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अजीव तत्व-पुद्गल द्रव्य / 99
इसी को युग भी कह सकते हैं।
इन दोनों कालों में सुख, दुःख, शरीर की ऊंचाई, आयु आदि में हीनाधिकता होती रहती है। अतः उनकी तरतमता की दृष्टि से दोनों के छह-छह भेद किए गए हैं। इस प्रकार परा यग अर्थात कालचक्र बारह विभागो में विभाजित हो जाता है। उत्सर्पिणी काल चंकि दुःख से सुख की ओर बढ़ता है। अतः उसके छह भेद हैं क्रमशः
1. दुःखमा-दुःखमा 2. दुःखमा 3. दुःखमा-सुखमा 4. सुखमा-दुःखमा 5. सुखमा 6. सुखमा-सुखमा।
अवसर्पिणी नामक काल ठीक इसके विपरीत है। यह सुख से दुःख की ओर जाता है अत: उसके छह विभाग हैं
1. सुखमा-सुखमा 2. सुखमा 3. सुखमा-दुःखमा 4. दुःखमा-सुखमा 5. दुःखमा 6. दुःखमा-दुःखमा।
इन छह कालों में जिनका दो बार उल्लेख है, वह सुख अथवा दुःख की उत्कृष्टता का प्रतीक है। एक बार कहना मध्यम अंश है तथा जो शब्द पहले हैं, उस काल में उसकी अधिकता होती है अर्थात् सुखमा-दुःखमा काल में सुख की अधिकता तथा दुःख की न्यूनता होती है तथा दुःखमा-सुखमा में दुःख की अधिकता के साथ सुख की न्यूनता होती है।
1. सुखमा-सुखमा-इस काल में सुख ही सुख होता है। यह काल भोग-प्रधान होता है। मनुष्यों को अपने जीवन-निर्वाह के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। सारी आवश्यकताओं की पर्ति प्राकतिक कल्प-वक्षों से होती है। इस काल में नर-नारी युगल रूप से जन्म लेते हैं तथा अपने जीवन के अंत काल में युगल पुत्र-पुत्रियों को जन्म देकर स्वर्गवासी हो जाते हैं। इनकी आयु एवं शरीर की ऊंचाई काफी अधिक रहती है।
2. सुखमा-सुखमा-सुखमा काल की तरह यह काल भी भोग-प्रधान होता है। इस काल में भी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कल्प-वृक्षों से ही होती है। नर-नारी युगल रूप मे रहते हैं किंतु इनके मुख, आयु और शरीर की ऊंचाई मे पूर्व की अपेक्षा कुछ कमी हो जाती है।
3. सुखमा-दुःखमा यह भी भोग-युग कहलाता है। पूर्व की तरह नर-नारी युगल रूप से ही जन्म लेते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति कल्प-वृक्षों में होती रहती है किंतु पूर्व की अपेक्षा इनके सुखों में और कमी आ जाती है। शरीर की ऊंचाई तथा आयु भी घटकर कम हो जाती है। ये तीनों काल भोग काल कहलाते हैं। इस काल में मनुष्यों को खेती-बाड़ी आदि कर्म नहीं करना पड़ता है। जीवन का प्रमुख आधार प्राकृतिक कल्प-वृक्ष ही होते हैं। इस युग में न धर्म होता है.न अधर्म ।
4. दुःखमा-सुखमा इस काल में प्राकृतिक संपदाएं प्रायः लुप्त हो जाती हैं। मनुष्यों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति/जीवन-निर्वाह के लिए खेती आदि कर्म करने पड़ते हैं। इसलिए इस युग से कर्म युग प्रारंभ हो जाता है । नर-नारी अब युगल रूप से जन्म नहीं लेते, न ही कल्प-वृक्षों से आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है। इस हेतु मनुष्यों को कुछ कर्म करना पड़ता है। इसी काल से ही विवाह आदि कार्य प्रारंभ हो जाते हैं, समाज व्यवस्था बनती है तथा राज्य के संचालन के लिए राजा-महाराजा भी बनते हैं। यद्यपि कर्म करने से