Book Title: Chitt aur Man
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 306
________________ RE. चित्त और मन कुछ भी ज्ञात नहीं होता कि यह प्रिय है या अप्रिय । अच्छा है या बुरा। यह ज्ञात होता है मन को। मन के साथ ये सारे संवेदन-युगल जुड़े हुए हैं। उसके साथ प्रियत-अप्रियता, मनोज्ञता-अमनोज्ञता, अच्छा-बुरा-ये सब जुड़े हुए होते हैं। ये संवेदन-युगल इन्द्रियों के साथ जुड़े हुए नहीं होते इसीलिए सुन्दर-असुन्दर रूप की मीमांसा आंख नहीं करती, मन करता है। प्रिय-अप्रिय शब्द की मीमांसा कान नहीं करता, मन करता है। मनोज्ञ-अमनोज्ञ रस की मीमांसा जीभ नहीं करती, मन करता है। मृदु-कर्कश स्पर्श की मीमांसा शरीर नहीं करता, मन करता है । सुगन्ध-दुर्गन्ध की मीमांसा घ्राण नहीं करता, मन करता है। इसलिए जब मन के प्रतिकूल कुछ होता है तब कह दिया जाता है-बड़ा बुरा हुआ । जब मन के अनुकूल कुछ होता है तब कह दिया जाता है-बड़ा अच्छा हुआ। मन के खेल __ एक प्रोफेसर अपने कमरे में बैठे थे। एक व्यक्ति आया, उसने कहा'धन्यवाद, आप जैसा परिश्रमी और योग्य प्रोफेसर मैंने नहीं देखा। आपके परिश्रम से ही मेरा लड़का उत्तीर्ण हो सका है। सौ-सौ साधुवाद!' इतने में ही दूसरा व्यक्ति प्रविष्ट हुआ, उसने कहा-'आप जैसा निकम्मा और परिश्रम से जी चुराने वाला प्रोफेसर मैंने कहीं नहीं देखा । आपके कारण ही मेरा लड़का अनुत्तीर्ण हुआ है।' पहले व्यक्ति की बात सुनकर प्रोफेसर प्रसन्नता से झूम उठा और दूसरे व्यक्ति की बात सुनकर वह विषण्ण हो गया । यह सारा खेल मन का है। एक घटना मन के अनुकूल थी तो प्रसन्नता का प्रवाह चल पड़ा। दूसरी घटना मन के प्रतिकूल थी तो विषण्णता का वातावरण बन गया। जब भोजन अच्छा बनता है तो पत्नी को सौ-सौ साधुवाद दिया जाता है। जब कभी भोजन स्वादिष्ट नहीं बनता या नहीं लगता तब परोसी हुई थाली को ठोकर भी मार दी जाती है । यह सारा मन का कार्य है। भोजन भोजन होता है। पदार्थ पदार्थ होता है। उसमें स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट का आरोपण हम करते हैं, मन करता है। प्रियता का परिणाम हम इस सचाई को जानें-इन्द्रियों का कार्य केवल विषयों को ग्रहण करना है । जब मन जुड़ता है तब प्रियता या अप्रियता की बात भी जुड़ जाती है। प्रियता या अप्रियता न पदार्थ में है और न इन्द्रियों में है । वह मन के द्वारा आरोपित की जाती है। जब किसी के साथ प्रियता जूड़ती है तो उसका परिणाम होता है अतृप्ति, क्योंकि प्रियता का भोग अतृप्ति को ही बढ़ाता है। दुःख का चक्र प्रियता के साथ ही प्रारंभ होता है । जब इन्द्रियों से पदार्थ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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