Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 73
________________ [ ६१ ] है। पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं, इस लिये ऊपर के पाच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। ६ काल-छठा द्रव्य 'काल' है । यह काल पदार्थ कल्पित है-औपचारिक द्रव्य है। अतभाव में तनाव का ज्ञान यह उपचार कहलाता है। मुहूर्त, दिन, रात, महीना, वर्ष ये सब काल के विभाग किये गये हैं। असभूत क्षणों को बुद्धि मे उपस्थित करके ये विभाग किये हुए हैं। बीता समय नष्ट हुआ और भविष्य का समय अभी असत् है, तब चालू समय अर्थात् वर्तमानक्षण यही सद्भूत काल है। इस पर से इस बात का आप स्वयं विचार कर सकते हैं कि एक क्षणमात्र काल में प्रदेश की कल्पना हो नहीं सकती और इस लिये 'काल. के साथ 'अस्तिकाय' का प्रयोग नहीं किया जाता। जैनशास्त्रों में काल के मुख्य दो विभाग किये गये हैं। १ उत्सर्पिणी और २ अवसर्पिणी। जिस समय में रूपरस-गंध-स्पर्श इन चारों की क्रमशः वृद्धि होती है, वह उत्सपिणी काल है, और जब इन चारों पदार्थों का क्रमशः हास होता है वह अवसर्पिणी काल है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल मे भी छः-छ. विभाग हैं। जिनको आरा कहते हैं। अर्थात् एक कालचक्र में उत्सर्पिणी के १-२-३-४-५-६ इस क्रम से आरे आते हैं, और अवसर्पिणी मे इससे उलटे अर्थात् ६-५-४

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