुच्छ अने नाशवंत होवा थी ते पुण्य फल नाश पामी जाय छे. माटे आ विशाल पुण्य फल लांबा काले देवलोक मांज भोगवाय छे. चूलन:सुखान्तरा दुःखभवोमहीयो-दुःखाय यत्स्यादतिभीतिदा मतिः। सापुण्यजेऽस्मिन्सतिनवयुक्ता,तदन्यजन्मेफलमेतदेति भोः।१२। गाथार्थ:--सुख मध्ये दुःख नी उत्पत्ति मोटा क्लेश माटे थाय छे. जेथी मरण अत्यन्त भय देनार छे. पुण्य काल ना भोग काल मां मृत्यु योग्य नथी अने परभव मां पा फल मले छे. विवेचन:-सुख ना समय मां थोडं पण दुःख घणा क्लेश माटे थाय छे. वली मृत्यु नुं दुःख तो अत्यन्त भय देनार छे. श्रा पुण्य फल नो काल सुख नो काल छे. माटे आ पुण्य फल ना सुख ना काल मां मृत्यु योग्य नथी तेथी पर भव मांज विशाल पुण्य - फल मले छे. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) नूलम:अनेकधोत्पन्नमनेकशो यथो-पभुज्यमानं बहुकालमात्रम् । न क्षीयते पुण्यफलं तदेतत्, प्रायोऽन्यजन्मन्युदयं समेति॥१३॥ गाथार्थ:- घणा प्रकार ना परिश्रम थी उत्पन्न थयेल, अनेक वार भोगवातुं अने बहु काल वालुं पुण्य फल नाश नथी पामतुं परन्तु परलोक मां उदय आवे छे. विवेचन:-जेम अनेक प्रकार ना परिश्रम थी उत्पन्न थयेल वस्तु लांबा काल सुधी अने वारंवार भोगववा छतां नाश पामती नथी तेम प्रा विशाल पुण्य फल अनेक प्रकार ना परिश्रम थी उत्पन्न थयेल छे, अने वारंवार भोगववा छतां नाश न पामे तेवं छे, अने लांबो काल चाले तेवं छे. तेथी आ जन्म मां नाश पामतुं नथी, परन्तु पर भव मां उदय मां आवे छे. मूलमः तथा च यत् किञ्चिदुदुग्रपुण्यं, साक्षादिहैवायति फलानि । यथाहिदिव्येपरिशुद्धयतिक्षणाद्,यःकश्चिदत्राऽस्तिजनेषुसूनती१४ गाथार्थ:-तेमज कोई उग्र पुण्य प्रा संसार मां प्रत्यक्ष फल आपे छे, जेम आ संसार मां मनुष्यो नी अंदर कोई सत्यवादी कठिन परीक्षा मां शुद्ध थाय छे.. विवेचनः पुण्य-पुण्य मां पण तफावत होय छे. कोई पुण्य लांबा काले फल आपे तेवं होय छे, तो कोई पुण्य Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) तात्कालिक पण फल आपे छे. सामान्य रीते दरेक पुण्य फल आवता जन्म मां मले छे, परन्तु कोई वार एवा प्रकार नुं पुण्य बंधाई जाय छे के ते ते भव मां पण फल आपे छे. तेने उग्र पुण्य कहे छे. एटले उग्र पुण्य नुं फल ते भव मां साक्षात् मले छे. जेमके आ संसार मां लोक मां कोई ने कलंक लाग्यं होय त्यारे तेनी दिव्य द्वारा शुद्धि करवामां आवे छे. एमां जो ते सत्यवादी होय तो शुद्ध थई जाय छे. दाखला तरीके सीताजी ऊपर कलंक आव्यं अने तेमनी दिव्य द्वारा शुद्धि करवामां आवी अने तेस्रो शियल ना प्रभावे शुद्ध थयां माटे उग्र पुण्य फल साक्षात् श्रा भव मां परण फंले छे. मूलम् शुद्धाय सिद्धाय च साधवे तथा ऽण्वपि प्रदत्तं सकलार्थसिद्धये । स्यादैहिकामुष्मिक सर्व सौख्य- निबन्धनं बन्धनहृद् भवस्य । १५ । गाथार्थ: कोई शुद्ध सिद्ध पुरुष अने साधु ने थोडुं पण आपलं सकल पदार्थ नी सिद्धि माटे थाय छे, तथा श्रा लोक ने परलोक मां सुख करनार अने संसार नो नाश करनार थाय छे. विवेचन: - सुपात्र मां प्रापेल थोडुं पण दान लाभदायक थाय छे जेमके गाय ने खवरावेल घास पण दूध Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) माटे थाय छे. तेवीज रीते कोई शुद्ध एवा सिद्ध पुरुष ने अथवा कोई त्यागी एवा साधु भगवंत ने थोडुंपणापेल सर्व सिद्धि करनार थाय छे. तथा आ लोक अने परलोक ना सुख नुं कारण रूप अने संसार ना नाश ना हेतु भूत थाय छे. मूलम्:जनेऽपि कस्मैचिदनुत्तराय, क्षत्रादये स्तोकमपि प्रदत्तम् । वारे क्वचित्केनचिदेकवेलं, तस्येष्टसिद्धय भवतीह नूनम् ।१६ यावत्त्वयं जीवति तावदस्य, स राजपुत्रः सकलार्थकारी । धनं हिकिदुष्टविपक्षजाता-न्मृत्यन्तकष्टादपिपात्यशङ्कम् ।१७ गाथार्थः-कोइक मनुष्ये कोइक अवसरे एक वार एक सारा क्षत्रिय ने थोडं पण आपेलं संसार मां निश्चये तेनो इष्ट सिद्धि माटे थाय छे. आ दाता ज्यां सुधी जीवे छे त्यां सुधी ते राज-पुत्र तेना सकल अर्थ ने करनार छे. घj शुं कहिये ? ते राजपुत्र दुष्ट शत्रु ना समूह थी अने मरगान्त क्लेश थी निस्संदेह रक्षण करे छे. विवेचनः-उत्तम पुरुष ने आपेलं आ भव मां पण केटलं फलदायी थाय छे ते जणावे छे के कोई मनुष्ये अवसरे एक वार पण कोई उत्तम एवा क्षत्रिय पुत्र-राजपुत्र ने थोडं पण प्राप्यं होय तो निश्चे आ संसार मां दान देनार ने इष्ट सिद्धि माटें थाय छे. राजपुत्र पोताना वस्तु दाता जे मनुष्य छ तेनुं Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) जीवन पर्यन्त सर्व काम करनार थाय छे. घणुं शुं कहिये ? ते राजपुत्र दुष्ट शत्रुनोना समूह थी अने मरणान्त क्लेश थी तेनुं रक्षण करे छे. मूलम्ःएवं हि कुत्राऽवसरे किलैक-वारं महत्पुण्यमुपाजितं यैः। तेषां तदत्राऽपि परत्र लोके, सत्सौख्यसन्तानविधानहेतुः ।१८ गाथार्थ - ए प्रमाणे खरेखर कोइक अवसरे एक वार मोटुं पुण्य जेोए उपार्जन कयु होय, तेमने ते मोटुं पुण्य अहियां अने पर भव मां श्रेष्ठ सुख अने संतति नुं कारण बने छे. विवेचनः-उग्र पुण्य - फल वर्णवतां कहे छे के जे प्रोए जीवन मां एक वार कोइक अवसरे मोटुं पुण्य उपार्जन कयु होय तो ते पुण्य, पुण्य करनार प्रात्माओ ना श्रेष्ठ, खुख अने संतति नुं कारण बने छे अर्थात् सुख अने संतति नी प्राप्ति थाय छे. मूलम:पुनस्त्वतीवोग्रतमं यदत्र, पुण्यं च पापं समुपाजि पुंसा । अनेक'सामपि भुक्तयेत-च्छालेरिवस्त्रेणयुजश्च चोरवत ।१९। गाथार्थः-वली आ संसार मां उग्रतम पुण्य अने पाप जे मनुष्ये उपार्जन कयु होय ते उग्रतम पुण्य अने पाप अनेक Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४७ ) मनुष्यो ना भोग ना माटे अनुक्रमे स्त्री समूह युक्त शालिभद्र अने चोर नी जेम थाय छे. विवेचन:-उग्रतम पूण्य तथा उग्रतम पाप पोताना माटे फलदायिक थाय छे तेमां कइंक पण आश्चर्य नथी, परन्तु बीजा अनेक मनुष्यो ना भोग ने माटे अथवा दुःख ने माटे थाय छे ते बतावतां कहे छे-जेम शालिभद्र पूर्व जन्म मां गोवालिया ना भव मां मासक्षमण ना तपस्वी ने क्षीर ना दान द्वारा जे उग्रतम पुण्य उपार्जन कयु ते तेमनी स्त्रियो ना समूह - भोग माटे पण थयुं अने चोरे जे उग्रतम पाप कर्यु ते तेमनी स्त्रियो ना नाश माटे पण थयु. तेम उग्रतम पुण्य अने पाप कोइये कयु होय तो बीजा अनेक ना भोग माटे पण थाय छे. मूलम्यथैककः कश्चन राजसेवां, कृत्वा सुखी स्यात्परिवारयुक्तः । एकस्तथाकोऽपिनृपाऽपराधी,निहन्यतेऽसौसपरिच्छदोऽपि ।२० गाथार्थः-जेम कोई मनुष्य राज सेवा करीने परिवार सहित सुखी थाय छे, तथा कोई एक मनुष्य राजा नो अपराधी थवाथी पोताना परिवार सहित हणाय छे. विवेचन- सुगम. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) परमेश्वर ना नाम स्मरण नी पण आवश्यकतामूलम्यद्य वमर्चादिकपुण्यमेतत्, सर्वात्मना स्वार्थकरं निरूक्तम् । तदैतदेवाद्रियतां जनौघः,कि नामजापे विहिता प्रवृत्तिः ।२१ गाथार्थ:-आ प्रमाणे जो आ पूजादि नुं पुण्य सर्व प्रकारे स्व प्रयोजन साधक कहेलं छे, तो जन समूह आ भले आदरो परन्तु भगवान ना नाम नो जाप केम कह्यो छे ? विवेचन:-सर्व प्रकारे पोताना प्रयोजन नुं सिद्ध करनार आ पूजादि - पुण्य बताव्यु छे तो ते पूजादिक पुण्य कार्य लोको नो समूह भले करे, परन्तु भगवंत ना नाम स्मरण नी शी आवश्यकता ? अर्थात् भगवंत ना नाम नो जाप केम करवो? मूलम्:साधूच्यते साधुजन! त्वयेदं, परं विवेकोऽत्र कृतोमहद्भिः । इमे गृहस्थाःखलुयेसमर्था-स्तेद्रव्यभावाऽचनकाधिकारिणः।