Book Title: Gurutattva Siddhi
Author(s): Suvihit Purvacharya
Publisher: Satyavijay Smarak Jain Granthmala

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Page 25
________________ etettetetztetetstetrtetetatrtrt Xxtet-tatutatute tetetetztetetetetrtetetetattete tatateretetretetretetrtetetatatatatatatatatatatertretertretertrete tretetetreten सनिहितदोषगुण इत्यर्थः, आह च-"संसत्तो य इदाणी सो पुण गोभत्तलंदए चेव । उचिट्ठमणुच्चि जं किंची छुन्भई सव्वं ॥१॥ एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिया केइ। ते तम्मिवि सन्निहिया संसत्तो भण्णई तम्हा ॥२॥ रायविदूसगमाई अहवावि णडो जहा उ बहुरूवो। अहवा वि मेलगो जो हलिद्दरागाइ बहुवण्णो ॥३॥ एमेव जारिसेणं सुद्धमसुद्धेण वाऽवि संमिलइ । तारिसओ चिय होति संसत्तो भण्णई तम्हा ॥४॥ सो दुविकप्पो भणिओ जिणेहिं जियरागदोसमोहेहिं । एगो उ संकिलिट्ठो असंकिलिट्ठो तहा अण्णो ॥५॥ पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो ।इत्थिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो संकिलिठ्ठो , उपासत्थाईएसुं संविग्गेसुंच जत्थ मिलती जातहि तारि सओ भवई पियधम्मो अहव इयरो उ । ७॥एसो संक्लिष्टः, 'यथाछन्दोऽपि च' यथाछन्दः-यथेच्छयैवागमनिरपेक्ष प्र- वर्तते यः स यथाछन्दोऽभिधीयते, उक्तं च-"उस्सुत्तमा- यरंतो उस्मुत्तं चेव पन्नवेमाणो । एसो उ अहाच्छंदो १ संसक्तश्चेदानीं स पुनर्गोभक्तलन्दके चैव । उच्छिष्टम३ नुच्छिष्टं यत्किश्चित् क्षिप्यते सर्वम् ॥ १ ॥ एवमेव च मूलोत्तरदोषाश्च गुणाश्च यावन्तः केचित् । ते तस्मिन् सन्निहिता: संसक्तो भण्यते तस्मात् ॥२॥ राजविदूषकादयोऽथ. वाऽपि नटो यथा तु बहुरूपः । अथवाऽपि मलको यो हरिद्ररागादिः बहुवर्णः ॥३॥ एवमेव यादृशेन शुद्धनाशुद्धन घाऽपि सं. वसति । तादृश एव भवति संसक्तो भण्यते तस्मात् ॥४|| स: द्विविकल्पो भणितो जिनैर्जितरागद्वषमोहैः । एकस्तु संक्लिष्टोऽ. संक्लिष्टस्तथाऽन्यः ॥५॥ पञ्चाश्रवप्रवृत्तो यः खलु त्रिभिगौरवैः प्रतिबद्धः । खीगृहिभिः संक्लिष्ट: संसक्तः संक्लिष्टः स तु ॥६। पार्श्वस्थादिकेषु संविग्नेषु च यत्र मिलति तु । तत्र तादृशो भवति प्रियधर्मा अथवा इतरस्तु ॥७॥ उत्सूत्रमाचरन उत्सूत्रमेव **** *** * tatore teretetetreteretertrete trete trete trete te toetuste tretete tretetetotereteteteateretoetretetako Hesteteetateetetetetstestetstestetetet,

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