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जिनेन्द्र और पंचगुरु भक्ति का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है । एक दोहा इस प्रकार है :
" जो जिरगसासरण भासियउ सो भइ कहियउ सारु । जो पाले सइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु ||"
इसमें प्रयुक्त शब्द रूप, विभत्ति और धातुरूप प्रायः सभी देश-भाषा के हैं । देश - भाषा को ही प्राचीन हिन्दी कहते हैं । यह भाषा ही आगे चलकर विकसित हिन्दी के रूप में परिणत हुई । श्राचार्य हेमचन्द्र ने अपभ्रंश और देश-भाषा में अन्तर स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। अपभ्रंश, देश-भाषा अथवा प्राचीन हिन्दी नहीं है । इसी कारण स्वयंम्भू (वि० सं० ६ वीं शताब्दी) के 'पउमचरिउ' और पुष्पदन्त ( वि० सं० १०२९) के, महापुराण' को हिन्दी के ग्रन्थों में नहीं गिना जा सकता । इनमें बिखरे हुए कुछ स्थल देश-भाषा के हैं, किन्तु वे अल्प ही हैं । पुष्पदन्त से ४० वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्द का कथाकोष देश-भाषा में लिखा गया है। इसकी अधिकांश कथाये जिनेन्द्र - भक्ति से सम्बंधित हैं । ईसा को ११वीं सदी के धनपाल की 'श्रुत पंचमीकथा' में भी देश-भाषा का ही प्रयोग हुआ है | श्रुत पंचमी' का मूलस्वर जिन भक्ति से युक्त है । तेहरवीं शताब्दी के प्रारम्भ के कवि विनयचन्द्र सूरि ने "नेमिनाथचउपई" का निर्माण किया था । नेमिनाथ के वैराग्य लेने पर, उनके वियोग में राजीमती विलाप करती है । इस "चउपई" में उनका वियोग वर्णन दिखलाया गया है । एक दृष्टांत देखिये :
"मणइ सखी राजल मन रोई, नीठुरु नेमि न अप्परगु होई । सांचेउ सखि वरि गिरि भिज्जंति, किमइ न भिज्जइ सामलकंति । ।"
विनयचन्द्र सूरि के समकालीन शालिभद्रसूरि के 'बाहुबलि रास' में अप का प्रयोग हुआ है । श्री जिनदत्तसूरि (वि० सं० १२७४) के "उपदेशरसायन रास" में गुरुभक्ति के अनेक दृष्टांत हैं, किन्तु उसकी भाषा देश-भाषा नहीं है, वह दुरुह प्रपत्र का निदर्शन है। श्री जिनपद्मसूरि का "थूलिमद्दफाग" श्राचार्य स्थूलभद्र की भक्ति में लिखा गया है । आचार्य स्थूलिभद्र भद्रबाहु स्वामी के समकालीन थे । उनका निर्वाणस्थल, गुलजारबाग, पटना स्टेशन के सामने कमलदह में बना हुआ है । यह रचना भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उत्तम है । भाषा हिन्दी के प्रारम्भिक रूप को लिए हुए है । ऐसे सरस फागों की
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