२२ ये योगिनो द्रव्यपरिग्रहेण, विना विभान्तीह भवे महान्तः । तेषां त्वधीशस्मृतिरेव युक्ता,तयैवतत्स्वार्थकृतिःसमस्ता ।२३ गाथार्थ:--हे श्रेष्ठ जन ! ते आ ठीक कह्य छे, परन्तु महापुरुषोए अहियां विवेक करेलो छे. जे गृहस्थो शक्तिशाली छ तेत्रो द्रव्य अने भाव पूजा ना अधिकारी छे. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) प्रा संसार मां जे महात्मा योगी पुरुषो छ तेत्रो द्रव्य परिग्रह विनाज शोभे छे. तेमना माटे भगवान ना नामनो जापज योग्य छे, कारण के तेमना प्रयोजन नी सिद्धि भगवान ना जापथीज थाय छे. विवेचन:-हे साधु पुरुष, तें आ बराबर कह्य छ, अर्थात् तारो प्रश्न बराबर छे. महापुरुषोए या बाबत अहियां विवेक करेलो छे, कारण के अहियां जे वात कहेवामां आवी छे ते अधिकार भेद थी कहेवाई छे, अर्थात् जे गृहस्थो द्रव्य परिग्रह वाला छे अने शक्तिशाली छ तेत्रो द्रव्य थी पण पूजा करी शके छे अने भाव थी पण पूजा करी शके छे. कारण के तेत्रो द्रव्य अने भाव पूजा ना अधिकारी छे परन्तु जे महात्मा पुरुषो संसार ना त्यागी छे अने योग नो अभ्यास करनार छ तेत्रो द्रव्य परिग्रह विनाज शोभे छे. तेयो द्रव्य पूजा करी शकता नथी. एवा योगी पुरुषो माटे भगवान नो जापज योग्य छे. तेमनी स्वार्थ सिद्धि भगवान ना जाप थीज थाय छे. मलम् - यथाविषंगारुडहंसजाङ्गली-मन्त्रस्यजापाच्छवरणाच्चदेहिनाम् । मूर्छावतांतत्वमजानतामपि,विनश्यतोत्थंभगवत्स्मृतेन घम्।२४ गाथार्थः जेम गारुडी, हंस अने जांगली संबंधी मंत्र ना जाप थी अने सांभलवायी मूच्छित प्राणिोना झेर नाश Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) पामे छे, ए रीत तत्त्व थी अजाण मनुष्यो ना भगवान ना नाम स्मरण थी पाप नाश पामे छे.. विवेचन:-योगिरो भगवान ना स्वरूप ने जाणता नथो अने भगवान निरागी अने निस्पृह छ तो केवल भगवान ना नाम स्मरण थी योगियो ने केम तेमन कार्य सिद्ध थाय ? तेना जवाब मां लखवानुं के जेम सर्प न झेर चडवाथी मूर्छा पामेल एवानो झेर उतारवाना मंत्र थी अजाण होवा छतां पण एवा प्राणीमो नुं गारुडी मंत्र, हंस मंत्र अने जांगुली मंत्र नो जाप सांभलवाथी पण झेर नाश पामे छे, तेम तत्त्व ना अजाण एवापो नुं पाप भगवान ना स्मरण थी नाश पामे छे. तथाऽस्थिभक्षीति हुमायपक्षी, प्रसिद्धिमानसन्ततजीवरक्षी । उड्डीयमानस्य यदस्य छाया, यन्मूर्द्ध गासोऽत्रभवेन्नरेन्द्रः ।२५ नाऽयं खगो वेत्ति यदस्य शीर्षे, छायां करोतीति तथेतरोऽपि । जानाति नैवं मम मस्तकेऽसौ,छायां करोतीतिमतंद्वयोन ।३६ तथाऽपि तच्छायमहात्मतोदया-दधीशतोदेति दरिद्रतापहा । अजानतोरप्यथ सिद्धिरेवं,कथं स्मतेर्यातिनपापमोशितुः ।२७ गाथार्थः-तेवीज रीते हुमायु नाम नुं पक्षी अग्नि भक्षण करनार तरीके प्रसिद्ध छे, तो पण हमेशां जीव रक्षण Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५१ ) करनार छे. ते पक्षी उडतां तेनी छायी जेना मस्तक ऊपर पड़े छे ते राजा थाय छे. या बाबत पक्षी पण जाणतो नथी अने जेना मस्तक पर छाया पड़े छे ते पण जाणतो नथी, तो पण छाया ना महात्म्य ना उदय थी दरिद्रता नाश पामे छे. तेम अजाणतां पण भगवान ना नाम स्मरण थी केम पाप नाश न पामे ? अर्थात् जरूर पाप नाश पामे छे. विवेचन:-तेज वस्तु ने वधु पुष्ट करतां जणावे छे के अस्थि भक्षण करनार हुमायु नाम नुं एक पक्षी छे. छतां ते हमेशां जीवो नुं रक्षण करनार छे. ए पक्षी उडतां उडतां जे मनुष्य ना मस्तक ऊपर तेनी छाया पडे तो ते मनुष्य राजा थाय छे. उड़ती वखते हुमायु पक्षी ना मन मां एम नथी के हुं ते मनुष्य ना मस्तक ऊपर छाया पाडु अने ते मनुष्य ना मन मां पण एम नथी के मारा मस्तक पर हुमायु पक्षी छाया पाड़े. एम बन्ने जण अजाण होवा छतां तेनी छाया ना महत्त्व ना उदय थी तेनी दरिद्रता नाश पामे छे अने ते राजा थाय छे. तेम तत्त्व थी अजाण एवानो पण भगवान ना नाम स्मरण थी पाप नो नाश केम न करे ? अर्थात् अवश्य पाप नो नाश करे छे. नृलम्अस्मिन्गते सर्वत आत्मशुद्धिः, सत्याममुष्यां परमात्मबोधः । जातेऽत्र नो कश्चन कर्मबन्धः,कर्मप्रणाशेकिलमोक्षलक्ष्मीः ।२८ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२) अस्यां हि सत्यां स्थितिरक्षयास्याद्,अनन्तविज्ञानमनन्तदृष्टिः । एकस्वभावत्वमनन्तवीर्य,जागत्ति सज्ज्योतिरनन्तसौख्यम् ।२६ गाथार्थः-पाप नाश पाम्ये छते सर्व प्रकार नी आत्म शुद्धि, प्रात्म शुद्धि थये छते परमात्मा नुं ज्ञान, परमात्मा ना ज्ञान थी कर्म बंध नो नाश अने कर्म नाश थी मोक्ष लक्ष्मी एटले अक्षय स्थिति , अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, एक स्वभाव पणुं, अनंत वीर्य, सज्ज्योति अने अनंत सुख थाय छे. विवेचनः-पाप नाश थाय त्यारे केटला प्रकार नां आत्मा ने फल मले छे ते बतावे छे. ज्यारे पाप नो नाश थाय छे त्यारे प्रात्मा निर्मल बने छे. आत्मा निर्मल थवाथी जिनेश्वर देव आदि नी अोलखाण थाय छे. जिनेश्वर देव आदि नी अोलखाण थी कर्मबंध सरके छे. कर्म ना नाश थी मोक्ष नी प्राप्ति थाय छे. मोक्ष नी प्राप्ति थवाथी आत्मा नी अक्षय स्थिति थाय छे, एटले आदि अनंत काल त्यां रहेवानुं थाय छे. ए जीव क्यारे पण संसार मां आवतो नथी अने ते वखते आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, एक स्वभाव पj, अनंत वीर्य गुणना प्रकाश मय · सज्ज्योति अने अनंत सुखो नो भोक्ता बने छे. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३) ॥ अथ विशतितमोऽधिकारः ॥ आत्म ज्ञान थीज अथवा केवल राजयोग थीज मुक्ति थाय छे ए विषय मां वैष्णवाददि सवं जन ना कथन मां एकवाक्यता नथी. . मूलम्हेस्वामिनः ! यूयमितिप्रवक्थ,यदात्मबोधानविनाऽस्तिमुक्तिः । तीतरेऽन्यान्कथमाहुरस्या,हुतूंस्तदुक्तिनसमा तथाहि? ॥१॥ येवैष्णवाःकेचनविष्णुवादिनो,विष्णोःसकाशान्निगदन्तिमुक्तिम् येब्रह्मनिष्ठाःकिलब्रह्मस्तां, शैवाःशिवाच्छक्तिकृतांतुशाक्ताः। तेषां न चात्मावगमो निदान,मुक्तस्तदा नास्त्यथनिर्णयोऽयम् । यदात्मबोधाजनितवमुक्ति-स्ततःकिमेवं क्रियतेविनिश्चयः ॥३। गाथार्थ:-हे स्वामित्रो, तमो कहो छो के आत्म ज्ञान विना मुक्ति नथी. तो बीजापो तेनां अन्य कारणो कहे छे. तेथी आपनुं अने वैष्णवादि नुं कथन समान नथी. वैष्णवो विष्णु नी उपासना थी, ब्रह्म निष्ठो ब्रह्म नी उपासना थी, शैवो शिव नी उपासना थी अने शाक्तो शक्ति नी उपासना थी मुक्ति मले छे एम माने छे. वैष्णवादि ना मते आत्म ज्ञान मुक्ति नुं कारण नथी तो आत्म ज्ञान थी मुक्ति मले छे ए निर्णय केम थाय ? .. विवेचन:-हे स्वामियो, तमो कहो छो के आत्म ज्ञाव विना मुक्ति नथी, परन्तु बीजाप्रो बीजां कारणो बतावे छे. