Book Title: Hindi Gujarati Dhatukosha
Author(s): Raghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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हिन्दी - गुजराती धातुकोश
संभव नहीं हो सकता. फिर यह भी आवश्यक नहीं कि प्रत्येक प्रातिपदिक को धातुमूलक सिद्ध किया ही जा सकता है.
डा. वर्मा का ' व्याकरण की दाशर्निक भूमिका' ग्रंथ भर्तृहरि पर आधारित है. इन्होंने धातु को अव्यावहारिक बताकर इस ख्याल की शास्त्रीय चर्चा की है. कुछ उदाहरण देकर वे इस निष्कर्ष तक पहुँचे हैं :
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'अतः यह स्पष्ट है कि शुद्ध ' धातु' का प्रयोग, भाषातत्त्व की दृष्टि से, सम्भव नहीं है. रूपात्मक दृष्टि से ऐसा सम्भव दीखने पर भी अर्थात्मक दृष्टि से ऐसा असम्भव है. इस बात को समझकर हम उन भाषाओं में भी 'धातु' और 'क्रिया' के भेद को पहचानने में समर्थ हो सकेंगे, जिनमें या तो प्रत्यय नहीं होते, या जिनमें प्रत्ययसंयोग मूल शब्दरूप को प्रभावित नहीं करता. १३०
संस्कृत धातु चर्चा व्यवहृत भाषिक स्वरूपों के संदर्भ में होती थी या केवल शास्त्रचर्चा हुआ करती थी यह प्रश्न कुछ अन्य विद्वानों ने भी उठाया है. व्हिटनी का कहना है कि पाणिनि के धातुपाठ में जिन दो हजार धातुओं का समावेश हुआ है वे सभी व्यवह्नत नहीं होती थीं. इस धारणा का बुचर तथा एडग्रेन ने विरोध किया है. इन्होंने परिवर्तित भाषिक रूपों से भी संस्कृत धातुओं का संबंध बताया है. कई प्राकृत, पालि तथा देशज धातुओं के मूल रूप संस्कृत धातुओं में मिलते हैं.
सतत परिवर्तनशील भाषा में कुछ धातुओं का किसी न किसी रूप में बना रहना अध्ययन का एक रसप्रद विषय है. डा. सुनीतिकुमार चेटर्जी ने तो सामान्य भाषक के धातु विषयक अवबोध के बारे में भी एक उल्लेखनीय बात कही है :
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एक भाषा के शब्द जब कि धातु और प्रत्ययों के संयोग से बने होते हैं, तब उसका प्रत्येक जन्मजात बोलनेवाला व्यक्ति साधारणतया स्पष्ट रूप से यह जानता है कि किसी एक शब्द का धातुभाग कौनसा है, और प्रत्यय भाग कौनसा हाँ, यदि चिन्तन तथा अभिव्यक्ति, आलस्यादि अन्य प्रभावों से आच्छादित हो गई हो तो बात दूसरी है. उदाहरणार्थ - एक जन्मजात आर्य भाषी 'धर्म' शब्द में धातुभाग 'घर' तथा प्रत्ययभाग 'म' है, इतना तो कम-से-कम जानता होगा ही. 'धर्म' शब्द का उच्चारण करते समय स्वभावतः उसके मन में इस शब्द का 'धर / म ' इस प्रकार विश्लेषण हो जाता होगा " 11
सुशिक्षित एवं भाषा का सजग प्रयोग करनेवाले भाषकों तक ही चेटर्जी महोदय के कथन की व्याप्त हो सकती है, इसे व्यापक नियम मानकर चलना तर्कसंगत नहीं है. केवल धातुरूप में तो धातु भाषा में नहीं चलती.
समान अर्थबाली तथा कुछ ध्वनिसाम्य रखनेवाली धातुओं के दो रूप मिलते हैं तो क्यों मिलते हैं, तथा इनके बीच सम्बध है तो किस प्रकार का इस प्रश्न का उत्तर सुलभ नहीं हुआ. डा. गजानन पलसुले ने कहा है कि चेतति, चेतयति, चित्त, चेतना आदि रूपों में 'चित् ' तथा चिन्तयति, चिन्तयामास, चिन्तन आदि में 'चिन्त्' धातु खोज निकाली परन्तु 'चित् ' और 'चिन्त्' के बीच कोई सम्बन्ध है या नहीं यह नहीं बताया. विद्वानों ने इस विषय में अभी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया. 12
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