Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 234
________________ 233 क्षीणमोह गुणस्थान औदारिक शरीर ही है; परन्तु इन मुनिराज के शरीर में से प्रथम समय से ही अनंत बादर निगोदिया जीवों का प्रति समय निकलना अर्थात् मरना प्रारंभ हो जाता है। क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में सभी बादर निगोदिया जीवों के अभाव से अनंतर समयवर्ती तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही मुनिराज परम औदारिक शरीरधारी अरहन्त परमात्मा हो जाते हैं। (विशेष के लिये धवला पुस्तक 14 पृष्ठ 488 से 491 पर्यंत देखिए।) 108. प्रश्न : अनंत निगोदिया जीवों की हिंसा करनेवाले मुनिराज अहिंसा महाव्रती कैसे माने जा सकते हैं ? ___उत्तर : प्रमत्तयोग का अभाव होने से मुनिराज अहिंसा महाव्रती ही हैं। उन बादर निगोदिया जीवों का मरण उनके आयुकर्म के क्षय के निमित्त से ही हुआ है; उसमें औदारिक शरीरधारी मुनीश्वर की कुछ भी निमित्तता नहीं है। 4. चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर्यंत सर्व जीवों की अंतरात्मा संज्ञा है। 5. “क्षीणमोह" यह शब्द आदि दीपक है। बारहवें से लेकर उपरिम गुणस्थानवर्ती सर्व जीव क्षीणमोही ही हैं। इस विषय को स्पष्ट समझने के लिए निम्नप्रकार का सुलभ उपाय अच्छा है - क्षीणमोह सयोगकेवली, क्षीणमोह अयोगकेवली, क्षीणमोह सिद्ध भगवान। 6. “क्षीणमोह वीतराग छद्मस्थ” इस पूर्ण नाम में आये हुए छद्मस्थ शब्द को अंत दीपक समझना चाहिए। प्रथम गुणस्थान से लगाकर इस बारहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव छद्मस्थ ही हैं। छद्मस्थ शब्द का अंतदीपकपना निम्नानुसार स्पष्ट होता है। मिथ्यात्व छद्मस्थ, सासादनसम्यक्त्व छद्मस्थ, मिश्र छद्मस्थ, अविरतसम्यक्त्व छद्मस्थ, संयमासंयम छमस्थ / इस तरह बारहवें गुणस्थान पर्यंत लगाते ही सब समझ में आ जाता है। 7. यहाँ बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में मुनिराज चारित्रमोहनीय से भी रहित होते हैं; अतः इनको मोहमुक्त कहना युक्ति तथा शास्त्रसम्मत भी है।

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