Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
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Page 156
________________ PRIORYXNXX.Z8 martGXX ( 147 ) यता तथा दक्षता गुण की प्राप्ति हो जाती है। यव्य-हे भगवन् ! क्षण क्षण में क्या करना चाहिए ? हैं शिष्य! प्रत्येक क्षण धर्मध्यानपूर्वक व्यतीत करना जिससे आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो सके / दिनचर्या त्रिचर्या समय विभाग कर के व्यतीत करनी चाहिए, जसस शानावरणीयादि कमों का क्षय हो जाए | ज्ञानाधरणीपद कमां के क्षयोपशम होने से भी श्रात्मा निज कल्याण करने में समर्थ हो जाता है। शिप्य-ध्यान सवरयोग का क्या अर्थ है ? गुरु-शिप्य ! 'ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः' अर्थात् जिस का ध्यान ही संघरयोग है उसी को ध्यान संवर। योग' कहते हैं। सारांश इतना ही है कि योगों को ध्यान और संबर में ही लगाने से स्वकार्यसिद्धि हो सकती है। शिप्य-भगवन् ! मारणांतिक कों के सहारने से किस गुण की प्राप्ति हो सकती है ? गुरु-हे भद्र ! धर्म की रक्षा के लिये मारणांतिक करों के सहने से निज स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है तथा अमीट कार्य की सिद्धि हो जाती है। शिष्य-हे भगवन् ! कुसग त्यागने मे फिस गुण की माप्ति होती है ? पु. गुम-हे शिप्य ! फुसंग त्यागन से स्नुसंग की प्राप्ति हो / स हो जानी 6 यात्मा सदनुष्ठान में लगा रहता है। कारण फि फुसंग दोष अंगार (फोयले ) के समान है / यदि अंगार उम्ण होगा तय तो शरीर के अवयवों को भस्म फर मामTNEERIORITama-SITERANया ATTATRODHA IITRAKCEERINEER (m-CID Ime

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