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) एटले बन्ने नां मुक्ति नां कारणो एक नथी. जेम के जगत नी उत्पत्ति, स्थिति ने प्रलय ना कारण भूत त्रिष्णु ने माननार वैष्णवो विष्णु नी सेवाभक्ति थी मुक्ति थाय छे एम माने छे. ब्रह्मवादिश्रो ब्रह्म नी उपासना थी मुक्ति थाय छे एम माने छे. शैत्रो एटले शिवभक्तो शिव नी उपासना थी मुक्ति थाय छे एम माने छे अने शक्ति ने माननार शाक्तो शक्ति नी उपासना थी मुक्ति थाय छे एम माने छे. वैष्णवादिश्रो श्रात्मज्ञान ने मुक्ति नुं कारण मानता नथी तो तमो कहो छो तेम आत्मज्ञान थी मुक्ति थाय छे एम निर्णय केवी रीते थाय ? मूलम्: सत्यंयदेते किल लोकलढि रूढास्तु विष्णवादिकभिन्नवीक्षिणः । परन्तु तत्त्वार्थतएष श्रात्म-वार्थोऽभिवाच्योननुविष्णुमुख्यैः ||४| नाथार्थः- तमारू' कथन सत्य छे. वैष्णवादिको लोक रूढि श्री विष्णु प्रमुख ने अलग अलग देखे छे, परन्तु तत्त्व थी तो का आत्माज विष्णु आदि शब्द थी कहेवो जोइये. विवेचनः - तमारू कथन सत्य छे के आ वैष्णवो, ब्रह्मोपासको, शैवो ने शाक्तो लोक रुढि थी विष्णु, ब्रह्म, शिव ने शक्ति ने अलग-अलग देखे छे परन्तु तत्त्व थी जो अर्थ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५ ) करवामां आवे तो प्रात्माज विष्णु आदि शब्दो नो अर्थ थाय छे. अर्थात् विष्णु विगेरे शब्दो ने आत्माज कहेवो जोइये. मूलम् :कथं हि वेवेष्टयथ विष्णुरात्मा,व्याप्तेरथ ब्रह्म तथैषप्रात्मा। शिवोऽपिचात्माशिवहेतुतःस्याच्छक्तित्तस्तथाऽऽत्मश्रितवीर्यमेतत् गाथार्थः-आत्मा व्यापे छे. तेथी विष्णु, शुद्ध आत्म भाव वालो आत्मा ते ब्रह्म, कल्याण करवामां कारंण भूतं आत्मा ते शिव अने आत्म आश्रित शक्ति ते शक्ति जाणवी. विवेचन:- विष्णु प्रादि अात्म वाचिक शब्दो केम बने छे ते बतावतां कहे छ के ज्यारे जीव ने लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान थाय छे त्यारे ज्ञान रूप थी प्रात्मा लोकालोक मां व्याप्त बने छे. माटे व्यापक होवा थी आत्मा विष्णु गणाय छे. परं ब्रह्म एटले शुद्ध प्रात्म भाव. आवो शुद्ध आत्म भाव वालो प्रात्मा ते ब्रह्म कहेवाय छे. शिव एटले निर्वाण जेने प्राप्त कयु छे एवो आत्मा शिव कहेवाय छे. अने आत्मा नुं अनंत वीर्य ते शक्ति. तेथी आत्मा शक्ति पण गणाय छे. इत्यं हि सर्वैरपि विष्णुमुख्यः, शब्दरसावात्मक एव बोध्यः। ततस्त्वतोमुक्तिरियनकस्मात्,प्राप्येतितत्त्वहृदितरपीक्ष्यम् ॥६। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) गाथार्थः-या रीते सर्वे पण विष्णु विगेरे शब्दो थी आ आत्मा ज जाणवो, ते कारण थी आत्मज्ञान थी या मुक्ति केम न थाय ? आ तत्व विष्णुवादी आदिग्रोए पण विचार जोइये. विवेचन:-आ रीते विष्णु, ब्रह्मा, शिव अने शक्ति विगेरे सर्वे शब्दो नो अर्थ आत्माज थाय छे अने विष्णु आदि नी उपासना करनार आत्मानीज उपासना करे छे, तो आत्म ज्ञान थी मुक्ति केम न थाय ? माटे विष्णु वादी विगेरे ! तमारे हृदय मां विचार करवो जोइये. मूलम्चेन्नेतिविष्णुप्रमुखेभ्यएभ्यः, मुक्तिस्तदावैष्णवमुख्यलोकाः । सन्तोगृहस्थाइह विष्णुमुख्यान,एवाऽर्चयन्तःपरितोजपन्तु ॥७॥ परं तपः संयमयुक्तता क्षमा, निः सङ्गता रागरुषापनोदौ । पञ्चेन्द्रियारणांविषयाद्विरागो,ध्यानात्मबोधादिविधीयतेकथं?। गाथार्थ:- जो मारू कथन बराबर नथी अने विष्णु प्रमुख थी मुक्ति थती होय तो वैष्णव प्रमुख जनो, संतो अने गृहस्थो आ संसार मां तेमने पूजतां छतां सर्व प्रकारे तेमनोज जाप जपे परन्तु तपश्चर्या, संयम मां तत्परता, क्षमा, निसंगता, राग-द्वेष न निवारण, विषयो नो विराग तथा ध्यान अने आत्मज्ञानादि तेत्रो केम करे ? Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५७ ) विवेचन:-जो तमोने आत्म ज्ञान थी मुक्ति थाय छे, ए मारू कथन बराबर न लागतुं होय अने प्रात्म ज्ञान विना विष्णु आदि नी उपासना थी मुक्ति थाय छे एम मानता हो तो वैष्णव प्रमुख जनो, तेना साधुप्रो अने गृहस्थो पण तेमनी सेवा-भक्ति करो, ध्यान करो परन्तु तपश्चर्यादि, संयम मां तत्परता, क्षमा, निःसंगता, राग-द्वेष नुं निवारण, पांचे इन्द्रियो ना विषय थी निवृत्ति, ध्यान अने आत्मज्ञानादि तेप्रो केम करे छे ? मूलम:एषद सेवा ननु विष्णुब्रह्मा-दीनां तदेयं कुत प्राश्रिताऽस्ति? . भोस्तेभ्यएवेतितदानतेषाम्,बागस्तिहस्तोऽपियतोऽन्यबोधः।।। गाथार्थ:-- विष्णु आदि नी आज सेवा छे तो आ सेवा कोनाथी प्रवृत्ति मां. प्रावी ? विष्णु आदि थीज आ प्रवृत्ति मां आवी. तेप्रोने वाणी नथी, हाय नथी जेथी बीजाने बोध थाय ? विवेचन:- तपश्चर्यादि ए विष्णु नी सेवा छे एम जो तं कहे तो प्रश्न ए थाय के 'तपश्चर्यादि सेवा कोनाथी प्रवृत्ति मां प्रावी'? 'तपश्चर्यादि सेवा विष्णु आदि थी प्रवृत्ति मां आवी' एम जो तुं कहे तो होय तो अमारो आ पण एक प्रश्न छे के प्रवृत्ति जे थाय छे ते मुख अने हाथ विगेरे थी Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) थाय छे. परन्तु विष्णु आदि ने हाथ अने वाणी नथी. तो हाथ अने मुख विना तपश्चर्यादि नी सेवा नी प्रवृत्ति विः णुए केवी रीते करी ? अने बीजा ने वाणी विना बोध पण शी रीते आपे ? मूलम् तद्धयायियोगिभ्य इयं प्रवृत्ति - स्तत्तंः कुतोऽसौनिगदोपलब्धा ? | अध्यात्मयोगादितिचेत्तदानों, तस्यप्रणेताऽभवदत्रको भोः ? | १० | निरञ्जनैनिष्क्रियकैर्न चाऽयं वक्तु हियोग्यः खलुविष्णुमुख्यः । सोऽध्यात्मयोगः कुत श्राविरासीत्, चेदादियोगिभ्यइतिप्रवादः । तैरप्यसावात्मभवावबोधा दध्यात्मयोगोऽवगतो न चाऽन्यतः । प्रनिन्द्रियान्निष्क्रियकान्निरञ्जना- न्नित्यैकरूपान्नतु विष्णुमुख्यात् गाथार्थ - प्रा सेवा तेना ध्यान करनार श्री थी प्रवर्ती. तेना ध्यान करनाराम्रो ने क्यां थी मली ? तेश्रोने अध्याध्म योग थी मली. तेना प्रणेता कोण ? निरंजन ने निष्क्रिय एवा विष्णु आदि थी प्रयोग रचायो एम कहेवुं योग्य नथी. एथी ग्रा योग क्यांथी प्रगट्यो ? जो आ योग अध्यात्मवादीओ ए आत्म ज्ञान थी जाण्यो अने बीजाथी नही. तेमज अनिन्द्रिय, निष्क्रिय, निरंजन अने एक स्वरूप विष्णु प्रमुख थी पण नहीं. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६) विवेचन-आ तपश्चर्यादि सेवा विष्णु आदि थी नथी प्रवृति, परन्तु आ सेवा विष्णु आदि नुं ध्यान करनार योगी पुरुषो थी प्रवृत्ति छे. हवे ए प्रश्न थाय छे के जो विष्णु आदि नुं ध्यान करनार योगी पुरुषो थी आ सेवा प्रवृत्ति होय तो ए योगी पुरुषो ने पण क्याथी मली ? योगी पुरुषो ने आ सेवा अध्यात्म योग थी मली छे. तमो जो अध्यातम योग थी या मल्या नी वात करो छो तो ए अध्यातम योग नो प्रणेता कोण छ ? निरंजन अने निष्क्रिय एवा विष्णु विगेरे तो प्रा योग ना प्रणेता कहेवा योग्य नथी. तो आ अध्यात्म योग क्याथी प्रगट्यो? तो नक्की थाय छे के प्रा अध्यात्म योग अध्यात्मवादीग्रोए आत्मज्ञान थीज जाण्यो छे बीजा कोई थी जाण्यो नथी. वली इन्द्रिय विना ना निरंजन एटले निर्लेप, क्रिया रहित अने एक स्वरूप एवा विष्णु आदि थी पण प्रगट्यो नथी. मूलम् - स्वादात्मनोयोऽवगमो बभूव,भावात्समाख्याद्गतरागरोषात् । अपूर्वलाभान्निखिलार्थदृष्टे-रध्यात्मयोगःस्वतएवसिद्धः ॥१३॥ गाथार्थ:-पोताना प्रात्मा थी, समभाव थी, राग-द्वेष नष्ट थवाथी, अपूर्व आत्मलाभ थी अने सर्व द्रव्य ना यथार्थ दर्शन थी जे ज्ञान थाय छे तेज अध्यात्म योग पोतानी मेलेज सिद्ध थयेलो छे. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) विवेचन:-आत्मा मां थीज अध्यात्म योग प्रगट थयो छे तेज वात ने समझावे छे के पोताना आत्म थी, समता भाव थी, राग-द्वेष नो नाश थवाथी, तेवा प्रकार ना अपूर्व प्रात्म लाभ थी अने जगत नां बधां द्रव्यां नो यथार्थ दर्शन थी आत्मा मांज जे ज्ञान थाय छे तेनेज अध्यात्म योग कहे छे. एटले ते कोई नी अपेक्षा विना स्वयं सिद्ध थयेलो छे. मूलम्:एवंहियश्चाऽऽत्मभवात्मबोध-स्तस्मान्नृणांजायत एवमुक्तिः । अस्यानहेतुस्त्वपरोऽस्तिविष्णु-मुख्यस्तदात्माऽवगमस्पृहैष्या।