Book Title: Bodhamrutsar
Author(s): Kunthusagar
Publisher: Amthalal Sakalchandji Pethapur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/022288/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G बोधामृतसार बोध पू 5 by to अ पू र्व ग्रंथ ग्रंथकता मुनिराज कुंथूसागरजी महाराज. e Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . [मुनिराज कुंथुसागर धिरचित ] बोधामृतसार wwarmmmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक थालाल- लवदजा मुद्रक क. पा. शास्त्री कल्याण पावर प्रिंटिंग प्रेस सोलापुर. प्रति ) वी. सं. २४६३ ( मूल्य ६ २०००) सन १९३७ । स्वाध्याय Emmmxmmmmmmmmmmmmmmmmms Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधामृतसार तपोधन श्री १०८ मुनिराज कुंथुसागरजी महाराज [ग्रन्थकर्ता] KORE > ( Kalyan. Power Press, Sholapur. ) > Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्या वक्रव्य। सम्यग्दर्शनदीपप्रकाशका मेयवीयसंभूताः। भरिचरित्रपताका-स्ते साधुगणास्तु मां पान्तु ॥ जो सम्यग्दर्शरूपी दीपकसे भव्य जीवोंके मनके अंधकारको दूर कर उनके मनमें प्रकाश करनेवाले हैं जीवादिक समस्त पदाथोके ज्ञानसे सुशोभित हैं और अतिशय चारित्रकी पताका जिन्होंने फहरा रक्खी है ऐसे साधुगण मेरी रक्षा करें। ___गृहस्थोंके मुख्य कर्तव्य इज्या व दत्ति है। दोनो कार्यों के लिये गुरु प्रधान आधार हैं । जिस पंचम कालमें साक्षात् तीर्थकर व इतर केवलियोंका एवं ऋद्धिधारी तपस्वियोंका अभाव है, एवं दिव्यज्ञानि मुनियोंके अभाव के साथ शास्त्रोंके अर्थको अनर्थ करनेवाले भोले लोगोंको भडकाने वालोंकी भी अधिकता है, इस विकट परिस्थिति में पूज्यपाद जगद्वंद्य शांतिसागर महाराज सदृश महापुरुषोंका उदय होना सचमुच में भाग्यसूचक है। महर्षि के प्रसादसे आज भी आसेतु हिमाचल [दक्षिणसे लेकर उत्तर तक] धर्मप्रवाहका संचार हो रहा है। आजके युगमें आचार्य महाराज अलौकिक ,महापुरुष है। जगद्वंद्य है। संसारके दुःखोंसे भयभीत प्राणियोंको तारने के लिये अकारमबंधु है। आचार्य महाराजके दिव्य विहार से ही आज धर्मकी प्राचीन संस्कृति यत्रतत्रा दृष्टिगोचर हो रही है। आपके हृदयकी गंभीरता, अचल धीरता व शांतिप्रियताको देखते हुए सचमुचमें आपके नामका सार्थक्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ में आता है । जिन्होंने भक्तिपूर्वक आपका एक दफे दर्शन किया हो उनको आपकी महत्ताका परिज्ञान हुए विना नहीं रहसकता है। एकदफे आपके सामने कोई क्रूर हृदयी शत्रु भी क्यों न आवे; आपकी शांतमुद्राको देखकर वह द्रवित हो जाता है। इतना ही क्यों बडेसे बडे क्रूर मृग, विषधर आदि भी शांत हो जाते है । आपका माहात्म्य इसीसे स्पष्ट है कि कई दफे प्राणकंटक उपसर्ग आनेपर भी उनसे महाराजकी सिंहवृत्तिमें कोई विराधना नहीं हो सकी। ऐसे प्रातःस्मरणीय साधुवोंके दर्शन, स्तवन व वैयावृत्यके लिये ही नहीं नामोचरण करने के लिये भी पूर्वोपार्जित . पुण्यकी आवश्यकता है। यह सर्वसाधारणके लिये सुगम नहीं है। __महर्षि कुंथुसागर महाराजमे पूर्वभव में भी विशिष्ट तपश्चर्या की होगी जिससे कि उन्हे महर्षि शांतिसागर महाराज सदृश गुरुवोंकी प्राप्ति हुई व उन्हीके पाद मूल में उन्ही के चरित्र चित्रण करने का भी भाग्य मिला यह साहजिक है । आत्मसंयमका फल व्यर्थ नहीं जाया करता है। आचार्य महाराजका चरित्र श्री पूज्य कुंथुसागर महाराजने पहिले लिखा था। यह दूसरा ग्रंथ है। ग्रन्थकर्ताका परिचय । महर्षि कुंथुसागरजीने इस ग्रंथकी रचना की है । आप एक परम वीतरागी, प्रतिभाशाली, विद्वान् मुनिराज हैं। आपकी जन्मभूमि कर्नाटक प्रांत है जिसे पूर्वमें कितने ही महर्षियोंने अलंकृत कर जैन धर्मका मुख उज्वल किया था। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] कर्नाटक प्रांतके ऐश्वर्यभूत बेळगांव जिल्लेमें ऐनापुर नामक . सुंदर ग्रम है । वहांपर चतुर्थ कुलमें ललामभूत अत्यंत शांतस्वभाव वाले सातप्पा नामक श्रावकोत्तम रहते हैं। आपकी धर्मपत्नी साक्षात् सरस्वती के समान सद्गुणसंपन्न थी। इसलिये सरस्वतीके नामसे ही प्रसिद्ध थी। सातप्पा व सरस्वती दोनों अत्यंत प्रेम व उत्साहसे देवपूजा, गुरूपास्ति आदि सत्कार्य में सदा मग्न रहते थे। धर्मकार्य को वे प्रधान कार्य समझते थे। उनके हृदय में आंतरिक धार्मिक श्रद्धा की। श्रीमती सौ. सरस्वतीने संवत् २४२० में एक पुत्र रत्नको जन्म दिया। इस पुत्राका जन्म शुक्लपक्षकी द्वितीयाको हुआ, इसलिये शुक्ल पक्षके चंद्रमाके समान दिनपर दिन अनेक कलावोंसे वृद्धिंगत होने लगा है। मातापितावोंने पुत्रका जीवन सुसंस्कृत हो इस मुविचारसे जन्मसे ही आगमोक्त संस्कारोंसे संस्कृत किया जातकर्म संस्कार होनेके बाद शुभ मुहूर्तमें नामकरण संस्कार किया गया जिसमें इस पुत्राका नाम रामचंद्र रखा गया। बादमें चल कर्म, अक्षराभ्यास, पुस्तक ग्रहण आदि संस्कारोंसे संस्कृत कर सद्विद्याका अध्ययन कराया। रामचंद्रके हृश्य में बाल्यकालसे ही विनय, शील व सदाचार आदि भाव जागृत हुए थे जिसे देखकर लोग आश्चर्य व संतुष्ट होते थे। रामचंद्रको बाल्यावस्थामें ही साधु संयमियोंके दर्शनमें उत्कट इच्छा रहती थी, कोई साधु ऐनापुरमें आते तो यह बालक दौडकर उनकी वंदना लिये पहुंचता था। बाल्यकालसे ही इसके हृदयने धर्ममें अभिरुचि थी। सदा अपने सहधर्मियोंके साथमें तत्वचर्चा करनेमें ही समय इसका बीतता था। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इस प्रकार सोलह वर्ष व्यतीत हुए। अब मातापितावोंने रामचंद्रको विवाह करने का विचार प्रकट किया। नैसर्गिक गुणसे प्रेरित होकर रामचंद्रने विवाह के लिये निषेध किया एवं प्रार्थना की कि पिताजी ! इस लौकिक विवाहसे मुझे संतोष नहीं होगा । मैं अलौकिक विवाह अर्थात् मुक्तिलक्ष्मी के साथ विवाह करलेना चाहता हूं | मातापितावोंने आग्रह किया कि पुत्र ! तुम्हे लौकिक विवाह भी करके हम लोगोंकी आंखोंको तृप्त करना चाहिये । मातापितात्रों की आज्ञोल्लंघन भय से इच्छा न होते हुए भी रामचंद्रने विवाहकी स्वीकृति दी । मातापितावोंने विवाह किया। रामचंद्रको अनुभक होता था कि मैं विवाह कर बडे बंधन में पडगया हूं | विशेष विषय यह है कि बाल्यकालके संस्कारोंसे सुदृढ होनेसे कारण यौवनावस्था में भी रामचंद्रको कोई व्यसन नहीं था। व्यसन था तो केवल धर्मचर्चा, सत्संगति व शास्त्र स्वाध्यायका था । बाकी व्यसन तो उनसे घबराकर दूर भागते थे । इस प्रकार पच्चीस वर्ष पर्यंत रामचंद्रने किसी तरह घर में वास किया परंतु बीच २ में मनमें यह भावना जागृत होती थी कि भगवन् ! मैं इस गृहबंधन से कब छू, जिनदीक्षा लेनेका भाग्य कब मिलेगा ? वह दिन कब मिलेगा जब कि सर्वसंगपरित्याग कर मैं रूपर कल्याण कर सकूँ । रामचंद्र वसुर भी धनिक थे । उनके पास बहुत संपत्ति थी । परंतु उनको कोई संतान नहीं था। वे रामचंद्रसे कई दफे कहते थे कि यह संपत्ति घर वगैरे तुम ही लेलो । मेरे यहांक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] सब कारोभार तुम ही चलायो । परंतु रामचंद्र उन्हे दुःख न हो इस विचारसे कुछ दिन रहा भी परंतु मन मनमें यह विचार किया करता था मैं अपना भी घरदार छोडता चाहता हूं । इनकी संपत्ति को लेकर मैं क्या करूं । रामचंद्र की इस प्रकारकी वृत्तिसे श्वसुरको दुःख होता था। परंतु रामचंद्र लाचार था। जब उस ने सर्वथा गृहत्याग करनेका निश्चय ही करलिया तो उनके श्वसुर. को बहुत अधिक दुःख हुआ । दैवात् इस बीचमें मातापिताबोंका स्वर्गवास हुआ। विकराल कालकी कृपासे एक भाई व बहिनने भी विदाई लो। अब रामचंद्र का चित्त और भी उदास हुआ। उसका बंधन छूट गया। अब संसारकी अस्थिरताका उन्होंने स्वानुभवसे पक्का निश्चय किया और. उसका चित्त और भी धर्ममार्गपर स्थिर हुआ। इतने में भाग्योदवसे ऐनापुरमें प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद आचार्य शांतिसागर महाराजका पदार्पण हुआ । वीतरागी तपोधन मुनिको देखकर रामचंद्रके चित्तमें संसारभोगसे वि.क्ति उत्पन्न होगई । प्राप्त सत्समागमको खोना उचित नहीं समझकर उन्होंने श्री आचार्य चरणमें आजन्म ब्रह्मचर्यव्रतको ग्रहण किया । .. - सन् १९२५ फरवरी महीनेका बात है । श्रवणबेलगोल महाक्षेत्रमें श्री बाहुबलिस्वामीका महामस्तकाभिषेक था । इस महाभिषेकके समाचार पाकर ब्रह्मचारिजीने वहां जानेकी इच्छा की। श्रवणबेलगुल जानेके पहिले अपने पास जो कुछ भी संपत्ति थी उसे दानधर्म आदि कर उसका सदुपयोग किया । एवं श्रवण Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] बेलगुल में आचार्य शांतिसागर महाराजसे क्षुल्लक दीक्षा ली । उस समय आपका शुभनाम क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति रखागया। ध्यान, अध्ययनादि कार्योमें अपने चित्तको लगाते हुए अपने चारित्र में आपने वृद्धि की व आचार्यचरणमें ही रहने लगे। __चार वर्षबाद आचार्यपादका चातुर्मास कुंभोज [बाहुबलि पहाड ] में हुआ। उस समय आचार्य महाराजने क्षुल्लकजीके चारित्रकी निर्मलता देखकर उन्हे ऐल्लक जो कि श्रावकपदमें उत्तम स्थान है, उससे दीक्षित किया। ___. बाहुबलि पहाडपरं एक खास बात यह हुई कि संघभक्तशिरोमणि सेठ पूनमचंद घासीलालजी आचार्यबंदनाके लिये आये, और महाराजके चरणोंमें प्रार्थना की कि मैं सम्मेदशिखरजी के लिये संघ निकलना चाहता हूं। आप अपने संबसहित पधारकर हमें सेवा करनेका अवसर दें। आचार्य महाराजने संघभक्तशिरोमणिजीकी विनंतिको प्रसादपूर्ण दृष्टि से सम्मति दी। शुभमुहूर्त में संघने तीर्थराजकी वंदनाके लिये प्रस्थान किया । ऐल्लक पार्श्वकीर्तिने भी संघके साथ श्री तीर्थराजकी वंदनाके लिये विहार किया। सम्मेद शिखरपर संबके पहुंचनेके बाद वहांपर विराट उत्सव हुआ । महासभा व शास्त्री परिषत् के अधिवेशन हुए। यह उत्सव अभूतपूर्व था । स्थावर तीर्थों के साथ, जंगम तीर्थों का वहाँपर एकत्रा संगम हुआ था। ___संबने अनेक स्थानोंमें धर्मवर्षा करते हुए कटनीके चातुर्मास को व्यतीत किया। बादमें दूसरे वर्ष संघका पदार्पण चातुर्मासके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] लिये ललितपरमें हुआ। यों तो आचार्य महाराजके संघमें. सदा ध्यान अध्ययनके सिवाय साधुबों की दूसरी कोई दिनचर्या ही नहीं है। परंतु ललितपुर चातुर्माससे नियमपूर्वक अध्ययन प्रारंभ हुआ। संघमें क्षुल्लक ज्ञानसागरजी जो आज मुनिराज सुधर्मसागरजीके नामसे प्रसिद्ध हैं, विद्वान् व आदर्श साधु थे । उनसे प्रत्येक साधु अध्ययन करते थे। इस ग्रंथके कर्ता श्री ऐल्लक पार्श्वकीर्तिने भी उनसे व्याकरण, सिद्धांत व न्यायको अध्ययन करने के लिये प्रारंभ किया। ____ आपको तत्वपरिज्ञानमें पहिलसे अभिरुचि, स्वाभाविक बुद्धि तेज, सतत अध्ययनमें लगन, उसमें भी ऐसे विद्वान् संयमी विद्यागुरुवोंका समागम, फिर कहना ही क्या ? आप बहुत जल्दी निष्णात विद्वान् हुए। इस बीचमें सोनागिर सिद्ध क्षेत्रा में आपको श्री आचार्य महाराजने दिगम्बर दीक्षा दी उस समय आपको मुनि कुंथुसागरके नामसे अलंकृत किया। आपके चारित्रमें वृद्धि होने के बाद ज्ञानमें भी नैर्मल्य बढ गया । ललितपुर च तुर्माससे लेकर ईडरके चातुर्मास पर्यंत आप बराबर अध्ययन करते रहे। आज आप कितने ऊंचे दर्जेके विद्वान् बन गये हैं यह लिखना हास्यास्पद होगा। आपकी विद्वत्ता इसीसे स्पष्ट है कि अब आप संस्कृतमें ग्रंथका भी निर्माग करने लग गये हैं। कितने ही वर्ष अध्ययन कर बडी २ उपाधियोंसे विभूषित विद्वानको हम आपसे तुलना नहीं कर सकते । क्यों कि आपमें केवल ज्ञान ही नहीं है अपितु चान्त्रि जो कि ज्ञानका फल है वह पूर्ण अधिकृत होकर आपमें विद्यमान है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] इसलिये आपमें स्वपरकल्याणकारी निर्मल ज्ञान होनेके कारण आप सर्वजनपूज्य हुए हैं। आपकी जिसप्रकार रचनाकलामें विशेष गति है, उसी प्रकार वक्तृत्वकलामें भी आपको पूर्ण अधिकार है। श्रोतावोंके हृदयको आकर्षण करनेका प्रकार, वस्तुस्थितिको निरूपण कर भव्योंको संसारसे तिरस्कार विचार उत्पन्न करनेका प्रकार आपको अच्छी तरह अवगत है। आपके गुण, संयम आदियोंको देखनेपर यह कहे हुए बिना नहीं रहसकते कि आचार्य शांतिसागर महाराजने आपका नाम कुंथुसागर बहुत सोच समझकर रखा है। . आपने अपनी क्षुल्लक व ऐल्लक अवस्थामें अपनी प्रतिभासे बहुत ही अधिक धर्म प्रभावनाके कार्य किये हैं। संस्कारों के प्रचार के लिये सतत उद्योग किया है। करीब २ तीन लाख व्यक्तियोंको आपने यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत किया है एवं । लाखों लोगोंके हृदयमें मद्य मांस मधुकी हेयताको जंचाकर त्याग कराया है । हजारोंको मिथ्यात्वसे हटाकर. सम्यग्मार्गमें प्रवृत्ति कराया है। मनि अवस्थामें उत्तर प्रांत के अनेक स्थानोमें बिहार कर धर्मकी जागृति की है । गुजरात प्रांत जो कि चारित्र व संयमकी दृष्टिसे बहुत ही पीछे पडा था उस प्रांतमें छोटेसे छोटे गांवमें विहार कर लोगोंको धर्ममें सि र किया है। गुजरातके जैन व जैनेतरोंके मुखसे आपके लिए आज यह उद्गार निकलता है कि " साधु हो तो ऐसे ही हों"। बडे २ राजा महाराजावोंपर भी आपके उपदेश का गहरा प्रभाव पडता है । यह आपका संक्षिप्त परिचय है। पूर्णतः लिखनेपर स्वतंत्र पुस्तक ही बन सकती है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] वर्णन शैली। महर्षिने इस ग्रन्थके निर्माण करनेमें इतने सरल शब्दोंकी योजना की है कि प्रवेशिकामें पढनेवाले छात्र भी उसे अच्छीतरह समझसकेंग । ग्रंथके सरल होनेमें उसका उपयोग व प्रचार भी अधिक रूपसे होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समाजके सर्व श्रेणा सज्जन जिनके हृदयमें गुरुवोंके प्रति आस्था है इसका स्वाध्याय कर पुण्य संचय करेंगे । हमारे ख्यालसे सरल रचनामें ग्रन्थकाने यही उद्देश रखा होगा। इतनी मृदुरचना होनेपर भी हिंदी अनुवाद दिया गया है यह सोनेमें सुगंध होगया है। ग्रंथ विषय । . ग्रंथका विषय ग्रंथके नामसे ही स्पष्ट है । इस ग्रंथका नाम बोधामृतसार महर्षिने बहुत ही विचार पूर्वक रक्खा है। इसके अंदर वर्णित विषय कितने साल, आवश्यक, उपयुक्त व बोधप्रद है इसे अलग वर्णन करनेकी जरूरत नहीं। यह तो पाठक इसके पठन करते समय स्वयं ही अनुभव करेंगे। परंतु हम इस संबंधमें महार्षिके ही वाक्यमें इतना ही कह देना पर्याप्त समझते हैं किग्रंथ ह्यमुं वांछितदं सदैव, स्मरंति गायंति पठंति भक्त्या । श्रृण्वंति वांच्छंति नमंति यांति, त एव भव्या भुविसारसौख्यं - लभंते, अर्थात् जो भव्य कामितफल देनेवाले इस ग्रंथको सदा स्मरण करते हैं गाते हैं पढते हैं, भक्तिसे सुनते हैं सुनने की इच्छा करते हैं, नमस्कार करते हैं वे लोक में उत्तम Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] सुख को प्राप्त करते हैं । हम यह निस्संकोच कह सकते हैं कि जो इस ग्रन्थका भक्ति से अध्ययन करेंगे वे जैन सिद्धांतके मर्मज्ञ . अनेक विषयों के ज्ञाता विद्वान् बन सकले हैं । अनुवादक । . इस ग्रन्थका अनुवाद धर्मरत्न पं. लालारामजी शास्त्रीने किया है : साहित्य संसार में आपका परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। आपने अनेक ग्रन्थोंका अनुवाद व निर्माण किया है। साहित्यक्षेत्रमें आपके द्वारा जो उपकार हुआ है उस के लिये जैन समाज आपका चिरकृतज्ञ रहेगा। उपसंहार । सचमुच में पूज्यपाद महर्षि कुंथुसागर महाराजके इस पावन उपकार के लिये पाठकोंकी ओरसे उनके चरणोंमें हम श्रद्धांजलिके. 'सिवाय और क्या अर्पण कर सकते हैं ? इस ग्रन्थके प्रकाशन कार्यमें श्री धर्मवीर, गुरुभक्त सेठ रावजी सखाराम दोशीने अनेक प्रकारसे सहयोग व प्रूफ संशोधन के कार्यमें हमारे मित्र पं. जिन- . दासजी शास्त्रीने भी सहायता दी है, इसके लिये उन दोनोंका हम कृतज्ञ हैं। बोधामृतसार आचंद्रार्कस्थायी रहे, यह श्री परम पावन देवाधिदेव के चरणमें बिनम्र विनती है । सोलापूर ) आश्विन शुद्र ५ गुरुचरणसरोजचंचरीक, वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] विषय सूची. प्रथमाधिकार. विषय श्लोक संख्या मंगलाचरण प्रतिज्ञा त्याग करने योग्य देव, धर्म, गुरु, शास्त्र आदि ग्रहण करने योग्य देव, शास्त्र, गुरु .... निपुण कौन है ? धर्महीन मनुष्य कैसा होता है ? धर्मके चिन्ह कौन कौन हैं ? धर्मका फल क्या है ? दुःख दूर करनेवाला कौन है कौन नहीं ? सब तरहसे शोभायमान कौन है ? .... अज्ञानी मनुष्य की शोभा सम्यग्दर्शन की महिमा सम्यग्दर्शन के चिन्ह मिथ्यादृष्टी और सम्यग्दृष्टी किस प्रकार काल व्यतीत करते हैं ? ३८. हिंतक के पाप .... ३९ अहिंसा और उसका फल ..... ४२ पिता पुत्रादिक अपने हैं वा नहीं ? परलोक में साथ चलनेवाले बंधु २७. २९ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] ध्यान अध्ययन कौन करते हैं ? ... ...... संमार में कौन जीता है और कौन मृतक है ? मोह दुष्ट पिशाच किसको दुःख नहीं देते ? मोह, क्रोध कैसे हैं ? स्वर्ग, मोक्ष का मूल्य क्या है ? ... आत्मज्ञानरहित जीव क्या अनर्थ करते हैं ? .... दान, भोग में न आनेवाला धन कहां जाता है ? क्या आत्मनिष्ठ जीव का परिश्रम सार्थक है ? भेष, विद्वान् , व्रत कैसे शोभित नहीं होते ? विरक्त पुरुष की संपत्तियां परलोकमें कौन साथ जाता है कौन नहीं ? दोषी, गुणी क्या ग्रहण करते हैं ? .... हिंसा आहिंसाका स्वरूप .... उत्तम, मध्यम, जघन्य राजा कौन है ? । पुरुषार्थीका क्रम क्या है ? . पापी, कृपण, मूर्ख कौन है ? निर्लोभी धनको कैसा मानता है ? .... जिनधर्मरहित मनुष्यको क्रियाएं विफल हैं तपस्वी मौन क्यों रहते है और क्यों बोलते हैं ? स्वपर घातक कौन है ? श्रीमान् और दरिही कौन है ? ..... किन मनुष्योंका जन्म सफल है ? