Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 460
________________ संयत] ११२७, जैन-लक्षणावली [संयम के पुद्गलों को शरीररूप करना, इसका नाम करने को संयतवापरावर्तन कहा जाता है । संमूर्छन जन्म है। संयतासंयत-देखो विरताविरत । १. द्विविषयविरसंयत--१. पंचसमिदो तिगुत्तो पचेन्दिय संबुडो त्यविरतिपरिणतः संयतासंयत: ।xxx तद्योग्यया जिदकसानो । दसण-णाणसमग्गो समणो सो संजदो (सयमलब्धियोग्यया) प्राणीन्द्रियविषयया विरताभणिदो ॥ (प्रव. सा. ३-४०) । २. 'सम्' एकीभा- विरतवृत्त्या परिणतः संयतासंयत इत्याख्यायते । वेनाहिंसादिषु यतः प्रयत्नवान सयतः । (दशव. नि. (त. वा. ६, १, १६) । २. संयताश्च ते अयताश्च हरि. व. १५८)। ३. सं सम्यग यता: विरता: संयताः। संयतासंयताः । (धव. पु. १, पृ. १७३) । ३. पाक(धव. पु. १. पृ. १७५)। ४. संयच्छन्ति स्म क्षयात् कषायाणामप्रत्याख्याननिरोधिनाम् । विरतासर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगूपरमन्ति स्म अर्थात निर- विरतो जीवः सयतासंयतः स्मृतः ।। (त. सा. २, वद्ययोगेष चारित्रपरिणामस्फातिहेतुष वर्तन्त इति २२)। ४. स्थावरधाती जीवस्त्रससंरक्षी विशुद्धसंयता: xxx हिंसादिपापस्थाननिवता इत्यर्थः। परिणामः । योऽक्षविषयान्निवृत्तः स संयतासंयतो (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१६) । ज्ञेयः ॥ (अमित. श्रा. ६-५)। ५. यस्त्राता त्रस१ जो साध पांच समितियों से सम्पन्न, तीन कायानां हिंसिता स्थावराङ्गिनाम् । अपक्वाष्टगप्तियों से परिपूर्ण, पांचों इन्द्रियों का विजेता, कषायोऽसौ संयतासंयतो मतः ॥ (पंचसं. अमित. कषाय पर विजय प्राप्त करने वाला तथा दर्शन, ज्ञान १-२४)। ६. हिंसादीनां देशतो निवृत्ताः संयताएवं चारित्र से सम्पूर्ण होता है उसे संयत कहा संयता: । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१६, पृ. ५३५) । जाता है। २ जो अहिसा प्रादि के परिपालन में १जो जीव प्राणी और इन्द्रिय उभयविषयक विरति प्रयत्नशील रहता है वह संयत कहलाता है। और अविरति से परिणत है उसे संयतासंयत कहा संयतकायपरावर्तन - भूमिस्पर्शलक्षणावनति- जाता है। ६ जो हिंसादिक पापों से देशतः निवृत्त क्रियाबन्दनामदात्यायन पूनरुत्थितस्य मुक्ताशक्ति- होते हैं वे संयतासंयत कहलाते हैं। मुद्राकृतहस्तद्वयपरिभ्रमणत्रयं संयतकायपरावर्त- संयतीदोष-तिनीवत् पटेन शरीरमाच्छाद्य नम्। (अन. ध. स्वो. टी. ८-८८)। स्थानं सयतीदोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३, भूमि के स्पर्शस्वरूप नमस्कारक्रिया रूप वन्दना- १३०)। मुद्रा को छोड़कर उठते हुए मुक्ताशुक्तिमुद्रा में वतिनी के समान शरीर को वस्त्र से प्राच्छादित जो दोनों हाथों को तीन बार घुमाया जाता है, करके स्थित होना, यह संयतीदोष का लक्षण है। इसे संयतकायपरावर्तन कहते हैं। संयम-१. वय-समिदि-कसायाणं दंडाणं इंदियाण । संयतमनःपरावर्तन-सामायिकदण्डकस्यादौ क्रि- पंचण्हं । धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जो संजमो याविज्ञापनविकल्पत्यागेन तदुच्चारणं प्रति मनसः भणियो।। (प्रा. पंचसं. १-१२७; धव. पु. १, प्रणिधानं संयतमनःपरावर्तनमुच्यते । (अन. ध. १४५ उद्.; गो. जी. ४६५) । २. प्राणीन्द्रियेष्वस्वो. टी. ८-८८)। शुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । (स. सि. ६-१२) । सामायिकदण्डक के प्रारम्भ में क्रियाविज्ञापन के ३. योगनिग्रहः सयमः । (त. भा. ६-६) । ४. सं. विकल्प को छोड़कर उसके उच्चारण के प्रति मन जमो नाम उवरमो, रागहोसविरहियस्य एगिभावे को स्थिर करना, इसे संयतमनःपरावर्तन कहा भवइत्ति। (दशवं. चू. पृ. १५) । ५. प्राणीन्द्रिजाता है। येष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः। प्राणिष्वेकेन्द्रियादिषु संयतवापरावर्तन --चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करो- चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु च अशुभप्रवृत्तेविरतिः सयम मीत्याधुच्चारणविरामेण ‘णमो अरहताणं' इत्याधु- इति निश्चीयते । (त. वा. ६, १२, ६); व्रतच्चारणकरणं संयतवापरावर्तनम् । (अन. प. स्वो. समिति-कषाय-दण्डेन्द्रियधारणानुवर्तन-निग्रह-त्यागटी. ८-८८)। जयलक्षणः संयमःXXXI(त. वा. ६, ७, ११)। 'चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमि' इत्यादि उच्चारण ६. पाश्रवद्वारोपरमः । (दशवं. सू. हरि. बृ. १-१, पृ. को छोड़कर णमो प्ररहंताणं' इत्यादि के उच्चारण २१) । ७. संयमनं संयमः विषय-कषाययोरुपरमः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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