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: ५७३ : श्री जैन दिवाकरजी महाराज की गुरु-परम्पारा श्री जैन दिवाकर-स्मृति-कान्य
पूज्य श्री शिवलालजी महाराज
श्री चतुर्भजजी महाराज
श्री हर्षचन्द्र जी महाराज
श्री लालचन्दजी महाराज
श्री राजमलजी महाराज (आपका शिष्य परिवार वर्तमान में बहुत विस्तृत है)
श्री केवलचन्दजी महाराज (बड़े) श्री केवलचन्दजी महाराज (छोटे)
आचार्य श्री उदयसागरजी महाराज
आचार्य श्री चौथमलजी महाराज
श्री रतनचन्दजी महाराज (आपके लगभग २७ शिष्य-प्रशिष्य हुए)
आचार्य श्री मन्नालालजी महाराज
पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज
आचार्य श्री खूबचन्दजी महाराज
आचार्य श्री सहसमलजी महाराज पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज के समय में अर्थात् विक्रम सं० १८७८ कंजार्डा गांव में दयारामजी भंडारी के घर में पुत्र रत्न का जन्म हुआ। जिनका नाम रत्नचन्द रखा गया। बालक की शिक्षा के पश्चात् इन्हीं रतनचन्दजी का इन्दौर रियासत में बड़कुआ निवासी गुलराजजी पटवारी की सुपुत्री राजकँवर के साथ विवाह सम्बन्ध हुआ।
वि. सं० १९०३ में प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम जवाहरलाल रखा गया। वि०सं० १६०६ आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी में द्वितीय पुत्र उत्पन्न हआ जिनका नाम हीरालाल रखा गया और वि०सं० १६१२ भाद्रपद शुक्ला छठ सोमवार को तृतीय पुत्र उत्पन्न हुआ जिनका नाम नन्दलाल रखा गया।
सं० १९१४ विद्वद्वर मुनिश्री राजमल जी महाराज का शिष्य मंडली सहित कंजार्डा में पधारना हुआ । उनकी अमृत वाणी सुनकर रतनचन्दजी को वैराग्य जागृत हुआ। उन्होंने दीक्षा लेने का विचार अपनी पत्नी राजकंवर और साले देवीचन्दजी के सामने रखे । अनेक उत्तर प्रत्युत्तर होने के पश्चात् ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी सं० १६१४ के पवित्र दिन राजमलजी महाराज के पास श्री रतनचन्दजी व श्री देवीचन्द जी दोनों ने संयम स्वीकार किया। इन दोनों के संयम के समय मगनमलजी सोनी और हीरालालजी पटवा को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया था।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् दोनों मुनियों ने पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज की सम्प्रदाय के अपने गुरुश्री राजमलजी महाराज से जैनागम तथा आत्मबोध का अच्छा ज्ञान प्राप्त
किया।
विक्रम सं० १६१६ को भावी पूज्य पं० मुनि श्री चौथमलजी महाराज अपने शिष्य समुदाय के साथ कंजार्डा पधारे । जिनका सारगर्भित प्रवचन सुनकर जवाहरलालजी के हृदय में गहरा प्रभाव पड़ा । जिन्होंने जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया।
उनकी मातेश्वरी को इस प्रत्याख्यान का पता लगा, तब पुत्र को भांति-भांति से समझाया।
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