Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 56
________________ ४४ ज्ञानसूर्योदय नाटक । ___ शान्ति-यदि ऐसा है, तो यहांसे इस अपवित्रताके स्थानभूत मतको छोड़के आगे चलना चाहिये। (दोनोका एक ओरको गमन) शान्ति-(डरकर) माता! यह भस्मसे शरीरको लपेटे हुए, कौन आ रहा है? कोई भूत तो नहीं है ? क्षमा-नही, भूत नहीं है। शान्ति–तो क्या नरकके बिलोंसे निकला हुआ नारकी है?" क्षमा-नही नारकी भी नहीं है। शान्ति--तो यह ऐसा कौन है ? क्षमा-यह कापालिक धर्म है। शान्ति-अच्छा, तो चलो क्षणभर इसको भी देखें। [स्मशानकी भस्मसे शरीर लपेटे हुए, हाड़ोकी मालाका सुन्दर आभूपण वनाये हुए, स्त्रीके कुचोको अपनी दोनों भुजाओंसे आलिंगन किये हुए, और लाल नेन्द्र किये हुए, भैरवका भक्त कापालिक प्रवेश करता है ।] कापालिक-('अपनी स्त्रीसे कहता है) मत्तगयन्द। पीजिये प्यारी! मनोहर मद्य, मनोजकी मौज बढ़ावत जोई। खाइये खूब पराक्रमि मांस, जवानीके जोरमें उद्धत होई ॥ गाइये गान अनंग जगावन, वीणा बजाइये आइये दोई। बोलिये बात यही दिनरात कि, "देहसों भिन्न न आतम कोई॥ (फिर गाता है)

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