Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 107
________________ २१२ गुणस्थान विवेचन सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्मसापराय कहते हैं। उसमें जिन संयतों की शुद्धि ने प्रवेश किया है, उन्हें सूक्ष्मसापरायप्रविष्टशुद्धिसंयत कहते हैं। उनमें उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं। और सूक्ष्म सांपराय की अपेक्षा उनमें भेद नहीं होने से उपशमक और क्षपक, इन दोनों का एक ही गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान में अपूर्व और अनिवृत्ति इन दोनों विशेषणों की अनुवृत्ति होती है। इसलिये ये दोनों विशेषण भी सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयत के साथ जोड़ लेना चाहिये, अन्यथा पूर्ववर्ती गुणस्थानों से इस गुणस्थान की कोई भी विशेषता नहीं बन सकती है। विशेषार्थ - यदि दशवें गुणस्थान में अपूर्व विशेषण की अनुवृत्ति नहीं होगी तो उसमें प्रतिसमय अपूर्व अपूर्व परिणामों की सिद्धि नहीं हो सकेगी। और अनिवृत्ति विशेषण की अनुवृत्ति नहीं मानने पर एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और कर्मों के क्षपण और उपशमन की योग्यता सिद्ध नहीं होगी। इसलिये पूर्व गुणस्थानों से इसमें सर्वथा भिन्न जाति के ही परिणाम होते हैं, इस बात के सिद्ध करने के लिये अपूर्व और अनिवृत्ति, इन दो विशेषणों की अनुवृत्ति कर लेना चाहिये । इसप्रकार इस गुणस्थान में अपूर्वता, अनिवृत्तिपना और सूक्ष्मसांपरायपनारूप विशेषता सिद्ध हो जाती है। इस गुणस्थान में जीव कितनी ही प्रकृतियों का क्षय करता है, आगे क्षय करेगा और पूर्व में क्षय कर चुका, इसलिये इसमें क्षायिकभाव है; तथा कितनी ही प्रकृतियों का उपशम करता है, आगे उपशम करेगा और पहले उपशम कर चुका, इसलिये इसमें औपशमिक भाव है। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षपक श्रेणीवाला क्षायिक भाव सहित है और उपशम श्रेणीवाला औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों भावों से युक्त है; क्योंकि दोनों ही सम्यक्त्वों से उपशमश्रेणी का चढ़ना संभव है। इस सूत्र में ग्रहण किये गये संयत पद की पूर्ववत् अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में बतलाई गई संयत पद की सफलता के समान सफलता समझ लेना चाहिये । कहा भी है - पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक के अनुभाग से अनन्तगुणे हीन अनुभागवाले सूक्ष्मलोभ में जो स्थित है, उसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती जीव समझना चाहिये। उपशान्तमोह गुणस्थान ग्यारहवें गुणस्थान का नाम उपशांतमोह है। श्रेणी के चारों गुणस्थानों में उपशांतमोह उपशमश्रेणी का अन्तिम गुणस्थान है। एक अपेक्षा से विचार किया जाय तो उपशमश्रेणी के फलरूप यह गुणस्थान है। चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम का प्रारंभ उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले समय से चालू हुआ था और वह उपशमन का कार्य दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में कहो अथवा ग्यारहवें गुणस्थान के पहले समय में कहो, परिपूर्ण हुआ है। इसी को निम्नप्रकार से समझ सकते हैं - सूक्ष्मलोभकषाय का व्यय और वीतरागता का उत्पाद एक समयवर्ती है; क्योंकि उत्पाद और व्यय दोनों एक ही समय में उत्पन्न होते हैं, यह वस्तु व्यवस्था का स्वरूप है। अंत के चारों गुणस्थान परिपूर्ण वीतरागियों के गुणस्थान हैं; उनमें यह उपशांत मोह गुणस्थान प्रथम गुणस्थान है। ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती ये मुनीश्वर पूर्ण सुखी हो गये हैं। ९७. प्रश्न : आठों कर्मों की सत्ता होने पर और सातों कर्मों का उदय होते हुए उपशांतमोही मुनिराज पूर्ण सुखी कैसे हो सकते हैं ? उत्तर : दुःख का मूल कारण एक मोह परिणाम ही है। उपशांत मोह गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को मोह का पूर्ण उपशम हो गया है, उनके रंचमात्र भी मोह परिणाम नहीं रहा है; अतः वे पूर्ण सुखी हैं। सत्ता में स्थित कर्मों का वर्तमानकालीन भावों से कुछ संबंध नहीं रहता। ___ शेष द्रव्यमोह कर्म दबा हुआ है; अंतर्मुहूर्त काल (उपशांतमोह गुणस्थान का काल) समाप्त होते ही चारित्रमोह कर्म का उदय अपनी योग्यता से होता है; तथापि जितने काल पर्यंत उपशांतमोही अर्थात्

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