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शूरवीर कौन है ? स्वानुभूतिका स्वामी कौन है ? [ १३ ] शरीर किसलिये प्राप्त हुआ है ? जन्म परिग्रह सुख कैसे हैं ? कैसे योगीका ध्यान करना चाहिये ? सम्यग्दृधी कौन है ? अल्पायुवाला भी वृद्ध कौन है ? मनुष्यका मित्र कौन है ? आशा, चिंता, दुराचारसे कौन गुण नष्ट होते हैं ? यह जीव किस कारण से बंधा है वा मुक्त हैं ? किसकी कीर्तिका वर्णन करना चाहिये ? संसारी जीवोंका विश्रांति के कारण निपुण कौन है ? क्रोधी जीव किसको मारते हैं ? तत्वज्ञान से रहित क्या चिन्तन करते हैं ? गृहस्थ सुख शांति प्राप्त करते हैं वा नहीं ? चांडाल के समान कौन हैं ? शरीरकी शोभा किसमें है ? सद्गुरु कौन हैं ? हिंसादिक के कारण सज्जनों का स्वभाव कर्मबंध के कारण ... .... .... .... ९३ ९५ ९७ ९९ १०१ १०२ १०४ १०५ १०६ १०८ ११० ११२ ११४ ११६ ११८ १२१. १२४ १२६ १२९ १३१. १३ १३५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ १३९ १४० M.OM ~ ~ ~ ~ [१४] ब्राह्मा, विष्णू, महादेव कौन हैं ? दीन कौन है ? आत्माका निवास कहां है ? देवकी मुख्यता कहां है ? पुण्यका फल रत्नत्रय रहितकी शोभा नहीं है धर्मानुराग का फल आर्य पुरुषोंक. कारण कैसा जीव नरक जाता है ? कैसा जीव तिर्यंच गति में जाता है ! कैसा जीव मनुष्य होता है ? स्वर्ग में कौन जाता है ! मोक्ष में कौन जाता है ? सुपात्रदान का फल सम्यग्दृष्टी धर्मका त्याग करता है वा नहीं ? आत्मज्ञानरहित कौन से अकार्य करते हैं ? सम्यक्त्य और मिथ्यात्व कैसे हैं ? .... सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टी की प्रवृत्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रका लक्षण कौन किसका हित अहित नहीं जानते ? देव, धर्म, गुरुकी निंदा का फल .... मनुष्य जन्म पाकर क्या करना चाहिये ? आत्मज्ञानरहित कहां भ्रमण करता है ? .... १५७ १५९ ~ ~ ~ Yur ur ar 955 ~ ~ १६९ ..... १७१ ..... १७५ ..... १७९ .... १८१ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १ ] नरकादिक की आयु के कारण सम्यग्दृष्टी सम्यग्दर्शन को जानते हैं या नहीं ? सुपुत्र, कुपुत्र, कौन है ? चारों गतियोंको किससे भय लगता है ? धनादिक में सार क्या है ? मूर्ख, असाधु, दरिद्री कौन है ? शक्त और अशक्त कौन है ? किसने परपदार्थ का त्याग किया है ? परिग्रह सहित और रहित कौन है ? .... ... .... .... ... .... .... ध्यान स्वाध्यायादिकका फल क्या है ? दुष्टोंके द्वारा दुखी होनेपर और सज्जनोंके द्वारा सुखी होनेपर साधु क्या करते हैं ? २०४ शीलवती स्त्रियोंका व सज्जनोंका स्वभाव कैसा है ? २०७ आत्मा इन्द्रियोंसे मनसे वा आत्मासे किसीसे देखा जाता है ? २११ ज्ञान कैसा प्रशंसनीय है ! .... जो दान नहीं देता उसके धन की क्या गति होती है ? जोरत्नत्रय को पाकर कर्म नष्ट नहीं करते वे कैसे हैं ? जो सब शास्त्रोंको पढ़कर भी धर्म की श्रद्धा नहीं करते १८५ १८७ १८८ १९०. १९९ १९४ १९६ १९८ १९९ २०१. जो सज्जाति सुधर्म को छोडकर स्वतंत्र प्रवृत्ति करते हैं क्या मनुष्यवृद्धि हेय हैं ? २१७ ३३२ २२४ वे कैसे हं ? २२८ वे कैसे हैं ? २३४ २३८ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ३२२. ३५० . . . . जो मनुष्य पुरुषार्थीको विना क्रमके सेवन करते हैं . . . वे कैसे हैं ? २४० जो अपने पदके योग्य कार्य नहीं करते वे कैसे हैं ? २४९, दूसरा अधिकार. ' उपवास के दिन कौनसी भावनाओं का चिंतन करना चाहिये व सोलहकारण भावनाओं का स्वरूप २६६ दशधर्मोका स्वरूप ३०२ निःशीकतादिक अंगोंका स्वरूप मूढताओंका लक्षण ३४४ छहों अनायतनोंका लक्षण मदोंका लक्षण तीसरा अधिकार. बारह अनुप्रेक्षाओंका स्वरूप सात तत्त्वोंका स्वरूप मात व्यसनोंका स्वरूप पांच पाप । पाप और व्यसनोंमे भेद चौथा अधिकार. पाक्षिक श्रावकका लक्षण नैष्टिक श्रावक व ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप बारह व्रतोंका स्वरूप और अतिचार .... ४५९. तीसरीसे ग्यारहवी प्रतिमाओंके लक्षण .... प्रशस्ति ५३३ SSC 00:00 cccw ५१० Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधामृतसार सेठ अमथालाल साकलचंदजी पेथापुर. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ अमथालालजीका संक्षिप्त परिचय. me 09-~इस ग्रंथ के प्रकाशक शेठ अमधालालजी का जीवन वृत्तांत समाज के धर्मात्मावोंको अनुकरणीय व बोधप्रद होनेसे उसे यहां पर मंक्षेप से वर्णन किया जाता है । जन्म व परिवारपरिचय. शेठजीका जन्म पेथापुर [ गुजरात ] में श्री शेठ साकलचंद जीकी पत्नी श्रीमती जीवकोर बाई के गर्भमें विक्रम संवत् १९२४ में हुआ । शेठ साकलचंदजी बहुत चतुर, धर्मात्मा व व्यवहार कुशल थे। शेठ अमथालालजी को दो महोदर और सहोदरी भी थी, सबसे छोटी बहिनका विवाह गुजरात में रखियाल नामक गाममें हुआ। वह अभी वैधव्य दशामें है। उनके छगनलाल नामो भाई विक्रम सं. १९९० में स्वर्गवासी हुए। और कनिष्ठ सहोदर चुन्नीलालजीने सं. १९९३ में श्री १०८ मुनि श्री सनिधि में ब्रह्मचर्य दीक्षाली । ओठ साकलचन्दजीकी सांपत्तिक स्थिति यद्यपि साधारण थी तथापि उनका धर्मप्रेम व धर्मोन्नतिकी चिंता वर्णनीय थी। वे सदा धर्ममार्ग में रत होकर हमेशा अपने लौकिक कार्य को साधन करते थे। शिक्षण. इस बीसवें शतक से पहिले स्कूल व कालेज के उच्च शिक्षणकी अपेक्षा व्यापारोपयोगी शिक्षण लेना महत्वका समझा जाता था । इसलिये साकलचंदजीने भी अपने पुत्रको वही Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्योगोपयोगी शिक्षणको ही दिलाया । इसलिये से अमथालालजी के विशेष शिक्षण की प्राप्ति नहीं हो सकी । गार्हस्थ्य जीवन. मेट अमालालजीका विवाह उनके १६ वें वर्ष में अलुवाके सेठ प'मचंद रेवचंदकी कन्या माणिकबाई के साथ हुआ | उनके गर्भ में दो पुत्र व दो पुत्री संतान हुई थी । उन में दो पुत्र तो प्रसव के समय और एक पुत्री विवाहानंतर यम के मेहमान हुई । केवल एक रतन बेन नामक कन्यारत्न अभी मौजूद है । इसके अलावा सेठजीको और कोई पुत्ररत्न की प्राप्ति नहीं हुई । और सेठजीने भी उस के लिये दूसरे विवाह करलेनेका विचार कभी नहीं किया । प्रत्युत् संतान वियोगके दुःख को अत्यंत धैर्य व धर्म्यविचार से सहन किया। इतना ही नहीं, संतानप्रेम के क्षेत्र को विशाल करने लिये अपने आयुष्य को धर्म व समाज सेवा में लगाने का निश्चय किया । और तदनुसार आपने अपने जीवन में कितने ही गरीब कुटुंबियोंकी सहायता कर अपने चित्तकी उदारताको व्यक्त किया है । शेटजीकी धर्मपत्नी सौ. माणिकबाईका वियोग सं. १९८८ में हुआ । इस से सेठजीका चित्त और भी उदास हुआ । इसलिये उन्होंने धर्मसाधन में अधिक स्वातंत्र्यकी अभिलाषासे सर्व कुटुंबियोंकी सम्मति से अपनी सारी संपत्ति को अपनी प्रिय पुत्री रतनबेन को देकर उन दम्पतियोंको अपने घर में रख लिया है । व्यापार उद्योग. शिक्षण से छुट्टी पाने के बाद शेटजीने अपनी दुकान के कामकाज देखने के लिये प्रारंभ किया, साथ ही सराफी के उद्यो २ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गको भी प्रारभं किया । पिताजीके स्वर्गवास के बाद तीनों भाईयोंने बहुत प्रेम के साथ मिलकर व्यापार किया व अच्छा द्रव्यार्जन किया। साथ में यह उल्लेखनीय है कि आपने व्यापार क्षेत्रमें अत्यंत न्याय व नीतिपूर्वक व्यवहार किया, इसलिये आज भी आप आदर्श व यशस्वी व्यापारी गिने जाते हैं । परोपकार जीवन. शेठजी का स्वभाव स्वभावतः परोपकारी व दया परिपूर्ण है, उससे उनके निकट बंधु या कोई इतर गरीब लोग संकष्ट में हो तो उनकी सहायता वे हमेशा करते रहते हैं । धार्मिक जीवन... यद्यपि सेठजीका धार्मिकज्ञान साधारण था तो भी उनके आत्मापर धार्मिक श्रद्धा व धर्मोन्नतिकी चिंताका संस्कार अटल रूपसे बैठा हुआ है । यही कारण है कि उनका धार्मिक जीवन उज्वल होता गया । वि. सं. १९६८ से तारंगाजी सिद्धक्षेत्र कमेटी की व्यवस्था स्वयं बहुत चिंता परिश्रम व उत्साह के साथ करते हैं। उसी प्रकार विजापूर के मंदिरका काम भी स्वयं देखते हैं। शेठजी श्रावकोंका नित्य नियम, रात्रिभोजनत्याग, कंदमूल त्याग वगैरे क्रियावोंका वहुत सावधानीसे पालन करते हैं। उसी प्रकार यथाशक्ति व्रत, उपवास अदि भी करते हैं। धार्मिक दान. शेठजीने अभी तक निम्न लिखित प्रकार अपने द्रव्यका सदुपयोग किया है! संवत् १९७५ में अपने सर्व कुटुंबी परिवार के साथ सम्मेद शिखरजीकी यात्रा की, उस समय बहुत धनका व्यय किया। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् १९८० में श्रीपालितानाकी यात्रा की, उस समय वहांपर २२५) खर्च कर धर्मशालेकी एक कोठडी बनवाई । __संवत् १९८४ में तारंगाजीमें एक हजार रु. खर्च कर कोटि शिलापरं एक जिनबिंबकी स्थापना कराई । ____संवत् १९८५ में धर्मपत्नी माणिकबाईने १० उपवास किये उस समय शेठजीने अपने घर समवशरण की रचना कर बहुत ही ठाठवाटके साथ व्रतोद्यापन विधान किया। इस कार्य में उन्होंने करीब ३०००) का व्यय किया। पेथापुरमें मुनि मुनींद्रसागरजीने सं. १९८६में चातुर्मास किया उस समय शेठजीने स्वत: बहुत ही अधिक खर्चा किया। संवत् १९९२में जब परमपूज्य श्री १०८ आचार्य शांतिसागर संघका पदार्पण श्री तारंगाजीपर हुआ उस समय शेठजीने वहांकी धर्मशालाकी कोठडी के लिये २५१) दिये । ___गतवर्ष पेथापुरमें मुनि वीरसागरजीका चातुर्मास हुआ उस समय शेठजीने पेथापुरकी पाठशालाके लिये १०००)की सहायता दी। संवत् १९९३ में पूज्य मुनिराज कुंथुसागरजी महाराज श्री तारंगाजी पर आये जब सेठजीने ४०१) शास्त्रदान में दिये जिससे यह ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है । इस प्रकार शेठ अमथालालजीने अपने द्रव्यका अनेक प्रकार से सदुपयोग किया है व कर रहे हैं। वे अत्यंत सरलहृदयी, धार्मिक व गुरुभक्त हैं । उनका जीवन अनुकरणीय है। पेथापुर ता. २६-१०-३७, गुणानुरागी. चंदुलाल मणीलाल शाह. Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समर्पण. श्रीमदाचार्यवर्य पूज्यपाद गुरुवर्य श्री १०८ शान्तिसागरजी (भोज) महाराजके पुनीत करकमलोंमें भगवन् ! आपकी ही कृपासें मैं सांसारिकतृष्णा से मुक्त होकर मैने यह पवित्र रत्नत्रय धारण किया है तथा आपकी ही भक्ति प्रसादसे यह अत्यंत स्वल्परूपा विद्या प्राप्त की है और उसीका फल स्वरूप यह ग्रंथ प्रगट हुआ है | इसलिये मैं आपके ही पवित्र करकमलों में यह ग्रंथ समर्पण करता हूं और भावना रखता हूं कि आपके पवित्र चरण कमलोंकी भक्ति मेरे हृदय में सदा बनी रहे । चरणसरोरुहसेवीशिष्य निग्रंथ श्रीकुंथुसागर. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधामृतसार वीतराग तपोभूर्ति दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ आचार्य - शिरोमणि शांतिसागरजी महाराज संसारसिन्धुपरिलङ्घन मुख्यवीरं स्वानन्दसिन्धुपयसि प्रविलीनमेनम् । स्वर्मोक्षमार्गनिरतं मुनिवृन्दवन्द्यं भीमे कलावपि नृपोरगवृन्दपूज्यं ॥ दुःखे सुखेऽप्यनुपमं स्वरसं पिबन्तं स्वाचारसाररासिकं परमं पवित्रं । आचार्यशांति जलधिं नमतीति भक्त्या श्रीकुंथु सागर मुनिस्तव मुख्यदासः ॥ Page #31 --------------------------------------------------------------------------  Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः । मुनिराजश्रीकुंथुसागरविरचितः बांधामृतसारः। हिंदीभाषाटीकासहितः। खराज्यकत्रे शिवसौख्यभोक्ो। मोक्षप्रदात्रे भवबीजहः ॥ वीराय भव्याम्बुजभास्कराय । त्वत्सौख्यलाभाय नमोस्तु तुभ्यं ॥१॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] जो भगवान वीरनाथ स्वामी अपने आत्माके स्वतंत्र राज्यको करनेवाले हैं मोक्षसुखको भोगनेवाले हैं मोक्षको देनेवाले हैं संसारके कारणोंको हरण करनेवाले हैं और भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्यके समान हैं ऐसे भगवान बद्धमान स्वामीको उनके सुख प्राप्त करनेक लिए मैं नमस्कार करता हूं ॥१॥ वंदित्वा श्रीजिनान् सिद्धान् । सूरीन् साधूंश्च पाउकान् ॥ वक्ष्ये बोधामृतं सारं। भव्यानां बोधहेतवे ॥२॥ मैं अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधुआको नमस्कार करके भव्यजीवोंको सम्यग्ज्ञान प्राप्त करनेके लिए बोधामृतसार नामका ग्रंथ कहता हूं ॥२॥ देवश्च कीदृशस्त्याज्यः । धर्मों धर्मगुरुस्तथा ॥ शास्त्रं च पंडितः कीदृक् । त्याज्यः शास्त्री च कीदृशः॥ प्रश्न: कैसा देव त्याग करने योग्य है ? धर्म और धर्मगुरु भी कैसा त्याग करने योग्य है ? कैसा शास्त्र त्याग करने योग्य है ? कैसा पंडित त्याग करने योग्य है ? और कैसा शास्त्री त्याग करने योग्य है ? ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] देवो हि चाष्टादशदोषयुक्त। स्त्याज्यो दयाभीरहितश्च धर्मः। रत्नस्त्रिभिः सौख्यमयैश्च रिक्त-॥ स्त्याज्योगुरुस्तत्त्वविचारशून्यः ॥३॥ एकान्तप:भुवि दूषितं हि । त्याज्यं च शास्त्रं जिनमार्गबाह्यम् ॥ त्याज्योस्ति विद्वानपि धर्मशून्यः । श्रीमान् हि शास्त्री परमार्थशून्यः ॥४॥ उत्तरः-जिसमें भूख प्यास जन्ममरण आदि अठारह दोष विद्यमान हैं ऐसा देव त्याग करने योग्य है, जो धर्म दयासे रहित है वह भी त्याग करने योग्य है और सुखमय रत्नत्रयसे रहित है तथा तत्त्वांके विचार करने में शून्य है ऐसा गुरु भी त्याग करने योग्य है। जो शास्त्र एकांत पक्षसे दूषित हैं और जिनमार्ग से बाह्य हैं वे भी त्याग करने योग्य हैं । जो विद्वान् धर्मशून्य है वह भी त्याग करने योग्य है और जो शास्त्री परमार्थसे रहित है वह भी त्याग करने योग्य है ॥३॥४॥ ग्राह्याश्च कीदृशा देव । शास्त्रधर्मादयस्तथा ॥ प्रश्न-देव शास्त्र गुरु धर्म आदि कैसे ग्रहण करने चाहिए ? Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] ग्राह्योस्ति धर्मः सहितो दयाभि- । देवोपि चाष्टादशदोषमुक्तः ॥ रत्नैस्त्रिभिः सौख्यमयैश्च युक्तों ॥ वंद्यो गुरुः स्वात्मरसेन तृप्तः ॥५॥ मोक्षस्य मार्गोपि जिनोक्त एव । ग्राह्यो हि चिन्त्यः सुखशान्तिदाता । सापेक्षसिद्धं हि जिनोक्तमेव । शास्त्रं प्रमाणं निजबोधदं च ॥६॥ उत्तरः—जो धर्म दयासे सुशोभित है वही धर्म ग्रहण करने योग्य है, जो देव अठारह दोषोंसे रहित है बही देव पूजा करने योग्य है ! जो गुरु सुखमय रत्नत्रय से सुशोभित है तथा अपने आत्मसुख वा आत्मरससे संतुष्ट है ही गुरु वंदना करने योग्य है । जो मोक्षमार्ग भगवान जिनेंद्र देवका कहा हुआ है और सुख शांति देनेवाला है वही मोक्षमार्ग ग्रहण करने योग्य है और जो शास्त्र अपेक्षाकृत अनेकांत वादसे सुशोभित है भगवान जिनेंद्र देवका कहा हुआ है और आत्मज्ञानको प्रदान करनेवाला है शास्त्र प्रमाण है तथा पठन पाठन करने योग्य है ॥५॥६॥ निपुणास्सन्ति लोकेऽस्मिन् । के नरा भो गुरो वद ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-हे गुरो ! आप कहिए कि इस संसारमें चतुर कौन हैं ! . स एव धीमान्निपुणोपि दानी। ज्ञानी च साधुः सुखशांतिभोगी ॥ यो मोहजालं प्रविहाय शीघ्रं । स्थातुं स्वधर्म यतते सदैव ॥७॥ उत्तरः-जो मनुष्य मोहजालको छोडकर शीघ्र ही अपने आत्मधर्ममें स्थिर होनेके लिए सदा प्रयत्न करते रहते हैं इस संसारमें वे ही बुद्धिमान हैं, वे ही निपुण हैं वे ही दानी हैं, ये ही ज्ञानी हैं, वे ही साधु हैं और वे ही सुख और शांतिको भोगनेवाले हैं ॥७॥ धर्मेण हीना शोभन्ते । नरा वा न कचित्कदा ॥ प्रश्नः-जो मनुष्य धर्मरहित हैं वे कभी किसी जगह शोभायमान होते हैं वा नहीं ? यथा सरो भाति न पद्महीनं । तोयेन हीना न नदी न वापी ॥ जीवेन हीनं न वपुर्विभाति । गन्धेन हीनं कुसुमं न तैलम् ॥८॥ उत्तरः-जिस प्रकार कमलोंसे रहित सरोवर सुशोभित नहीं होता, विना पानीके नदी और बावडी सुशोभित Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] नहीं होती, विना जीवके शरीर सुशोभित नहीं होता और विना सुगंधके पुष्प वा तेल सुशोभित नहीं होता ॥८॥ दुग्धेन हीना न च भाति धेनुः । शीलेन हीनो न नरो न नारी ॥ लता न वृक्षः सुफलेन हीनः । स्नेहेन हीनो न सखा न बंधुः ॥ ९ ॥ जिस प्रकार दूधके विना गायकी शोभा नहीं है, शीलके विना स्त्री पुरुषकी शोभा नहीं है श्रेष्ठ फलांके विना लता और वृक्षोंकी शोभा नहीं है तथा प्रेमके विना मित्र और बांधवों की शोभा नहीं है || ९ || पक्षेण हीनो न च भाति पक्षी । पुत्रेण हीना न च भाति राज्ञी । अन्नं च खाद्यं लवणेन हीनं । कण्ठेन हीनं न च भाति गीतम् ॥१०॥ जिसप्रकार पंखों के विना पक्षियोंकी शोभा नहीं है, पुत्र विना रानीकी शोभा नहीं है, नमकके विना अन्न वा खाद्य पदार्थोकी शोभा नहीं है और कंडके ( मधुर कंठके ) विना गीतकी शोभा नहीं है ॥ १० ॥ न भाति लोके मतिहीनमंत्री | देवेन हनिं न च चैत्यधाम ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगेन हीनो न च भाति योगी। हस्तेन हीनं न च भाति शस्त्रम् ॥११॥ जिसपकार इस संसारमें विना तीव्र बुद्धिके मंत्री शोभा नहीं देता, विना देवके देवालय शोभा नहीं देता, विना योग वा ध्यानके योगी शोभा नहीं देता और विना हाथके शख शोभा नहीं देता ॥११॥ नेत्रेण हीनं वदनं न भाति । सत्येन हीना न च भाति वाणी ॥ अन्नं च खाद्यं रहितं घृतेन । दन्तेन हीनो न गजो विभाति ॥१२॥ जिसमकार विना नेत्रोंके मुखकी शोभा नहीं होती, विना सत्यताके वचनोंकी शोभा नहा होती, विना घीके खाने योग्य अन्नकी शोभा नहीं होती और विना दांतोंके हाथीकी शोभा नहीं होती ॥१२॥ हीनं च शास्त्रं न हि चाक्षरेण । मह्या हि हीना न च भाति छाया ॥ न भाति लोके गुरुहीनशिष्यो। हीनः सभाभिन च भाति धीमान् ॥१३॥ जिसमकार विना पूर्ण अक्षराके शाख शोभायमान नहीं होते, विना पृथ्वीकं छाया शोभा नहीं देती, इस Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] लोक में विना गुरुके शिष्य सुशोभित नहीं होता और विना सभाके बुद्धिमान् की शोभा नहीं बढती ॥१३॥ चन्द्रेण हीना न च भाति रात्रिः । स्वात्मानुभूत्या रहितश्च साधुः ॥ नीत्या विहीनो न च भाति राजा। न भाति शूरोपि विवेकशून्यः ॥१४॥ जिस प्रकार चन्द्रमाके विना रात्रिकी शोभा नहीं होती स्वात्मानुभूति अर्थात् अपने शुद्ध आत्माके अनुभवके विना साधुकी शोभा नहीं होती, नीतिके विना राजा शोभायमान नहीं होता, और शूर वीर विना विवेकके शोभायमान नहीं होता ॥१४॥ वृष्ट्यादिहीना न च भाति पृथ्वी । पूजादिहीनो न गृही विभाति ॥ परोपकार रहितो न जीवो । दानेन होनो धनवान्न भाति ॥१५॥ जिस प्रकार विना जलवृष्टिके पृथ्वीकी शोभा नहीं बढती, विना पूजा स्वाध्यायके गृहस्थ श्रावक सुशोभित नहीं होता, परोपकारके विना मनुष्यकी शोभा नहीं होती और विना दान के धनवानकी शोभा नहीं होती ॥१५॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] शान्त्या विहीनो न जपस्तपोपि । व्रतोपवासोपि न भाति लोके ॥ सूर्येण हीनं न दिने विभाति । चारित्रहीनो न च भाति साधुः ॥ १६ ॥ जिस प्रकार विना शांतिके इस लोक में जप तप व्रत और उपवास आदि कुछ शोभा नहीं देते, विना सूर्यके दिनकी शोभा नहीं होती और विना सम्यक् चारित्र धारण किये साधुकी शोभा नहीं होती ॥ १६ ॥ जातिः कुलं भाति धनेन हीनं । न भाति हीनो दयया व्रती च ॥ न भाति जीवः कुलजातिहीनः ॥ सुपुत्रहीनं न गृहं विभाति ॥ १७ ॥ जिसप्रकार विना धनके जाति और कुलकी शोभा नहीं होती, विना दयाके व्रतीकी शोभा नहीं होती, विना श्रेष्ठ कुल और श्रेष्ठ जातिके जीवकी शोभा नहीं होती और विना सुपुत्र के घर की शोभा नहीं होती ॥ १७॥ श्रेष्ठपि पुत्रः कुलजातिधर्मा - । न्मातुः पितुर्यः प्रतिकूलवर्ती ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] श्रेष्ठापि भार्या पतिभक्तिहीना । न भाति शिष्यो गुरुभक्तिहीनः ॥ १८ ॥ जिस प्रकार कुल जाति और धर्मसे श्रेष्ठ होने पर भी माता पिताके प्रतिकूल रहनेवाला पुत्र सुशोभित नहीं होता तथा पतिकी भक्ति न करने वाली श्रेष्ठ भार्या भी सुशोभित नहीं होती और गुरुकी भक्ति के विना शिष्यकी शोभा नहीं होती ॥ १८ ॥ तथैव लोके जिनधर्महीनो । न भाति जीवो न च तस्य बुद्धिः ॥ क्रियाकलापोपि न भाति शौर्यं । भक्तिर्न शक्तिर्न नृजन्मरत्नम् ॥१९॥ उसी प्रकार इस संसार में विना जिनधर्मके न तो इस जीवकी शोभा होती है न उसकी बुद्धिकी शोभा बढती है न उसका क्रियाकांड सुशोभित होता है न उसकी शूर वीरता सुशोभित होती है न उसकी भक्ति सुशोभित होती है, न उसकी शक्ति सुशोभित होती है और बिना जिनधर्मके न उसका मनुष्य जन्मरूपी रत्न सुशोभित होता है ॥१९॥ ज्ञात्वेति कुर्वन्तु सदैव धर्मं । भव्यः प्रमोहं प्रविहाय शीघ्रम् ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] प्राणेषु को सत्सु गतेषु केपि। जविा भवेयुर्न च धर्महीनाः ॥२०॥ यही समझकर भव्य जीवोंको शीघ्र ही अपना मोह छोडकर सदाकाल धर्म धारण करते रहना चाहिए । इस संसारमें प्राणोंका नाश होने पर भी जीवको कभी भी धर्मरहित नहीं होना चाहिए ॥२०॥ कानि धर्मस्य चिन्हानि । लोकेस्मिन् त्रिजद्गरो॥ प्रश्न:-हे तीनों लोकोंके गुरु ! इस संसार में धर्मके कौन कौन चिन्ह हैं ? धर्मस्य चिन्हं प्रतिपाद्यते हि। क्षमादिवर्गं च तपो जपोपि ॥ व्रतोपवासो यजनं सुदानं ॥ शान्तिः सुशीलं समता दया हि ॥२१॥ धर्मो ह्यहिंसा ह्यनृतं ह्यचौर्यं । त्यागो ह्यसंगो मिथुनस्य लोके ॥ निजात्मधर्मे स्वपदे स्थिरत्वं । ध्यानं प्रभावा स्वरसस्य पानम् ॥२२॥ उत्तरः-हे शिष्य ! अब मैं धर्मके चिन्होंको कहता हूं, तू सुन । उत्तम क्षमा आदि दशधाका समूह ही धर्म Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] है, तपश्चरण करना धर्म है, जप करना धर्म है, व्रत उपवास करना धर्म है, देवपूजा करना, दान देना परिणामोंको शांत रखना, शील पालन करना, समता धारण करना, दया पालन करना, अहिंसा पालन करना, सत्यभाषण करना, अचौर्य व्रत धारण करना, परिग्रहोंका त्याग करना और मैथुन वा अब्रह्मका त्याग करना धर्म है । इसीप्रकार अपने आत्म धर्ममें लीन होना अपने स्वात्मस्वरूपमें स्थिर रहना भगवान् जिनेंद्र देवका ध्यान करना और अपने आत्मरस का सदा पान करते रहना धर्म है । भावार्थ ये सब धर्मके चिन्ह हैं ॥२१॥२२॥ 'धर्मात्किं प्राप्यते लोके । परलोकेऽपि किं गुरो॥ प्रश्न:--हे गुरो ! धर्मके प्रभावसे इस लोकमें क्या मिलता है और परलोकमें क्या मिलता है ? धर्मेण बंधुः सुगुरुः पितापि। मित्रं सुपुत्रो भगिनी च भार्या। अन्यैरलभ्या भुवि सारभूता । साम्राज्यलक्ष्मीर्भवति स्वदासी ॥२३॥ धर्मप्रसादात्सकलाश्च जीवाः । स्वराज्यलक्ष्मी क्रमतश्च लब्ध्वा ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] संसारकूपाद्धि तरन्ति शीघं। धर्मस्य लोके महिमा ह्यचिन्त्यः॥२४॥ उत्तरः-इस संसारमें धर्मके प्रसादसे श्रेष्ठ बंधु प्राप्त होते हैं श्रेष्ठ गुरु प्राप्त होते हैं । पिता, पुत्र, मित्र भगिनी स्त्री आदि सब कुटुंब वर्ग प्राश होता है ! जो अन्य जीवों को न मिल सकें ऐसे इस संसारके सारभूत समस्त पदार्थ प्राप्त होते हैं और धर्मके ही प्रसादसे यह साम्राज्य लक्ष्मी अपनी दासी हो जाती है । इस धर्मके ही प्रसादसे समस्त जीव अनुक्रमसे स्वराज्य लक्ष्मी का अनुभव करते हुए इस संसार सागरसे बहुत शीघ्र पार हो जाते हैं । अतएव कहना चाहिए कि इस संसार में धर्म की महिमा अचिंतनीय है ॥२३॥२४॥ दुःखहर्ता च को लोके । के वा सन्ति न भो गुरो ।। प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसारमें दुःख हरण करनेवाला कौन है और कौन नहीं है ? पिता न माता भगिनी न भार्या । पुत्रो न मित्रं न च कोपि बंधुः ॥ स्वामी न भृत्यो न च कापि देवी। देवो न दैत्यो न च कोपि वैद्यः ॥२५॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] राजा न राज्यं न च कामधेनु- । चिन्तामणिर्वा न च कल्पवृक्षः । मंत्री न मंत्रो हि विहाय धर्मं । दुःखस्य हर्ता सुखशांतिदाता ||२६|| उत्तर: –— इस संसारमे पिता, माता, भगिनी, खी, पुत्र, मित्र, भाई, स्वामी, सेवक, देव, देवी, दैत्य, वैद्य राजा, राज्य, कामधेनु, चिंतामणि, कल्पवृक्ष मंत्र और मंत्री आदि कोई भी दुःखों को दूर नहीं कर सकता एक धर्म ही दुःखको दूर करने वाला है । धर्मके सिवाय दुःखोंको दूर करनेवाला और सुख शान्ति देनेवाला अन्य कोई नहीं है ||२५||२६|| - को वा मनोज्ञो गुणवान् । सर्वशोभां बिभर्ति यः ॥ प्रश्न : - ऐसा कौन है जो मनोज्ञ हो, गुणवान हो और सब तरह की शोभाको धारण करता हो ? सना मनोज्ञः स विभुः स वीरः । श्रीमान् स दानी बलवान् स धीरः ॥ ज्ञानी स योग्यो विमलः स राजा । भक्त्या सदा यश्च करोति धर्मम् ||२७|| Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] उत्तरः – जो पुरुष भक्ति पूर्वक सदा धर्मको धारण करता है वही पुरुष इस संसार में मनोज्ञ कहलाता है, वही स्वामी कहलाता है, वही वीर और श्रीमान् कहलाता है वही दानी और बलवान् कहलाता है, वही धीर वीर कहलाता है, वही ज्ञानी कहलाता है वही योग्य कहलाता है ant निर्मल कहलाता है और वही राजा वा सबका स्वामी कहलाता है ||२७|| ज्ञानहीना नरा लोके । शोभन्ते वा न वा क्वचित् ॥ प्रश्न: - हे गुरो ! क्या ज्ञानहीन मनुष्य कहीं शोभा देते हैं वा नहीं ? 1 वस्त्रादिमाल्यैः परमैः सुलिंगैः सुसंस्कृतानां च नृणां मुनीनाम् ॥ सुज्ञानहीनं न च भाति रूपं । वचोपि तेषां न वपुर्न जन्म ॥२८॥ उत्तरः- जो मनुष्य वखाभूषण वा माला आदिसे सुशोभित है अथवा जो मुनिश्रेष्ठ जिनलिंगसे सुशोभित हैं ऐसे मुनि वा मनुष्यों का स्वरूप सम्यग्ज्ञानके विना कभी शोभा नहीं देता । इतना ही नहीं किंतु सम्यग्ज्ञानके विना न तो उनके वचन शोभा देते हैं न उनका शरीर शोभा देता है और न उनका जन्म सुशोभित होता है || २८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] सम्यग्दर्शनमाहात्म्यं । कृपा कृत्वा गुरो वद । प्रश्नः - हे गुरो ! कृपा करके सम्यग्दर्शनका माहात्म्य तो कहिए । सद्दृष्टिमाता हृदि यस्य नित्यं । स्यात्तस्य सिंहोपि मृगो हि शीघ्रम् ॥ गजोप्यजो भीमफणी च माला । बहिश्च तोयं रिपवः सखायः ॥२९॥ जलं स्थलं ह्येव विपत्सु संप- । चौराः सुदासाश्च विषं सुधैव ॥ जरारुजादिः खलकंटकादि । दुष्टग्रहादिः सुखसाधकाः स्युः ||३०|| उत्तर: – जिस मनुष्य के हृदय में सम्यग्दर्शन रूपी माता सदा विराजमान है उसके लिए सिंह भी शीघ्र हिरण हो जाता है, हाथी बकरा हो जाता है, भयानक सर्प माला बन जाता है, अग्नि जलरूप हो जाती है, शत्रु मित्र हो जाते हैं, जल स्थल हो जाता है, समस्त विपत्तियां संपत्ति के रूपमें बदल जाती है, चोर दास हो जाते हैं, विष अमृत हो जाता है और बुढापा, रोग, दुष्ट, कंटक, दुष्ट ग्रह आदि दुःखके कारण सब सुखके साधन बन जाते हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] अचिन्त्यसौख्यस्य वरं निधानं, पोतं वरं तारयितुं भवाब्धेः। साम्राज्यबीजं स्वसुखस्य सारं, भेत्तुं समर्थं च चतुर्गतिं च ॥३१॥ मिथ्यात्वतापं शमितुं जलं हि, दातुं समर्थं सुखशान्तिराज्यम् । सम्यक्त्वरत्नं सकलाश्च जीवा ! गृह्णन्तु शीघ्रं निजराज्यहतोः ॥३२॥ यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न अचिन्त्य सुखोंका श्रेष्ठ खजाना है, संसाररूपी समुद्रको पार कर देनेके लिय उत्तम जहाज है, तीनों लोकों राज्यका बीज है, आत्मसुखका सार है, चारों गतियों का नाश करनेके लिये समर्थ है, मिथ्यात्वरूपी संतापको शांत करनेके लिये जल है, और सुख शांति के राज्यको देने में समर्थ है। ऐसा यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न समस्त जीवोंको अपने शुद्ध आत्मा का राज्य प्राप्त करनेके लिये शीघ्र ही स्वीकार करना चाहिये, ग्रहण करना चाहिये ॥३१॥३२॥ पिता न माता भगिनी न भार्या, बंधुन पुत्रो न च मित्रवर्गः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] न कोऽपि लोकेऽस्ति कुटुंबवर्गः, श्रेष्ठोऽपि नाको न च भोगभूमिः ॥ ३३ ॥ न कामधेनुर्न च कल्पवृक्ष, श्चिन्तामणिर्वा न च तंत्रमंत्रः । सम्यक्त्वरत्नं प्रविहाय कोऽपि, मोक्षप्रदाता भवजन्महर्ता ॥ ३४ ॥ इस संसारमें एक सम्यग्दर्शनरूपी रत्न ही मोक्ष देनेवाला है और यही संसारके जन्म-मरणोंको हरण करनेवाला है | इस सम्यग्दर्शनरूपी रत्नके सिवाय माता, पिता, भगिनी, स्त्री, भाई, पुत्र, मित्रवर्ग, कुटुंबवर्ग, स्वर्ग, भांगभूमि, कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिंतामणि और तंत्रमंत्र आदि कोई भी न श्रेष्ठ हैं न मोक्ष देनेवाले हैं और न संसारके जन्ममरणके हरण करनेवाले हैं। एक सम्यग्दर्शनरूपी रत्न ही श्रेष्ठ है, मोक्ष देनेवाला है आर जन्ममरण को हरण करनेवाला है ||३३|३४|| सम्यग्दर्शनचिन्हानि साम्प्रतं वद भो गुरो । प्रश्नः - ३ गुरो ! अब सम्यग्दर्शनके कौन कौन चिन्ह हैं ? उन्हें बतलाइये | सम्यक्त्वचिन्हं प्रतिपाद्यते हि, श्रद्धा च भक्तिर्गुरुदेवशास्त्रे । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] संसारभोगाद्धि विरक्तबुद्धिः, सर्वेषु जीवेषु दयार्द्रभावः ||३५|| चिन्हेन बुद्ध्वा खलु सर्ववस्तु, परे विरक्तिश्च निजे रतिश्च । स्वात्मानुभूतेः स्वरसस्य पानं, सदा प्रयत्नो निजराज्यहेतोः ||३६|| आत्मात्मना चात्मनि चात्मने वा -, मनो हि चात्मानमपि प्रयत्नात् I विलोकनं चिन्तनबोधनं च, पंचेंद्रियादेः प्रविहाय मार्गम् ॥३७॥ उत्तर: – हे वत्स ! सुन, अब मैं सम्यग्दर्शनके चिन्ह कहता है । देव, शास्त्र, गुरुमं श्रद्धा और भक्ति रखना, संसार और भोगोंसे विरक्त रहना, समस्त जीवोंकी दया पालन करना, समस्त पदार्थोंको अपने अपने लक्षणों से अच्छी तरह समझकर परपदार्थों का त्याग कर देना वा परपदार्थोंसे विरक्त रहना और अपने आत्मतत्त्वमें लीन रहना, अपनी आत्मानुभूतिका और अपने आत्मानंदका सदा पान करते रहना, तथा अपने आत्माका स्वराज्य प्राप्त करनेके लिये अर्थात् स्वतंत्र सिद्ध अवस्था प्राप्त करने के लिये Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] सदा प्रयत्न करते रहना ये सम्यग्दर्शनके चिन्ह हैं । अथवा पांचों इन्द्रियोंके द्वारा और मनके द्वारा जो ज्ञान, दर्शन होता है उस ज्ञान दर्शनके मार्गको हटाकर केवल अपने आत्मा के दर्शन ज्ञानके लिये अपने ही आत्मामें अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्माको जानना, देखना वा अपने आत्माका ज्ञान दर्शन संपादन करना, प्रयत्न पूर्वक उसीका चिंतन करना निश्चय सम्यग्दर्शनका चिन्ह है। इसप्रकार ये सम्यग्दर्शनके चिन्ह हैं ॥३५॥३६॥३७॥ मिथ्यादृशश्च सदृष्टाः कथं कालं नयन्ति भोः। प्रश्नः-हे स्वामिन् ! सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टी अपने समयको किस प्रकार बिताते हैं ? सदृष्टिजीवा गमयन्ति कालं, वैराग्यबुद्धया निजचिन्तनेन । मिथ्यात्वमूढाः कलहैरुपतैः, भोगोपभोगौर्वविधप्रकारैः ॥३८॥ उत्तरः-सम्यदृष्टी जीव अपने हृदयमें वैराग्य धारण कर तथा अपने आत्माका चिंतन कर अपना समय व्यतीत करते हैं तथा अज्ञानी-मिथ्यादृष्टी जीव कलह करके अथवा प्राप्त हुए अनेक प्रकारके भोगोपभोगोंको सेवन करके अपना समय व्यतीत करते हैं ॥ ३८ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] हिंसकेन जनेनाहो पापं किं समुपाय॑ते । प्रश्नः-हे गुरो ! हिंसा करनेवाला मनुष्य क्या क्या पाप उत्पन्न करता है ? जीवस्य सर्वेषु धनेषु मुख्यं, आस्ति प्रियं प्राणधनं सदैव । अतो यतन्ते पशवो जनाश्च , जानीह्यसूनां परिपालनार्थम् ॥ ३९ ॥ प्राणेषु तस्यापहृतेषु सत्सु, सर्व धनं वापहृतं भवेद्धि। वा सर्वपापं स्वयमेव तेन, घोरातिघोरं च कृतं भवद्धि ॥४०॥ मोक्षार्थभव्यैरवगम्य चैवं, प्रमादयोगादिह जीवलोके । कस्यापि जीवस्य न हिंसनीया, प्राणाः स्वजीवेषु गतेषु सत्सु ॥४१॥ उतारः-इस संसारी जीवोंके जितने प्रकारके धन हैं उनमें प्राणधन ही मुख्य और प्रिय है। इसी लिये समस्त पशु और मनुष्य अपने अपने प्राणोंकी रक्षा करनेके लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं ऐसा समझो । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] अतएव कहना चाहिये कि यदि किसी जीवका प्राणहरण किया जाता है तो समझना चाहिये कि उसका समस्त धनहरण करलिया जाता है अथवा समझना चाहिये कि जो दुसरोंका प्राणहरण करता है वह स्वयं सब तरहके घोरातिघोर महापाप उत्पन्न करता है। यही समझकर मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको इस संसारमें अपने प्रमादजन्ययोगों से किसी भी जीवके प्राणोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । चाहे अपने प्राणोंका नाश हो जाय तो भी किसी भी जीवको किसी भी जीवके प्राणों. की हिंसा नहीं करनी चाहिये ॥ ३९॥४०॥४१॥ अहिंसा कीदृशी देव! फलं तस्याः किमद्धृतम् । प्रश्नः—हे देव ! यह अहिंसा कैसी है और इसका क्या विचित्र फल है ? अज्ञानही वरभारतीव, मातेव या पालनपोषणेपि । वा सौख्यदा कामगवीव लोके, ज्ञात्वेत्यहिंसैव च मोक्षदात्री ॥४॥ प्रमादयोगान्न कदापि हिंसां, कुर्वन्ति केषामपि ये सुभव्याः । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३], वाक्कायचित्तैः सुदयार्द्रबुद्धया, पूतां ह्यहिंसां परिपालयन्ति ॥ ४३ ॥ दीर्घं वरायुः परमां सुबुद्धिं, श्रेष्ठं प्रभुत्वं परमं हि रूपम् । श्रेष्ठां विभूतिं वरदिव्यदेहं, धर्मानुकूलं च कुटम्बवर्गम् ॥४४॥ षट्खण्डराज्यं सुमनोहरं ते, क्रमेण लब्ध्वानुपमं हि वस्तु । अन्यैरलभ्यं विचलं स्वराज्यमत्यन्तमिष्टं स्वसुखं लभन्ते ॥ ४५ ॥ उत्तर: – यह अहिंसा श्रेष्ठ सरस्वतीके समान अज्ञानको दूर करनेवाली है, माताके समान इस पृथ्वीपर पालन पोषण करनेवाली है, कामधेनु के समान सुख देनेवाली है और अंतमें मोक्ष देनेवाली है । यही समझकर जो भव्यजीव मन, वचन, कायसे समस्त जीवोंपर दया धारण कर प्रमादके निमित्तसे कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करते हैं और अत्यंत पवित्र अहिंसा धर्मका पालन करते हैं उनको दीर्घ आयु प्राप्त होती हैं, सर्वोत्कृष्ट सुबुद्धि प्राप्त होती है, सर्वश्रेष्ठ बडप्पन प्राप्त होता है, सर्वोत्कृष्ट सुंदर रूप Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] माप्त होता है, श्रेष्ठ विभूति प्राप्त होती है, श्रेष्ठ दिव्य शरीर प्राप्त होता है, धर्मानुकूल कुटुंबवर्ग प्राप्त होता है, छहो खंडका मनोहर राज्य प्राप्त होता है, अनुक्रमसे समस्त अनुपम पदार्थ प्राप्त होते हैं । जो अन्य किसीको पात न हो सके और अनंत कालतक सदा निश्चल बना रहे ऐसा आत्माका मोक्षरूप स्वराज्य प्राप्त होता है और अत्यंत इष्ट ऐसा शुद्ध आत्मजन्य अनंत सुख प्राप्त होता है। यह सब अहिंसा धर्मका ही फल समझना चाहिये ॥४२॥४३ ॥४४॥४५॥ पिता पुत्रादयः सर्वे स्वकीयाः सन्ति वा न वा? प्रश्नः-पिता पुत्रादिक कुटुंबी लोग अपने हैं वा नहीं ? पितापि माता भगिनी सुभार्या, पुत्रोऽपि मित्रं सकलोऽपि बंधुः। दासी च दासः सकलापि संपत्, अश्वो गजः सर्वजनोऽपि चान्यः ॥४६॥ वस्त्रं सुमाल्यं च विभूषणं यत्, किंचित्प्रियं वस्तु तदेव सर्वम् ॥ स्यात्स्वात्मनोऽन्यं सकलं च राज्यं, न याति केनापि समं ह्यमुत्र ॥४७॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] उत्तर: – पिता, माता, भगिनी, स्त्री, पुत्र मित्र, समस्त बंधुवर्ग, दासी, दास, सब तरहकी संपचि, हाथी, घोडे, कुटुंबपरिवार के लोग, अन्य पडोसी लोग, वस्त्र, आभूषण, मालाएं, वा संसारमें अन्य भी जो कुछ प्रिय और इष्ट पदार्थ हैं ये सब इस आत्मासे भिन्न हैं, यह तीनों लोकोंका राज्य भी आत्मासे भिन्न है, क्यों कि इन पदार्थोमस कोई भी पदार्थ परलोकमें साथ नहीं जाता है । सब यहाँके यहां ही पड़े रहते हैं । अतएव ये सब पदार्थ आत्मा नहीं हैं ॥। ४६ ४७ ॥ स्वकीया बांधवाः के भो परलोकानुगामिनः । प्रश्नः - फिर इस संसार में ऐसे अपने बंधु कौन हैं जो पर - लोक में भी साथ जाते हैं ? संसारहर्त्री धृतिरेव माता, ज्ञानं पिता शांतिसुखादिदाता | स्वात्मानुभूतिर्विमला स्वभार्या, धर्मोऽस्ति बंधुः सततानुगामी ॥४८॥ क्षमा स्वदासी च शमः स्वदासः, पुलो विवेकश्च दया स्वसा हि । सखा सधर्मी मृदुता सखीति, स्वबंधवोऽमी परलोकसाथीः ॥ ४९ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] स्वात्मानुभूतिर्वमलास्ति सम्पत् , निजात्मवासोऽस्ति गृहं पवित्रम्। स्वीये पदे वै शयनं सदैव, भक्ष्यं सुतोषः स्वरसश्च पानम् ॥५०॥ उत्तरः-वास्तवमें देखा जाय तो संसारको नाश करनेवाली धृति वा धैर्य ही जीवोंकी माता है, शांति सुख आदिको देनेवाला ज्ञान ही पिता है, निर्मल स्वात्मानुभूति ही इस जीवकी स्त्री है, इस लोक परलोक दोनों लोकों में सदा साथ रहनेवाला धर्म ही बंधु है, उत्तम क्षमा ही दासी है, शम ही दास है, विवेक पुत्र है, दया बहिन है, साधर्मीजन मित्र हैं, और कोमलता ही सखी है । ये सब कुटुंबवर्गके लोग हैं और परलोकमें भी ये सब साथ जाते हैं । अपने आत्मा की निर्मल अनुभूति ही संपदा है, अपने आत्मामें निवास करना ही पवित्र घर है, अपने आत्मपदमें लीन होना ही पवित्र शय्या है, संतोष ही सर्वोत्तम खाद्य पदार्थ है और अपने आत्माका आनंदामृत रस ही पीने योग्य पदार्थ है। ये सब परलोकमें साथ जानेवाले पदार्थ हैं ॥ ४८४९।५० ॥ कीदृशैः क्रियते लोकानाध्ययनमुत्तमम् । प्रश्नः- हे देव ! कैसे मनुष्य उत्तम ध्यान और अध्ययन को कर सकते हैं ? Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] आशापिशाचः प्रबलोऽपि मोहो, दग्धश्च यैः क्रोधचतुष्टयं च । तैः सर्वशास्त्रं पठितं श्रुतं वा, ध्यानं कृतं श्रेष्ठतपो जपोऽपि ॥५१॥ व्रतोपवासोऽपि परोपकारो, धर्मोपदेशोपि कृतश्च धर्मः। तत्त्वप्रचारः स्वहितः कृतश्चा-, चारो वरश्चाचरितः सदैव ॥५२॥ पूजा प्रतिष्ठा च दया क्षमापि, कृतैव यात्रा गुरुदेवसेवा। दत्तं सुदानं च कृतं सुपुण्यं, ज्ञातव्यमेवं न च शंकनीयम् ॥५३ उत्तरः- जिन पुरुषोंने आशारूपी पिशाचको नष्ट कर दिया है, अत्यंत तीव्र मोह को जला दिया है और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंको नष्ट करदिया है, समझलेना चाहिये कि उन्हीं लोगोंने समस्त शास्त्रीको पढ लिया है, समस्त शास्त्रोंको सुन लिया है, उन्हींने उत्तम ध्यान धारण कर लिया है, उन्हींने, जप तप कर लिया हैं, व्रत उपवास कर लिया है, परोपकार कर लिया है, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] धर्मोपदेश दे लिया है, धर्म धारण कर लिया है, उन्होंने तत्त्वांका प्रचार कर लिया है, आत्माका हित कर लिया है, श्रेष्ठ चारित्रको धारण कर लिया है, पूजा प्रतिष्ठा करली है, दया पालन करली है, क्षमा धारण करली है, तीर्थयात्रा करली है. देवसेवा तथा गुरुसेवा करली है, उत्तम दान दे लिया है और उत्तम पुण्य संपादन कर लिया है ऐसा समझ लेना चाहिये इसमें किसी प्रकारकी शंका नहीं है। न कभी इसमें शंका करनी चाहिये ॥५१॥५२॥५३॥ को वा जीवति लोकेऽस्मिन् को वा जीवन्मृतो गुरो!' प्रश्न-हे गुरो! इस संसारमें कौन तो जीता और कौन तो ऐसा है जीता हुआ भी मरेके समान है ? क्षमादिधमें स्वपरोपकारे, दक्षाः सदा खात्मावचारणे ये । कर्तुं यतन्ते स्वरसस्य पानं, नित्यं स्वराज्यं स्वगृहं च गंतुम् ॥५४॥ सदैव जीवन्ति त एव जीवाः, स्वात्मानुभूत्यां स्वपदे हि लीनाः। पूर्वोक्तभावैः रहिताश्च जीवाः, सन्त्येव लोकेऽत्र शवस्य तुल्याः ॥५५ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९] उत्तर:-जी महापुरुष उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोको धारण करनेमें चतुर हैं, जो अपने आत्माका कल्याण और अन्य जीवोंका कल्याण करनेमें चतुर हैं, जो अपने आत्माकं स्वरूपका विचार करने में सदा लीन रहते हैं, जो अपने आत्माके आनंदामृत रसका पान करनेके लिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं, जो मोक्षरूप अपने स्वराज्यमें जानेके लिये तथा अत्यंत शुद्ध अवस्थारूप अपने घर जानेके लिये जो सदा प्रयत्न करते रहते हैं, इसीप्रकार जो अपने आत्माकी स्वानुभूतिमें सदा लीन रहते हैं और सिद्ध सदृश अपने आत्माकी शुद्ध अवस्थामें सदा लीन रहते हैं वे ही जीव इस लोक में सदा काल जीवित बने रहते हैं। तथा जो जीव कभी धर्म धारण नहीं करते, आत्मचिंतन नहीं करते और शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं करते वे जीव जीवित रहते हुए भी मरे हुए मुरदेके समान समझे जाते हैं ॥ ५४॥५५॥ मोहदुष्टाः पिशाचाश्च के जनं न तुदन्त्यहो। प्रश्न:- हे प्रभो ! मोह दुष्ट पिशाच आदि किस मनुष्यको दुःख पहुंचाते हैं ? सन्तोषसम्पद हृदि यस्य चास्ति, किं तस्य तीवापि करोति चापत्।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] यथार्थबुद्धिर्हदि यस्य चास्ति, किं तस्य मोहोपि करोति तीव्रः ॥५६॥ यस्यास्ति चित्ते जिनधर्ममंत्रः, किं तस्य कुर्याद्धि पिशाचवर्गः। क्षमादिधर्मो हृदि यस्य चास्ति, किं तस्य कुर्यात्प्रबलोऽपि दुष्टः ॥५७॥ उत्तरः-जिसके हृदयमें सतोषरूपी संपदा विद्यमान है, उस मनुष्यको तीव्र आपत्ति भी कुछ नहीं कर सकती। जिसके हृदयमें आत्मज्ञानरूप यथार्थबुद्धि विद्यमान है उस को तीत्र मोह भी कुछ हानि नहीं पहुंचा सकता । जिसके हृदयमें जिनधर्मरूपी मंत्र विद्यमान है उसको कितने ही पिशाचोंका समूह दुःख नहीं दे सकता और जिसके हृदय में उत्तमक्षमा आदि दशधर्म विद्यमान हैं उसको सामर्थ्यवान् दुष्ट लोग भी कुछ दुःख नहीं दे सकते ।। ५६।५७ ॥ ___मोहक्रोधादयो लोके कीदृशाः सन्ति भो गुरो। प्रश्नः-हे गुरो ! इस संसारमें मोह, क्रोध आदि कैसे गिने जाते हैं ? बंधो न मोहादपरोस्ति कोपि, शत्रुर्न कोपादिह तस्य कर्ता । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] पापं न लोभादपरं पृथिव्याम् , मानात्परो नास्ति सुदुःखदाता ॥५८॥ यस्यास्ति माया भवदुःखदात्री, तस्यास्ति दुष्टः सततं विचारः। यस्यास्ति चित्ते भवदुःखभीतिः, तस्यास्ति नित्यं निजतत्त्वचिंता ॥५९॥ उत्तरः-इस संसारमें मोहके सिवाय और कोई बंध नहीं है । मोहसे ही सब बंध होते हैं। इसी प्रकार क्रोधके सिवाय अन्य कोई अहित करनेवाला शत्रु नहीं है, लोभके सिवाय अन्य कोई पाप नहीं है और मानके सिवाय अन्य कोई गहरे दुःख देनेवाला नहीं है । इसीप्रकार जिसके हृदयमें संसारभरको दुःखदेनेवाली अथवा अनंत संसाररूप परिभ्रमणमें दुःख देनेवाली मायाचारी विद्यमान है उसके विचार सदा दुष्ट और पापमय ही होते हैं । तथा जिसके हृदयमें संसारके दुखोंसे भय विद्यमान हैं उसके हृदयमें सदाकाल आत्मतत्त्वका चिंतन बना रहता है ॥५८/५९॥ स्वर्गमोक्षसुखं जीवैः केन मूल्येन लभ्यते ! प्रश्नः-हे गुरो! इस जीवोंको स्वर्ग मोक्षका सुख किस मूल्यसे मिल सकता है ? Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] निजात्मबुद्धिर्निजराज्यमूल्यं, परात्मबुद्धिर्भवदुःखबीजम् । निजात्मसेवैव सुखस्य दात्री, स्वर्मोक्षदात्री गुरुदेवसेवा ॥६॥ उत्तरः-अपने आत्माका ज्ञान उत्पन्न होजाना आत्मा स्वराज्यका मूल्य समझना चाहिये अर्थात् आत्मज्ञानसे ही आत्मासद्धि होती है। इसके विपरीत परपदार्थोंमें आत्मबुद्धि करना संसारके दुःखोंका कारण है। इसीप्रकार अपने आत्माकी सेवा सुख देनेवाली है और भगवान अरहंत देवकी सेवा तथा निग्रंथ गुरुको सेवा स्वर्ग मोक्ष देनेवाली स्ववोधरहितो जीवः कमनर्थ करोति भो। प्रश्नः—हे गुरो जो जीव आत्मज्ञानसे रहित है वह क्या क्या अनर्थ उत्पन्न करता है ? भुंक्ते हि दुःखं च सुखस्य हेतोलाभस्य हेतोर्हि करोति हानिम् । कीर्तेश्च हेतोस्सुकरोत्यकीर्ति, कार्यस्य हेतोश्च करोत्यकार्यम् ॥१॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] शुभस्य हेतोरशुभं करोति, विधेश्च हेतोरविधिं तनोति । बोधस्य हेतोश्च करोत्यबोधं, शान्तेश्च हेतोर्वितनोत्यशान्तिम् ॥ ६२ ॥ स्वर्गस्य हेतोर्नरकं प्रयाति, taaraन्यो जिनधर्मबाह्यः । एवंविधं कौ विपरीत कार्यं, ह्यज्ञानतो मूढजनः करोति ॥ ६३ ॥ उत्तरः- जो जीव आत्मज्ञानसे रहित है, जिनधर्मसे बाह्य है, वह सुखके कारणोंको इकट्टा करना चाहता है परंतु उन कारणोंसे सुखके बदले दुःख ही भोगता है । लाभके लिए प्रयत्न करता है परंतु उससे भी हानि उठाता है । अपनी कीर्तिको फैलाना चाहता है परंतु उन्हीं कार्योंसे उसकी अपकीर्ति होती है । वह किसी कार्य के लिये प्रयत्न करता है परंतु उससे भी उसका अकार्य ही होता है । वह अपना कल्याण करना चाहता है परंतु वह अपना अकल्याण ही कर लेता हैं। जिस किसी विधिको करना चाहता है परंतु वह उससे विपरीत विधिको कर डालता है । वह ज्ञानके लिये प्रयत्न करता है परंतु उसका अज्ञान वा मिथ्याज्ञान बढ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] जाता है । वह शांतिको चाहता है परंतु उसकी अशांति और बढ़ जाती है। स्वर्ग जानेके साधन इकट्ठा करना चाहता है परंतु उन्हीं कारणोंने वह नरक पहुंच जाता है। इस प्रकार आत्मज्ञानसे रहित और जिनधर्मरहित मूढ जीव अपने अज्ञानसे विपरीत कार्यही करता रहता है ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ दानभोगेषु नायाति तद्धनं कुत्र गच्छति? प्रश्न:-हे गुरो ! जो धन दान देने और भोगोपभोगोंमें काम नहीं आता वह धन कहां चला जाता है ? धनं च यो नात्ति ददाति नैव, धर्माय देवाय न बंधवेऽपि । मात्रऽपि पित्रे गुरवेऽपि नैव, मन्ये ततोऽहं धनरक्षकं तम् ॥६४॥ तद्वा धनं तस्य हरन्ति चौरा, नयन्ति भूपा अनला दहन्ति । यत्रास्ति वा नश्यति तत्र शीघ्रं, ज्ञात्वेति देयं चतुरेण वाद्यम् ॥६५॥ उत्तरः-जो मनुष्य अपने धनको न खाता पीता है, न किसी धर्ममें देता है, न किसी देवकार्य में खर्च Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] करता है, और न माता, पिता, गुरु, भाई आदि किसीको देता है उस मनुष्यको हम तो उस धनका रक्षक ही समझते हैं। अंत में उस धनको चोर हरणकर लेजाते हैं, राजा हरणकर लेता है, अग्नि जला देती है अथवा जहां गड़ा रहता है वहीं नष्ट होजाता है । यही समझकर चतुर पुरुषोंको अपना धन दानमें दे डालना चाहिये अथवा खाने पीनेमें खर्च कर देना चाहिये || ६४ || ६५ ॥ प्रयासः स्वात्मतृप्तस्य सार्थकोऽन्यो भवेन्न वा ? प्रश्नः - हे देव ! जो मनुष्य अपने आत्मतत्त्वमें तृप्त हो रहा है उसके अन्य प्रयास सार्थक होते हैं या नहीं ? यः कोऽपि जीवः स्वरसेन तृप्तो, निजात्मनिष्ठो जिनधर्मतुष्टो । सत्यार्थजुष्टः परमार्थ पुष्टो, वृथैव तस्यास्त्यपरः प्रयासः ॥ ६६ ॥ उत्तर:- हे वत्स ! सुन, जो जीव अपने आत्मरससे अत्यंत तृप्त हो रहा है, जो अपने आत्मामें लीन हो रहा है, जिनधर्मसे संतुष्ट हो रहा है, सत्यार्थ भाषण करता है और जो परमार्थसे पुष्ट है ऐसे जीवके अन्य सब प्रयासं व्यर्थ समझने चाहिये ॥ ६६ ॥ कीदृग्वेषो व्रतं विद्वान् भाति लोके न तत्त्वतः ? Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] प्रश्न - हे गुरो ! इस संसार में कैसा वेष, कैसे व्रत और कैसा - विद्वान् वास्तव में शोभा नहीं देता ? वैराग्यबोधै रहितो हि वेषो, लोके व्रतं वा दयया विहीनम् । न भाति शास्त्री स्वविचारशून्यः, सन्तोषशीलेन विना न विद्वान् ॥ ६७ ॥ उत्तरः- जो साधुका भेष वैराग्य और सम्यग्ज्ञानसे रहित हैं, वह कभी शोभा नहीं देता । जो व्रत दयारहित हैं, वे भी कभी शांभा नहीं देते। जो शास्त्री आत्मविचारसे रहित है वह भी कभी शोभा नहीं देता तथा जो विद्वान संतोष और शील धारण नहीं करता वह भी कभी शोभा नहीं देता ॥ ६७ ॥ स्वात्मतुष्टेविरक्तेश्व का सम्पत् प्राप्यते गुरो ? प्रश्न - हे गुरो ! जो जीव विषयभोगों से विरक्त हैं और अपने आत्मामें संतुर हैं उनको कौन कौनसी संपत्तियां प्राप्त होती हैं यः कोपि जीवो विषयाद्विरक्तः, सदैव दक्षः स्वपरोपकार्ये । लीनोऽस्ति चानन्दरसे सुमिष्टे, स्वात्मप्रदेशेऽविचले विशुद्धे ॥ ६८ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७] तस्यास्ति साम्राज्यनिधिः समीपः, पत्नीव च स्यान्निजराज्यलक्ष्मीः । भवन्ति शीघ्रं रिपवः सखायो, लोके परेषां हि कथैव कास्ति ॥६९॥ उत्तरः-जो जीव विषयोंसे विरक्त हैं, अपने आत्माका कल्याण करने और अन्य जीवोंका कल्याण करनेमें निपुण हैं और जो अत्यंत मिष्ट ऐसे आनन्दामृतरसमें लीन हैं अथवा अत्यंत विशुद्ध और निश्चल अपने आत्मप्रदेशोंमें लीन हैं उनके लिये साम्राज्यनिधि समीप ही समझनी चाहिये, तथा शुद्ध आत्मस्वरूप राज्यलक्ष्मी उसकी पत्नीके समान साथ रहती है और उसके समस्त शत्रु भी शीघ्र ही मित्र हो जाते हैं। फिर भला इस संसारमें औरोंकी तो बात ही क्या है ॥६८ ॥ ६९ ॥ परलोके किमायाति सार्द्ध जीवेन किं न वा ॥ प्रश्न:--हे गुरो ! इस जीवके साथ परलोकमें क्या जाता है और क्या नहीं जाता ? कुटुम्बिनः प्रेतवनस्य चान्तं, देहोऽपि भस्मीभवति स्वभावात् । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] सम्पूर्णराज्यं च गजाश्वहर्म्यमुपार्जितं तिष्ठति यत्र तत्र ॥७०॥ न याति सार्द्ध किमपि त्वयैव, किंचित्कदाचिद्यदि याति किंवा । त्वया समं याति च पुण्यपापं, ज्ञात्वेति शीघ्रं कुरु पुण्यकार्यम् ॥७१॥ - उत्तरः-हे जीव ! देख ये तेरे कुटुम्बी लोग श्मशानभूामितक तेरे साथ जाते हैं, यह तेरा शरीर स्वभावसे ही भस्म हो जाता है और यह समस्त राज्य, हाथी, घोडे, राजभवन आदि जो कुछ तूने लिये हैं वा बनवाये हैं वे सब जहांके तहां पडे रह जाते हैं, इनमेंसे कोई भी पदार्थ कभी किसी समयमें भी तेरे साथ जानेवाला नहीं है। यदि तेरे साथ कोई जानवाला है तो वह पुण्य और पाप है। यही समझकर तुझे शीघ्रताके साथ पुण्यकार्य ही करते रहना चाहिये ॥ ७० ॥ ७१ ॥ गुणी गृह्णाति किं लोके दोषी किं वा प्रश्न:-हे जगद्गरो ! इस संसार में गुणी पुरुष क्या ग्रहण करता है और दोषी पुरष क्या ग्रहण करता है ? Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९] क्षीरस्य पानं न करोति वत्सः, यावद्धि भुंगो न सुगंधपानम् । करोति साधुः स्वरसस्य पानं, यावन्न धर्मी गुरुदेवपूजाम् ॥७२॥ यावन्न गृह्णाति गुणी गुणान् हि, तावन्न शान्ति न सुखं तथैव । दोषी च दोषं हि तथा जलौका, रकं न यावद्धि मलं वराहः ॥७३॥ उत्तरः-जबतक बच्चा दूध नहीं पीलेता तबतक उसे सुख शांति नहीं मिलती । भौंरा जबतक फूलोंका सुगंध पान नहीं कर लेता तबतक उसको सुख शांति नहीं मिलती। साधु पुरुष जबतक अपने आत्मजन्य आनन्दामृतरसका पान नहीं करलेते तबतक उनको सुख शांति नहीं मिलती । धर्मात्मा पुरुष जबतक देवपूजा, गुरुपूजा नहीं करलेता तबतक उसको सुख शांति नहीं मिलती।। उसी प्रकार गुणी पुरुष जबतक गुणोंको ग्रहण नहीं कर लेता तबतक उसे सुख शांति कभी नहीं मिलती। इसी प्रकार जोंक जबतक रक्तपान नहीं करलेती तबतक उसे सुख शांति नहीं मिलती। सूअर जबतक मल भक्षण नहीं कर लेता तबतक उसे सुख शांति नहीं मिलती उसीप्रकार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] दोषी पुरुष जबतक दोषोंको ग्रहण नहीं कर लेता तबतक उसे सुख शांति कभी नहीं मिलती ॥ ७२ ॥७३॥ हिंसा हिंसा गुरो ! कास्ति संक्षेपेण वदाद्य भोः ! प्रश्न-हे गुरो ! हिंसा क्या है और अहिंसा क्या है संक्षेपसे आज दोनोंका स्वरूप बतलाइये ? संसारहंत्री निजबुद्धिरेवाहिंसास्ति, हिंसा परबुद्धिरेव । श्रीकुंथुनाम्ना मुनिनेव वा, मोक्षाय निंद्या परबुद्धिरेव ॥