Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 32
________________ ३० . दौलत-जैनपदसंग्रह। मैं हरल्यौ निरख्यौ मुख तेरो । नासान्यस्त नयन , इलय न, वयन निवारन मोह अंधेरो ॥ मैं० ॥ १॥ परमें कर मैं निजवृधि अब लों, मवसरमें दुख सहयौ पनेरो । सो दुस भानन स्वपर, पिछानन, तुमविन आनन कारन हेरो ॥ मैं० ॥२॥ चाह भई शिवराहलाहकी गयौ उछाह असंजमकेरो। दौलत हितविराग चित मान्यौ, 'जान्यो रूप ज्ञानदृग भेरो ॥ मैं० ॥३॥ प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी ॥ टेक ॥ परम निराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी। पट भूपन विन पै सुन्दरता, सुरनरमुनिमनहारी, प्यारी॥१॥ जाहि वि. लोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावताटारी । निरनिमेपते देख सचीपती, सुरता सफल विचारी ।। प्यारी० ॥२॥ महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकितधारी । दौलत रहो ताहि निरखनकी, भव भय टेव हमारी ॥ प्यारी० ॥३॥ निरखत सुख पायौ, जिन मुखचन्द । नि० ॥ टेक ॥ मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज प्रफुलायौ। नासिकापर लगाई है दृष्टि जिसने । २'भौहें नहीं हिलती है। ३ लाम-प्राप्तिकी । ४ टिमकाररहित ।५ ।। देवपणा। -

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