Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 67
________________ १३२ गुणस्थान विवेचन उत्तर : दो कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप निमित्त से इनका गुणस्थान पाँचवां ही है; क्योंकि दो कषाय चौकड़ी के अभाव में होनेवाली व्यक्त वीतरागतारूप परिणति/शुद्धता में कुछ अन्तर नहीं; तथापि दोनों की व्यक्त वीतरागता में बहुत बड़ा अन्तर है; क्योंकि पंचम गुणस्थानवर्ती साधकों के सूक्ष्म परिणामों की दृष्टि से असंख्यात भेद हैं। उन असंख्यात भेदों को ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त किया है। इन भेदों का मूल कारण त्रिकाली, सहज, निजशुद्धात्मा की साधनारूप पुरुषार्थ की हीनाधिकता ही है। इस साधना के फलस्वरूप विशुद्धि का निमित्त पाकर प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोधादि चतुष्क कर्मों का उदय तीव्र, मंद, मंदतर, मंदतम होता है। इस उदय के निमित्त से शुद्धि में अंतर होता है। अतः दोनों की शुद्धि, सुख, संवर, निर्जरा आदि में भी यथायोग्य अन्तर रहता है। ५०. प्रश्न : क्षुल्लक और ऐलक में मात्र बाह्य कपड़े तथा कुछ बाह्य क्रियाओं के कारण ही भेद है अथवा वीतरागता में भी कुछ भेद है ? उत्तर : कपड़ेरूप परिग्रह और आहार-क्रिया की अपेक्षा चरणानुयोग सापेक्ष जो अंतर है, वह तो स्पष्ट है ही। साथ ही व्यक्त वीतरागता में भी अंतर है। संवर, निर्जरा, सुख, शांति, शुद्धोपयोग, शुद्धपरिणति आदि अधिक मात्रा में व्यक्त होने के कारण/निमित्त से ही ऐलक के कपड़े आदि बाह्य परिग्रह में कमी आयी है। क्षुल्लक के जीवन में ऐलक की अपेक्षा वीतरागता कम मात्रा में प्रगट हुई है। अत: उनके पास कपड़े अधिक हैं और भोजनादि की क्रिया भी भिन्न है। ऐलक की निज शुद्धात्मा की साधना विशेष बलवती हो गयी है। इस निमित्त से प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन कषाय चतुष्क कर्मों का उदय, मंद, मंदतर, मंदतम हो जाता है। अतः ऐलक की आत्मिक शुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक है। ५१. प्रश्न : एक श्रावक ने आज सातवीं प्रतिमा का स्वीकार किया है और अन्य किसी श्रावक की अनेक वर्षों से सातवीं प्रतिमा की साधना चल रही है; दोनों में कुछ अंतर है या नहीं ? देशविरत गुणस्थान १३३ उत्तर : दोनों साधकों में दो दृष्टि से अन्तर हो सकता है। सामान्य अपेक्षा से विचार किया जाय तो अनेक वर्षों से सातवीं प्रतिमा की साधना करनेवाले की वीतरागता विशेष अधिक होनी चाहिए; क्योंकि उनके प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म का उदय मंद हो गया है और संज्वलन कषाय का भी सापेक्ष मंदोदय होता है। यदि आज का सातवीं प्रतिमाधारक विशेष पुरुषार्थी है तो वह पुराने सातवीं प्रतिमाधारक से भी अपनी पर्याय की योग्यता से अधिक वीतरागता प्रगट कर सकता है। व्यक्त वीतरागता का हीनाधिक होना, यह उस साधक जीव के निजशुद्धात्मा के आश्रयरूप पुरुषार्थ पर निर्भर है। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - देशविरत नामक पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक को औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - इन तीनों सम्यक्त्वों में से कोई भी एक सम्यक्त्व रह सकता है। चारित्र अपेक्षा विचार - पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक को संयमासंयम चारित्र होता है। यहाँ अप्रत्याख्यानावरण कषाय कर्मों के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, भविष्य में उदय आनेयोग्य सर्वघाति स्पर्धकों का सद्वस्थारूप उपशम तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म का उदय रहता है; अत: पंचम गुणस्थानवर्ती को चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है। (धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७५, १७६) चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में अनंतानुबंधी के अनुदय से चारित्र में सम्यक्पना हो जाता है; क्योंकि सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान और चारित्र - दोनों सम्यक् हो ही जाते हैं। देशविरत गुणस्थान में ऊपर चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम घटित करके दिखाया गया है, लेकिन देशसंयम चारित्र को क्षायोपशमिक चारित्र नहीं कहते हैं। क्षायोपशमिक चारित्र ऐसा नाम तो सकल चारित्र को ही दिया जाता है । तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के दूसरे अध्याय के पांचवें सूत्र में क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद बताये गये हैं। उनमें क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयमरूप देशचारित्र भिन्न-भिन्न गिनाये गये हैं।

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