७॥ उत्तरः-संसारको हरण करनेवाली जो आत्मबुद्धि है, आत्माके स्वरूपको ग्रहण करनेवाली जो बुद्धि है उसको आहिंसा कहते हैं। तथा परपदार्थोंको ग्रहण करनेवाली जो बुद्धि है उसको हिंसा कहते हैं। जिस प्रकार कुंथुसागर नामके मुनिने मोक्ष प्राप्त करने के लिये निंदनीय परबुद्धि का त्याग करदिया है उसी प्रकार मोक्ष प्राप्त करनेके लिये समस्त भव्य जीवोंको निंदनीय परबुद्धिका त्याग कर देना चाहिये ॥ ७४॥ उत्तमो मध्यमो राजा कोऽधमो वद भी गुरो ! प्रश्न:-हे श्रीगुरो ! यह बतलाइये कि इस संसारमें उत्तम राजा कौन है, मध्यम राजा कौन है और अधम राजा कौन है ? Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१] एवं सदा रक्षति राज्यतन्त्र, ज्ञातुं नृपः कोऽपि भवेन्न शक्तः । तत्कार्यसिद्धिं यदि वीक्ष्य शक्तो, भवेत्कदाचित्खलु नान्यथैव ॥७५॥ ब्रवीति यः कार्यवशाद्यथैव, करोति कार्यं सुखदं तथैव । सर्वस्वनाशेऽपि न चान्यथैव, करोति भूपोऽस्ति स मध्यमो हि ॥७॥ करोमि चैवं हि करोमि चैवं, खैरं सदा जल्पति यत्र तत्र । न किंतु किंचित्स्वपरार्थकार्य, करोति मूढो ह्यधमः स एव ॥७७॥ उत्तरः-जो राजा अपने राज्यतंत्रको इस प्रकार सुरक्षित और गुप्त रखता है कि कोई भी अन्य राजा उसे जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जब उस राज्यतंत्रका कार्य सिद्ध हो जाता है तब उस कार्यको देखकर उस राज्यतंत्रका अनुमान भले ही लगा सकता है अन्यथा नहीं । ऐसे राजाको उत्तम राजा कहते हैं । जो राजा अपने कार्यके निमिचसे जैसा कहता Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] है उसी प्रकार सुख देनेवाले उस कार्यको करता है ।" सर्वस्व नष्ट होनेपर भी जो अन्यथा नहीं करता उसको मध्यम राजा कहते हैं । जो राजा अपनी इच्छानुसार ' मैं यह करूंगा यह करूंगा' इस प्रकार जहां तहां कहता फिरता है किंतु अपना और दूसरोंका कल्याण करनेवाला कोई भी कार्य किंचितरूप भी नहीं करता उस मूर्खको अधमराजा कहते हैं ।। ७५ ।। ७६ ।। ७७ ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां कः क्रमः किं च कारणम् ? प्रश्नः - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका क्रम क्या है और कारण क्या है ? अर्थस्य मूलं कथितोऽस्ति धमों, धर्मार्थयुग्मं भुवि काममूलम् । मोक्षस्य मूलं स्वरसस्य पानं, विना सुमूलान्न तरुः प्रवर्द्धते ॥७८॥ धर्मेण चार्थः खलु तेन कामः, पश्चाद्धि मोक्षोऽपि भवेद्ध्रुवं हि । चलन्ति ये ते कथितक्रमेण, राज्यं स्वराज्यं स्वसुखं लभन्ते ॥ ७९ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३] उत्तरः-अर्थपुरुषार्थका मूल कारण धर्म है तथा धर्म और अर्थ ये दोनों ही कामपुरुषार्थके मूल कारण हैं और मोक्षपुरुषार्थका मूलकारण अपने आत्मासे उत्पन्न हुए आनंदामृतरसका पान करना है । जिस प्रकार विना मूलके वृक्ष नहीं बढता, मूलके होनेसे ही वृक्ष बढ़ता है उसी प्रकार धर्मसे अर्थ और अर्थसे कामकी सिद्धि होती है । इस प्रकार अनुक्रमसे जो धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थका सेवन करते हैं उनको सबके अंतमें मोक्षकी प्राप्ति अवश्य होती है। जो मनुष्य ऊपर कहे हुए अनु-. क्रमके अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्षपुरुषार्थका सेवन करते हैं उनको राज्यकी प्राप्ति होती है, आत्मजन्य स्वराज्य की प्राप्ति होती है और आत्मजन्य अनंत सुखकी प्राप्ति होती है । ७८ ॥ ७९ ॥ कोऽस्ति पापी च कृपणः को मूर्खःश्वभ्रगश्च कः ? ___ प्रश्न—हे गुरो ! इस संसार में पापी, कृपण, मूर्ख और नरकगामी कौन है ? ध्यानं सुदानं न तपो जपोऽपि, पूजां प्रतिष्ठां न च तीर्थयात्राम् । न स्वात्मशुद्धिं स्वपरोपकारं, धर्मप्रचारं स्वगतर्विचारम् ॥८॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] दयाप्रचारं स्वसुखस्य चर्याम्, यः कोऽपि जीवो न करोति धर्मम् । स एव पापी कृपणोऽपि वत्स ! स एव मूर्खः खलु रन्ध्रगामी ॥ ८१ ॥ उत्तरः- हे शिष्य ! जो जीव न ध्यान करता है, न दान देता है, न तप करता है, न जप करता है, न पूजा करता है, न प्रतिष्ठा करता है, न तीर्थयात्रा करता है, न अपने आत्माकी शुद्धि करता है, न अपना कल्याण करता है, न अन्य जीवोंका कल्याण करता है, न धर्मका प्रचार करता है, न अपनी परलोककी गतिका विचार करता है, न दयाका प्रचार करता है, न अपने आत्मसुखकी चर्चा करता है और न उत्तम क्षमादिक धर्मको धारण करता है, समझना चाहिये कि इस संसार में वही पापी है, वही कृपण है, वही मूर्ख है और वही नरकगामी है ॥ ८० ॥ ८१ ॥ कथं लोभादिरहितो मन्यते च धनादिकम् ? प्रश्न: - लोभादि रहित मनुष्य धनादिकको कैसा मानता है ? लोभेन मुक्तस्य धनं शिलेव, वैराग्ययुक्तस्य विषं हि भार्या । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५] समाधिलीनस्य सुधेव मृत्युः, सन्तोषिनीवस्य विपद्धि सम्पत् ॥८॥ मिथ्यात्वयुक्तस्य दिवाऽपि रात्रिः, श्वभ्रश्च नाकः सुखमेव दुःखम् । सम्यक्त्वयुक्तस्य ततो विरुद्धो, भवेत्प्रभावः स्वरसस्य योगात् ॥८३॥ उत्तरः--नो मनुष्य लोभरहित है उसके लिये धन भी शिलाके समान है । जो मनुष्य समाधि वा ध्यानमें लीन है उसके लिये मत्यु भी अमतके समान है । जो मनुष्य अत्यंत संतापी है उसके लिये विपत्तियां भी संपत्तिके समान हैं । जो मनुष्य मिथ्यात्वको धारण करता है उसके लिये दिन भी रात्रि है अर्थात मिथ्यात्वरूपी अधकार के होनेसे वह तत्वों के यथार्थ स्वरूपको नहीं जान सकता। इसी प्रकार उसके लिये स्वर्ग भी नरक है और सुख भी दुःख है। तथा जो मनुष्य सम्यग्दर्शन धारण करता है उसके लिये उसके विरुद्ध समझना चाहिये अर्थात् वह रात में भी दिनके समान तत्वोंके यथार्थ स्वरूपको जानता है । दुःखोंक आनेपर भी आत्मजन्य सुखमें लीन रहता है। सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेपर जो अपने आत्मास उत्पन्न हुआ आनंदरसका समागम प्राप्त होता है उसका ही यह प्रभाव समझना चाहिये ।।८३॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६] जिनधर्मविहीनस्य किं क्रिया सफला भवेत् ? .... प्रश्नः-जो मनुष्य जिनधर्मसे रहित है, क्या उसकी क्रियाएं सपाल मानी जाती हैं ? न भाति जीवो जिनधर्मबाह्यः, स्वात्मानुभूत्या स्वरसेन शून्यः । क्रिया कला वा विफलैव तस्य, भक्तिश्च शक्तिश्च भवेद्विनष्टा ॥८४॥ . उत्तरः-जो मनुष्य जिनधर्मसे रहित है, अपने आत्मासे उत्पन्न हुई अनुभूतिसे रहित है और आत्मासे उत्पन्न हुए आनन्दामृत रससे रहित है वह मनुष्य कभी शोभा नहीं पाता, तथा उसकी क्रियाएं और कलाएं सब निष्फल हो जाती हैं और उसकी शक्ति तथा भाक्त दोनों नष्ट हो जाती हैं ॥ ८४ ॥ किमर्थ मौनमाधत्ते कश्च वा वक्ति तापसः ? प्रश्न:-तपस्वी लोग किस लिए तो मौन धारण करते हैं और किस प्रकार बोलते हैं ? स्वात्मार्थसिध्यै खलु मौनमेव, दधाति साधुर्यदि वा ब्रवीति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] स्वार्थाविरोधेन हितं मितं च, शान्तिप्रदं क्लेशहरं हि सत्यम् ॥८५॥ बोधप्रदं वैरभयप्रमुक्तं, सुखप्रदं दुःखहरं प्रशस्तम् । निजात्मसिध्यै परिणामशुध्दै, शास्त्रानुकूलं स्वपरोपशान्त्यै ॥८६॥ उत्तरः- तपस्वी लोग अपने आत्मपुरुषार्थ वा मोक्षपुरुषार्थ को सिद्ध करनेके लिये अवश्य ही मौन धारण करते हैं । यदि कदाचित् वे बोलते हैं तो जिसप्रकार अपनी आत्मशुद्धि में विरोध न आवे उसीप्रकार हित करनेवाले, थोडे वचन कहते हैं, तथा सबको शांति देनेवाले, क्लेशोंको दूर करनेवाले, आत्मज्ञानको उत्पन्न करनेवाले यथार्थ वा सत्य, वैर व भयसे रहित, सुख देनेवाले, दुःखोंको नाश करनेवाले, प्रशस्त और शास्त्रानुकूलं वचन कहते हैं । तथा ऐसे वचनोंको भी अपने आत्माकी 'सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेके लिये परिणामोंको शुद्ध करनेके लिये तथा अपने आत्माको और अन्य जीवोंको शांत करने के लिये कहते हैं ॥ ८५ ॥॥ ८६ ॥ स्वामिन् ! स्वघातकः को वा को वास्ति परघातकः ? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ ] प्रश्न: - हे स्वामिन् ! इस संसार में अपने आत्माका घात करनेवाला कौन है और दूसरोंका घात करनेवाला कौन है ? अतीवमूल्यं नरजन्म लब्ध्वा - व्यंगैरुपांगैः परिपूर्णदेहम् | श्रेष्ठार्यखण्डं कुलजातिशुद्धिं, रसायनं वा जिनधर्ममेव ॥८७॥ निजात्मशुद्धिं स्वरसस्य पानं, स्वस्थानचिन्तां स्वगतेर्विचारम् । करोति यो नात्महितं स एव, स्वघातको वा परघातकोऽपि ॥८८॥ उत्तरः- यह मनुष्यजन्म अत्यंत मूल्यवान है जो मनुष्य ऐसे बहुमूल्य मनुष्य जन्मको पाकर तथा समस्त अंग उपांगोंसे बने हुए पूर्ण शरीर को पाकर, श्रेष्ठ आर्यखंडमें जन्म लेकर, शुद्ध कुल और शुद्ध जातिमें जन्म लेकर और रसायन के समान समस्त पुरुषार्थोको सिद्ध करनेवाले जिनधर्मको पाकर भी जो अपने आत्माको शुद्ध नहीं करते हैं, अपने आत्मजन्य आनन्दामृत रसका पान नहीं करते हैं, अपने मोक्षरूप स्थानकी चिंता नहीं करते हैं, अगले जन्म में होनेवाली गतिका विचार नहीं करते हैं और अपने आत्माका हित नहीं करते हैं उन्हीं मनुष्योंकी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९ ] अपने आत्माका घात करनेवाला और अन्य जीवोंका घात करनेवाला समझना चाहिये ।। ८७ । ८८ ॥ को धीमान्पुरुषो देव ! मनुजोऽपि पशुश्च कः ? प्रश्न: - हे देव ! चतुर मनुष्य कौन है तथा मनुष्य होते हुए भी पशु के समान कौन है ? विचार्य सम्यक् च पुनः पुनर्यो, ब्रवीति भाषां सुकृतिं करोति । जिनानुयायी मनुजः स एव, श्रीमांश्च धीमान् निपुणः कृतज्ञः ॥८९॥ विचार्य सम्यङ्न पुनः पुनयों, ब्रवीति भाषां न कृतिं करोति । कुमार्गगाम्येव पशुः स लोके, श्रीमान् दरिद्रश्चतुरोऽपि मूर्खः ॥ ९० ॥ उत्तरः – जो मनुष्य अच्छी तरह बार बार विचार कर वचन कहता है और अच्छी तरह बार बार विचार कर ही काम करता है तथा जो भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए वचनों के अनुकूल चलता है उसीको श्रीमान् समझना चाहिये, उसीको धीमान् वा बुद्धिमान समझना चाहिये तथा उसीको चतुर और कृतज्ञ समझना चाहिये । इसी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] प्रकार जो मनुष्य विना बार बार अच्छी तरह विचार किये वचन कह देता है और विना विचार किये ही काम कर लेता है वह कुमार्गगामी पशु है और वह संसार में श्रीमान् होते हुए भी दरिद्री पहलाता है और चतुर होते हुए भी मूर्ख कहलाता है ।। ८९ ।। ९० ।। मनुष्याणां गुरो ! केषां सफलं जन्म विद्यते ? प्रश्नः - हे गुरो ! किन मनुष्योंका जन्म सफल माना जाता है ? श्रद्धा सुबुद्धिजिनधर्ममागें, स्वचिन्तने स्वात्मविचारणं वा । येषां निजानंदपदे निषद्या, ते स्ववासे शयनं सदैव ॥ ९१ ॥ सदैव चर्यास्ति निजप्रदेशे, पूते निजानन्दरसेऽस्ति तृप्तिः । सदैव वार्ता गुणिभिश्च सार्द्धं, श्रेष्ठं च तेषां सफलं हि जन्म ॥ ९२ ॥ उत्तर: – जिनकी श्रद्धा और श्रेष्ठ बुद्धि जिनधर्म वा मोक्षमार्ग में लगी हुई है, अथवा अपने शुद्ध आत्माके चिंतनमें लगी हुई है, अथवा अपने शुद्ध आत्माके विचार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] करनेमें लगी हुई है, तथा जो अपने आत्मासे उत्पन्न हुए आनन्दके स्थान में बैठते हैं, पवित्र शुद्ध आत्मामें शयन करते हैं, अपने शुद्ध आत्मप्रदेशमं सदा चर्या करते हैं, अपने आत्मासे उत्पन्न हुए आनंदरसमें ही सदा तृप्त रहते हैं, और पंचपरमेष्टीरूप गुणी पुरुषोंके ही साथ जो सदा बातचीत करते हैं अर्थात् जो उन्हीं की पूजा, स्तुति करते रहते हैं ऐसे ही लोगोंका जन्म इस संसार में श्रेष्ठ और - सफल माना जाता है ।। ९१ ।। ९२ ।। त्रिलोके शूरवीरः कः कथयाद्य गुरो मम ? प्रश्नः - हे गुरो ! तीनों लोकों में शूरवीर कौन है आज मेरे लिए कहिए ! भवे सुभीमे क्षणदृष्टनष्टे, क्षुधातृषारोगवियोगदुःखे । भोगे च देहे वरजीवने च, पुत्रप्रपौत्र वरमित्रवर्गे ॥ ९३ ॥ षट्खण्डराज्ये सुकललवर्गे, स्पर्शे रसे रागमनोजवर्गे । कौ यो विरक्तः स्वरसे सुरक्तः स एव शूरः सकलेऽपि विश्वे ॥९४॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२] उत्तरः-जो मनुष्य क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग आदिके दुःखोंसे भरे हुए अत्यंत भयानक और क्षणभरमें ही दिखाई देकर नष्ट होनेवाले इस संसारसे विरक्त हैं, जो भोगोंसे विरक्त हैं, शरीरसे विरक्त हैं, श्रेष्ठ जीवनसे विरक्त हैं, पुत्र पात्रोंसे विरक्त हैं, श्रेष्ठ मित्रवर्गोंसे विरक्त हैं, छहों खंडके राज्यसे विरक्त हैं, अपनी स्त्रियोंसे विरक्त हैं, स्पर्श रस आदि इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त हैं और रागादिक कामदेवके सहायकोंसे विरक्त हैं । इस प्रकार जो मनुष्य इस संसारमें संसार शरीर; भोगादिकोसे विरक्त हैं और अपने आत्मजन्य आनन्दामृतरसमें लीन हैं वे ही मनुष्य इस समस्त संसारमें शूरवीर समझे जाते हैं। ९३ ॥ ९४॥ स्वानुभूत्याः पतिः को वा भवेदात्मा गुरी! दिश ? प्रश्नः—हे गुरो ! कृपाकर बतलाइये कि अपने आत्माकी अनुभूतिका स्वामी कौन है ? न वस्तु गृह्णन्ति निजात्मबाह्यं, विनाशशीलं विपरीतभूतम् । नैवं निजानन्दपदं स्वकीयं, त्यजति चानन्दरसं कदापि ॥९५॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३ ] जानन्ति पश्यन्ति निजान् परान्ये , खात्मानुभूतेः पतयो यथावत् । त एव वंद्याश्च नरामरेन्द्रैः, सदैव पूज्या हृदि चिन्तनीयाः ॥९६॥ उत्तरः-जो मनुष्य अपने आत्मासे भिन्न रहनेवाले तथा आत्मासे विपरीतभूत; विनाशशील पुद्गलादिक पदाYको कभी ग्रहण नहीं करते हैं, तथा जो अपने आत्मजन्य स्वकीय आनन्दामृतपदको और शुद्ध आत्मजन्य आनंद रसको कभी नहीं छोडते हैं, और जो अपने आत्मतत्त्वको तथा आत्मासे भिन्न पुद्गलादिक समस्त तत्त्वोंको यथार्थरूपसे जानते हैं और देखते हैं वे ही पुरुष स्वात्मानुभूतिके स्वामी गिने जाते हैं । ऐसे पुरुषोंको इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सभी वंदना करते हैं, सदा उनकी पूजा करते हैं, और अपने हृदयमें सदा उनका चिंतन करते रहते हैं ॥९५॥९६ किमर्थ लब्धमेतद्भोः शरीरं वद मे गुरो ? प्रश्न:-हे गुरो ! यह बतलाइये कि यह शरीर किसलिए प्राप्त किया गया है ? मोक्षार्थिभिर्धर्मधनेन यत्नात् , क्रीतं विशुद्धं वपुरेव यानम् । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४] अत्यन्तभीमात्कुटिलाद्भवाब्धेः, खर्गापवर्गादिविनाशकाद्वै ॥९७ ॥ गन्तुं च पारं स्वरसं च पातुं, ज्ञात्वेति मुक्त्वा भवदेहमोहम् । यावन्न नश्येद्धि वपुश्च तावत् , तरन्तु कुर्वन्तु निजोपकारम् ॥९८॥ .. उत्तरः-मोक्षकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंने धर्मरूपी धन खर्च करके बड़े प्रयत्नसे यह विशुद्ध शरीररूपी जहाज खरीदा है । तथा यह जीव जो अत्यंत भयानक, कुटिल. और स्वर्गमोक्ष आदिको नष्ट करनेवाले संसाररूपी समुद्रमें पड़ा हुआ है उसको इस संसारसमुद्रसे पार करने के लिये और आत्मजन्य निजानंद रसकी रक्षा करनेके लिये ही यह शरीररूपी जहाज खरीदा है । यही समझकर संसार और शरीरसे मोहका त्यागकर जबतक यह शरीर नष्ट नहीं होता तबतक इस शरीरसे यह संसाररूपी समुद्र पार करलेना चाहिये, और इस प्रकार अपने आत्माका महा उपकार करना चाहिये ॥ ९७ ॥ ९८ ॥ कीदृशाः सन्ति लोकेऽस्मिन् जन्मसंगसुखादयः । प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसार में जन्म, परिग्रह, सुख आदि कैसे माने जाते हैं ? Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pि-Fun શાસન સમ્રાટ . [५५] यस्यैव जन्मास्ति च तस्य मृत्यु-, र्यस्यैव संपद्विपदेव तस्य । यस्यैव संगोऽस्ति भवेद्विसंगो;/ यस्यैव दुःखं सुखमेव तस्य । यस्यास्ति तारुण्यतरुश्च लेक क्रमेण वृद्धोऽपि भवेत्स जीपी निजात्मबाह्या इति को पदा प्रोक्ताः सदा सन्ति विनाशशीसः ॥ उत्तरः-इस संसारमें जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है, जिसके पास संपदाएं होती हैं उसके पास विपत्तियां भी अवश्य आती हैं, जिसके पास परिग्रह इकट्ठा हो जाता है उसे उन परिग्रहोंका वियोग भी सहना पडता है, जिसको सुख प्राप्त होता है उसको दुःख भी अवश्य भोगना पडता है, इस संसार में जिसके पास अनुक्रमसे बढता हुआ तारुण्यरूपी वृक्ष शोभा देता है उसके पाससे वही तारुण्यरूपी वक्ष जीर्ण भी अवश्य होता है । इस प्रकार विचार करनेसे यही सिद्ध होता है कि इस संसारमें अपने शुद्ध आत्मासे भिन्न जितने भी पदार्थ कहे गये हैं वे सब सदा विनाशशील-नष्ट ह.नेवाले ही देखे गये हैं ॥ ९९ ॥ १०० ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६] चिन्तनीयः सदा योगी कीडशो वद भो गुरो ! प्रश्न:- हे गुरो ! कृपाकर कहिये कि कैसे योगीका सदा चिंतन करते रहना चाहिए ? स्वयं भवाब्धेस्तरति प्रयत्नात् , यः कोऽपि भव्यान्निजपृष्ठलग्नान् । कृत्वा दयां तारयति स्वाभावात् , स एव योगी हृदि धारणीयः ॥१०॥ उत्तरः-जो कोई जोगी प्रयत्नपूर्वक इस संसाररूपी समुद्रसे स्वयं पार हो जाता है और अपने पीछे लगनेवाले भव्य जीवोंको अपने स्वभावसे ही दयाकर पार कर देता है वही योगी अपने हृदयमें सदा धारण करने वा चितवन करने योग्य है ॥ १०१॥ कीदृशः पुरुषो लोके सम्यग्दर्शनसंयुतः ? प्रश्नः-कैसा मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सुशोभित वा सम्यग्दृष्टी कहलाता है। तृणे च रत्ने विषकण्टकेऽपि, निंदास्तुतौ मित्ररिपो वनेऽपि । ग्रामे पुरे सुंदरमन्दिरेऽपि, लाभेऽप्यलाभे खलु जन्ममृत्यौ ॥१०२॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७] रम्येऽप्यरम्ये च निजात्मबाह्ये, रोगेऽप्यरोगेऽपि सुखे च दुःखे । एतेषु यस्यास्ति समानभावः, सदृष्टिरेवास्ति स एव लोके ॥१०३॥ उत्तर:-मनुष्य तृणोंमें वा रत्नोंमें, विषमें वा कांटोंमें, निंदा वा स्तुतीमें, शत्रु वा मित्रमें, वन वा गांवमें, नगरमें वा सुन्दर मंदिरोंमें, लाभ वा अलाभमें, जन्म वा मरणमें, रोग वा नीरोगतामें, सुख वा दुःखमें औ आत्मासे भिन्न मनोहर वा घृणित पदार्थोंमें अर्थात् इष्ट वा अनिष्ट समस्त पदार्थों में जो समान भाव धारण करता है, सबको समान देखता है उसीको इस संसारमें सम्यग्दृष्टी समझना चाहिये ॥ १०२ ॥ १०३॥ अल्पायुरपि को वृद्धो हे देव वद साम्प्रतम् ? प्रश्न:-हे देव ! अब यह बतलाइये कि अल्पायुमें भी वृद्ध कौन कहलाता है ? अत्यंतभीमे सकलेप्सिते वै, स्थितोऽपि तारुण्यवने ह्यलिप्तः। लीनोऽस्ति चानंदरसे सदा यो, दिनैरवृद्धोऽपि स एव वृद्धः ॥१०४॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८] उत्तरः—यह तारुण्यरूपी वन अत्यंत भयानक है और सब लोग इसको चाहते हैं, ऐसे तारुण्यरूपी वनमें रहता हुआ भी जो उस तारुण्यवनमें लिप्त नहीं होता उससे विरक्त रहता है, और जो सदा अपने आत्मजन्य आनंदरसमें लीन रहता है, वह वर्षों के हिसाबसे वृद्ध न होनेपर भी संसारमें सर्वोत्कृष्ट वृद्ध समझा जाता है ॥ १०४ ॥ कोऽसौ सखा मनुष्यस्य लोकेऽस्मिन् भो गुरो !वद ? प्रश्न:-हे गुरो ! कृपाकर बतलाइये कि इस संसारमें मनुष्यका मित्र कौन है ? रोगेऽप्यरोगे खल हानिलाभे, क्षुधातृषायां भुवने वने वा । मानापमाने च सुखेऽपि दुःखे, सखा स एवास्ति समानभागी।।१०५॥ उत्तरः-जो पुरुष रोग वा नीरोग अवस्थामें, हानि वा लाभमें, भूख या प्यासमें, राजमहल वा वनम, मान और अपमानमें तथा सुख और दुःखमें जो समान भाग लेता है वहीं इस संसारमें मनुष्योंका मित्र कहलाता है ॥१०५॥ आशाचिन्तादुराचारः प्रणश्यन्ति च के गुणाः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९] प्रश्नः-हे गुरो ! आशा, चिंता और दुराचारसे कौन कौनसे गुण नष्ट हो जाते हैं। तीवा धनाशा हृदि यस्य तस्य, स्वप्नेऽपि धमों न च दानपूजा। यस्यास्ति चित्ते व्यभिचारबुद्धिः, स्वप्नेऽपि लना न कुलादिरक्षा ॥१०६॥ चिन्तानिवासो हृदि यस्य तस्य, खप्नेऽपि न स्वात्सुखशान्तिपानम् । मूर्खत्वभावो हृदि यस्य तस्य, स्वप्नेऽपि नीतिन निजात्मसिद्धिः ॥१०७॥ उत्तरः-जिस मनुष्य के हृदयमें तीव्र धनकी आशा लग रही है वह स्वप्न में भी कभी धर्म नहीं करता, न वह दान देता है और न कभी पूजा करता है । इसी प्रकार जिसके हृदयमें व्यभिचारबुद्धि घुस जाती है उसके हृदयमें लज्जा और कुल वा जातिकी रक्षा कभी स्वममें भी नहीं आसकती । तथा जिसके हृदय में चिंता विद्यमान है उसके हृदयमें सुख और शांतिका पान कभी स्वममें भी नहीं हो सकता। और जिसके हृदयमें मूर्खता भरी हुई है उसके हृदयमें नीति और शुद्ध आत्माकी सिद्धि कभी स्वनमें भी नहीं हो सकता ॥ १०६ ॥ १०७॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०] बद्धो मुक्तश्च जीवोऽयं भो गुरो ! केन हेतुना ? प्रश्नः-हे गुरो! यह जीव किस हेतुमे कर्मसे बंध जाता है और किस हेतुसे मुक्त हो जाता है ? स्ववस्तुबुध्या परमेव वस्तु, यः कोऽपि गृह्णाति स एव बद्धः । स्ववस्तु चैवं परवस्तुबुध्द्या, गृह्णाति यः कोऽपि च सोऽपि बद्धः ॥१०८ निजत्वबुध्या निजमेव वस्तु, परत्वबुध्द्या परमेव वस्तु। चिह्न गृह्णात्यवगम्य यो हि, स एव मुक्तः सुखशान्तिभोक्ता ॥१०९॥ उत्तरः-जो मनुष्य आत्मासे भिन्न पुगलादिक पर पदाथाको अपने आत्माके समझकर ग्रहण करता है वह मनुष्य वा जीव अवश्य ही कासे बंध जाता है । इसी प्रकार जो मनुष्य अपने आत्मतत्त्वको ही परवस्तु समझकर ग्रहण करता है वह भी कर्मोसे अवश्य बंध जाता है । तथा जो मनुष्य अपने अपने लक्षणोंसे आत्मतत्त्वको आत्मतत्व समझकर ग्रहण करता है और परपदार्थोको पर पदार्थ समझकर ग्रहण करता है, अर्थात जिसे स्वपरविवेक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१] बुध्दि प्राप्त होगई है वही मनुष्य मुक्त हो जाता है और सुख शांतिको भोगनेवाला बन जाता है ॥१०८॥१०९॥ केषां सुनिर्मला कीर्तिः कीर्तनीया सदा गुरो! __ प्रश्न:-हे गुरो ! किन लोगोंकी निर्मल कीर्ति सदा वर्णन करते रहना चाहिए? यस्यास्ति चित्ते गुरुदेवभक्तिः, सुपात्रदाने वरभावबुद्धिः। श्रद्धा प्रयत्नः स्वपरोपकारे, पुराणशास्त्रे जिनधर्ममार्गे ॥११०॥ स्वाचारमार्गे विमला प्रवृत्ति-, रास्तिक्यबुद्धिः परलोककायें। वात्सल्यभावः सुजने सधमें, तस्यैव कीर्तिर्भुवि कीर्तनीया ॥१११॥ उत्तरः--जिस पुरुषके हृदयमें देवभक्ति और गुरुभाक्त भरी हुई है, श्रेष्ठ पात्रोंको दान देनेके लिये उत्तम परिणाम और उत्तम बुद्धि भरी हुई है, जिसके हृदयमें आत्मकल्याण करने और अन्य जीवोंका कल्याण करनेकी श्रद्धा भरी हुई है तथा जो आत्मकल्याण और परकल्याण करनेक लिये सदा प्रयत्न करता रहता है, जो पुराण Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] शास्त्रोंमें और जिनधर्म वा मोक्षमार्ग में श्रद्धा रखता है पुराणशास्त्रों के पढने पढाने में जिनधर्मकी वृद्धि और मोक्षमार्गकी वृद्धि में सदा प्रयत्न करता रहता है. जो श्रेष्ठ चारित्रके पालन करनेमें अपनी निर्मल प्रवृत्ति रखता परलोक के कार्यों में आस्तिक्य रखता है तथा जो सज्जन और धर्मात्मा पुरुषोंमें वात्सल्यभाव धारण करता है उसी महापुरुषकी कीर्ति इस संसार में सर्वत्र वर्णन करते रहना चाहिये ।। ११० ॥ १११ ॥ संसारतापततानां के वा विश्रांतिहेतवः ? प्रश्नः - हे गुगे ! जो जीव संसार के संतापसे तप्तायमान हैं उनकी विश्रांतिके कारण क्या हैं ? दहतां जनानां, संसारव विश्रांतिहेतोर्वरकारणानि । षडेव वेद्यानि तमोहराणि, शान्त्यादिकानि स्वसुखप्रदानि ॥ ११२ ॥ सदा विवेकः समशांतिसम्पत्, संसारभोगेषु विरक्तबुद्धिः । अध्यात्मविद्या निजराज्यदात्री, सम्यक् प्रवृत्तिः स्वपदे निवासः ॥ ११३ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरः-जन्ममरणरूप संसाररूपी अग्निमें जलते हुए जीवोंको विश्रांति प्राप्त करनेके लिये छह कारण बतलाये हैं। जो कि मिथ्यात्वरूपी अंधकारको दूर करनेवाले हैं, शांति आदि सुखके कारणोंको देनेवाले हैं, और आत्मसुखको प्रदान करनेवाले हैं । वे छह कारण ये हैं। सदा विवेक धारण करना अर्थात् आत्माके हित अहित का विचार होना, समता और शांतिरूपी संपत्तिका प्राप्त होना, संसार शरीर और भोगासे विरक्तबुद्धि का होना, अपने आत्माका स्वराज्य अर्थात् सिद्ध अवस्था प्राप्त करानेवाली अध्यात्मविद्याका अभ्यास करना, दान पूजा आदि श्रेष्ठ कार्योमें अपनी प्रवृत्ति करना और अपने शुद्ध आत्मामें निवास करना। ये छह जीवोंको सुख और शांति देनेवाले हैं । इन्हींसे संसारके समस्त दुःख छूट जाते हैं ॥११२।।११३॥ भो गुरो ! निपुणः कोऽसौ कथ्यते वुधसत्तमैः ? प्रश्न:- हे गुरो ! श्रेष्ठ विद्वान् लोक इस संसारमें निपुण किसको कहते हैं ? क्षेमो विवेको हि कुटंबवगें, पूज्येषु भक्तिः सकलेषु मैत्री। जिनस्य सेवा करुणैव दीने, माध्यस्थवृत्तिर्निजबोधहीने ॥११४॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] प्रीतिश्च धीमत्सु सदैक्यभावः, सदैव षंढः परवल्लभासु । एतैर्विचारैः सुखशान्तिदैश्च, यः कोऽपि युक्तो निपुणः स एव ॥ ११५ ॥ ॥ उत्तरः – जो मनुष्य अपने कुटंबवर्गमें क्षेम धारण करता है, तथा विवेक धारण करता है, पूज्य पुरुषोंमें भक्ति धारण करता है, समस्त जीवोंमें मैत्री धारण करता है, जिनदेवकी सेवा करता है, दीनोंमें करुणा धारण करता है, आत्मज्ञानसे हीन पुरुषोंमें मध्यस्थता धारण करता है, विद्वान् पुरुषोंमें प्रेम करता है, सबसे मिलकर रहता है और परस्त्रियोंके लिये मपुंसक बन जाता है । इस प्रकार सुख और शांति देनेवाले शुभविचारोंसें जो सदा शोभायमान है वही पुरुष इस संखारमें मिपुण कहलाता है ।। ११४ ॥ ११५ ॥ क्रोधनः पुरुषो लोके कान् जीवान् हन्ति भो गुरो ! प्रश्न: - हे गुरो ! इस संसार में क्रोधी पुरुष किन जीवों को मार डालता है ? निजात्मशून्यो यदि कोऽपि जीवः, क्रोधेन तप्तो भुवने कदाचित् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५] पिश्च मातृरपराधशून्यान् , मित्राणि बंधूनपि धर्मयुक्तान् ॥११६॥ स्वानन्दतृप्तानपि सर्वसाधून् , विचारशून्यः खलु हन्ति सर्वान् । पापिष्ठराजा हि यथैव जीवान् , धिगस्तु को तं परमार्थशून्यम् ॥ ११७ ॥ उत्तरः-जो जीव अपने आत्मज्ञानसे रहित होता है वह यदि क्रोधसे संतप्त हो जाय तो वह विना किसी अपराधके माताको भी मार डालता है, पिताको भी मार डालता है, मित्रोंको भी मार डालता है, धर्मात्मा भाइयों को भी मार डालता है, अपने आत्मजन्य आनंदमें तृप्त रहनेवाले समस्त साधुओंको भी मार डालता है । जिस प्रकार पापी राजा अनेक निरपराध जीवोंको मार डालता है उसी प्रकार विचाररहित क्रोधी मनुष्य भी समस्त जीवोंको मार डालता है । अत एव इस संसारमें परमार्थहित जीवोंको बारबार धिक्कार है ।। ११६ ॥ ११७॥ तत्त्वप्रबोधशून्यास्ते जीवाः किं चिन्तयन्ति भोः ? प्रश्न:-हे गुरो ! तत्त्वज्ञानसे रहित जीव क्या क्या चिंतन करते हैं ? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाताहमेवास्मि कुटुम्बकानां, रोगादिकानां प्रविनाशकर्ता। खामी जनानामहमेव नेता, पुत्रप्रपौत्रस्य विवाहकर्ता ॥११८॥ दुःखादिकानां हि भयंकराणां, सुखादिकानां च मनोहराणाम् । वस्त्रादिकानां सुमनोहराणां, धनादिकानामहमेव दाता ॥११९॥ समस्तभूमेरहमेव राजा, मया विना तेऽपि भवन्ति दीनाः । एवं विचारेण सदा प्रमत्तः, करोत्यकार्यं भववर्द्धकं च ॥१२०॥ उत्तरः- अपने समस्त कुटुंबको पालन करनेवाला मैं ही हूं, मैं ही उनके समस्त रोगोंको दूर करनेवाला हूं, मैं ही उन सबका स्वामी हूं, मैं ही नेता हूं, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रोंका विवाह करनेवाला भी मैं ही हूं, भयंकर दुःखादिकोंको नष्ट करनेवाला और मनोहर सुखोंको देनेवाला भी मैं ही हूं, मैं ही मनोहर वस्त्राभूषणोंको देनेवाला हूं और मैं ही धनादिकको देनेवाला हूं, मैं इस समस्त Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] पृथ्वीका राजा हूं । मेरे विना ये सब लोग दीन ही समझने चाहिये। इस प्रकारकं निंद्य विचारोंसे प्रमादी हुए अज्ञानी मनुष्य जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाले अकार्य ही करते हैं ।। ११८ ॥ ११९ ।। १२० ।। लभन्ते सुखशान्तिं किं ग्रहग्रस्ता न वेति भोः ! प्रश्न : - हे गुरो ! पागलोंके समान ग्रहग्रस्त मनुष्य क्या - सुख शांति को प्राप्त कर सकते हैं या नहीं ? कपेश्च तुल्यं हृदयं जनानां, दंशस्य तुल्योऽस्ति कुटुम्बवर्गः । मोहोऽस्ति पापी मदिरासमानो, मायास्ति दुष्टा बकवत्सदैव ॥ १२१ ॥ पिशाचतुल्यानि भुवीन्द्रियाणि, वन्हेः समानः खलु नोकषायः । सदैव चिन्ता क्षयरोगतुल्या, क्रोधोऽपि नीचोऽस्ति रिपोः समानः ॥१२२ आशापि जन्तोः खलु लोकतुल्या, मानोऽस्ति लोके कलहस्य कोशः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८] ग्रस्ता ग्रहैयें भुवि ते सदैव, कदापि शान्तिं न सुखं लभन्ते ॥१२३॥ उत्तरः~यह मनुष्योंका हृदय बंदरके समान चंचल है, कुटुंबक लोग सब डांसंक समान चारोंसे भक्षण करने वाले हैं, यह पापी मोह मद्यके समान नीवोंको मोहित कर देनेवाला है, यह माया बगलाके समान सदा दुष्टता धारण करती रहती है, इस संसारमें इंद्रियां सब पिनाचके समान दुःख देनेवाली हैं, ये नोकपाय अग्निके समान सदा जलते रहते हैं। चिंता सदा क्षयरोगके समान कृश करती रहती है, यह नीच क्रोध भी शत्रुके समान सदा दुखी करता रहता है, यह जीवोंकी आशा लोकाकाशके समान विशाल रूप धारण कर भय दिखलाती है और यह मान भी संसारमें कलहका खजाना है । इस प्रकार जो मनुष्य इन मोह वा कपायरूपी ग्रहोंसे ग्रसित रहते हैं उनको कभी भी सुख और शांति पास नहीं हो सकती ॥ १२१-१२३ ॥ भो गुरो ! संति के लोके चाण्डालसदृशा नराः? प्रश्न:- हे गुरो ! इस संसार में चांडालके समान मनुष्य कौन हैं ? द्रोही सुधीमांश्च मुनिः प्रकोपी, श्रीमांश्च लोभी मनुजोऽपि मानी। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९] तत्त्वप्रलोपी चतुरोऽपि शास्त्री, मिथ्याप्रलापी निपुणोऽपि वाग्मी ॥१२४॥ न्यायी तथा को जिनधर्मलोपी, विश्वासहीनः सुजनोऽपि पापी । एते मनुष्या निजधर्मबाह्या-, श्चाण्डालतुल्या भुवि निंदकाश्च ॥१२५॥ उत्तरः-जो श्रेष्ट बुद्धिमान् होकर भी विद्वानों से द्रोह वा ईर्षा करें तो वह भी चांडालके समान है, जो मुनि होकर भी क्रोध करे तो वह चांडालके समान है, जो धनवान होकर भी लोभ करे वह भी चांडाल के समान है, जो मनुष्य होकर भी अभिमान करे वह भी चांडालके समान है, जो चतुर शास्त्री होकर भी तत्त्वोंका लोप करे वह भी चांडालके समान है, जो चतुर वक्ता होकर भी मिथ्याभाषण करता हो वह भी चांडालके समान है, जो पुरुष न्यायवान् होकर भी जिनधर्मका लोप करता हो 'वह भी इस पृथ्वीपर चांडालके समान है, तथा जो श्रेष्ठ मनुष्य होकर भी विश्वासघात करे अथवा पापी बन जाय तो वह भी चांडालके समान समझा जाता है । ये ऊपर लिखे हुए मनुष्य अपने धर्मसे रहित हैं और इसी लिये संसारमें निंदक और चांडालके समान समझे जाते हैं ॥ १२४ ॥ १२५॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] शरीरावयवानां भोः शोभा कुत्रास्ति सद्गुरो ? प्रश्न : हे श्रेष्ठ गुरो ! इस शरीर के अवयवोंकी शोभा किसा किस कार्य में समझी जाती है । गुर्वादिदेवस्य च दर्शनं स्या-, नेत्रस्य शोभा स्तवनं मुखस्य । शीर्षस्य शोभास्ति जिनप्रणामः, शास्त्रश्रुतिः स्याछ्रवणस्य शोभा ॥ १२६॥ हस्तस्य शोभास्ति सुपालदानं, पादस्य शोभा जिनतीर्थयानं । कुक्षेश्च शोभा विधियुक्तभुक्तिः, कंठस्य शोभा जिनकीर्तिगानम् ॥१२७॥ ज्ञानस्य शोभास्ति निजात्मबुद्धिः, ज्ञात्वेति सम्यक् सकलं सुगात्रम् । यथोक्तकायें सुखशांतिमूले, भव्यैः शिवार्थं खलु योजनीयम् ॥१२८॥ उत्तरः- देव और गुरुके दर्शन करना नेत्रोंकी शोभा है, देव गुरुकी स्तुति करना मुखकी शांभा है, भगवान् जिनेंद्रदेवको प्रणाम करना मस्तककी शोभा है, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१] भगवान् जिनेंद्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंका सुनना कानोंकी शोभा है, उत्तम पात्रोंको दान देना हाथोंकी शोभा है, जिनेंद्रदेवसे सुशोभित हुए जो तीर्थोकी यात्रा करना पैरों की शोभा है, पेटकी शोभा विधिपूर्वक पवित्र भोजन करना है, कंठकी शोभा भगवान् जिनेंद्रदेवकी कीर्तिका गान करना है और ज्ञानकी शोभा अपने शुद्ध आत्मामें बुद्धिका लगना है । इस प्रकार शरीरके अवयवोंकी समस्त शोभा समझकर भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये सुख और शांतिके कारण ऐसे ऊपर लिखे हुए कारणोंमें ही अपने अपने समस्त शरीरके अवयवों को लगाना चाहिये ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ १२८ ॥ भो गुरो ! सद्गुरुः कीदृक् लोकेऽस्ति वद साम्प्रतम् ? प्रश्न- हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि इस संसार में सद्गुरु कैसे होते हैं ? सुरक्षकत्वाद्गुरुरेव माता, सुशिक्षकत्वाच्च गुरुः पितैव । श्रीवर्द्धकत्वाद्गुरुरेव बंधु-, गुरुः सखा को हितचिन्तकत्वात् ॥१२९॥ सौख्यप्रदत्वाद्गुरुरेव विष्णु-, ब्रह्मा गुरुः स्वात्मपदप्रबोधात् । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] चिन्तामाणिश्चिन्तितवस्तुदानात्, तस्मै सदा सद्गुरवे नमोऽस्तु ॥१३०॥ उत्तरः- गुरु सब जीवोंकी रक्षा करते हैं इस लिये वे ही सब जीवोंको माता है, सब जीवोंको शिक्षा देते हैं इस लिये गुरु ही पिता हैं, गुरु ही लक्ष्मीको बढाने वाले हैं इसलिये वे ही सब जीवोंके बंधु हैं, गुरु ही समस्त जीवोंका हित चिंतन करते रहते हैं इस लिये वे ही जीवोंके मित्र हैं, गुरु ही सब जीवों को सुख देते हैं इस लिये गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही शुद्ध आत्माका ज्ञान कराते हैं इस लिये गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही इच्छानुसार पदार्थोंको देनेवाले हैं इस लिये गुरु ही चिंतमणिरत्न हैं। अत एव ऐस उन श्रेष्ठ गुरुओंको मैं बार बार नमस्कार करता हूं ॥ १२९ ॥ १३० ॥ हन्ति रक्षति जीवोयं केन वा कारणेन भोः ? प्रश्न:-हे गुरो ! यह जीव किन किन कारणोंसे अन्य जीवोंको मारता है वा उनकी रक्षा करता है ? धनस्य मानस्य च जीवनस्य, कतिश्च जिह्वारमणस्य हेतोः । परान् स्वयं हन्ति च हन्यतेऽपि, परेण यो रक्षति रक्ष्यते च ॥१३१॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] परान् स्वयं पुष्यति पोष्यते च, पतत्यारिं पातयति प्रयत्नात् । त्यक्त्वा स्वधर्मं निजबोधशून्यो, भ्रमच्चिरं घोरभवार्णवेऽस्मिन् ॥