________________ 101 सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान 33. प्रश्न : सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश तो करता नहीं है, फिर उसको सर्वघाति क्यों कहा ? / ___ उत्तर : ऐसी शंका ठीक नहीं है; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबंधक है, इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाति कहा है।" (विशेष स्पष्टीकरण के लिये सत्प्ररूपणा सूत्र पेज संख्या 13 व 14 देखिए।) आचार्य श्री नेमिचन्द्रस्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 21 में सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण। ण य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो॥ सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के समय में अर्थात् निमित्त से गुड़ मिश्रित दही के स्वाद के समान होनेवाले जात्यन्तर परिणामों को सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। गुड़ मिश्रित दही के स्वाद के समान का अर्थ - गुड़ का स्वाद मीठा और दही का स्वाद खट्टा होता है। दोनों के मिलने पर मीठा-खट्टा मिला हुआ स्वाद होता है। वैसे ही जीव के श्रद्धागुण की पर्याय जब सम्यक् तथा मिथ्या - दोनोंरूप होती है, तब उसे न सम्यक् कह सकते हैं न मिथ्या। इसलिए श्रद्धागुण की जो मिश्ररूप पर्याय होती है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। जब जीव के श्रद्धागुण की मिश्ररूप अवस्था होती है, तब सहज ही सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म का उदय भी रहता है। जात्यंतर शब्द का अर्थ अलग ही जाति का अर्थात् श्रद्धा सम्यक् भी है और मिथ्या भी है, इसलिए जात्यंतर शब्द का प्रयोग किया है। चारित्र अपेक्षा विचार - सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव का चारित्र मिथ्या ही होता है। चारित्र गुण की पर्याय श्रद्धा गुण की पर्याय का अनुसरण करती है। यदि श्रद्धा यथार्थ नहीं है तो चारित्र यथार्थ नहीं हो सकता है, ऐसा नियम है। तीसरे गुणस्थान में श्रद्धा पूर्ण यथार्थ नहीं है; इसलिए चारित्र भी मिथ्या ही है।