१४ गाथार्थः-ए प्रमाणे आत्मा थी उत्पन्न थयेल आत्म ज्ञान थीज मुक्ति थाय छे. तेना विष्णु विगेरे बीजा कोई हेतु भूत नथी, तेथी आत्म ज्ञान नी अभिलाषा करवी जोइये. विवेचनः-एटले आटलो निर्णय दृढ थाय छे के आत्मा मां थीज आत्म ज्ञान उत्पन्न थाय छे अने आत्म ज्ञान थीज मुक्ति थाय छे. ते आत्मज्ञान नी प्राप्ति मां विष्णु आदि बीजा कोई हेतु रूप नथी. माटे आत्मज्ञान मेलववा माटे तेनी अभिलाषा अवश्य करवी जोइये. मूलम्ये तु स्वभावाग्निगदन्ति मुक्ति,तत्राऽप्यसावेव निवेदितोऽर्थः । स्वस्यात्मनोभावहाप्तिरक्ता,तदात्मलाभान्ननुसिद्धिलक्ष्मीः Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६१ ) गाथार्थ -जेत्रो स्वभाव थीज मुक्ति कहे छे त्यां पण आज अर्थ जणावेलो छे. 'स्व' एटले 'प्रात्मा', 'भाव' एटले 'प्राप्ति'. आत्मा थी प्राप्ति तेनुं नाम 'स्वभाव'. तेथी प्रात्मा नी प्राप्ति थीज मोक्ष थाय छे. विवेचन:-केटलाक स्वभाव वादीग्रो स्वभाव थी मुक्ति थाय छे एम माने छे, तो त्यां स्वभाव नो अर्थ पण आत्म ज्ञान नो लाभ एवोज करवो जोइये. 'स्व' एटले 'आत्मा' अने 'भाव' एटले 'प्राप्ति'. एटले आत्मा थी प्राप्ति अथवा प्रात्म ज्ञान नी प्राप्ति तेथी आत्मज्ञान नो प्राप्ति थीज सिद्धि रूप लक्ष्मी प्राप्त थाय छे. . मूलम्:एवंसमस्तैरपि मुक्तिमिच्छभि-मुक्तिःसमेष्यानियतात्मबोधात अस्या निमित्तंनहिकिञ्चिदस्मा-दन्यन्नयगादिप्रगुरगर्यदुच्यते । यावत्कषायान्विषयान्निषेवते, संसार एवेष निगद्य आत्मा। एतद्विमुक्तोऽजनियावदात्मा-वबोधयुग्मोक्षइतीहितोऽयम् ॥१५ गाथार्थ:- ए प्रमाणे समस्त पण मोक्षा भिलाषिोए आत्मज्ञान थी निश्चे मुक्ति इच्छा योग्य छे. एन बीजं कोई . निमित्त नथी. जेथी महापुरुषो द्वारा कहेवायुं छे के कषाय अने विषय ज्यां सुधी सेवे छे त्यांथी पा प्रात्मा संसार रूप Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२ ) छेने एनाथी रहित थाय तेथी ए ज्ञान युक्त थाय छे एटले मोक्ष कह्यो छे. विवेचन :- ए प्रमाणे बधाज मोक्ष ना अभिलाषी श्रात्माप्रो आत्म ज्ञान द्वाराज निश्चे मुक्ति इच्छवा योग्य छे. आत्म ज्ञान सिवाय मुक्ति प्राप्त करवामां बीजो कोई हेतु नथी. जे कारण थी उत्कृष्ट गुण वाला महापुरुषोए ग्रा प्रमाणे कां छे के जेटला काल पर्यंत या आत्मा कषाय अने विषय नुं सेवन करे छे त्यां सुधी आ प्रात्मा संसार रूप छे. अने आ आत्मा कषाय प्रने विषय रहित थयो छतो आत्म ज्ञान युक्त थाय छे तोज आत्मा नो मोक्ष थाय छे. मूलस्ः ज्ञानं तथा दर्शनकंचरित्र - मात्मंषवाच्योन हिकिञ्चिदस्मात् । भिन्नं यदेतन्मयएवदेह - मेषधितस्तिष्ठतिकर्मनिष्ठः || १८ || गाथार्थ:--ज्ञान, दर्शन अने चारित्र एथी आत्माज छे. एना थी भिन्न कई परण नथी. जेथी कर्म युक्त या आत्मा शरीर मां रहेलो छे. विवेचन :- गुण अने गुणी एकज होय छे अर्थात् गुणी मां गुण रहेला होय छे एटले गुणमय गुणी गणाय छे. ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए श्रात्मा ना गुणो छे. एटले ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए आत्माज छे. आत्मा थी अलग बीजी कोई Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ) वस्तु नथी. जेथी कर्म थी युक्त अने ज्ञानादि मय प्रा आत्मा शरीर मा रहेलो छे. मूलम्प्रात्मानमात्मैषयदाऽभिवेत्ति,मोहक्षयादात्मनिचात्मशक्त्या । तदेवतस्योदितमात्मविद्धि-निंचदृष्टिश्चररांतथाप्तः ॥१९॥ नाथार्थ:-जे काले मोह ना क्षय थी अने प्रात्मा नी शक्ति थी आत्माज आत्मा मां आत्म स्वरूप ने सारी रीते जाणे छे. ते समये आत्म ज्ञानी एवा आत्म पुरुषोए तेनेज ज्ञान, दर्शन अने चारित्र कहेलुं छे. विवेचन:-आत्मा ने सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान अने सम्यक् चारित्र क्यारे होय छे ते बतावतां कहे छ के ज्यारे आ आत्मा मोह ना क्षय थी अने आत्म शक्ति थी एटले आत्म ज्ञान ना बल थी.आत्मा ना स्वरूप ने सारी रीते जाणे छे त्यारेज आत्मज्ञानी अने परम विश्वास पात्र जेमनुं. वचन छे एवा अने विशिष्ट अरिहंत भगवंतो एज ते आत्मा ने सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन अने सम्यक् चारित्र कहेलुं छे. चूलम् :आत्मावबोधेननिवार्यमात्मा-ज्ञानोद्भवंदुःखमनन्तकालिकम् । अनेककष्टाचरणैरपोदं,विनाऽत्मबोधादनिवार्यमस्तियत् ।२०। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) गाथार्थः प्रज्ञान थी उत्पन्न थयेल अनंत काल नुं दुःख श्रात्म ज्ञान थी रोकवा योग्य छे, कारण के आत्म बोध विना अनेक प्रकार ना कष्ट थो साध्य व्यवहारो वड़े पण रोकवा योग्य नथी. विवेचनः- ग्रहियां ग्रात्म बोध नुं केटलुं महत्त्व छे ते जणावे छे. अज्ञानता ना कारणे उत्पन्न थयेल अनंत काल सुधी भोगवाय एवं दुःख अनेक प्रकार ना कष्ट सहन करवा पूर्वक नी प्रवृत्तिोथी आत्म ज्ञान विना रोकी शकाय नथी. तेज दुःख प्रात्म ज्ञान थी जरूर रोकी शकाय छे. मूलम्: चिद्र प श्रात्मायमधिष्ठितस्तनुं कर्मानुभावादसकौ शरीरी । ध्यानाग्निनिदग्ध समस्त कर्मा, स्याच्छुद्धश्रात्मातुतदा निरञ्जनः गाथार्थ:- कर्म ना प्रभाव थी ज्ञान मय एवो आ आत्मा शरीर मां रहेलो छे अने तेथी ते शरीरी कहेवाय छे. ध्यान रूप अग्नि थी समस्त कर्मो बली जवाथी आ ग्रात्मा शुद्ध थाय ने निर्लेप थाय छे. 1 विवेचन :- प्रा आत्मा शरीर धारी केम छे अने शुद्ध केम थाय छे ते बतावतां जणावे छे के कार्मण नामना शरीर ना योगे एटले कर्म ना प्रभावे श्र आत्मा शरीर मां रहे छे अने तेथी तेनी शरीरी एवी संज्ञा आपवामां आवे छे. ए शरीर Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३६५ ) धारी आत्मा जेम अग्नि द्वारा लाकडां बालवामां आवे छे तेम ध्यान रूप अग्नि द्वारा बधा कर्मो रूपी लाकडां बली जवाथी आ पात्मा पोताना शुद्ध स्वरूप ने पामे छे, एटले निर्मल अने निर्लेप थाय छे. मूलम्:इतीयता सिद्ध मिदं विदन्तो! यदात्मबोधान्न परोऽस्तिसिद्धये । हेतुस्ततोऽवयतध्वमध्वनि,येनाऽऽत्मनःस्थानमहोमहोदये ।२२ गाथार्थ:- हे विद्वानो! आटला थी ए सिद्ध थयं के आत्म ज्ञान विना सिद्धि नी प्राप्ति माटे बीजो कोई हेतु नथी. माटे तमो पण एज मार्गे प्रयत्न करो जेथी मोक्ष मां आत्मा नुं स्थान थाय. विवेचन:- जो तमारे मोक्ष मां आत्मां नं स्थान मक्की करवं होय तो ऊपर नी बधी बाबतो विचारतां नक्की थाय छे के आत्मज्ञान विना मोक्ष माटे बोजो कोई मार्ग नथी. माटे तमारे पण मोक्ष मां जq होय तो आत्म ज्ञान मेलववा प्रयत्न करवो जोइये, जेथी तमारा आत्मा हैं मोक्ष मां स्थान थई जाय. मूलम् - मुनीश! साधूदित एष मुक्ते--र्गोि जिनेन्द्रागमयुक्तिमिद्धः । उत्सर्गनोत्सर्गहठाभिमुक्तः,श्रेयःश्रियेकेवलराजयोगात् ॥२३॥ मुक्ति नो सर्वदर्शनानुसारी मार्गः Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) परहियःसर्वमतानुयायो, मार्गोऽस्ति मुक्तेद्तमात्मदृष्टयै । अध्यात्मविद्याधिगमैक हेतुः,समेनिवेद्यःसरलःश्रमविना ॥२४॥ गाथार्थ:-हे मुनीश, तमोए केवल राजयोग थी जिनेन्द्र ना आगम द्वारा तथा युक्ति द्वारा सिद्ध थयेल उत्सर्ग अने अपवाद रूप एकांत हठवाद रहित मोक्ष माटे मोक्ष नो मार्ग सारी रीते कह्यो छे, परन्तु जे मार्ग सरल, सर्व दर्शनानुकूल, श्रम विना जल्दी आत्म ज्ञान थाय अने अध्यात्म ज्ञान मेलववा माटे अद्वितीय कारण रूप होय एवो मोक्ष नो मार्ग बतावो. विवेचन:- हे मुनिवर, जोके तमोए मोक्ष-लक्ष्मी माटे मोक्ष नो जे मार्ग सारी रीते बताव्यो छे, के जे मार्ग केवल राजयोग थी मोक्ष मले तेवो छे. वली अनंत तीर्थकर भगवंतो ना आगम द्वारा अने अनेक प्रकार नी युक्ति प्रयुक्तिमोथी सिद्ध थयेल छे. तेमज तेमां उत्सर्ग अने अपवाद एम बन्ने प्रकार ना एकांत रूप हठवाद रहित स्याद्वाद मय छे. परन्तु जे मार्ग सरल होय, सर्व दर्शनानुकूल होय एटले सर्व धर्मवालानो ने अनुकूल होय अने श्रम विना जल्दी आत्म ज्ञान थाय अने अध्यात्म ज्ञान मेलववा माठे अद्वितीय कारण रूप होय एवो मोक्ष नो मार्ग मने बतावो. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३६७) लम्अहो! त्वदीया खलु सूक्ष्मदृष्टि-यन्मङ क्षु मुक्त्यर्थमयंविचार । चित्तेसमुत्पन्नइयानिदानी,मन्येतदातेऽत्रमनोऽस्तिमुक्त्यै ॥२५॥ गाथार्थ- अरे, तारी सूक्ष्म दृष्टि छ के जेथी जल्दी मुक्ति माटे या विचार तारा चित्त मां उत्पन्न थयो, एथी हुं मानुं छं के तारू चित्त मुक्ति माटे छे. विवेचन:-मुक्ति मां जवान जेनुं मन तलसतुं होय तेनेज मुक्ति माटे ना विचारो आवे छे. मुक्ति नी जिज्ञासाज तत्त्वो नुं सूक्ष्म दृष्टि थी अवलोकन करवानुं मन करावे छे. माटेज अहियां ग्रंथकारे कह्य के तारी तत्त्व नी सूक्ष्म दृष्टि थी विचार करवानी भावना जोतां लागे छे के तारू मन मोक्ष माटे वर्ते छ अर्थात् मुक्ति मां जवानी तारा हृदय मां भावना छे. चूलम्आकरर्णय त्वं मयका निगद्य-मानं मुने ! मुक्तिपथं समर्थम् । सिद्धान्तवेदान्तरहस्यभूतं,गुरूपदेशादधिगम्यकिञ्चित् ।।२६। गाभार्थः हे साधु ! गुरू ना उपदेश थी कइंक जाणी ने माराथी कहेवानो सिद्धांत अने वेदांत ना सार भूत एवो अने समर्थ मोक्ष नो मार्ग तुं सांभल. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) विवेचन - हे साधु ! या मोक्ष नो मार्ग तुं बराबर सांभल. आ मोक्ष नो मार्ग मारी मति - कल्पना थी नथी परन्तु गुरू ना उपदेश थी कई जाणी ने कहुं छं. तेमज मोक्ष तो मार्ग जैन ग्रागम तथा वेदान्त नार सार भूत ने मोक्ष मां लई जवा माटे समर्थ छे. मूलम्: मुक्तिं समिच्छुर्मनुजः पुरस्तात् करोतु चित्तेस विचारमेवम् । आत्माह्ययं योगिभिरेषशुद्धो, बुद्धश्वमुक्तश्च निरञ्जनश्च ||२७| इत्युच्यते तहि तु केन बद्धो, मुक्तस्त्वयं बद्धयत एषकस्मात् । ज्ञातं भ्रमेणेतियमूचुराद्याः, कर्मेति मोहेतिभ्रमेत्यविद्या ||२८|| कर्तेति मायेति गुणेति दैवं, मिथ्येति चाऽज्ञानमितीतिशब्दः । सद्योगिनोमून्निगदन्तितज्ज्ञा, भ्रमं ह्यनेनैवनिबद्धात्मा |२६| गाथार्थ::- मुक्ति नी इच्छा वालो मनुष्य पहेला मन मां ए विचार करे के योगिए श्र आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ग्रने निरंजन कह्यो छे तो मुक्त एवो आत्मा कोनाथी बंधायो छे अने कया कारण थी बंधायो छे. आ विचार करते छते जगाय छे के भ्रम थी बंधायेलो छे. महात्मा पुरुषो प्राने कर्म, मोह, भ्रम, अविद्या, कर्त्ता, माया, गुण, दैव, मिथ्या अने अज्ञान विगेरे शब्दो कहे छे, एटला माठे तत्त्व ज्ञानी एवा श्रेष्ठ योगी कर्मादि शब्दो ने भ्रम कहे छे. ए भ्रम बड़ेज आत्मा बंधायो छे.. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६९ ) विवेचनः हवे ग्रंथकार श्री मोक्ष ना मार्ग नुं वर्णन करे छे के मोक्षाभिलाषी मनुष्ये पहेलां पोताना हृदय मां ए विचार करवो जोइये के प्रा आत्मा वास्तविक रीते तो शुद्ध एटले निर्मल, ज्ञानी, मुक्त एटले दुःख रहित ने निर्लेप छे एम योगी पुरुषोए कहेलुं छे. जो आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अने निर्लेप होय तो कया साधन थी अने कया कारण थी बंधन पामेलो छे ? त्यारे विचार करतां जणाय छे के आत्मा भ्रम, थी बंधायेलो छे. महात्मा पुरुषो ने भ्रम कर्म, मोह भ्रम अविद्या, कर्त्ता, माया, गुण, दैव, मिथ्या अने अज्ञान विगेरे शब्दो थी जरणावे छे. तत्त्वज्ञानी एवा योगी पुरुषो कर्मादि शब्दो ने भ्रम कहे अने आ भ्रम वड़े आत्मा बंधायेलो छे. मूलम् भ्रमोऽत्र मिथ्यानिजकल्पनोत्थितो, येनैवबद्धोनलिनीशुकोयथा । बद्धःपुनर्मर्कटकोऽपितद्वत्, तथैष आत्मा भ्रमतोनिबद्धः ॥३०॥ गाथार्थः - प्रा संसार मां मिथ्या पोतानी कल्पना थी भ्रम पैदा थाय छे, जेना वश थी श्रा जीव नलिनी शुक तथा वांदरा नी माफक बंधन पामेलो छे. विवेचन :- झूठी ग्रेवी पोतानी कल्पना मांथी भ्रम पैदा थाय छे. एवा प्रकार नो भ्रमं एटले मिथ्याज्ञान. मिथ्या ज्ञान थी अनात्मीय वस्तु मां आत्मीय वस्तु मनाय छे. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७० ) जेमके स्त्री, पुत्र, मित्र, माता, पिता, द्रव्य अने शरीर आदि सहवर्ती वस्तुप्रो मां साथे न जनार अने पोतानी न होवा छतां 'पा मारू छे' एवो भ्रम थाय छे. अथवा संसार, शरीर अने बीजी मनोहर वस्तुनो मां राग करवो अने दुष्ट मनोवृत्ति राखवी ए मिथ्या ज्ञान छे. मन मांथी रागद्वेष काढी नाखी समता राखवी एटले वीतरागता नो अनुभव करवो ए सम्यक् ज्ञान छे. ए ऊपर नुं शुक नुं दृष्टान्त जाणवु:-पोपट ने पकड़वा माठे झाड़ ऊपर चक्र गोठववा मां आवे छे. ते चक्र नी कणिका ऊपर एक कारेलु मूके छे. ते कारेलुं पोतानुं लक्ष्य छे. एम भ्रम थी त्यां प्रावी बेसे छे. शुक ना बेसवाथी चक्र भमवा मांडे छे. त्यारे शुक कोइये पकड़ेल नहीं छतां भ्रम थी 'मने कोइये पकड्यो छे अथवा पाश मां नाख्यो छे' एम मानी लई चक्र नी साथे पोते पण भमवा मांडे छे. एटले शंका राख्या वगर ऊड़ी जाय तो मुक्त थाय छे. वांदरा पकडवा माटे पण चणानुं भरेलुं वासण मकवामां आवे छे. त्यां चणा खावा माटे वांदरो आवे छे अने वासण मां हाथ नाखी चणानी मूठी वालवा जाय छे पण वासण नुं मुख सांकडं होवाथी मूठी वालेलो हाथ निकलतो नथी. त्यारे पोताने कोइये पकड़ी लीधो छ एम Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७१ ) मानी 'चीं-चीं' करवा लागे छे एटले पकड़वा वाला आवी तेने बांधी ले छे. पण जो भ्रम राख्या वगर मूठी वालेली छोड़ी दई वांदरी चाल्यो जाय तो बंधन मां आवतो नथी. जेवी रीते पोपट अने वांदरो प्रबद्ध छतां भ्रम थी पोताने बांधला मानी लई बंधाय छे. तेवीज रीते आत्मा परण अनात्मीय वस्तु मां स्वपरणा नी बुद्धि करवाथी बहिरात्मपणे अमुक त्याग करवा योग्य अने अमुक उपादेय एटले आदरवा योग्य एवा विचार रहित थई केवल इन्द्रियोना विषय मां आसक्ति राखवाथी कर्मो वड़े बंधाय छे। अने ज्यारे शरीरादि वस्तु मां अनात्मीयता प्राचरी अंतरात्माथी हेयोपादेय ना विचार पूर्वक विषय सुख थी पराङमुख एटले संसारवर्ती वस्तु मां राग-द्वेष रहित थाय छे. त्यारे ते संसार मां रह्या छतां पण मुक्त थाय छे अने ज्यारे ते तेवी रीते मुक्त थाय छे त्यारे अंतरात्मा एवा तेने केवल ज्ञान प्रगट थवाथी परमात्म दशा प्राप्त थाय छे. मूलम् भ्रमे तु मुक्ते मनसः सकाशा-दात्मैष मुक्तो भवतीतिसिद्धम् । श्रस्मस्तुमुक्तेहिभवेदभेदस्तदात्मनः श्रीपरमात्मनश्च ॥ ३१ ॥ गाथार्थ:-- मन थी भ्रम थी मुक्त थये छते आ आत्मा भ्रम थी रहित थाय छे. भ्रम थी रहित थये छते आत्मा अने परमात्मा नो अभेद थाय छे. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२) विवेचना-प्रात्मा थी भिन्न शरीरादि वस्तु मां मारा पणुं, ममत्व जो दूर थाय तो आ आत्मा भ्रम रहित थाय छे, अने भ्रम रहित थये छते आ आत्मा परमात्मा जेवो थाय छ अर्थात् परमात्मा अने आ आत्मा मां भेद रहेतो नथी. मूलम्: - यदानयो:क्षत एकभावं, योगी तदात्मावगमी निगद्यते । सकेवलज्ञानमयोमुनीश्वरः, कर्मक्रियाभ्रान्तिविमुक्तउक्तः ।३२ गाथार्थः-ज्यारे योगी बन्ने नो एक भाव जुए छे त्यारे ते आत्मज्ञानी कहेवाय छे. त्यारेज ते केवल ज्ञान युक्त अने कर्म, क्रिया अने भ्रान्ति रहित कहेवाय छे. विवेचन:-ज्यारे योगी एटले योग नो अभ्यास करनार आत्मा अने परमात्मा मां एकत्व भाव जुए छे त्यारे ते आत्म ज्ञानी कहेवाय छे. ज्यारे आत्मज्ञानी थाय त्यारेज केवलज्ञान पामे छे अने कर्म, क्रिया अने भ्रान्ति रहित थाय छे. यदा त्वयं मुक्त इति प्रसिद्ध-स्तदा हि सर्वत्र ममत्वमुक्तः । धनं हि कि सैष मनःशरीर-सुखासुखज्ञानविमर्शशून्यः ॥३३॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७३ ) गाथार्थ:-ज्यारे आ आत्मा भ्रम रहित थाय छे त्यारे ते सर्वत्र ममत्व रहित थाय छे. घणुं शुं कहिये ? ए योगी मन, शरीर, सुख, दुःख, ज्ञान अने विचार शून्य थाय छे. विवेचन:-ज्यारे कर्म, क्रिया अने भ्रान्ति रहित थाय छे त्यारे ते योगी सर्व बाजू थी ममत्व रहित थाय छे. वधारे शुं कहिये? अने ममता रहित थवा थी ते योगी मन, वचन, काया अने विचार शून्य थाय छे, एटले तेने मन,वचन, सुख, दुःख, ज्ञान के विचार संबंधी कई पण विचार आवता नथी. मूलम्न पुण्यपापे भवतोऽस्य मुक्तितो,मम क्रियेयं मम चैष कालः । सङ्गोममाऽयंसुकृतंममेद-मित्याधभिवान्मनसोविनिर्जयात् ।३४ गाथार्थः-भ्रम रहित थवाथी योगी ने पुण्य-पाप होतां नथी; तथा 'पा मारी क्रिया, आ मारो समय, आ मारो सहायक अने प्रा मारू पुण्य' एम भेद रहित थाय छे. विवेचन:-भ्रम रहित थवाथी आ योगी ने शं लाभ थाय छे ते जणावतां कहे छे के ज्यारे योगी भ्रान्ति रहित थाय छे त्यारे तेने पुण्य अने पाप होतां नथी. तेमज 'पा मारी क्रिया छे, आ मारो समय छे, या मारो सहायक छ अने आ मारू पुण्य छे' आवा प्रकार नो भेद दूर थाय छे. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) स तावतेहाऽस्तिशरीरधारी,सूक्ष्मक्रियातोऽपिननिष्क्रियोयत् । यावद्यदासूक्ष्मक्रियाऽपिनष्टा,मुक्तस्तदासिद्धयति सिद्धताप्तेः ।३५ गाथार्थः-ते योगी ज्यां सुधी पा संसार मां शरीर धारी होय छे त्यारे सूक्ष्म क्रिया होय छे, एटले निष्क्रिय होतो नथी. ज्यारे सूक्ष्म क्रिया नाश पामेली होय छे त्यारे ते कर्म थी मुक्त थयेल मनाय छे. विवेचनः प्रा योगी पुरुष ज्यां सुधी शरीर धारी होय छे त्यां सुधी सूक्ष्म क्रिया जीव ने होय छे एटले सूक्ष्म मन, सूक्ष्म वचन अने सूक्ष्म काय योग होवा थी सूक्ष्म क्रिया होय छे. एटले ते निष्क्रिय होतो नथी. ज्यारे तेनी सूक्ष्म क्रिया पण नाश पामे छे त्यारे ते कर्म थी मुक्त थाय छे. सिद्धि मां निष्क्रियता:मूलम्:विद्वन्! विमर्शःक्रियतामयंक्रिया-वन्तोऽथवानिष्क्रियकाश्चसिद्धाः चेन्निष्क्रियाज्ञानजदर्शनोत्थ-क्रियाऽक्रियेष्वेषुकथंनसिध्येत् ?।३६ गाथार्श.-हे विद्वान् ! तारा मन मां प्रा विचार कराय छे के सिद्ध ना जीवो क्रिया वाला के क्रिया रहित छे ? ते ो जो निष्क्रिय होय तो सिद्धो मां ज्ञान अने दर्शन थी उत्पन्न थयेल क्रिया केम सिद्ध न थाय ? Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) विवेचन:-हे विद्वान्! तारा मन मां आवो प्रश्न उपस्थित थाय छे के सिद्ध ना जीवो क्रिया वाला छे के क्रिया वगर ना छे ? तेना उत्तर मां जणाववानं के सिद्ध ना जीवो निष्क्रिय एटले क्रिया रहित छे. जो तेश्रो क्रिया रहित होय तो ज्ञान अने दर्शन थी उत्पन्न थती क्रिया थी क्रिया वाला केम सिद्ध न थाय ? चूलम्:सत्यं मुने! ज्ञानजदर्शनोद्भवा,सैषा क्रियासिद्धिगतेषुनास्ति । कथं यतःसैषुयदातुलोके,कवल्यलब्धिःसमभूत्तदानीम् ॥३७॥ गाथार्थ:-हे मुनि ! तारो प्रश्न बराबर छ परन्तु ज्ञानदर्शन थी उत्पन्न थयेली क्रिया सिद्ध थयेल आत्मानो ने होती नथी. केम नथी होती ? तो जणाववान के ज्यारे तेमने केवल ज्ञान थयुं ते प्रसंगे ते क्रिया हती ? विवेचन:-हे मुनि! तें ठीक प्रश्न कर्यो छे. तेना उत्तर मां जणाववान के सिद्ध थया बाद ज्ञान अने दर्शन थी उत्पन्न थयेल क्रिया तेमने होती नथी. तो प्रश्न थाय छे के सिद्धो ने पण केवल ज्ञान अने केवल दर्शन नी क्रिया नों सद्भाव होवा थी तेमने क्रिया केम न होय ? अर्थात् निष्क्रिय केम रह्या छ ? तेना उत्तर मां जणाववानुं के ज्यारे जीव ने केवल ज्ञान थाय छे ते समये जे जाणवा योग्य छे अने Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६) जोवा योग्य हतुं ते जाणी अने जोई लीवू. पछी सिद्धत्व अवस्था मां नवं कई पण जाणता नथी अने जोता पण नथी. कारण के सर्व भूतकाल, वर्तमान काल अने भविष्य काल ना भावो केवल ज्ञान नी प्राप्ति समयेज ज्ञान अने दर्शन थी जाणी अने जोई ले छे. मूलम्:क्रिये इमे द्वे युगपत्समास्तां, ये ज्ञे यदृश्ये इह ते अभूताम् । ततोनृजातौकिलसक्रियत्व-मभूत्तुसिद्धौखलुनिष्क्रियत्वम् ।३८ गाथार्थ:-ज्ञान-दर्शन संबंधी ए बे क्रिया एकज समये थाय छे, कारण के मनुष्य भव मां आ बे क्रियानो होय छे, एटले मनुष्य जन्म मांज बे क्रिया पणुं छे अने सिद्ध अवस्था मां निष्क्रिय पणुं जणावं. विवेचनः-सुगम. नूलम्एवं तु निष्क्रियता प्रसिद्धा, सिद्धषु सिद्धाऽस्त्यव धारणेन । सर्वस्यचैतस्यमनोनिरोधो,हेतुस्ततोऽनौवरमध्वमध्वनि ॥३९। गाथार्थः-या रीते सिद्धो मां निष्क्रियता निश्चय पूर्वक प्रसिद्ध रीते सिद्ध थई. ए सर्व नुं कारण मनोनिरोध छे माठे एज मार्ग मां रमण करो. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ३७७ ) विवेचनः पा रीते मोक्ष मा गयेला आत्मायो मां निष्क्रियता निश्चयरीते सिद्ध थई अने ते प्रसिद्ध छे. तेमज मनना नियन्त्रणथीज आत्मा सिद्ध पद पामे छे. माटे सिद्ध थवा मां मन नो निरोध एज कारण छे. तमो पण एज मार्ग मां एटले मन ने निरोध करवामांज रमण करो. ॥ अथ एकविंशतितमोऽधिकारः ॥ - मन ना निरोध रूप योग मार्ग मां प्रवर्तवानों उपदेश मूलम् :अमुविचारं मुनयः पुरातना,ग्रन्थेषु जग्रन्थुरतीव विस्तृतम् । परं न तत्र द्रतमल्पमेधसा-मैयुगीनानांमतिःप्रसारिणी ॥१॥ मया परप्रेरणपारवश्या-दजानतापीति विधृत्य धृष्टताम् । प्रश्नाव्यतायन्तकियन्तएते,परेणपुष्टाःपठितोत्तरोत्तराः ॥२॥ गाथार्थ -प्रा विचार ने प्राचीन मुनिग्रोए नथ मां घणाज विस्तार थो कहेलो छे. परन्तु प्रा विचार मां आ युग मां उत्पन्न थयेला अल्प बुद्धि वालाप्रो नी बुद्धि जल्दी काम आपती नथी. एथी बीजामोनी प्रेरणा नी परतन्त्रपणा थी अज्ञानी एवा में आ धिठाई करीने बोजाग्रोए पूछेला पा थोड़ा प्रश्नो ना क्रम पूर्वक विस्तार थी उत्तर प्राप्या छे. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७९) विवेचना-हवे ग्रंथकार श्री ग्रंथ बनाववानुं कारण बतावे छे के जैन तत्त्वो नुं विवरण प्राचीन मुनिग्रोए ग्रथो मां घणुंज विस्तार थी प्राप्युं छे परन्तु काल ना प्रभावे अल्प बुद्धि वाला आज ना तत्त्व जिज्ञासुओ नी बुद्धि तत्त्वो ना अर्थ समझवा मां समर्थ थती नथी. एटले अल्प बुद्धि वाला जीवो सहेलाई थी तत्त्वो समझी शके माटे तथा बीजारो नी प्रेरणा ना वश थी अज्ञानी एवा में धृष्टता करीने पण बीजापोए पूछेला प्रा थोड़ा प्रश्नो ना उत्तरो विस्तार पूर्वक आपेला छे. मूलम्:शेवेनकेनाऽपिचजीवकर्मणी, प्राश्रित्यपृच्छाःप्रसभादिमाःकृताः माभूज्जिनाधीशमतावहेले-त्यवेत्यमङ क्षुत्तरितमयैवम् ॥