Book Title: Jain Darshan Me Panch Parmeshthi
Author(s): Jagmahendra Sinh Rana
Publisher: Nirmal Publications

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Page 255
________________ साधु परमेष्ठी 219 1. अरमणीय उपाश्रय : अरमणीय अर्थात् जो रमणीय एवं सुसज्जित न हो / जो स्थान मन को लुभाने वाला है, चित्रों से सुशोभित है,पुष्पमाला एवं, सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित है, सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जि है, सुन्दर दरवाजे एवं किवाड़ों से युक्त है, वह साधु के निवास योग्य नहीं है क्योंकि ऐसे स्थान में रहने से कामराग बढ़ता है जिससे इन्द्रियनिरोध दुष्कर हो जाता है।' 2. असंकीर्ण उपाश्रय : असंकीर्ण अर्थात् जो स्त्री, पशु आदि से संकीर्ण न हो। स्त्री, पशु-पक्षी आदि से संकीर्ण स्थान में रहने पर उनकी कामचेष्टाएं देखने व सुनने से मानसिक विकार उत्पन्न होते है जिससे ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में कठिनाई होती है। अतः साधु को ऐसे स्थान पर ठहरना चाहिए जो स्त्री, पशु आदि के आवागमन से रहित हो। 3. जीवोत्पत्तिसम्भावना रहित : साधु के ठहरने का स्थान व वसति जीवादिसे उत्पन्न होने की संभावना से रहित होना चाहिए। यदि साधु ऐसे स्थान पर रहता है जहां क्षुद्र जीवों के उत्पन्न होने की संभावना है तो वहां अहिंसा महाव्रत के पालन में बाधा आ सकती है। अतः जीवादि के उत्पन्न होने की संभावना से रहित प्रासुक स्थान ही साधु के ठहरने के योग्य होता है। 4. अलिप्त उपाश्रय : अलिप्त से तात्पर्य है कि जो उपाश्रय गोबरादि से उपलिप्त न हो तथा बीजादिरहित हो। जो स्थान साधु के लिए लीप-पोत कर तैयार किया गया है तथा जो अंकुरोत्पादक बीजों से युक्त है, ऐसे स्थान पर ठहरने से साधु को हिंसा का दोष लगता है। अतः जो साधु के निमित्त से लीप-पोतकर साफ न किया गया हो ऐसे ही स्थान पर साधु को ठहरना चाहिए। 5. एकान्तस्थल : साधु ऐसे स्थान पर ठहरे जो नगर से बाहर लोगों के घनिष्ठ सम्पर्क से 1. मणोहरं चित्तहरं मल्लधुवेण वासियं / सकवाडं पण्डुरुल्लोयं मणसा विन पत्थए / / इन्दियाणि उ भिक्षुस्स तारिसम्मि उवस्सए / दुक्कराई निवारेउं कामरागविवड्डणे / / वही. 35.4-5 2. फासुयम्मि अणाबाहे इत्थीति अणमिददुए। तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए / / उ० 35.7. तथा दे० वही, 30.28 फासूए सिज्जसंथारे। वही, 23.4 तथा दे०-आयारो, 8.6.106 4. विविक्तलयणाइ भएज्जताई निरोवलेवाइअसंथडाइं / उ० 21.22

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