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दक्षिणके तीर्थक्षेत्र
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हैं । इस कार्य में उन्होंने बीस हजार द्रव्य उत्साह से खर्च किया है । ये पुण्यवन्त सात क्षेत्रोंका पोषण करते हैं । पण्डितप्रिय, बहुमानी और सज्जन हैं । प्रति वर्ष माघकी पूनों को गोम्मटस्वामीका एकसौ आठ कलशोंसे पंचामृत अभिषेक करते हैं । बड़ी भारी रथयात्रा होती है । गोम्मटस्वामी श्रीरंगपट्टणसे बारह कोसपर हैं, जो बाहुबलिका लोकप्रसिद्ध नाम है । जैनमतके अनुयायी चामुण्डरायने यह तीर्थ स्थापित किया था । पर्वतके ऊपर अनुमान ६० हाथकी कायोत्सर्ग मुद्रावाली यह मूर्ति है । पास ही बिलगोल ( श्रवणबेलगोल ) गाँव है । पर्वतपर दो और शेष ग्राममें इक्कीस मिलाकर सब २३ मन्दिर हैं । चन्द्रगुप्तराय ( चन्द्रगुप्त बस्ति ) नामक मन्दिर भद्रबाहु गुरु के अनशन ( समाधिमरण ) का स्थान है । गच्छके स्वामीका नाम चारुकीर्ति ( भट्टारक पट्टाचार्य ) है । उनके अनुयायी श्रावक बहुत धनी और गुणी हैं | देवको सात गाँव लगे हुए हैं, जिनसे सात हजारकी आमदनी है | दक्षिणका यह तीर्थराज कलियुग में उत्पन्न हुआ है !
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इसके आगे कनकगिरि है जिसका विस्तार पाव कोस है और जिसमें चन्द्रप्रेभस्वामीकी देवी ज्वालामालिनी है ।
१ कनकगिरि मलेयूरका प्राचीन नाम है । यह ग्राम मैसूर राज्यके चामराजनगर तालुकर्मे है । प्राचीन कालमें यह जैन- तीर्थ के रूपमें प्रसिद्ध था और एक महत्त्वपूर्ण स्थान गिना जाता था । कलगिरि ग्राम में सरोवर के तटपर शक संवत् ८३१ का एक शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि परमानदी कोंगुणि वर्माके राज्य में कनकगिरि तीर्थपर जैनमन्दिरके लिए श्री कनकसेन भट्टारककी सेवामें दान दिया गया । ( देखो मद्रास और मैसूरके प्राचीन जैन-स्मारक । ) यहाँ पहले एक जैन मठ भी था, जो अब श्रवणबेलगोलके अन्तर्गत है । कनकगिरिपर बीसों शिलालेख मिले हैं । शक १५९६ के एक लेखमें इसे ' हेमाद्रि' लिखा है जो कनकगिरिका ही पर्यायवाची है । शक सं० १७३५ में यहाँ देशीय गणके अग्रणी और सिद्धसिंहासनेश भट्टाकलंकने समाधिपूर्वक स्वर्ग-लाभ किया ।
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१ - सन् १४०० ( वि० सं० १४५७ ) के एक शिलालेखसे मालूम होता है कि शुभचन्द्रदेव ने इस पर्वतपर चन्द्रप्रभस्वामीकी प्रतिमा स्थापित की थी । शीलविजयजीने शायद इन्हीं चन्द्रप्रभस्वामीका उल्लेख किया है । दशभक्त्यादि महाशास्त्र के कत्ती मुनि वर्द्धमानने कनकाचल या कनकगिरिके श्रीपार्श्वनाथ देवकी स्तुति की है । इससे शायद वहाँके मूल नायक पार्श्वनाथ रहे हों ।