________________ 10 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी जा सकता है / इस दृष्टि से द्वादशाङ्ग गणिपिटक भी अनादि है परन्तु भाषा की दृष्टि सेद्वादशाङ्गकोभीअनादि नहीं कहा जा सकता, तब जोद्वादशाङ्ग गणिपिटक में बतलाया गया है वह नमस्कार-महामन्त्र अनादि कैसे? जैन आचार्यों ने वेदों की अपौरुषेयता का खण्डन करते हुए बतलाया है कि कोई भी शब्दों पर आधारित ग्रन्थ अपौरुषेय नहीं हो सकता / जो भी वाङ्मय है वह सब मनुष्य के प्रयत्नसाध्य है और जो प्रयत्नसाध्य होता है वह अनादि नहीं हो सकता / नमस्कार-मन्त्र भी वाङ्मय का एक अंश है / अतः वह अनादि नहीं माना जा सकता / परमेष्ठी एक अथवा पाँच : नमस्कार-महामन्त्र जिस रूप में हमें प्राप्त होता है वह उसी रूप में भगवान् महावीर के समय तथा उससे भी पूर्व पार्श्वनाथ आदि तीर्थकरों के समय उपलब्ध था अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है, फिर भी इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भगवान् महावीर के समय में 'णमो सिद्धाणं ' यह पद तो अवश्य ही प्रचलित था, कारण कि जब भगवान् महावीर स्वामी दीक्षित हुए तब उन्होंने स्वयं सिद्धों को नमस्कार किया था। पञ्च परमेष्ठी: आवश्यकनियुक्ति में 'पञ्च-परभेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करनी चाहिए' इस पर बल दिया गया है / इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि आवश्यकसूत्र की रचना के समय परमेष्ठी पांच मान लिए गए होंगे। दूसरे, भगवान् महावीर के समय में आचार्य और उपाध्याय की व्यवस्था दृष्टिगोचर नहीं होती किन्तु जबसे आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का महत्त्व बढ़ गया तभी से उन्हें भी नमस्कार-मन्त्र में स्वतन्त्र स्थान दे दिया गया / इस तरह परमेष्ठी पांच ही सिद्ध होते हैं / अरहन्त के प्रतिनिधि आचार्य और उपाध्याय : परमेष्ठी शब्द अरहन्त का वाचक है / यह पूर्व व्याख्यान में स्पष्ट हो गया है और अरहन्त की परिणति सिद्ध रूप में होती है / अतः अरहन्त और सिद्ध ये दो परमेष्ठी तो स्वयं ही सिद्ध हैं परन्तु यहां यह प्रश्न विचारणीय है कि आचार्य, उपाध्याय और साधु को परमेष्ठी क्यों मान लिया गया? यहां जैनों का स्पष्ट कथन है कि आचार्य और उपाध्याय अरहन्तों के प्रतिनिधि हैं / अरहन्तों की अनुपस्थिति में उनका कार्य आचार्य और उपाध्याय 1. सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ / आयारचूला, 15. 32 2. कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाईयंति सोऽभिहितो।।आ०नि०, गा० 1027