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पाँचवाँ अध्याय
वक्तव्य इतना स्पष्ट है कि भाष्यकारने जो नन्दीसूत्र के अर्थ बदलने की चेष्टा की है वह व्यर्थ ही गई है । नन्दसूत्र में (१) यह बात स्पष्ट है कि व्यञ्जनवग्रह में अव्यक्त रस का ग्रहण होता है जब कि अर्थवग्रह में रस का ग्रहण होता है ।
वर्तमान मान्यताओं के अनुसार व्यञनावग्रह का लक्षण ऊपर दिया है । विशेषावश्यक में उसका समन्वय नहीं होता इस लिये व्यञ्जनावग्रह का स्वरूप भी दूसरा ही है । वे कहते (२) हैं
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"जिस प्रकार दीपक से घड़ा प्रगट होता है उसी प्रकार जिसके द्वारा अर्थ प्रगट हो उसे व्यंजन कहते हैं । उपकरण इंद्रिय और शब्दादि परिणत पुद्गलों का सम्बन्ध व्यंजन है । इंद्रिय, अर्थ और इन्द्रियार्थसंयोग तीनोंही व्यंजन कहलाते हैं । इनका ग्रहण करना व्यंजन (वग्रह है । यद्यपि व्यंजनावग्रह में ज्ञान का अनुभव नहीं होता तो भी वह ज्ञान का कारण होने से ज्ञान कहलाता
नठ्ठे, एवं पक्खिमाणं पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जेणं तं महगं रावहि इचि, होही जेठाहिति, मारिहिति पवाहेहिति एवामेव पविखव्यमाणेह पक्खिप्पमाणेहिं अणतेहिं जाहे तं वंजणं पृरिअं होई ताहे 'हुं' ति करेई । नन्दीसूत्र | ३५
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१ से जहानामगे केइ पुरिसे अव्यक्तं रसं आसाइज्जा तेणं रसत्ति उग्गहिए । ३५ । नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने विशेषावश्यक का अनुकरण करके नन्दीसूत्र के अर्थ बदलने की चेष्टा की हैं, परन्तु यह अनुचित है ।
२ वंजिज्जइ जेणत्थो घडोव्व दीवेण परिणयदच्वसम्बन्धो । १९४ | अण्णाण सो
वंजणं तं च । उवगरणिदियसद्दाह बहिराहणं व तक्कालमनुव लम्माओ ।
न तदते तचोच्चिय उवलंभाओ तओ नाणं । १९५ । तक्कालम्मिवि नाणं तत्थत्थि तणुं ति तो तमव्वत्तं । बहिराईणं पुण सो अन्नाणं तदुभयाभावा ।