१३२॥ उत्तरः-यह जीव धन, मान, जीवन, कीर्ति, जिव्हा इंढियकी लोलुपता और स्त्रीसेवनके लिये दूसरे जीवोंको मारता है वा दूसरोंके द्वारा मारा जाता है । अथवा इन्हीं कामोंके लिये दूसरों की रक्षा करता है वा स्वयं दुसरेके द्वारा सुरक्षित रहता है । अथवा इन्ही कामोंके लिये दूसरों का पालन पोषण करता है वा स्वयं दूसरोंके द्वारा पालन पोषण किया जाता है। अथवा इन्ही कामोंके लिये यह जीव स्वयं पतित होता है वा दूसरोंको प्रयत्न पूर्वक पतित कराता है । इस प्रकार जो जीव अपने आत्मज्ञानसे शून्य है वह अपने धर्मको छोडकर इस संसाररूपी समुढमें चिरकालतक इसी प्रकार परिभ्रमण करता रहता है ॥ १३१ ॥ १३२॥ सज्जनानां स्वभावो वा कीदृशोऽस्ति गुरो वद ? प्रश्नः-हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि सज्जनोंका स्वभाव कैसा होता है ? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४] सतां न यत्नो भवति स्वदुःखे, परस्य दुःखस्य विनाशको हि। संसारकार्ये बिसिनीव वृत्ति-, निजात्मधर्मे मुनिवत्प्रवृत्तिः ॥१३३॥ तत्त्वप्रबोधः पतिवद्धि शच्याः, स्याद्वादवाणीव विचारशक्तिः। इत्येव संसारविनाशकोऽसौ, सतां विचारो भवति स्वभावात् ॥१३४॥ उत्तरः-सज्जन पुरुष अपने ऊपर दुःख आनपर भी कभी उनके दूर करने का प्रयत्न नहीं करते, तथा दूसरों के दुःखोंका वे सदा नाश करते रहते हैं । सांसारिक भोग विलासोंमें वे कमलिनीके समान सदा अलग रहते हैं नथा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावमें मुनियोंके समान प्रवृत्ति करते रहते हैं । उनका तत्वज्ञान इंद्राणीके पति इन्द्रके समान सर्वोत्कृष्ट होता है और उनकी विचारशक्ति स्याद्वाद वाणीके समान सदा निर्मल और यथार्थ रहती है । इस प्रकार इस पृथ्वीपर सज्जनोंके विचार स्वभावसे ही संसारको नष्ट करनेवाले होते हैं ॥ १३३ ॥ १३४ ॥ गुरो ! केन प्रकारण कर्मबंधो भवेन च ? ... Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५] प्रश्न:-हे गुरो ! जीवोंको किस प्रकार कर्मोका बंध नहीं हो सकता ? सम्यक् समित्या निजबोधदृष्टया, विलोक्य रक्षन्नसुधारिणोऽन्यान्। सदैव कुर्वन्निजरूपशुद्धिं, तथैव चान्यानपि कारयंश्च ॥१३५॥ भाषेत चासीत शयीत गच्छेद् , भुंजीत वर्तेत पिबेद्यथावत् । खादेन्निजानंदरसं च येन, . खोक्षलक्ष्मीश्च भवेत्स्वदासी ॥१३६॥ उत्तरः- जो जीव श्रेष्ठ समितियोंके द्वारा अथवा ज्ञानरूपी नेत्रोंसे अच्छीतरह देखकर अन्य समस्त जीवोंकी रक्षा करते हैं, जो अपने आत्माकी शुद्धिको सदा करते रहते हैं और अन्य जीवोंसे भी कराते रहते हैं, जो शास्त्रानुकूल वचन बोलते हैं, शास्त्रानुकूल बैठते हैं, शासानुसार सोते हैं, शास्त्रानुसार चलते हैं, शास्त्रानुसार आहार लेते हैं, शास्त्रानुसार ही अपना वर्ताव करते हैं और शास्त्रानुकूल ही पानी पीते हैं और आत्मजन्य आनंदामृतरसका स्वाद लेते रहते हैं ऐसे पुरुषोंके लिये स्वर्ग और मोक्ष भी दासीके समान हो जाता है फिर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] भला उनके कर्मो का बंध कैसे हो सकता है अर्थात् कभी नहीं ।। १३५ ।। १३६ ॥ भगवन् कोऽस्ति लोकेऽस्मिन् ब्रह्मा विष्णुर्महेश्वरः ? प्रश्नः - हे भगवन् ! इस संसार में ब्रह्मा कौन है, विष्णु - कौन है और महादेव कौन है ? योऽनन्तवोधो भुवने स विष्णुः, ब्रह्मा स एवास्ति निजात्मनिष्ठः । यः कर्ममुक्तो जगदीश्वरः स करोति मोक्षे निजमेव राज्यम् ॥ ॥१३७ कर्मद्विषो यः प्रविजित्य जातो, लोके महादेव इति प्रसिद्धः । स एव वंद्योऽस्ति नरामरेन्द्रै-, रन्यो न पूज्यो न च कोऽपि वंद्यः ॥१३८ उत्तरः — इस संसार में जो अनंतज्ञानी भगवान जिनेंद्र देव हैं वे ही विष्णु हैं तथा अपने शुद्ध आत्मामें लीन रहनेवाले वे ही भगवान जिनेंद्र देव ब्रह्मा हैं । जो कमसे सर्वथा रहित हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी जगदीश्वर वा महादेव हैं जो कि मोक्षस्थानमें विराजमान होकर अपना स्वात्मजन्य स्वराज्य कर रहे हैं। इस संसार में महादेव उन्हीं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७] को कहते हैं जो कर्मरूपी शत्रुओंको जीतकर तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुए हैं । अतएव वे ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव इंद्र, चक्रवर्ती आदिके द्वारा वंदनीय हैं। इन अरहंत और सिद्ध परमेष्ठीके सिवाय अन्य कोई भी ब्रह्मा विष्णु वा महादेव पूज्य और वंदनीय नहीं है । ।। १३७ ॥ १३८ कोऽसौ दीनोऽस्ति लोकेऽस्मिन् हे गुरो ! कथयाधुना? प्रश्न:-हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि इस संसार में दीन कौन है ? पाखंडिलिंगे गृहिलिंगधर्म, पापम्य बीजे विषये च पापी । यः स्वात्मबाह्ये परवस्तुरूपे करोति मोहं भुवि सोऽस्ति दीनः ॥१३९॥ उत्तरः-जो पापी मनुष्य पाखंडको धारण करनेवाले कुगुरुओं में, गृहस्थ अवस्थामें ही धर्मकी पूर्णता माननेवालोंमें, पापोंका कारण ऐसे विषयों में और आत्मासे सर्वथा भिन्न ऐसे परपदार्थों में मोह करता है संसारमें वही मनुष्य दीन कहलाता है ।। १३९ ॥ निजात्मनो निवासश्च हे गुरो ! कास्ति भूतले ? ___ प्रश्न:-हे गुते ! इस संसारमें इस अपने आत्माका निवास कहांपर है ? Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८] ये केपि जीवा विषयोद्भवाद्वा, भोगोपभोगाद्वपुषो विरक्ताः। सन्तो हि गन्तुं स्वगृहं यतन्ते, कर्तुं स्वराज्यं स्वरसस्य पानम् ॥१४०॥ तेषां प्रवासो हि निजप्रदेशे, चैतन्यराज्ये च भवेन्निवासः । अन्ते निवासः सततं भवेद्वा, कर्मप्रणाशात्सुखपूर्णमाक्षे ॥१४१॥ उत्तरः-जो कोई जीव इस विषम संसारसे भोगापभोगोंसे और शरीरसे विरक्त हो गये हैं तथा जो आत्मजन्य स्वराज्य करने के लिये और आत्मजन्य आनंदामृत रसका पान करने के लिये अपने मोक्षरूप घर के लिये जानेका प्रयत्न करत हैं उन जीवोंका प्रवास तो अपने आत्मा के प्रदेशाम समझना चाहिये और उनका निवास शुद्ध चैतन्यस्वरूप राज्यमें समझना चाहिये । अथवा अंतमें समस्त कमाका नाश हो जानेपर सदाके लिये उनका निवास अनंत सुखसे परिपूर्ण मोक्षस्थानमें समझना चाहिये ॥ १४०।। १४१ ॥ दैवस्य मुख्यता कास्ति किंवा पुण्येन जायते ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९] प्रश्नःहे गुरो ! दैवकी मुख्यता कहां समझनी चाहिए और पुण्यसे क्या क्या प्राप्त होता है ? कृते विशिष्टेऽपि सति प्रयत्ने, कार्यस्य सिद्धिर्न भवेद्यदा हि । दैवं प्रधानं खलु तत्र बोध्यं, बुधैश्च गौणं पुरुषार्थकार्यम् ॥१४२॥ पुण्येन वा सर्वधनं सुराज्यं, पुण्येन वा पुत्रकलत्रबंधुः। ज्ञात्वेति कुर्वन्तु सदैव पुण्यं, कदापि धर्मान्न चलन्तु धीराः ॥१४३॥ उत्तरः-यदि विशेष और अधिक प्रयत्न करनेपर भी कार्यकी सिद्धि न हो तो वहांपर विद्वान् लोगोंको दैव ही प्रधान समझना चाहिये और पुरुषार्थको गौण समझना चाहिये । इस संसारमें पुण्यसे ही समस्त धन और श्रेष्ठ राज्यकी प्राप्ति होती है और पुण्यसे ही पुत्र, खी, भाई, बंधुओंकी प्राप्ति होती है । यही समझकर विद्वानों को सदा पुण्य उपार्जन करते रहना चाहिये और धर्मसे धीर पुरुषोंको कभी भी भ्रष्ट न होना चाहिये ॥१४२११४३॥ रत्नत्रयविहीनोऽयं जीवो भात्यत्र वा नवा ? Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०] प्रश्न:-जो जीव रत्नत्रयरहित है वह इस संसारमें शोभायमान होता है वा नहीं ? जीवादितत्त्वेषु जिनागमे च, खात्मानुभूतौ न रुचिं करोति। न भाति लोके स विबोधहीनः, खाचारहीनो निपुणश्च कोऽपि ॥१४४॥ उत्तरः-जो कोई चतुर पुरुष भी जीवादिक तत्वोंका भगवान जिनेंद्रदेवके कहे हुए आगमका और अपने अत्माकी स्वात्मानुभूतिका श्रद्धान नहीं करता है वह आत्मज्ञानरहित और सदाचाररहित समझा जाता है तथा वह इस संसारमें कहीं भी शोभा नहीं देता ॥१४४॥ लोके धर्मानुरागस्य भो गुरो ! कीदृशं फलम् ? प्रश्नः-हं गुरो ! इस संसारमें धर्मसे प्रेम करनेका फल क्या है ? धर्मानुरागोऽपि परंपरेण, षट्खण्डराज्यस्य मनोहरस्य । पुत्रादिपौत्रस्य समीहितस्य, शक्रादिभूतेरपि दायकः स्यात् ॥१४५॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१] स्वर्मोक्षदाता भवरोगहर्ता, स एव यावन्न भवेद्धि मोक्षः । ज्ञात्वेति भव्यैश्च जिनानुरागो, धर्मानुरागोऽपि सदैव कार्यः ॥१४६॥ उत्तरः-धर्ममें गाढ प्रेम रखना परंपरासे छही खंडके मनोहर राज्यको देनेवाला है, पुत्र पौत्र आदि इच्छानुसार विभूतियोंको देनेवाला है और इन्द्रादिकी विभूतियोंको देनेवाला है । इसीप्रकार यह धर्मानुराग स्वर्गमोक्षको देनेवाला है और जबतक मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तबतक संसारके समस्त रोगोंको हरण करनेवाला है। यही समझकर भव्यजीवोंको भगवान् जिनेन्द्रदेवमें सदा अनुराग रखना चाहिये और उनके कहे हुए धर्ममें सदा अनुराग रखना चाहिये ॥ १४५ ॥ १४६ ॥ आर्यमर्त्यस्य कार्याणि कानि संति जगद्गुरो ? प्रश्न:- हे जगद्गुरो इस संसार में आर्यपुरुषोंके कार्य क्या हैं ? निजात्मशुद्धिगुरुदेवसेवा, सुदानपूजा जिनतीर्थयात्रा । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८२ ] ध्यानोपवासश्च तपो जपो ऽपि, स्वाध्यायशान्तिः स्वपरोपकारः ॥ १४७॥ सम्यक्प्रवृत्तिः कुलजातिरक्षा, विचारशक्तिर्निजतत्त्वचर्चा । आर्यस्य कार्याणि सुखप्रदानि, प्रोक्तानि चैतानि शिवप्रदानि ॥ १४८ ॥ उत्तरः- अपने आत्माकी शुद्धि करना, देव और गुरुकी सेवा करना, पात्रदान देना, देवपूजा करना, भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए तीर्थोंकी यात्रा करना, ध्यान करना, उपवास करना, तप करना, जप करना, स्वाध्याय करना, शक्ति धारण करना, अपने आत्माका कल्याण करना, अन्य जीवांका कल्याण करना, अपनी प्रवृत्ति यत्नाचारपूर्वक करना, अपने कुल और जातिकी रक्षा करना, तत्त्वोंके विचार करनेकी शक्ति रखना और अपने आत्मतत्त्वकी चर्चा करते रहना, ये सब सुख देनेवाले और मोक्षप्रदान करनेवाले शुभकार्य भगवान जिनेन्द्रदेवने आर्यपुरुषोंके बतलाये हैं || १४७ ॥ १४८ ॥ भो गुरो ! कीदृशो जीवो नरकं याति सत्वरम् ? प्रश्नः - हे गुरो ! कैसा जीत्र शीघ्र ही नरक पहुंचता है ? Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३ ] अत्यंतकोपी कटुकप्रभाषी, धर्मस्य देवस्य गुरोर्विरोधी । धूर्तः शठः प्राणिबधे प्रवृत्तो, द्रोही च बंधोः कुलजातिलोपी ॥ १४९ ॥ दानादिधर्मेषु सदा रतानां, सुश्रावकाणां खलु निंदको यः । पूर्वोक्तभावैरिति यश्च युक्तः, स एव पापी नरकस्य गामी ॥ १५० ॥ उत्तरः—जो अत्यंत क्रोधी है, कटुक भाषण करनेवाला है, जो देव, धर्म और गुरुका विरोधी है; जो धूर्त है, मूर्ख है; प्राणियोंकी हिंसामें सदा प्रवृत रहता है, जो अपने भाई बंधुओंका द्रोही है; जो कुल और जातिका लोप करनेवाला है और जो दान पूजा आदि धर्ममें सदा लीन रहनेवाले श्रेष्ठ श्रावकों की सदा निंदा करता रहता है; जिस जीवके ऊपर लिखे हुए भाव विद्यमान रहते हैं वही जीव पापी और नरकगामी समझना चाहिये । १४९ ।। १५० ।। तिर्यग्गतिं च को जीबी गुरो ! गच्छति भो वद ? प्रश्न: -- हे गुरो ! यह बतलाइये किं तिर्यंच गतिमें कौनसा जीव जाता है ? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८४] आचारहीनो हि विचारशून्यो, मिथ्याप्रलापी च बहुप्रमादी । अभक्ष्यभक्षी विपरीतवृत्ति, बह्वन्नभोजी जिनधर्मबाह्यः ॥१५॥ दंभी च लोभी विषये निमग्नो, दानादिधर्माद्धि सदैव दूरः । पूर्वोकभावरिति यश्च युक्तः, स एव गंता च गतिं तिरश्चाम् ॥१५२॥ उत्तर:-जो पुरुष आचाररहित है, विचारहित है, सदा मिथ्या बकवाद करता रहता है, अत्यंत प्रमादी है, अभक्ष्य भक्षण करनेवाला है, अपनी प्रवृत्ति सदा धर्मसे विपरीत रखता है, जो अधिक अन्न भक्षण करनेवाला है जिनधर्म से पराङ्मुख है, माया चारी है, लोभी है, विषयों में सदा लीन रहता है और दानपूजा आदि धर्मसे सदा दूर रहता है, जो जीव ऊपर कहे अनुसार अशुभ भावोंको धारण करता है उसे तिर्यच गतिमें जानेवाला समझना चाहिये ॥ १५१ ॥ १५२ ॥ - मनुष्ययोनि को जीवो यातीति वद भी गुरो ! प्रश्न:--हे गुरो ! मनुष्ययोनिमें जाकर कौनसा जीक उत्पन्न होता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८५] यः स्वल्पलोभी विमलप्रवृत्तिः, संसारभीरुश्च दयाचित्तः । विनीतवृत्तिः समशांतियुक्तो, धर्मप्रचारी च कुकर्मलोपी ॥१५३॥ रुचिं विधत्ते गुरुदेवशास्त्रे, धर्मे सुदाने यजनेऽपि दक्षः। पूर्वोक्तभावैरिति यश्च युक्तः, स एव धीरो नरजन्मगामी ॥१५४॥ उत्तर:-जो जीव बहुत ही कम लोभ करता है, जो अपनी प्रवृत्तिको सदा निर्मल रखता है, जो संसारसे भयभीत है, जिसका हृदयं सदा दयालु बना रहता है, जो सदा विनयपूर्वक रहता है, जो समता और शांतिको सदा धारण करता रहता है, धर्मका प्रचार करता रहता है, कुकर्मोको नष्ट करता रहता है, देव शास्त्र गुरुमें सदा श्रद्धान धारण करता है, जो धर्म धारण करने, दान देने और पूजा करने में अत्यंत चतुर है । इस प्रकारके शुभ भावोंसे जो सुशोभित है वह धीरवीर मनुष्यगतिमें जाकर जन्म लेता है ॥ १५३ ॥ १५४ ॥ वर्गति कीदृशो जीवो याति भो सद्गुरो वद ! Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८६] प्रश्न:-हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि स्वर्गगति में कैसा जीव जाता है ? भोगाच्छरीराच्च भवाद्विरक्तो, देशव्रती वा सकलव्रती वा। सम्यक्त्वयुक्तश्चरमांगहीनः, स्वाध्यायलीनस्तपसा प्रयुक्तः ॥१५५॥ निजात्मशुद्धिं स्वपरोपकारं, कर्तुं सदा संयतते प्रयत्नात् । पूर्वोक्तभावैरिति यश्च युक्तः, स एव भव्यो भुवि नाकगामी ॥१५॥ उत्तरः-जो मनुष्य संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त है, जो देशव्रती है वा सकलव्रती है, जो सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है, परंतु जो चरमशरीरी नहीं है, जो स्वाध्यायमें लीन रहता है, तपश्चरणसे सुशोभित है और जो अपने आत्माकी शुद्धि, अपने आत्माका कल्याण तथा अन्य जीवोंका कल्याण करनेके लिये प्रयत्न पूर्वक सदा उद्योग करता रहता है । इस प्रकार जो ऊपर लिखे शुभ भावोंसे सदा सुशोभित रहता है वही भव्य स्वर्ग जानेवाला समझना चाहिये ॥ १५५ ॥ १५६ ॥ कीदृशः पुरुषो लोके मोक्षं गच्छति भो गुरो ! Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८७] प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसारमें कैसा मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है ? महाव्रतं वा समितिं दधानो, निजात्मनिष्ठश्चरमांगधारी । कर्तुं स्वराज्यं यतते सदैव, खात्मानुभूत्यां स्वपदेऽस्ति लीनः॥१५७॥ ध्यानेन शुक्लेन च कर्महंता, द्रष्टा प्रबोद्धा च निजात्मनो यः । पूर्वोक्तभावैरिति यश्च युक्तः, स एव योगी भुवि मोक्षभागी ॥१५८॥ उत्तरः-जो मुनि महाव्रत वा समितिको धारण करते हैं, जो अपने आत्मामें सदा निमग्न रहते हैं, चरमशरीरी हैं, जो मोक्षरूप स्वराज्य करनेके लिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं, स्वात्मानुभूति और स्वात्मपदमें सदा लीन रहते हैं, जो शुक्लध्यानकं द्वारा कर्मोको नाश करनेवाले हैं और अपने शुद्ध आत्माके ज्ञाता दृष्टा है इस प्रकार जो मुनि शुद्धभावोंसे सुशोभित हैं वेही मुनि इस संसारमें मोक्ष जाते हैं ।। ७५१ ॥ १५८ ॥ लोके सुपात्रदानेन किं जीवो लभते फलं ? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८८] प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसार में सुपात्रदानसे जीवोंको क्या फल प्राप्त होता है ? सुपात्रदानेन च सर्वजन्तो-, भवेत्सुपुत्रोऽपि पितापि माता। बंधुश्च भार्या भगिनी च पौत्रो, देहोऽप्यरोगी परम बलायुः ॥१५९॥ षट्खण्डराज्यं धनरत्नपूर्ण, धर्मानुकूलो वरराज्यवर्गः । प्रभुत्वमाज्ञा भुवि मान्यतेति, बुद्धिः समर्था शमितुं भवाग्निम् ॥१६०॥ एतेऽपि सर्वे वरपुण्यपूरा, भवन्ति लोके समयानुसाराः । सुपात्रदानस्य शिवप्रदस्य, सर्वोत्तमा वा महिमास्ति लोके ॥१६॥ उत्तरः-सुपात्रदान देनेसे इस संसारके समस्त जीवोंको सुपुत्र, पिता, माता, भाई, बहिन, स्त्री, पौत्र आदि पूर्ण कुटुंब प्राप्त होता है, शरीर नीरोग रहता है, बल और आयु सर्वोत्तम मिलती है, धन और रत्नोंसे परिपूर्ण ऐसा छहो खंडका राज्य प्राप्त होता है, श्रेष्ठराज्य के Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८९] समस्त अंग धर्मानुकूल प्राप्त होते हैं । संसारमें प्रभुता, आज्ञा और मान्यता बढती है और श्रेष्ठ बुद्धि संसाररूपी अग्निको शांत करनेमें समर्थ होती है । इस प्रकार सुपात्रदान देनेसे समयके अनुसार इस संसारमें समस्त श्रेष्ठ पुण्यके समूह प्राप्त हो जाते हैं। अत एव कहना चाहिये कि मोक्ष देनेवाले इस सुपात्रदानकी महिमा इस संसारमें सर्वोत्तम मानी जाती है ॥ १५९ ॥१६० ॥ १६१ ॥ 'धर्म जहाति सदृष्टिनिन्दया भो गुरो ! न वा ? प्रश्नः-हे गुरो ! सम्यग्दृष्टी पुरुष अपनी निंदा होनेपर धर्म को छोड देता है वा नहीं ? यथैव लोके सविता खरत्वम्, शशी च शीतं कुसुमं सुगंधम् । इक्षुश्च दुग्धं मधुरत्वमेवं, निम्बो कटुत्वं च विषं हि सर्पः ॥१६॥ तोयं यथाधोगमनं च पापी, वक्रां गतिं नीचजनः कदापि । आग्निर्यथौष्ण्यं कलहं विभावः, चैतन्यशक्ति सकलोऽपि जीवः ॥