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अन्ध-परीक्षा।
इन वाक्यों से पहले तीन वाक्योंको आचारादर्शमें 'वामनपुराण' के हवालेसे लिखा है और चौथे वाक्यको याज्ञवल्क्यका बतलाया है। चौथा वाक्य याज्ञवल्क्यस्मृतिके उपर्युक्त श्लोक नं० ८० का उत्तरार्ध है। इसके बाद इस श्लोक नं० ८० की टीकासे कुछ गद्य देकर जिनसेनत्रिवणांचारमें, अकलंकस्वामीके हवालेसे यह वाक्य लिखा है:"लब्धाहारी स्त्रिंयं कुर्यादेवं संजनयेत्सुतामिति अकलंकस्मरणात् ।
यह वाक्य इससे पहले भी इस 'शयनविधि' प्रकरणमें आ चुका है और आचारादर्शमें इसे 'बृहस्पति' का लिखा है। इस वाक्यके अनन्तर, जिनसेनत्रिवर्णाचारमें, 'तत्र पुष्पदंतः ' ऐसा लिखकर तीन श्लोक दिये हैं, जो मनुस्मृतिके तीसरे अध्यायमें नं० ४७, ४८ और ४९ पर दर्ज हैं। आचारादर्शमें भी उनको 'मनु' के ही लिखा है । । इन श्लोकोंके बाद कुछ गद्य देकर लिखा है कि 'इत्येतद्गौतमीयं सूत्रद्वयं' । परन्तु यह सब गद्य याज्ञवल्क्यास्मृतिके श्लोक नं० ८० की टीकासे लिया गया है । इसके पश्चात् जिनसेनत्रिवर्णाचारमें, 'यथा माणिक्यनन्दिः' ऐसा लिखकर यह श्लोक दिया है:
"यथाकामी भवेद्वापि स्त्रीणां वरमनुस्मरन् ।
स्वदारनिरतश्चैव स्त्रियो रक्ष्या यतः स्मृताः॥” यह 'याज्ञवल्क्यस्मृति के प्रथम अध्यायका ८१ वाँ श्लोक है.। परीक्षामुखके कर्ता श्रीमाणिक्यनन्दि आचार्यका यह वाक्य कदापि नहीं है । इस श्लोकके पूर्वार्धका यह अर्थ होता है कि 'स्त्रियोंको जो वर दिया गया है उसको स्मरण करता हुआ यथाकामी होवे' । याज्ञवल्क्यस्मृतिकी 'मिताक्षरा' टीकामें लिखा है कि इस श्लोकमें उस 'वर' का उल्लेख है, जो इन्द्रने स्त्रियोंको दिया था और ऐसा लिखकर वह 'वर' भी उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है: