Book Title: Jain Tattva Darshan Part 03
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 15
________________ 5. शिखा : सिद्धशिला गुण उजली, लोकांते भगवंत । वसिया तिणे कारण भवि, शिरशिखा पूजंत ।। 5 ।। । उज्ज्वल स्फटिक वाली सिद्धशिला के ऊपर लोकांत भाग में आप जा बसे हैं, अत: मुझे भी वह स्थान प्राप्त हो, इस भावना से मैं आपकी शिखा की पूजा करता हूँ। 6. ललाट: तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ।। 6 ।। हे प्रभु ! आप तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से तीन लोक में पूज्य बनने से तीन लोक के तिलक समान हो, इसलिये आपके भाल में तिलक कर मैं भी अपना भाग्य आजमाना चाहता हूँ। 7. कंठ: सोल प्रहर प्रभु देशना, कंठे विवर वर्तुल । मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ।। हे प्रभु! आपने सतत 16 प्रहर तक मधुर ध्वनि से देशना दी। देव मनुष्य ने वह देशना सुनी । आपकी कंठ पूजा के प्रभाव से मुझे भी सत्पुरुषों के गुणगान करने का सौभाग्य प्राप्त हो। 8. हृदय : हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वनखंड ने, हृदय तिलक संतोष ।। 8 ।। हे प्रभु ! जिस प्रकार हिम (बर्फ) वनखंड को जला देता है, उसी प्रकार आपने हृदय कमल के उपशम भावरूपी बर्फ (करा) से राग-द्वेष रूपी वनखंड को जला दिया है। आपके ऐसे हृदय की पूजा से मुझे जीवन में संतोष गुण की प्राप्ति हो। 9. नाभि: रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विसराम । नाभि कमल नी पूजना, करतां अविचल धाम ।। 9 ।। हे प्रभु ! ज्ञान-दर्शन चारित्र से उज्जवल बनी, सकल सद्गुणों के निधान स्वरूप आपके नाभि कमल की पूजा से मुझे अविचल धाम अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। नवअंग का महत्व उपदेशक नव तत्त्वना, तिणे नव अंग जिणंद । पूजो बहुविध राग थी, कहे शुभवीर मुणिंद ।। 10 ।। प्रभु ने नवतत्त्वों का उपदेश दिया। इसलिये प्रभु के नवअंग की पूजा बहुमानपूर्वक करनी चाहिये। प्रभु की पूजा से अपने अंदर नव तत्त्वों के हेयोपादेय का ज्ञान होता है। 13 Fea

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