Book Title: Ekarthak kosha
Author(s): Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 411
________________ ३६४ । परिशिष्ट २ १. रुदन-रोना। २. क्रन्दन-क्रन्दन के साथ रुदन । ३. तेपन-भय और पसीने से मिश्रित रुदन । ४. शोक-शोक व दु:ख के साथ निरन्तर रुदन । ५. विलपन-विलाप एवं छाती पीटते हुए रोना। देखें—'रुण्ण' । लघुक (लघुक) देखें-'गुरुक' । लता (लता) जैन परम्परा में इन्द्रिय विजय के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की तपस्याएं की जाती थीं । उनको इन्द्रियविजय तप कहा जाता था। उसका क्रम इस प्रकार हैपहले दिन दो प्रहर करना, दूसरे दिन एकासन, तीसरे दिन विगयवर्जन, चौथे दिन आचाम्ल, पांचवे दिन उपवास । इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय विजय के लिए पांच दिनों तक यह तप करना होता था। यह पांच दिनों की एक लता, श्रेणी या परिपाटी होती थी।' लट्ठ (लब्धार्थ) 'लढ' आदि शब्द अर्थ-ग्रहण करने की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। लेकिन समवेतरूप में वे एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं । जैसे१. लब्धार्थ-श्रवण के द्वारा अर्थ को जानना । २. गृहीतार्थ-अर्थ का अवधारण करना । ३. पृष्टार्थ-संशय होने पर पूछना। ४. अभिगतार्थ-अर्थ का सम्यक् अवबोध करना। ५. विनिश्चितार्थ-तात्पर्म को समझ कर हृदयंगम कर लेना। १. प्रसाटी प ४३५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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