Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
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Page 182
________________ ALKATAARAarmanart ROM mirmireoxRXXXRECORREXI ( 173 ) पराधीनेषु नास्ति शर्मसंपत्तिः 77 __ अर्थ-पराधीन पुरुषों के सुख और संपत्ति नहीं ठहर सकती मार्जारेषु दुग्धरक्षणमिव नियोगेषु विश्वासकरणम् 78 / अर्थ-जिस प्रकार दुग्ध की रक्षा के लिये रखे हुए माजोर दुग्ध की भली प्रकार रक्षा नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार नियोगियों के विषय में भी (गुमास्ते श्रादि) जानना चाहिए अर्थात् वे मार्जारवत् होते हैं। कोशो हि भूपतीनां जीवितं न प्राणाः 76 कोशो राजेत्युच्यते न भूपतीनां शरीरम् 80 यस्य हस्ते द्रव्यं स जयति 81 अर्थ-राजाओं का जीवन कोप ही होता है नतु प्राण / कोष ही राजा कहा जाता है नतु राजाओं का शरीर राजा / जिस के हाथ में धन होता है, उसी की जय होती है। यः सम्पदीव विपद्यपि मेद्यति तन्मित्रम् 82 अर्थ-जो संपत् दशा के समान ही विपत्ति काल में स्नेह है करता है, वास्तव में वही मित्र है। यः कारणमन्तरेण रच्यो रक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम् 83 अर्थ-जो कारण के विना ही रक्षा करता है वह नित्य मित्र होता है। जो सम्बन्धि होते हैं वे सहज मित्र होते हैं। जो अपने स्वार्थ के लिये मित्रता रखता हो वह कृत्रिम मित्र

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