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चक्रुः ||८||
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सतर्क कर्कशधियः सुविशुद्धबोधाः सुव्यक्तसूक्तशत मौक्तिकशुक्तिकल्पाः । तेषामुदारचरणाः प्रथमाः सुशिष्याः सद्योऽभवन्नजित सिंह मुनीन्द्रवर्याः ॥७॥ तेषां द्वितीयशिष्या जाताः श्रीमद्धनेश्वराचार्याः । सार्द्धशतकस्य वृत्तिं गुरुप्रसादेन शशि १ मुनि७पशुपति११सङ्ख्ये वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते । चैत्रे सितसप्तम्यां समर्थितेयं गुरौ वारे ॥ ९ ॥ युक्तायुक्तविवेचन-संशोधन-लेखनैकदक्षस्य । निजशिष्यसु साहाय्याद् विहिता श्रीपार्श्वदेवगणेः ॥ १० ॥ प्रथमादर्शे वृत्तिं समलिखतां प्रवचनानुसारेण । मुनिचन्द्र-विमलचन्द्रौ गणी विनीतौ सदोद्युक्तौ ॥११॥ श्री चक्रेश्वरसूरिभिरतिपटुभिर्निपुणपण्डितोपेतैः । अणहिलपाटकनगरे विशोध्य नीता प्रमाणमियम् ॥१२॥
इस प्रशस्ति में आचार्य श्री श्रीचन्द्रसूरिकी पूर्वजपरम्परा इस प्रकार है.
चन्द्रकुलीन श्रीधनेश्वराचार्य
श्री अजितसिंहसूर
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श्री अजित सिंह सूरि
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श्री वर्धमानसूर
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श्री शीलभद्रसूरि
श्रीधनेश्वरसूरि I
श्रीपार्श्व देवगण = श्री श्रीचन्द्रसूरि
જ્ઞાનાંજલિ
न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी प्रशस्तिका ऊपर जो उल्लेख किया है उसके अंतमें 'श्रीश्रीचन्द्रसूरिका ही पूर्वावस्था में पार्श्वदेवगण नाम था ऐसा जो उल्लेख है वह खुद प्रन्थप्रणेताका न होकर तत्कालीन किसी शिष्य-प्रशिष्यादिका लिखा हुआ प्रतीत होता है । अस्तु, कुछ भी हो, इस उल्लेखसे इतना तो प्रतीत होता ही है कि - श्रीचन्द्रचार्य ही पार्श्वदेव गणि हैं या पार्श्वदेवगणी ही श्री श्री चन्द्रसूरि हैं, जिनका उल्लेख ' धनेश्वराचार्यने सार्धशतकप्रकरणकी वृत्तिमें किया है ।
श्रीश्रीचन्दसूरिका अचार्यपद
श्रीश्रीचन्द्रसूरिका आचार्यपद किस संवत में हुआ ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है, फिर भी आचार्यपदप्राप्तिके बादकी इनकी जो ग्रन्थरचनायें आज उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहली रचना निशीथचूर्णिविंशो देशकव्याख्या है। जिसका रचनाकाल वि. सं. ११७४ है । वह उल्लेख इस प्रकार है
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