Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 72
________________ [ ६० ] ४ पुद्गलास्तिकाय--परमाणु से लेकर यावत् स्थूल या अतिस्थूल-तमाम रूपी पदार्थ पुद्गल है इसके १ स्कन्ध, २ देश, ३ प्रदेश, और ४ परमाणु-ये चार भेद हैं। प्रदेश और परमाणु मे विशेष अन्तर नहीं है। जो अविभाज्य (जिसका दूसरा भाग न हो सके) भाग दूसरे भागों के साथ मिला रहे उसे प्रदेश कहते हैं, और वही अविभाज्यभाग जुदा हो तो उसे परमाणु कहते हैं। ५ जीवास्तिकाय--जीवास्तिकाय का लक्षण इस प्रकार है : यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसद्म परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ कर्मों को करनेवाला, कर्म के फलों को भोगनेवाला, कर्मानुसार शुभाशुभ गति में जानेवाला तथा सम्यग्ज्ञानादि के कारण कर्मों के समूह को नाश करनेवाला आत्मा-जीव है। इसके सिवाय जीव का दूसरा कोई स्वरूप नहीं है। उपर्युक्त पांचों द्रव्यों मे 'अस्तिकाय' शब्द जोडा गया है। इसका अर्थ यह है कि:-अस्ति-प्रदेश और काय-समूह । जिसमे प्रदेशों का समूह हो उसे अस्तिकाय कहते हैं। धर्म, अधर्म और जीव, इनके असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश के दो भेद-लोकाकाश और अलोकाकाश है। इन मे से लोकाकाश असंख्यात प्रदेश वाला और अलोकाकाश अनन्त प्रदेश वाला

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