Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/१४
रहा कि अपनी प्रिय पुत्री अंजना का शुभ-विवाह आपके सुपुत्र पवनकुमार के साथ कर दूँ, क्या आप मेरी इस विनम्र प्रार्थना को स्वीकार करने की कृपा करेंगे ?"
इस बात को सुनकर राजा प्रहलाद बोले - “हे राजन् ! यह तो मेरे पुत्र का महान भाग्य है कि उसे अंजना जैसी सुशील जीवन संगिनी प्राप्त हो रही है। आप इस सम्बन्ध को पक्का ही समझिये । "
इस प्रकार अंजना एवं पवनकुमार का सम्बन्ध तो निश्चित हो गया, तीन दिन पश्चात् उसी मानसरोवर पर विवाह होना भी तय हो गया । अंजना के अद्भुत सौन्दर्य से कुमार पवन अपरिचित न थे, अतः वे उसे देखने के लिये अत्यन्त व्यग्र हो उठे, तीन दिन के विरह को भी सहन करने में वे अपने को असमर्थ पा रहे थे, यही चिन्तन उनके हृदय में चल रहा था कि कब अंजना को देखूँ ?
अत्यन्त व्यग्र होकर उन्होंने यह बात अपने अन्तरंग मित्र प्रहस्त से कही - "हे मित्र ! तुम्हारे अतिरिक्त यह बात मैं अन्य किससे कहूँ ? जैसे बालक अपना दुख माता से, शिष्य गुरु से, किसान राजा से एवं रोगी वैद्य से कहता है । उसी प्रकार बुद्धिमान अपने मित्र से कहता है - यही समझकर मैं अपने मन की बात तुमसे कहता हूँ - “हे मित्र ! राजा महेन्द्र की पुत्री अंजना को देखे बिना मुझे चैन नहीं है । "
कुमार की व्यग्रतापूर्ण बात को सुनकर प्रहस्त मुस्करा उठा । रात्रि होते ही दोनों मित्र विमान द्वारा अंजना के महल में पहुँच गये। झरोखे में छुपकर अंजना के सौन्दर्य को देखने से कुमार को अत्यधिक हर्ष हुआ ।
उस समय सात मंजिले महल में अंजना अपनी सखियों सहित बैठी हुयी थी, तब अंजना की बुद्धिमान सखी वसन्तमाला कहने लगी“हे सखी ! तुम धन्य हो, तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हारे पिता ने पवनकुमार जैसा जीवन-साथी तुम्हारे लिये चुना, पवनकुमार महापराक्रमी भव्यात्मा हैं । "
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