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गुरु के गौरव पर
वनस्वामी की कथा इस प्रकार हैपूर्वकाल में सिंहगिरिसूरि का विनीत और अज्ञान रूप महापर्वत को तोड़ने में वज्र समान वत्र नामक शिष्य था । उसने बालक होते हुए बाल-बुद्धि रहित होकर, साध्वियों के उपाश्रय में रहते हुए पदानुसारी लब्धि से ग्यारह अंग सीखे ! . .
वह आठ वर्ष का होने पर गच्छ में रहकर जो-जो पूर्वगतादिक पठन सुनता सो कौतुक ही में सीख लेता था। वज्र को जब स्थावर ' पढ़" ऐसा कहते थे तब वह कुछ अस्फुट उच्चारण करता हुआ दूसरे पढ़ने वालों को सुनता था। ____एक वक्त दिन के समय साधु भिक्षा के लिये गये थे और गुणग्राम से महान माननीय गुरु भी बहिर्भूमि को गये थे। इतने में उस वसति में वत्र अकेला था। तो उसने कपड़े की पोटली को साधु मंडली में बिछाये और स्वयं उनके बीच में बैठकर मेघ के समान गंभीर वाणी से ग्यारह अंग तथा पूर्वगत श्रुत की वाचना देने लगा।
इतने में आचार्य भी आ गये, वे गलबल होती सुनकर विचारने लगे कि- क्या भिक्षु गण भिक्षा लेकर शीघ्र ही आ पहुँचे हैं ? ऐसा विचार करते हुए शीघ्र ही उन्हें मालूम हुआ किओ हो ! यह तो वाचना देते हुए वनमुनि की ध्वनि है।
क्या यह पूर्व-भव में सीखा होगा ? वा गर्भ ही में सीखा होगा? इस प्रकार विस्मय से बारम्बार सिर नचाते हुए चिन्तवन करने लगे। पश्चात् उन्होंने विचार किया कि-हमारे सुनने से इसे घबराहट न हो, यह सोच धोरे से पीछे हट कर उच्चस्वर से उन्होंने निसिही करी। जिसे सुन सुनन्दासुत (वन) ने तुरन्त आसन से उठ फुर्ती से सब कपड़े की पोटलियां जहां के तहां धर दिये। पश्चात् वह सन्मुख आ गुरु का दंड ले पग प्रमार्जन करके प्रासुक पानी से प्रक्षालन करने लगा।