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शैलेशी के लिए योगनिरोध करते हैं, उसके पहले अन्य वेदनीयादि तीन कर्मों की स्थिति आयुष्य की बची हुई स्थिति ( काल ) के समान करने के लिए समुद्घात याने आत्मप्रयत्नविशेष करते हैं। इसमें पहले अपने आत्मप्रदेशों को ऊपर व नीचे लोकांत तक विस्तृत करते हैं । दूसरे समय इस १४ राजलोक जितने ऊंचे एक दण्डस्वरूप बने हुए आत्मप्रदेशों को पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण दो तरफ लोकांत तक विस्तृत करते हैं। अतः पहले समय दण्ड समान बने आत्म प्रदेशों को दो तरफ विस्तृत करके कपाट या लकड़ी के पट्टे (पटिया) जैसा बनाते हैं। तीसरे समय अन्य दो दिशाओं में दण्ड को विस्तृत करके कपाट रूप बने हुए पहले के आत्मप्रदेशों के साथ मिलकर एक मन्थान जैसा (ठवणी सा) बन जाता है । चौथे समय बीच के अन्तर में रहे हुए खाली स्थानों को आत्मप्रदेशों से सम्पूर्ण भर देते हैं याने आत्मा सम्पूर्ण १४ राजलोक के लोकाकाश में विस्तृत हो जाता है । समस्त लोकप्रदेशों को प्रात्मप्रदेश स्पर्श कर देते हैं। ऐसा होने के समय वेदनीयादि तीनों कर्मों की स्थिति बराबर आयुज्यकर्म की स्थिति के जितनी ही हो जाती है। फिर पांचवं, छठे, सातवें समय क्रमशः संकोच होते होते पुनः मन्थान, कपाट, दण्ड रूप बन जाते हैं और आठवें समय आत्मा पुनः शरीरप्रमाण हो जाता है । ___ इस तरह समुद्घात से कर्म स्थिति समान बन जाती है और किसी को प्राकृतिक स्वरूप से ही समान हो, ऐसा भी होता है। परन्तु योगनिरोध की क्रिया उसके बाद ही प्रारम्भ होती है। पहले मनोयोग निरोध :
__ योग निरोध करने का कार्य काययोग से होता है । इसमें पहले मनोयोग का निरोध करते हैं। वह किस तरह किस प्रमाण से करते हैं । जो जीव अभी ही पर्याप्त संज्ञी बना हो याने जिसका कम