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पाचवा अध्याय
की अपेक्षा से है।
वर्तमान में मनःपर्ययज्ञान के विषय में जो मान्यता प्रचलित है उससे इसका स्पष्टीकरण नहीं होता । दूसरे के मनको जानना ही यदि मनःपर्यय हो तो यह काम अवधिज्ञान भी करता है । इसके लिये इतने बड़े संयमी तपस्वी और ऋद्धिधारी होने की कोई ज़रूरत नहीं है, जो कि मनःपर्यय की प्राप्ति में अनिवार्य शर्त बतलाई जाती है । इसलिये मनःपर्यय का विषय ऐसा होना चाहिये जिसके संयम के साथ अनिवार्य सम्बन्ध हो ।
विचार करने से मालूम होता है कि मनःपर्यय ज्ञान मानसभावों के ज्ञान को ही कहते हैं किन्तु उसका मुख्य विषय दूसरे के मनोभावों की अपेक्षा अपने ही मनोभाव हैं।।
प्रश्न-अपने मनोभावों का ज्ञान तो हरएक को होता है। इसमें विशेषता क्या है, जिससे इसे मनःपर्यय कहा जाय ?
उत्तर-कलाई के ऊपर अंगुलियाँ जमाकर हरएक आदमी जान सकता है कि नाड़ी चल रही है परन्तु किस प्रकार की नाडीगति किसरोग की सूचना देती है इसका ठीक ठीक ज्ञान चतुर वैध ही कर सकता है । यह परिज्ञान नाड़ी की गति का अनुभव करने वाले रोगी को भी नहीं होता । भावों के विषय में भी यही बात है । अपनी समझसे कोई भी मनुष्य बुरा काम नहीं करता फिर भी प्रायः प्रत्येक प्राणी सदा अगणित बुराइयां करता ही रहता है । अगर वह मानता है कि यह कार्य पुरा है तो भी