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आचार्य चरितावली
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सामने रखनी आवश्यक हुई तब हमने समझा कि लोकतंत्र को कैसी महिमा होती है । भीनासर-परिषद् का समय प्राय ऐसे ही चला गया । कुछ प्रमुख प्रश्न ऐसे उलझे कि उनका निर्णय करना असंभव हो गया । किसी तरह सघ में विघटन न हो जाय और जैसे तैसे कार्यवाही पूरी कर के विदा हो ले, इसी मे श्रेय समझा गया ।
|| लावणी ||
यंत्र समस्या ने तनाव कर दीना, बिगड़ी स्थिति मे निर्णय मोगम कोना । परम्परा नही, फिर भी जो बोलेगा, शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त लेना होगा । खुला समझ बोले श्रातुर व्रतधारी || लेकर ० ।। १८६ ।।
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श्रर्थ - पण्डित समर्थमालजी महाराज को सघ मे मिलाने का यह अन्तिम अवसर समझ कर भीनासर सम्मेलन के लिये उनको विशेष रूप से ग्रामन्त्रण दिया गया था। यहां तक भी कहा गया कि यदि आप सघ मे मिलते हों तो आपकी सब वाते मजूर की जा सकती है । परन्तु वे भी वडे कुशल निकले । सब कार्यवाहो देख सुनकर भी तटस्थ रह गये । यंत्र समस्या ने राजस्थान और पंजाब के दो मच खडे कर दिये, वात को किनारे लाने के लिये मुनिमंडल ने प्रथम निर्णय किया कि यह प्रश्न राज - स्थान का नही है । जहा की समस्या है उस प्रान्त के मुनि राज मिलकर अपना निर्णय करे | परन्तु महासभा के शिष्ट मंडल द्वारा यह निवेदन करने पर कि श्रमण संघ का एक ही निर्णय होना चाहिये, अन्यथा संघ दो भागों में विभक्त हो जायगा । वाद विवाद के पश्चात् एक गोल-मोल निर्णय निम्न प्रकार से किया गया - "ध्वनियत्र मे बोलना साधु - मर्यादा के विरुद्ध है पर कभी ग्रपवादरूप में विवश हो वोलना पडे तो प्रायश्चित लेना होगा ।" प्रस्ताव को भापा ऐसी रखी गई कि इससे वचात्र का रास्ता मान लिया गया । अपवाद रूप से वोला गया तो प्रायश्चित्त लना जरूरी होगा । इस प्रकार प्रस्ताव मे नियन्त्रण होने पर भी वोलने की प्रातुरता से कुछ सन्तो ने छूट समझकर उसको चालू कर दिया ।..
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