Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 577
________________ ५५२ ज्ञानसार का पर्याय कम से कम २० वर्ष का होना चाहिये । उत्कृष्टकाल देशोनपूर्वकोटी । • नया श्रुताभ्यास नहीं करे । पूर्वोपार्जित श्रुतज्ञान का एकाग्र मन से स्मरण करे । • जिनकल्प पुरुष ही स्वीकारकर सकता है । अथवा कृत्रिम नपुंसकलिंगी भी स्वीकार कर सकता है । • जिनकल्पी का वेश जिनकल्प स्वीकार करते समय साधु का हो । भाव भी साधु के हों । पीछे से बाह्यवेश चौरादि द्वारा ले लिया जाय तो नग्न रहे । • जिनकल्प स्वीकारते समय तेजो- पद्म शुक्ल तीन शुभ लेश्या हों । पीछे से छ: ओं लेश्याऐ हो सकती हैं । परन्तु कृष्ण - नील- कापोत लेश्या अति संक्लिष्ट नहीं होती और अधिक समय नहीं रहती । • जिनकल्प स्वीकारते हुए प्रवर्द्धमान धर्मध्यान नहीं होता । पीछे से आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान भी हो सकता है कर्म की विचित्रता से ! परन्तु शुभ भावों की प्रबलता होने से आर्त्त-रौद्रध्यान के अनुबन्ध प्रायः नहीं पड़ते । एक समय में जिनकल्प स्वीकारनेवाले अधिक से अधिक दो सौ से नौ सौ हो सकते हैं। • जिनकल्पियों की उत्कृष्ट संख्या दो हजार से नौ हजार तक हो सकती है । अल्पकालिक अभिग्रह जिनकल्पी को नहीं होते । 'जिनकल्प' स्वयं ही जिन्दगी का महान् अभिग्रह है । • जिनकल्पी किसीको दीक्षा नहीं देता है। अगर उन्हें ज्ञान द्वारा दिखाई पड़े कि 'यह दीक्षा लेनेवाला है', तो उपदेश दे और संविग्न गीतार्थ साधुओं के पास भेज देवे । • मन से भी अगर सूक्ष्म अतिचार लग जाय तो प्रायश्चित १२० उपवास आता है । • ऐसा कोई कारण नहीं जिससे अपवादपद का सेवन करना पड़ता हो । आँख का मेल भी दूर नहीं करे । चिकित्सादि नहीं करावे । • तीसरी पोरसी में आहार-विहार करे। शेषकाल में कायोत्सर्ग ध्यान में रहे । जन्घाबल क्षीण हो जाय, विहार न कर सके तो भी एक क्षेत्र में रहते हुए दोष न लगने देवें और अपने कल्प का अनुपालन करें । • स्थविरकल्पी मुनि पुष्टालम्बन से अपवाद-मार्ग का भी आसेवन करे । स्थविरकल्पी मुनि गुरुकुलवास में रहें और गच्छवास की मर्यादाओं का पालन करे ।

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