Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 109
________________ जिनसेन - त्रिवर्णाचार । अर्थात् - जो कोई पितर संस्कारविहीन मरे हों, जलकी इच्छा रखते हों और जो कोई देव जलकी इच्छा रखते हों, उन सबके संतोष और तृप्तिके लिए मैं पानी देता हूँ अर्थात् तर्पण करता हूँ । "उपघातापघाताभ्यां ये मृता वृद्धवालकाः युवानञ्चामगर्भाश्च तेषां तोयं ददाम्यहम् ॥ " अर्थात् - जो कोई चूढे, बालक, जवान और गर्भस्थ जीव उपघात या अपघातसे मरे हों, मैं उन सबको पानी देता हूँ । ""ये पितृमातृद्वयवंशजाताः गुरुस्वसृबंधू च वान्धवाश्च । ये लुप्तकर्माथि सुता द्वाराः पशवस्तथा लोपगतक्रियाश्च ॥ ये पंगवश्चान्धविरूपगर्भाः आमच्युता ज्ञातिकुले मदीये । आपोडशाद्वा (1) यवंशजाताः, मित्राणि शिष्याः सुतसेवकाञ्च ॥ पशुवृक्षाय ये जीवा ये च जन्मान्तरंगताः । ते सर्वे वृत्तिमायान्तु स्वधातोयं ददाम्यहम् ॥ " इनमें उन सबको तर्पण किया गया है जो पितृवंश या मातृवंशमें उत्पन्न हुए हों, गुरुबंधु या स्व-बंधु हों, लुप्तकर्मा हों, सुता हों, स्त्रियाँ हों, अपनी जातिकुलके लंगडे लूले हों, अंधे हों, विरूप हों, गर्भच्युत हों, मित्र हों, शिष्य हों, सुत हों, सेवक हों, पशु हों, • वृक्ष हो और जो सब जन्मांतरको प्राप्त हो चुके हों । अन्तमें लिखा है कि मैं इन सबको 'स्वधा ' शब्द पूर्वक पानी देता हूँ । ये सब तृप्तिको प्राप्त होओ। :. "अस्मद्गोत्रे च वंशे च ये केचन मम हस्तजलस्य वांछां कुर्वति तेभ्यस्तिलोदकेन तृप्यतां नमः । " अर्थात- हमारे गोत्र और वंशमें जो कोई मेरे हाथके पानीकी वांछा करते हों, मैं उन सबको तिलोदकसे तृप्त करता हूँ और नम - स्कार करता हूँ । १०५

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