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हिंसा प्रेरक वचन या पापोपदेश पर मन केन्द्रित होने पर उस कपटी को रौद्रध्यान सरल हो जाता है।
ऐसे ही दूसरे को ठगने में तत्पर हो, जैसे एक भाई दूसरे भाई को हिस्सा बांटने में ठगना चाहता हो, व्यापार में दुकानदार अपने दूसरे भागीदार (हिस्से वाले) को ठगना चाहता हो, या दलाल या नौकर किसी सौदे में कमीशन खाकर सेठ को ठगने की इच्छा रखता हो अथवा कोई कबाड़ेबाज किसी भोले व्यक्ति को किसी भी प्रवृत्ति में स्वार्थ से या विरोध या शत्रुता के कारण ठगना चाहता हो, वहां वह उसके लिए उस प्रकार के (कपटपूर्ण) मायामृषा के वचन मन में घड़ता रहे। इस प्रकार की मनगढन्त से रौद्रध्यान होता है।
वैसे ही, प्रच्छन्न पापी याने गुप्त रूप से पाप करने वाला या छिपे छिपे प्रपंच करने वाला भी बाहर अपने आपको अच्छा, निर्दोष तथा निष्पाप बताने के लिए मन में घड़ता रहे कि 'जरूरत पड़ने पर मेरी निर्दोषता या अच्छापन बताने के लिए इस इस तरह बात करुंगा।...' इस प्रकार की चिकनी मनगढ़त से रौद्रध्यान होता है अथवा प्रच्छन्न पापी याने मिथ्याधर्मी ब्राह्मण आदि स्वयं गुण हीन होने पर भी स्वयं को गुणवान के रूप में बताये, इसके लिए गप्प लगाने का उसका मानसिक दृढ प्रणिधान भी रौद्रध्यान रूप बनता है। गुणहीन अपने आपको गुणवान के रूप में पहचान करवाये, उससे ज्यादा फिर गुप्त पापी कौन होगा? खुले रूप से पाप करने वाला तो स्वयं दोषी होने को छिपाता नहीं है। पर यह तो अन्दर खाली या पोला होने पर भी बाहर ढोल बजाता है। इसीलिए वह प्रच्छन्न पापी है । पुनः पाप छिपकर करता है। इसका परिणाम यह होगा कि स्वयं गुणहीन होते हुए भी दूसरे के आगे गुणवान दिखने तथा अपना कृत्रिम बड़प्पन टिकाने के लिए वह बाहर अमुक प्रकार