Book Title: Dhyan Kalptaru Author(s): Amolakrushi Maharaj Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth View full book textPage 6
________________ अर्थात्-ग्रस्था वास में रहा हुवा श्रावक त्रिका ल सामायिक वृतः शुद्ध श्रद्धा युक्त स्फर्ये (करे) और अष्टमी चतुर्दशी दोनो पक्ष(पक्खी) के पोषध वृत करे, ऐसा सदाधर्म ध्यान करता रहे, परन्तुधर्म करणी में एक रत्तिकी भी हानी नहीं करे, काळ व्यर्थ नहीं गमावे. ___ गतकालमें श्रावकोंकोभी एक दिनमें कमसेकम एक प्रहर और महनिमें छे दिन पुर्ण धर्म ध्यानमें गुजारतेथे, आरै धर्म ध्यान ध्यानेमें ऐसे मशगुल बन जातेथे कि उनके वस्त्र भूषण और प्राण तक भी कोइ हरण करलेता तो उन्हे भान नहीं रहताथा! देखिये! कुंड कोलीयाजी, कामदेवजी वगैरा श्रावकोंको. श्रावकही ऐसे थेतो फिर मुनीराजोंकी तो कहना ही क्या! जब वे ध्यान से निवृत हो अन्य कार्य मे लगते थे, तोभी ध्यान में किया हवा निश्चय उनके अतःकरणमें रमण करता था, जिससे अन्य स्वभाव-राग-द्वेष-विषय कषाय आदी दुर्गुणों को उनके हृदय में प्रवेश करने + समभावमे प्रवृती करनेका वृत सामायिक वृत त्रिकाल करतेथे और *ज्ञानादि गुणोंको पोषणका पोषध वृत्त एक मही नेने छे करतेथे. -Page Navigation
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