Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 211
________________ मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ता भक्ति पहले के प्राचार्यों ने 'शान्ति' को साहित्य में अनिर्वचनीय मानन्द का विधायक नहीं माना था, किन्तु पण्डितराज के अकाट्य तर्कों ने उसे भी रस के पद पर प्रतिष्ठित किया। तब से अभी तक उसकी गणना रसों में होती चली मा रही है। उसे मिलाकर नौ रस माने जाते हैं। जैनाचार्यों ने भी इन्हीं नौ रसों को स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने 'शृगार' के स्थान पर शान्त को 'रसराज' माना है। उनका कथन है कि अनिर्वचनीय आनन्द की सच्ची अनुभूति, रागद्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जाने पर ही होती है। रागद्वेष से सम्बन्धित अन्य पाठ रसों के स्थायी भावों से उत्पन्न हुए आनन्द में वह गहरापन नहीं होता, जो शान्त में पाया जाता है । स्थायी आनन्द की दृष्टि से तो शान्त ही एक मात्र रस है। कवि बनारसीदास ने 'नवमों सान्त रसनिको नायक' ' माना है। उन्होंने तो आठ रसों का अन्तर्भाव भी शान्तरस में ही किया है। डॉ० भगवान् १. प्रथम सिंगार वीर दूजो रस, तीजी रस करुना सुखदायक । हास्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम, छटठम रस बीमच्छ विमायक ।। सप्तम भय अट्ठम रस अद्भुत, .. नवमो सान्त रसनिको नायक । ए नव रस एई नव नाटक, जो जहँ मगन सोई तिहि लायक ।। नाटक समयसार; पं० बुद्धिलाल श्रावक की टीका सहित, जैन ग्रन्यरत्नाकर कार्यालय; बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ । TAMATTA-TARVASNA 5555555SKAI 55कर

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