Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 159
________________ १५२ धर्म रत्न की योग्यता पर स्त्री-पंडक-पशुवाली वसति, कुड्यांतरित वसति और एक आसन त्याग करना, स्त्री के रम्य अंग देखने का तथा अपने अंग पर शृगार करने का परिहार करना, स्निग्य भोजन तथा अतिभोजन का त्याग करना, राग से स्त्री की कथा नहीं करना, तथा पूर्व की क्रीड़ा का स्मरण नहीं करना, इन पांच भावनाओं से बुद्धिमान ने सदेव ब्रह्मचर्य रखना। शुभाशुभ, स्पर्श, रस, गध, शब्द और रूप में सदैव राग-द्वप का त्याग करना ये पाँच ने यम की भावनाएं हैं । इस प्रकार पाँचपांच भावनाओं से पांचों बों का बराबर पालन करके अनन्तजीव शिवपद को प्राप्त हुए हैं । गृहस्थ के धर्म में सुसाधु-गुरु से भली भांति व्रत सुन, समझ तथा लेकर पालना चाहिये। आयतन सेवन, आदि निरन्तर शील पालन, और सज्जनों ने स्वाध्याय आदि विभव उपार्जन करना । तथा भव्यजनों ने निष्कपट भाव रखकर व्यवहार शुद्धि करना. तथा चारित्ररूप पक्षी के तरु समान गुरु की शश्रषा करना । समस्त पापमल धोकर प्रवचन की कुशलता से शोभित होना और कदापि अपने को स्त्री के वश में न होने देना। सम्यग् ज्ञान रूप सांकल से इन्द्रिय रूप वानरों को बराबर बांध रखना, और क्लेश व परिश्रम के आकर समान धन-दौलत में गृद्धि नहीं करना । दुःख के घर संसार में सदैव निर्वेद धारण करना, और विषयों को दुष्ट राजा के विषय (देश) के समान दूर ही से छोड़ना । निदंभ रहकर दंभ के समान तीन आरम्भों को कभी भी नहीं करना, तथा सकल क्लेश के निवासस्थान समान ग्रहवास में रति नहीं रखना। दुर्गति के द्वार को ढांकने वाला निरतिचार सुदर्शन (सम्यक्व) धारण करना, और मोह राजा के विजय की भेरी समान लोक हेरी (देखादेखो) में मन नहीं रखना । समस्त कल्याण की खानि शुद्र आगम को निमेल विधि का सेवन करना, और शिव

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