Book Title: Jain Stotra Puja Path Sangraha
Author(s): Veer Pustak Bhandar Jaipur
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 419
________________ ( १८६ ) सस्थान कहो सम चतुस्थान, संहनन सूत्र मे छै बखान | १५ | सपरस के भेद सु प्राठ वीर, रस पांच प्रकारसु लखौ धीर । दो गन्ध वररणके पांच भेद, पूर्वीय अगुरलघु अपसु खेद | १६ | परघात लखौ-तप श्ररु प्रकाश + उस्वास गमन जानो प्रकाश उपभोग देत लख इक शरीर, जानो सु प्रत्येक शरीर वीर१७ जस सुभग सु सुस्वरशुभ स्वरूप, सूक्षम पर्याप्त सुथिर अनूप । श्रादेय स्वयश कीरति निहार, लख इतर सहितदश प्रकृतिसार तीथंङ्कर गोत्र करो विचार, यह नामकर्म ब्यालीस सार । १२ ऊचो अरु नीचो गोत्र दोय, अब अन्तरायको भेद जोय१९ १३ मुनिदान लाभ भोगोपभोग, वीर्यान्तराय पद पाच जोग । १४ ज्ञानावरण सो तीन जान, श्ररु अन्तरायको जोग मान । २० थिति कोडाकोडी तीस लेउ, सेनी पर्चेन्द्रिय परयाप्त भेउ । १५ सत्तर कोडाफोडी निहार, तिथि मोहनिकर्म हियेसु धार । २१ सोरठा-१६कोडा कोडी बीस, नाम गोत्र इस्थिति कही । १७प्रायुकर्म तेतीस, थिति उत्कृष्टी जानियो ॥ २२ ॥ सवैय्या १८ जघन्य थिति है बारह मुहरत, वेदनिकर्म कही श्रुतमाहीं । १६ नाम रु गौत्रको पाठ मुहूरत, २०शेषकी प्रन्तर्मुहूर्त कहाई २१कर्मउदय सविपाक कहो, सोई अनुभव नामको भाव बनायो २२यथानाम विधि अनुभवसोई, सोई फल श्रुतमे इमि गायो२३ २३ जाकर्म उदयको भोग भयो, इक देश ता कर्मको नाश कहायो श्रातप + उद्योत । * अपघात

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