Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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पंचकर
शांतिनाथना.
रसर
सुखसार ॥१॥ जयजय जगचिंतामणी, जयजय जगदाधार; प्रभु तीर्थ प्रगटावीएं, द्यो भवि सुख निरधार ॥२॥ करुणाकर काने सुणी, देव कहीजें वाण; वरसी दान दीए तदा, समय काल तस जाण॥३॥
ढाल-कोइ ल्यो पखत धूंधलोरे लोल ॥ ए दे शी ॥ वरसी दान दीए घणुं रे लाल, त्रण सय अठासी रसाल रे हुं वारिलाल ॥१॥ दान संवत्सरी दीजिये रे लाल ॥ आंकणी ॥ अन्न धन्न वस्त्र औषधी घणि रे लाल, मांगे ते आपे अपार रे हूं. वारिलाल ॥ राज्यथा निजनंदने रे लाल, संयम भावना धार रे ९० वारिलाल ॥ दान० ॥ २॥ संसारासार सारज नथी रे लाल, जन्म मरण| दुःख पेख रे हुं० वारिलाल ॥ मघवादिक सवि देवता रे लाल, अवधी ज्ञानें तस देख रे ९० वारिलाल ॥ दान०॥३॥ क्षीरसमुद्र पद्म द्रहना रे लाल, लावे भरी भरी नीर रे हुं० वारिलाल ॥ अंगे |चंदन विलेपतां रे लाल, पहेरतां प्रभु शुचि चीर रे हूं. वारिलाल ॥ दान० ॥ ४ ॥ भूषणें अंगअति दीपतां रे लाल, सुंदर सवि सिणगार रे १० वारिलाल ॥ सहस्स पुरुष वहे शीबिका रे लाल, चामर छत्र ध्वज सार रे हुं० वारिलाल ॥ दान०॥ ५॥ अष्ट मंगल आगल वहे रे लाल, झल्लरी
॥
५
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अर-स
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