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मैन पाठावली)
एक रीति से शुभयोग और अशुभयोग आश्रव का कारण ! है तो दूसरी रीति से आत्मा की कषायमय स्थिति त्वन्ध का कारण है ऐसा कहा जा सकता है ।।
आठ कर्म का विस्तार (१) ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियां:
ज्ञान पाँच है-मति, श्रुत, अवधि, मन पर्याय और केवल । इन पाचो पर आवरण होता है इसलिए ज्ञानावरणीय के पाँच भेद हो जाते है, वे निम्न प्रकार है
(१) मति अर्थात् आत्मानलक्षी बुद्धि का विकास, ऐसे विकास को रोकने वाला कर्म' मतिज्ञानावरणीय' है।। - .. (२) श्रुत अर्थात् सच्चा शास्त्रज्ञान । ऐसे ज्ञान को जो
नहीं होने दे, वह 'श्रुतज्ञानावरणीय' है । = (३) अवधि अर्थात् मूर्त पदार्थों का आत्मानुलक्षी ज्ञान, उसको नही होने दे वह 'अवधिज्ञानावरणीय' है।
(४) मन पर्यायज्ञान-सज्ञी जीवो के मन के भावो को जानने वाला ज्ञान, ऐसे ज्ञान को जो कर्म नही होने दे, वह 'मन पर्यायज्ञानावरणीय' है _ (५) केवलज्ञान-सपूर्ण ज्ञान, इसको जो प्रकट नही होने दे, वह केवलज्ञातावरणीय' कर्म है ।
इनमे से प्रथम तीन सम्यक्त्वी आत्मा मे हो सकते है। चोथा ज्ञान अन्तरग साधुता वाले सयमी पुरुष को ही हो । सकता है, एव केवलज्ञान वीतरागी ही प्राप्त कर सकता है ।।