________________
८६
ज्ञानसार
जिस तरह चन्दन की सौरभ उसका स्थायी भाव है, उसी तरह क्षायिक धर्म भी आत्मा का स्थायी भाव है । हर जीवात्मा में क्षायिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहज स्वरूप में विद्यमान है ।
क्षायोपशमिक क्षमादि गुणों के परित्याग का नाम ही धर्मसंन्यास है। उक्त तात्त्विक धर्मसंन्यास, सामर्थ्य योग का धर्म-संन्यास माना जाता है । 'द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत्' 'योग दृष्टि समुच्चय' नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि क्षायोपशमिक धर्म के त्याग स्वरूप धर्म-संन्यास आठवें गुणस्थान पर द्वितीय अपूर्वकरण करते समय होता है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पहले जिस अपूर्वकरण का अनुसरण किया जाता है, वह अतात्त्विक धर्मसंन्यास कहलाता है।
गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता । आत्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत् सेव्यो गुरुत्तमः ॥८॥५॥
अर्थ : जब तक शिक्षा के सम्यक् परिणाम से आत्मस्वरुप के ज्ञान से गुरुत्व प्रकट न हो, तब तक उत्तम गुरु का आश्रय लेता चाहिये (आराधना करनी चाहिये )।
विवेचन : जिस तरह सांसारिक स्नेही-स्वजनों का त्याग करना है उसी तरह अभ्यंतर-आंतरिक स्वजनों के साथ अटूट नाता जोड़ना है, सम्बन्ध प्रस्थापित करना है। यह सम्बन्ध / नाता कहीं बीच में ही टूट न जाए, विच्छेद न हो जाए, इसके लिये सदैव सदगुरु की उपासना करनी चाहिये ।
- जब तक धनवान न बना जाए, तब तक उसकी सेवा नहीं छोड़नी चाहिये। जब तक उत्तम स्वास्थ्य का लाभ न हो, काया निरोगी न बने, तब तक डॉक्टर अथवा वैद्य का त्याग न किया जाए । ठीक उसी भाँति जब तक संशयविपर्यासरहित ज्ञान-प्रकाश की प्राप्ति न हो, विशुद्ध आत्म-स्वरुप की झलक न दिखे, तब तक परम संयमी और ज्ञानी गुरु का परित्याग नहीं करना है। अर्थात्, जब तक गुरूदेव के गुरूत्व का विनियोग हममें न हो, तब तक निरन्तर विनीत बन उनकी श्रद्धाभाव से आराधना / उपासना में लगे रहना चाहिये ।