३॥ गाथार्थ - कोई शैवानुयायीए हठ थी जीव अने कर्म संबंधी या प्रश्नो करेला तेथी जिनेश्वर देव ना सिद्धान्त नी अवहेलना न थाय ए प्रमाणे विचारी ने में उक्त रीतिए जल्दी उत्तर प्राप्या. विवेचन-ग्रंथ रचना नो प्रसंग केम उपस्थित थयो ते बतावतां कहे छे के एक समये कोई शिव मत ने माननार आवी ने जीव अनेकर्म संबंधी प्रश्नो पूछवा लाग्यो. त्यारे जिनेश्वर देव ना सिद्धान्त नी अवहेलना न थाय ते Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७६) दृष्टिए विचारी ने जे-जे प्रश्नो तेरणे पूछया तेना ऊपर मुजब में उत्तरो आप्या. मूलम्:यथा यथा तेन हृदुत्थतर्क-माश्रित्य पृच्छाः सहसाऽक्रियन्त । तथा तदुक्तं पुरतो निधाय, मया व्यतार्युत्तरमाहतेन ॥४॥ गाथार्थ:--हृदय मां उत्पन्न थयेल तर्क ने प्राश्रयी ने तेरो जेम जेम साहस पूर्वक प्रश्नो कर्या ते रीते तेनुं कथन आगल राखी ने जैन आगम द्वारा में उत्तरो पाप्या. विवेचन:- तेना हृदय मां जे-जे तर्को उत्पन्न थया ते ते तर्को ने आश्रयी ने तेणे साहस पूर्वक जे जे प्रश्नो कर्या ते मुजब तेनुं कथन पागल राखी जैन आगम ना सिद्धान्त मुजब में उत्तरो आप्या छे. परन्तु मारी मति-कल्पना थी उत्तर प्राप्या नथी, एम सूचन थाय छे. मया त्विदं केवललौकिकोक्ति-प्रसिद्धमाधीयत पष्टशासनम् । पुराणशास्त्राहितबुद्धयस्तु, पुरातनों युक्तिमिहाद्रियन्ताम् ॥५॥ गाथार्थः-प्रश्नोत्तर पद्धति केवल सांसारिक कथन मुजब में करेली छे परन्तु प्राचीन शास्त्राभ्यास थी प्राप्त थयेल बुद्धि वालाप्रो तो मारा विचार मां प्राचीन युक्ति ने घटावे छे. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० ) विवेचन:-महान् पंडितो पुरुषो नी अपेक्षाए पोतानी अल्प बुद्धि छे ते बतावतां कहे छे के आ जैन तत्त्व सार ग्रंथ मां प्रश्नोत्तर पद्धति में केवल सांसारिक कथन मां प्रसिद्ध छे ते मुजब करेली छे. परन्तु प्राचीन शास्त्र ना अभ्यास थी प्राप्त थयेल बुद्धि वालाग्रो मारा कहेल विचारों मां प्राचीन युक्ति ने घटावे छे. मूलम्:परं विचारेऽत्र न गोचरो मे,प्रायेण मुह्यन्ति मनीषिणोऽपि । अमुविना केवलिनंनवक्तु,व्यक्तोऽपिशक्तःसकलश्रुतेक्षी॥६॥ गाथार्थः परन्तु पूर्वे कहेल विचार मां मारो विषय नथी कारण के प्रा बाबत मां प्रायः विद्वानो पण मुंझाय छे. केवल ज्ञानी विना सकल श्रुत ना जोनार प्रगट होवा छतां पण प्रा विचार ने कहेवा ने समर्थ नथी. विवेचन:-जैन तत्त्वो नो सार केटलो गहन छे अने तेनुं केटलुं महत्त्व छे ते बतावतां कहे छे के आ विषयो ना तत्त्वो नुं रहस्य प्रगट कर, ए मारो विषय नथी अर्थात् तेमां मारी बुद्धि काम करी शके तेम नथी. प्रायः विद्वान् पुरुषो पण तेनुं रहस्य प्रगट करवामां मुंझाय छे कारण के केवली भगवंत विना सकल श्रुत ना जाणकार एवाः प्रागमधरो पण ते विचार ने कहेवाने समर्थ नथी. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८१ ) मूलम्श्रतस्तु वैयात्यमिदं मदीय- मुदीक्ष्य दक्षैर्न हसो विधेयः । बालोऽपिपृष्टोनिगदेत्प्रमाणं, वार्धेर्भुजाभ्याम् स्वधियानक वा । ७ नाथार्थः - कारण थी मारी प्रा धिठ्ठाई जोई ने डाह्या पुरुषोए उपहास न करवो कारण के शुं बालक पण पूछवाथी पोतानी बुद्धि वडे बे भुजाओ पहोली करी समुद्र ना प्रमाण ने नथी बतावतो ? अर्थात् बतावे छे. विवेचन :- ग्राटलो गहन विषय जैन तत्त्वनो होवा छतां तमोए ए प्रवृत्ति केम करी ? तेना जवाब मां जगावे छे के खरेखर आ तत्त्वोनो विचार दर्शाववो ते मारी बुद्धि ना बहार नो विषय होवा छतां पण धिठ्ठाई करीने आ काम कर्यु, तो विद्वानोए मारो उपहास न करवो. शुभ काम मां थोडो पण प्रयत्न दरेके पोतानी शक्ति अनुसार करवो जोइये. तेथीज प्रा प्रयत्न में शक्ति बहार नी वात होवा छतां कर्यो छे. शुं बालक पोतानी बे भुजाओ पहोली करीने पोतानी बुद्धि वडे समुद्र नुं प्रमाण पूछवाथी नथी बतावतो ? अर्थात् बतावेज छे. मूलम् यद्वेदमेवाल्पधियां समस्तु, शास्त्रं यतः शासनमस्त्यथास्मात् । यदुक्तिप्रत्युक्तिनिर्यु क्तियुक्तं, तद्वाभियुक्ताः प्ररणयन्तिशास्त्रम् ॥८ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२ ) नाथार्थ:छे. शासन करे ते :- अल्प बुद्धि वालाओ माटे माटे मारू या शास्त्र शास्त्र शास्त्र शब्द नी व्युत्पत्ति थी अल्प बुद्धि वाला ना संबंध थी मारू या कथन पण शास्त्र छे. उक्ति, प्रयुक्ति ने नियुक्ति युक्त प्रश्नोत्तर पूर्वक कथन ने शास्त्र - प्रवीणो शास्त्र कहे छे. विवेचनः - सुगम. मूलम् : यद्वास्तिपूर्वेष्वखिलोऽपि वरर्गा- नुयोग एतन्न्यगदन्विदांवराः । इयं तदावर्णपरम्पराऽपि तत्राऽस्ति तच्छास्त्रमिदं भवत्वपि || गाथार्थः - अथवा पंडित प्रवरो चौद पूर्वी मां सर्व पण अक्षरो नुं अनुयोजन करे छे, तो मारी पण या कहेली वर्ण परंपरा छे तेथी मारू कथन परण शास्त्र छे. विवेचनः - अनंत ज्ञानी जिनेश्वर देवो मुख थी उपन्नेइवा, विगमेइवा ने धुव्वेइया ए त्ररण पदो सांभली गणधर भगवंतो प्राचारांग, सूय गडांग, ठाणांग, समवायांग, भगवतीजी, ज्ञाता धर्मकथा, उपासक दशांग प्रांतगड़सूत्र, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्न व्याकरण, विपाक सूत्र ने दृष्टिवाद एम बार अंगोनी रचना करे छे. ए दृष्टिवाद मां पूर्व नामनो एक विभाग छे. तेमां चौद पूर्वो बतावेल छे. ए चौद पूर्वो मां सर्व अक्षरो ना सर्व संयोगो थता होय तेटला अक्षरो Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८३ ) नुं जोडारण छे, एम पंडित पुरुषो कहे छे. तेम मारा आ कथन नी पण वर्ण परंपरा होवाथी तेने पण शास्त्र कहेवाय छे. मूलम्: ग्रानन्दनायास्तिक नास्तिकानां, ममोद्यमोऽयं सफलोऽस्तु सर्वः । श्राद्यषुचाऽऽस्तिक्यगुरण प्रसाररणादन्त्येषुनास्तिक्यगुरणापसारणात् गाथार्थ:-प्रास्तिक ने नास्तिक लोकोना आनंद माटे आ मारो सर्व प्रयत्न सफल छे. आस्तिको ने विषे श्रास्तिक्य गुण नो विस्तार करवाथी अने नास्तिको ने विषे नास्तिक्य गुण दूर करवाथी मारो उद्यम सफल छे. विवेचन :- मारो ग्रंथ बनाववानो सर्व प्रयत्न सफल छे, कारण के आ ग्रंथ बनाववा थी आस्तिको ने पण आनंद थयो अने नास्तिको ने पण आनंद थयो. प्र ग्रंथ बनाववा थी बन्ने ने आनंद केम थयो ? अने प्रयत्न सफल केम थयो ? तेना जवाब मां जणाववानुं के आ ग्रंथ बनाववाथी प्रास्तिको ने प्रास्तिक्य गुण नो विस्तार थयो अने जे नास्तिको छे तेमनो नास्तिक्य गुण दूर थयो. माटे बन्ने ने आनंद थयो अने तेथी मारो सर्व प्रयत्न सफल थयों. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) मूलम्:चिरं विचारं परिचिन्वताऽमु,यन्न्यूनमन्यूनमवादि वादतः । कदाग्रहाद्वाभ्रमसम्भ्रमाभ्याम्,तन्मेमृषादुष्कृतमस्तुवस्तुतः।११ गाथार्थ:-श्रा विचार ने दीर्घ काल पर्यंत संग्रह करता माराथी वादथी, हठवाद थी अथवा भ्रम अने संभ्रम थी जे कई अोछं वधारे को होय ते मारू दुष्कत तत्त्व थी मिथ्या थारो. विवेचन:-अहियां नथकार श्री पोतानी पाप भीरूता बतावे छे के जगत मां अनेक प्रकार नां पापो मां जिनेश्वर देवे बतावेल तत्त्वो थी विरुद्ध वोलq ते उत्सूत्र प्ररूपणा कहेवाय छे. ते उत्सूत्र प्ररूपणा रूप पाप वधारे भयंकर छे. बीजां पापो थी पाप करनार एकज डुबे छे परन्तु उत्सूत्र बोलनार अनेक ने डूबाड़े छे माटे या ग्रंथ रचतां क्यांय पण शास्त्र विरूद्ध न कहेवाई जाय तेथी ग्रंथकार श्री कहे छे के पा नथ बनावतां लांबा समय पर्यंत माराथी वादना कारण थी, कदाग्रह थी अथवा मति ना संभ्रम थी विगेरे कोई पण कारणो थी जे कई शास्त्र विरुद्ध अोछ वधारे कांहोय ते मारूं पाप मिथ्या थालो. