Book Title: Bodhamrutsar
Author(s): Kunthusagar
Publisher: Amthalal Sakalchandji Pethapur

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ [८] इसलिये आपमें स्वपरकल्याणकारी निर्मल ज्ञान होनेके कारण आप सर्वजनपूज्य हुए हैं। आपकी जिसप्रकार रचनाकलामें विशेष गति है, उसी प्रकार वक्तृत्वकलामें भी आपको पूर्ण अधिकार है। श्रोतावोंके हृदयको आकर्षण करनेका प्रकार, वस्तुस्थितिको निरूपण कर भव्योंको संसारसे तिरस्कार विचार उत्पन्न करनेका प्रकार आपको अच्छी तरह अवगत है। आपके गुण, संयम आदियोंको देखनेपर यह कहे हुए बिना नहीं रहसकते कि आचार्य शांतिसागर महाराजने आपका नाम कुंथुसागर बहुत सोच समझकर रखा है। . आपने अपनी क्षुल्लक व ऐल्लक अवस्थामें अपनी प्रतिभासे बहुत ही अधिक धर्म प्रभावनाके कार्य किये हैं। संस्कारों के प्रचार के लिये सतत उद्योग किया है। करीब २ तीन लाख व्यक्तियोंको आपने यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत किया है एवं । लाखों लोगोंके हृदयमें मद्य मांस मधुकी हेयताको जंचाकर त्याग कराया है । हजारोंको मिथ्यात्वसे हटाकर. सम्यग्मार्गमें प्रवृत्ति कराया है। मनि अवस्थामें उत्तर प्रांत के अनेक स्थानोमें बिहार कर धर्मकी जागृति की है । गुजरात प्रांत जो कि चारित्र व संयमकी दृष्टिसे बहुत ही पीछे पडा था उस प्रांतमें छोटेसे छोटे गांवमें विहार कर लोगोंको धर्ममें सि र किया है। गुजरातके जैन व जैनेतरोंके मुखसे आपके लिए आज यह उद्गार निकलता है कि " साधु हो तो ऐसे ही हों"। बडे २ राजा महाराजावोंपर भी आपके उपदेश का गहरा प्रभाव पडता है । यह आपका संक्षिप्त परिचय है। पूर्णतः लिखनेपर स्वतंत्र पुस्तक ही बन सकती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 272