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८५) मूलम्मयाजिनाधीशवचस्सु तन्वता,श्रद्धानमेवंयउपाजिसज्जनाः!। धर्मस्तदेतेन निरस्तकर्मा,निर्मातशर्माऽस्तुजनःसमस्तः ॥१२॥ गाथार्थ:-हे सज्जनो ! जिनेश्वर देव ना वचनो ने विषे श्रद्धा ने विस्तारता एवा में जे कई पुण्य-धर्म उपार्जन कयु होय ते बड़े समस्त लोक कर्म रहित अने सुखी थानो.. विवेचन:-में आ ग्रंथ एटला माटे बनाव्यो छे के ते ग्रंथ भरणतां अने सांभलतां लोको जिनेश्वर देव ना वचन प्रत्ये श्रद्धा वाला बने. आ मारी भावना होवाथी जिनेश्वर देवो ना वचनो मां श्रद्धा विस्तारवा पा ग्रंथ में बनाव्यो छे. प्रा ग्रंथ द्वारा जिनेश्वर देवो ना वचनो मां श्रद्धा विस्तारता जे कई पुण्य अथवा धर्म उपार्जन कर्यो होय तेनुं फल मारे जोइतुं नथी परन्तु तेना द्वारा बधा जीवो कर्म रहित अने सुखी थानो. वरतरखरतरगरणधरयुगवर-जिनराजसूरिसाम्राज्ये । तत्पट्टाचार्यश्रीजिन-सागरसूरिषु महत्सु ॥१३॥ अमरसरसि वरनगरे, श्री शीतलनाथलब्धिसान्निध्यात् । ग्रन्थोऽग्रन्थि समर्थः, सुविदेऽयं सूरचन्द्र ग ॥१४॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) गाथार्थ:-अतिशय श्रेष्ठ खरतर गच्छ ना धारक युग प्रधान जिनराज सूरि ना साम्राज्य मां तेमना पट्टधर श्री ज़िनसागर सूरि होते छते अमर सर नामना श्रेष्ठ नगर मां श्री शीतलनाथ प्रभु ना सानिध्य मां सूरचंद्र नामना में ज्ञान माटे आ समर्थ ग्रंथ बनाव्यो. विवेचन:-सुगम. चूलमश्रीमत्खरतरवरगरण-सूरगिरिसुरशाखिसन्निभः समभूत् । जिनभद्रसूरिराजो-सिमः प्रकाण्डोऽभवत्तत्र ॥१५॥ श्रीमेरूसुन्दरगुरुः, पाठकमुख्यस्ततो बभूवाऽथ । तत्र महीयः शाखा-प्रायः श्रीक्षान्तिमन्दिरकः ॥१६॥ ताकिकऋषभा अभवन्, हर्षप्रियपाठकाः प्रतिलताभाः । तस्यां समभूवनिह, सुरभिततरुमञ्जरी तुल्याः ॥१७॥ चारित्रोदयवाचक-दामानस्तेष्वभुः फलसमानाः । श्रीवीरकलशसुगुरवो, गीतार्थाः परमसंविग्नाः ॥१८॥ तेभ्यो वयं भवामो, बीजाभास्तत्र सूरचन्द्रोऽहं । गरिगपद्मवल्लभपटु-द्वितीयीको गुरुभ्राता ॥१६॥ अस्मतु होरसार-प्रमुखा अङकुरकरणयः सन्ति । तेऽपि फलन्तु फलौधः सुशिष्य-रूपैः प्रमापटुभिः ॥२०॥ नाथार्थः- वंशावली:--ऐश्वर्य युक्त श्रेष्ठ खरतरगच्छ नामनो गच्छ मेरू पर्वत ऊपर ऊगेला कल्प वक्ष समान Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८७ ) थयो. ते कल्प वृक्ष मां श्री जिनभद्र सूरिवर अद्वितीय स्कंध समान हता. ते स्कंध ने विषे मोटी शाला तुल्य पाठको मां मुख्य श्री अने क्षमा ना स्थान रूप श्री मेरू सुन्दर गुरु हता. तेमां प्रति शाखा समान नैयायिको मां श्रेष्ठ एवा हर्ष पाठक अने प्रिय पाठक थया. या संसार मां श्रीया चरित्र वाचक अने उदय वाचक नामना बे आचार्यो सुगंध वाला वृक्ष नी मंजरी तुल्य थया. नूतन पत्र थी उत्पन्न थयेल केसरो ने विषे गीतार्थ अने परम संवेगवाला श्री वोर कलश नामना श्रेष्ठ गुरु फल समान शोभवा लाग्या. तेमां बीज समान असे विद्यमान छीये. तेमां सूरचन्द्र नामनो हुं छं. तेमां बीजो गुरु भाई चतुर एवो पद्मवल्लभ गरिण छे. अमारा थी हीर सार विगेरे अंकुरा समान छे. अंकुरा समान हीर सार विगेरे पण ज्ञान वडे चतुर एवा सुन्दर शिष्यो रूप फल ना समूह वडे फल युक्त थाओ. विवेचनः– सुगम. मूलम् : तेनासुको वाचकसूरचन्द्र-नाम्ना रसज्ञाफलमित्यमिच्छता । ग्रन्थोऽभितोऽग्रन्थिमयास्वकीया-न्यदीय चेतः स्थिरतोपसम्पदे । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८९) गाथार्थ:-ए प्रकारे जीभ ना फल ने इच्छता एवा पूर्वे कहेल वंश मां थयेल सूरचंद्र नामना में पोताना मन नी स्थिरता रूप संपत्ति माटे या ग्रंथ सारी रीते बनाव्यो छे. विवेचन-सुगम. एवंयथाशेमुषि जैनतत्व-सासे, मयाऽस्मारि मनःप्रसत्त्ये। उत्सूत्रमासूत्रितमात्र क्रिश्चिद्,यत्तद्विशोध्यंसुविशुद्धधीभिः ।२२ गाथार्थ:--ए प्रमाणे पोतानी बुद्धि अनुसार में जैन तत्त्व सार नामनो ग्रंथ मारा मन नी प्रसन्नता माटे याद कर्यो छे. एमां सूत्र विरुद्ध कइं पण रचायुं होय ते अति निर्मल बुद्धि वालाप्रोए शुद्ध करवो जोइये. विवेचनः-सुगम. वर्षे नन्दतुरङ्गचन्दिरकलामानेऽश्वयुक्परिणमा, ज्ञे योगे विजयेऽहमेतममलं पूर्ण व्यधामादरात् । ग्रन्थं वाचकसूरचन्द्रविबुधः प्रश्नोत्तरालङ कृतम्, साहाय्याद्वरपद्मवल्लभगणेरर्हत्प्रसादश्रियै ॥२३॥ गाथार्थ:-विक्रम संवत् १६७६ ना पासो सुद पूनम, बुधवार, विजय योग मांः वाचक सूरचंद्र पंडित एवा में Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८६) श्रेष्ठ पद्मवल्लभगणिनी सहाय थी आ शुद्ध प्रश्नोत्तर थी अलंकृत एवो ग्रंथः अरिहंत भगवंत ना प्रसाद रूप लक्ष्मी माटे आदर पूर्वक कर्यो छे. विवेचन:- सुगम. अनुवादकस्तस्य प्रशस्तिश्च श्री कलिकाल कल्पतरु मनो वांछित पूरक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवत्परम कृपया अचिन्त्यचिन्तामणि श्री नवपदाराधना मङ्गलमय प्रसंगे श्री महाराष्ट्र देश मध्ये सोलापुर नगरे श्री प्रथम तीर्थपति श्री आदीश्वर भगवत्सानिध्ये प० पू० कच्छवागड़ देशोद्धारक चमत्कारी महापुरुष स्व०. दादा श्रीमद् जितविजयजी महाराजस्य शिष्य रत्न प० पू० प्रशान्तमूत्ति स्व० श्रीमद् बुद्धि विजयजी महाराजस्य गुरु भ्राता प० पू० समयज्ञ गणनायक स्व० पंन्यास प्रवर श्रीमत् तिलकविजयजी गणिवरस्य विनेय श्री रत्नशेखरसूरिणा चंद्रतत्त्वखनयन वैक्रमीय संवत्सरे अश्वयुक् पूणिमायां (शरत् पूर्णिमायां) सोम वासरे कुमार योगे विजयमुहूर्ते श्री जैनतत्त्व सार ग्रन्थस्य गुर्जरानुवादः कृतः। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) अस्य ग्रन्थस्य गुर्जरानुवादे मतिमंदेन जिनागम विरूद्ध मया किञ्चिदपि लिखितं तन्मृषा दुष्कृतं मम. अयं ग्रन्थ सर्व जीवानाम् मोक्ष मार्ग को भवतु, कल्याणं भवतु । गाथार्थ - श्री कलिकाल कल्पतरु मनोवांछित पूरक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान नी परम कृपा थी अचिन्त्य चिन्तामणि श्री नवपदजी नी आराधना ना मंगलमय प्रसंगे श्री महाराष्ट्र देशे सोलापुर नगरे श्री प्रथम तीर्थपति श्री आदीश्वर भगवंत ना सानिध्ये प०पू० कच्छ वागड़ देशोद्धारक चमत्कारी महापुरुष स्व० दादा श्रीमद् जितविजयजी महाराजा ना शिष्य रत्न प०पू०प्रशांत मूर्ति स्व० श्रीमद् हीर विजयजी महाराजा ना शिष्य रत्न प०पू० भद्र स्वभावी स्व० श्रीमद् बुद्धिविजयजी महाराजा ना गुरु भ्राता प०पू० समयज्ञ गणनायक स्व० पंन्यास प्रवर श्रीमत् तिलक विजयजी गणिवर ना विनेय श्री रत्नशेखर सूरिए वि०सं० २०३१ ना आसो सुद १५ ना सोमवारे कुमार योगे विजय मुहूर्ते आ नथ नो गुजराती अनुवाद कर्यो छे. आ ग्रंथ नो गुजराती अनुवाद करतां मतिमंदता ना कारणे जिनागम विरुद्ध माराथी कई पण लखायुं होय तो तेनो मिच्छामि दुक्कडं दऊ छ अने प्रा नथ सर्व जीवो ने मोक्ष मार्ग दर्शक बनो एवी भावना साथे विरमुं छं. - कल्याणं भवतु - Page #402 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