१३॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९०] स्पर्शादिवर्णं खलु पुद्गलोऽपि, कालोऽपि नित्यं परिवर्तनत्वम् । धर्मोऽप्यधर्मोऽपि गतिस्थितित्व-, माकाशमेवं ह्यवकाशदानम् ॥ १६४ ॥ साध्वी सुशीलं सुनृपः सुनीति, साधुः स्वधर्मं न जहाति लोके । तथैव धर्मं स्तवनिन्दनेन, सदृष्टिजीवो न जहाति भावात् ॥१६५ उत्तरः-जिस प्रकार इस संसार में सूर्य अपनी तीवताको नहीं छोडता, चन्द्रमा अपनी शीतताको नहीं छोडता, पुष्प सुगंधको नहीं छोडता, ईख और दूध मधुरताको नहीं छोडता, नीम कडवेको नहीं छोडता, सर्प विषको नहीं छोडता, पानी नीचगति ( नीचेकी ओर जाना ) को नहीं छोडता, पापी नीच मनुष्य अपनी कुटिलताको नहीं छोडता, अग्नि उष्णताको नहीं छोडती, वैभाविक परिणाम कलहको नहीं छोडता, समस्त जीव चैतन्यशक्ति को नहीं छोडते, पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्णको नहीं छोडता, काल अपने परिवर्तन स्वभावको नहीं छोडता, धर्मद्रव्य गति हेतुत्वको नहीं छोडता, अधर्मद्रव्य स्थितिहेतुत्वको नहीं छोडता, आकाश अवकाशदानको नहीं छोडता, सती स्त्री Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९ ] अपने शीलको नहीं छोडती, उत्तम राजा अपनी श्रेष्ठ नीतिको नहीं छोडता और साधु पुरुष अपने अपने धर्मको नहीं छोडते उसी प्रकार इस संसार में सम्यग्दृष्टि पुरुष भी स्तुति वा निंदा करनेपर भी अपने धर्मको कभी नहीं छोड़ते हैं ।। १६२ ॥ १६३ ॥ १६४ ॥ १६५ ॥ कुर्वन्त्यकार्य किं लोके स्वात्मज्ञानपराङ्मुखाः ? प्रश्नः - जो मनुष्य अपने आत्मज्ञानसे पराङ्मुख हैं वे इस संसार में कौन कौनसे अकार्य करते हैं ? विज्ञानशून्या नरजन्मरत्नं, लब्ध्वापि चानन्दपदप्रदं हि । शादियुक्ते विषये भवान्धौ, क्षिपन्ति दीनाश्च कुटुम्बहेतोः ॥ १६६ ॥ चिन्तामणेः कल्पतरोः समानं, श्रीजैनधर्मं मनुजोऽपि लब्ध्वा । सुरक्षणार्थं स्मरकुंजरस्य, रत्नत्रयं सौख्यमयं त्यजन्ति ॥ १६७॥ सद्बुद्धिरत्नं हि धनार्जनार्थं, नियोजयन्ति व्यवहारकार्ये । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९२] विज्ञानहींना इह जीव लोके, किं किं न कुर्वन्ति कुकर्मकार्यम् ॥१६८॥ उत्तरः-जो मनुष्य आत्मज्ञानशून्य हैं और इसीलिये जो दीन कहलाते हैं वे मनुष्य आत्मजन्य आनंदामृतको देनेवाले मनुष्यजन्म रूपी रत्नको पाकर भी केवल अपने कुटम्बको पालन पोषण करनेके लिये अनंत क्लेशोंसे भरे हुए और अत्यंत विषम ऐसे संसाररूपी समुद्र में उस मनुष्यजन्मको डुबो देते हैं पूरा करदेते हैं। उस मनुष्य जन्ममें भी चिंतामाणि रत्न और कल्पवृक्षके समान अनंतसुख देनेवाले रत्नत्रयरूप श्रीजैनधर्मको पाकर उसे केवल कामदेव रूपी हाथीकी रक्षा करनेके लिये छोड देते हैं । इसीप्रकार श्रेष्ठ ज्ञानरूपी रत्नको पाकर उसे धन कमानेके लिये व्यावहारिक कायोंके लिय लगा देते हैं। अतएव कहना पडता है कि आत्मज्ञान-शून्य मनुष्य इस संसारमें क्या क्या अकार्य नहीं करते हैं अर्थात् सबतरहके अकार्य कर डालते हैं । १६६ ॥१६७ ॥१६८ ॥ मिथ्यात्वं कीदृशं लोके सम्यक्त्वं वा गुरो वद ? प्रश्नः-हे गुरो ! इस संसार में सम्यग्दर्शन कैसा है और मिथ्यात्व कैसा माना जाता है ? Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९३] सम्यक्त्वमेवास्ति शिवप्रदं हि, संसारमूलस्य विनाशकं च । क्रोधस्य लोभस्य सुशामकं तत् , मनोविकारस्य भवप्रदस्य ॥१६९॥ मिथ्यात्वमेवास्ति भवप्रदं हि, निरोधकं मोक्षसुखादिकस्य । आशापिशाचस्य विवर्द्धकं तत, संसारवह्नविपरीतबुद्धेः ॥१७॥ उत्तरः-इस संसारमें सम्यग्दर्शन मोक्ष देनेवाला है, जन्ममरणरूप संसारके कारणों को नाश करनेवाला है, क्रोधको शांत करने वाला है, लोभको नष्ट करनेवाला है और संसारको बढानेवाले मनकं विकारोंको नाश करनेवाला है । इसीप्रकार मिथ्यादर्शन जन्म मरण रूप संसारको बढानेवाला है, स्वर्गमोक्ष के सुखोंको रोकनेवाला है, आशारूपी महापिशाचको बढानेवाला है, संसाररूपी अग्निको बढानेवाला है और बुद्धि को विपरीत कर देनेवाला वा विपरीत बुद्धिको बढानेवाला है १६९ ॥ १७० ॥ सदृष्टेविपरीतस्य प्रवृत्तिः कीदृशी प्रभो! Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९४ ] प्रश्नः - हे प्रभो ! सम्यग्दृष्टी और उसके विपरीत मिथ्या प्रवृत्ति कैसी होती है ? मिथ्यात्वमूढस्य परात्मबुद्धि, मिथ्याप्रपंचो विपरीतवृत्तिः । भवेत्सुदृष्टश्च निजात्मबुद्धिः, सम्यक्प्रवृत्तिः स्वपदे निवासः ॥ १७१ ॥ उत्तरः -- जो पुरुष मिथ्यात्व से अज्ञानी हो रहा है उसकी बुद्धि सदा परपदार्थोंमें लीन रहती है, उसका प्रपंच वा भावनाएं सब मिथ्या होती हैं और उसकी प्रवृत्ति भी सदा विपरीत रहती है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टीकी बुद्धि अपने आत्मामें लीन रहती है, उसकी प्रवृत्ति यथार्थ रहती है और उसके आत्माका निवास अपने आत्मामें रहता है ।। १७१ ।। दर्शनज्ञानचारित्रलक्ष्म किं ब्रूहि मे गुरो ! प्रश्नः - हे गुरो ! अब मेरे लिए यह बतलाइये कि सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका लक्षण क्या है ? देवस्य शास्त्रस्य गुरोर्यथाव, च्छ्रद्धा स्वधर्मस्य सुदर्शनं तत् । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९५] जीवादितत्त्वस्य यथास्थितस्य, द्रव्यादिकस्यापि यथार्थबोधः ॥१७२॥ त्यक्त्वाऽशुभं दुःखमयं कदर्य, प्रवर्तनं पुण्यमये शुभे च। सदैव शुद्धे स्वपदे स्थिरत्वं, चारित्रमेवास्ति तदेव सम्यक् ॥१७३॥ किंवा सुदक स्वात्मरुचिर्यथार्थ, सुज्ञानमेवास्ति निजात्मबोधः। शुद्धेऽमले स्वात्मनि वा स्थिरत्वं, चारित्रमेवास्ति तदेव लोके ॥१७४॥ उत्तर:-देव, शास्त्र, गुरु और अपने जिनधर्मका यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । यथार्थ स्वरूपको धारण करनेवाले जीवादिकके तत्त्वांका अथवा द्रव्योंका यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है। इसी प्रकार अशुभ वा यापमय तथा दुःखमय और लोभरूप अपनी प्रवृतिका त्याग कर पुण्यमय शुभ कार्योमें अपनी प्रवृत्ति रखना अथवा अपने शुद्ध आत्मामें स्थिर हो जाना ही सम्यक् चारित्र कहलाता है । अथवा अपने शुद्ध आत्माकी यथार्थ रुचि होना निश्चय सम्यग्दर्शन है, अपने शुद्ध आत्माका Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९६ ] यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है और अपने निर्मल शुद्ध आत्मामें स्थिर हो जाना, लीन होजाना निश्चय सम्यक् चारित्र है इसप्रकार इन तीनोंका लक्षण है ।। १७४ ॥ हिताहितं न जानन्ति के वा केषां जगद्गुरो ? प्रश्न: - हे जगद्गुरो इस संसार में कौन से जीव किन २ का हिताहित नहीं जानते हैं ? राजा प्रजानां जिनधर्महीनो, हिताहितं नैव कदापि वत्ति । सतां नृपाणां सचिवोऽपि मूर्खः, तथा च पत्युः कुटिलापि भार्या ॥ १७५॥ सिंहः पशूनां च खलः सतां हि, हिताहितं नैव कदापि वेत्ति । तथैव चौरा वरधार्मिकाणां, at निर्बलानां बलवान् हि पापी ॥१७६॥ वा निर्धनानां धनवान्न वेत्ति, हिताहितं धर्मविधेः कुधर्मी । तथा सूनां कृपणो न वेत्ति, स्वार्थी च केषामपि वेत्ति नैव ॥ १७७॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] मिथ्यात्वमूढः खहितं न वेत्ति, चारित्रमोहान्न च दृष्टिपूतः । हिताहितज्ञानकरी सुबुद्धि-, मेभ्यो जिनेन्द्रः सततं ददातु ॥१७८॥ उचरः-जिनधर्मसे रहित राजा प्रजाके हित अहितको कभी नहीं जान सकता, मुख मंत्री सज्जन राजाके हिताहित को नहीं जानता, कंटिल स्त्री अपने पतिके हिताहित को नहीं जानती, सिंह पशुओंके हिताहितको नहीं जानता और दुष्ट पुरुष सज्जनोंके हिताहितको कभी नहीं जानते । इसीप्रकार चोर श्रेष्ठ धर्मात्मा पुरुषोंके हिताहितको कभी नहीं जानते और पापी बलवान् पुरुष इस पृथ्वीपर निर्बलोंके हिताहितको नहीं जानते, अथवा धनवान पुरुष निर्धनोंके हिताहित को नहीं जानते, और कुधर्मी पुरुष धर्मानुष्ठानोंके हिताहित को कभी नहीं जानते। इसीप्रकार कृपण पुरुष अपने प्राणोंका भी हिताहित नहीं जानते और स्वार्थी पुरुष किसीके हिताहितको नहीं जानते । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि पुरुष अपने आत्माके हितको भी नहीं जानते और चारित्रमोहनीय का उदय होनेपर सम्यग्दृष्टि जीव भी अपने आत्माका हित नहीं जानते । अतएव भगवान जिनेन्द्रदेव इन जीवोंको हिताहितका ज्ञान प्रगट करानेवाली सुबुद्धि सदा देते रहें ॥१७५-१७८॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] भवत्यवर्णवादात्किं जिनादीनां गुरो वद ? प्रश्नः - हे गुरो ! जिनेद्रदेव आदि के अवर्ण वाद करने से क्या होता है सो बतलाइये ? अवर्णवादान्नरको जिनस्य, भवेद्धि साधोरपवादयोगात् । धर्मस्य भूपस्य च निन्दया वा, भ्रान्तिर्भवे स्यान्निजमृत्युरेव ॥ १७९ ॥ भीमे भवाब्धौ भ्रमणं भवेद्धि, पूजा सुदानस्य च निंदया वा । शुद्धात्मनस्तत्त्वविचिन्तनस्य, प्रणिदयाशांतिरगाधचिन्ता ॥ १८० ॥ उत्तर :- भगवान् जिनेन्द्रदेवका अवर्णवाद वा निंदा करनेसे नरककी प्राप्ति होती है, इसीप्रकार साधुकी निंदा करनेसे भी नरककी प्राप्ति होती है। धर्मकी निंदा करनेसे संसार में परिभ्रमण करना पडता है, राजाकी निंदा करनेसे अपनी मृत्यु होती है, भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा और पात्रदानकी निंदा करनेसे अत्यंत भयानक ऐसे संसाररूपी समुद्र में परिभ्रमण करना पडता है, शुद्ध आत्मा की निंदा करनेसे आत्मामें भारी अशांति बढ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है तथा तत्त्वाचिन्तन वा ध्यानकी निंदा करनेसे अगाध चिंता बढ़ जाती है ॥ १७९ ॥ १८० ॥ नरत्वं प्राप्य किं लोके करणीयं जनगुरो ! प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसारमें मनुष्यजन्म को पाकर लोगोंको क्या करना चाहिए ? । पुण्योदयादेव नृजन्म लब्ध्वा, भव्यैः प्रसादः स्वपदे न कार्यः। कुटुम्बवर्गे सकलेऽपि नष्टे, षट्खण्डराज्ये सुमनोहरेऽपि ॥१८१॥ स्वाध्यायधर्म यजने सुदाने, ध्याने सुकार्येऽपि सदा पवित्र । ज्ञात्वेति शीघ्रं निजसाधने हि, नियोजनीया स्वपंदे सुबुद्धिः ॥१८२॥ उत्तरः- भव्य जीवोंको अपना समस्त कुटुंब वर्ग और मनोहर श्रेष्ठ छहो खंडका राज्य आदि सर्वस्व नष्ट होनेपर भी पुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त हुए इस मनुष्यजन्मको पाकर अपना आत्मकल्याण करनेमें-शुद्धात्माकी प्राप्ति करनेमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये । इसी बातको अच्छीतरह समझकर भव्य जीवोंको अपनी सुबुद्धि स्वा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यायमें, धर्ममें, पूजामें, पात्रदानमें, ध्यानमें अन्य पवित्र पुण्यकार्यों में, आत्माको शुद्ध करनेके साधनों में और शुद्ध आत्मामें सदा के लिये बहुत शीघ्र लगा देनी चाहिये ॥१८१ ॥ १८२॥ तत्त्वविज्ञानशन्यः क जनो भ्रमति नृत्यति ? . प्रश्न:- हे प्रभो ! तत्त्वज्ञानरहित मनुष्य कहां कहां भ्रमण करता है और कहां २ नृत्य करता है ? अस्यास्मि कर्ता हि ममेदव, कार्यं च नेता जनबांधवानाम् । भृत्या ममैते भुवनं च राज्यं, मिथ्यात्वदोषादिति मन्यमानः ॥१८॥ सन् स्वात्मशून्यो जिनधर्मबाह्यः, सदैष जीवो विकलो वराकः । भ्रमत्यचिन्त्ये विषमे भवाब्धौ, क्लेशप्रदे नृत्यति कर्मजाले ॥१८४॥ . उत्तरः-मैं इस कामका करनेवाला हूँ, यह काम मेरा है, मैं अपने कुटुंब परिवारका नेता हूं, ये मेरे सेवक हैं और यह देश तथा राज्य मेरा है । इसप्रकार मिथ्यात्वके दोषसे माननेवाला आत्मज्ञानरहित, जिनधर्मरहित नीच Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०१] और व्याकुल यह जीव जो चिंतन करनेमें भी न आवें ऐसे क्लेश देनेवाले और विषय-संसाररूपी समुद्रमें परिभ्रमण किया करता है और कर्मोके जालमें सदा नृत्य किया करता है ॥ १८३ ॥ १८४ ॥ भी गुरो ! नरकाद्यायुर्बध्यते केन हेतुना ? प्रश्न:-हे गुरो ! नरकादिक आयु का बंध किन किन कारणोंसे होता है। श्वभ्रस्य चायुर्बहुजीवघात, रायुस्तिरश्चां कुटिलैः कुभावैः । मित्रैर्नराणां च शुभैः सुराणां, निजात्मबाद्यैः सकलैश्च जीवैः ॥१८५॥ भ्रांतिप्रदं क्लेशकरं यदायु, स्तबध्यते मोहविशेषतो हि । पूर्वोक्तभावैः खलु यश्च मुक्तः, स बध्यते नैव कदापि काले ॥१८६॥ उत्तरः-अधिक जीवोंकी हिंसा करनेसे नरक आयुका बंध होता है, कुटिल और अशुभ परिणामोंसे तिर्यचायुका बंध होता है, शुभ और अशुभ मिले हुए परिणामोंसे मनुष्यायुका बंध होता है और शुभ परिणा. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०२] मोंसे देवायुका बंध होता है । इसप्रकार आत्मज्ञान-रहित संसारी समस्त जीव आयुकर्म का बंध करते रहते हैं। संसारमें परिभ्रमण करानेवाले और दुःख देनेवाले आयु कर्मका बंध प्रायः मोहकी विशेषतासे होता है और इसीलिये जो जीव ऊपर कहे हुए भावोंसे सर्वथा रहित है वह किसी समयमें भी कर्मोंका बंध नहीं करता है ॥१८५ ॥ १८६ ॥ सम्यक्त्वयुक्ता जानन्ति स्वकीयं दर्शनं न वा। प्रश्नः-सम्यग्दृष्टि जीव अपने सम्यग्दर्शन को जानते हैं वा नहीं। ध्रुवं स्वसम्यक्त्वरविं सुभव्या, स्वबोधनत्रैः प्रविलोकयन्ति । वैराग्यसंवेगशुभस्वभावाच्छ्रद्धादिचिह्नश्च तथा परेषाम् ॥१८७॥ उत्तरः-भव्य जीव अपने सम्यग्दर्शन रूपी सूर्यको अपने ज्ञानरूपी नेत्रोंसे देखते हैं अथवा वैराग्य, संवग, शुभस्वभाव और श्रद्धा आदि चिन्होंसे भी जानलेते हैं। इसीपकार वैराग्य, संवेग, शुभस्वभाव और श्रद्धा आदि चिन्होंसे दूसरों के सम्यग्दर्शनको भी जानलेते हैं ॥१८७॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३ ] कः सुपुत्रः कुपुत्रो वा भो गुरो ! वद साम्प्रतम् ? प्रश्न: - हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि सुपुत्र कौन हैं और कुपुत्र कौन है ? पूजादिदाने स्वपरोपकारे, धर्मार्जने यस्य सदा प्रयत्नः । स्ववंशवृद्ध यतते स्वयं यो, निजात्मसिध्यै जिनधर्मवृध्यै ॥ १८८ ॥ स एव लोके सुजनः सुपुत्रो, विश्वस्य हर्षाय यथैव मेघः । पूर्वोक्तकार्यस्य च यो विरोधी, स एव पापी कुटिलः कुपुत्रः ॥ १८९ ॥ उत्तर:- जो पुरुष देवपूजा करने और पात्रदान देनेके लिये सदा प्रयत्न करता रहता है, तथा अपने आत्माका कल्याण और अन्य जीवोंका कल्याण करनेका प्रयत्न करता रहता है और जो धर्मके उपार्जन करनेका सदा प्रयत्न करता रहता है, इसीप्रकार जो अपने वंशकी वृद्धि करने के लिये, अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिये और जिनधर्मकी वृद्धि करनेके लिये सदा प्रयत्न करता रहता है वही सज्जन पुरुष इस संसार में सुपुत्र कहलाता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०४] है । जिसमकार मेघकी वर्षासे समस्त संसार हर्षित होता है उसीप्रकार उस सुपुत्रसे समस्त संसार हर्षित होता है । तथा जो पुरुष इन ऊपर लिखे कार्योंसे विरोध करता रहता है वह कुटिल और पापी कुपुत्र कहलाता है। ॥ १८८ ॥ १८९ ॥ चतुगतेभयं कस्माद्विद्यते वद भो गुरो ! प्रश्न:-हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि चारों गतियों को किससे भय लगता है ? अनीतियुक्तस्य भयं सुनीतेः, कुज्ञानजालस्य भयं सुबोधात् । जीवस्य मिथ्यात्वयुतस्य भीतिः, सम्यक्त्वसूर्याच्च खलस्य साधोः ।१९० कुवृत्तमार्गस्य भयं भवेद्वा, स्वाचारमार्गात्कुसृतेः सुमार्गात् । स्वात्मानुभूतेश्च चतुर्गतीनां, स्वस्थानवासाद्विपदस्य भीतिः ॥१९१॥ उत्तरः-जो पुरुष अनीति करता रहता है उसको श्रेष्ठ नीतिसे सदा भय लगता रहता है, इसीप्रकार मिथ्या ज्ञानके समूहको सम्यग्ज्ञान से भय लगा रहता है, मिथ्या Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०५] दृष्टि जीवको सम्यग्दर्शनरूपी सूर्यसे भय लगा रहता है, दुष्टको सज्जनसे भय लगता है, मिथ्याचारित्रके मार्गको सम्यक्चारित्रके मार्गसे भय लगा रहता है । कुमार्गको सुमार्ग से भय लगता है, चारों गतियोंको स्वात्मानुभूतिसे भय लगता है और अपने आत्मस्थानमें न रहनेवाले लोगोंको अपने आत्मा में निवास करनेवालोंसे सदा भय लगा रहता है ॥ १९० ॥ १९१ ॥ कोऽसौ सारो धनादीनां लोके वा कथ्यते जनैः ? प्रश्नः-इस संसारमें लोग धनादिकका सार क्या समझते हैं ? व्ययः सुपात्रे हि धनस्य सारो, बुद्धेश्च सारोऽस्ति निजात्मबोधः । व्रतादिकानां सुखशांतिदानां, देहस्य सारो ग्रहणं यथावत् ॥१९२॥ मुखस्य सारो जिनशास्त्रपाठः, संसारबंधत्यजनं हि लोके। नृजन्मसारो ह्यवगम्य चैवं पूर्वोत्तरीतिः खलु पालनीया ॥१९३॥ उत्तरः-धनका सार वा फल सुपात्रोंमें खर्च करना है, बुद्धिका सार अपने आत्माका ज्ञान है, शरीरका सार Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६] सुख और शांति देनेवाले व्रतादिकोंका ग्रहण करना है, मुखका सार भगवान जिनेन्द्र देवके कहे हुए शास्त्रोंका पाठ करना है और मनुष्यजन्मका सार इस संसारमें संसारके बंधनोंका त्याग करना है । इस प्रकार समझकर ऊपर लिखे अनुसार रीतिका पालन करना चाहिये,अर्थात् सबका सारभाग ग्रहण करना चाहिये ॥१९२॥१९३॥ मूर्योऽसाधुर्दरिद्री कः को वा दासश्च कथ्यते ? प्रश्न :-हे गुरो ! इस संसार में कौन मर्ख है, कौन असाधु है, कौन दरिद्री है और कौन दास है ? सुपात्रदानेन विना धनाढ्योऽ, प्यत्यन्तपापी च सदा दरिद्री । खात्मानुभूत्या स्वपदेन हीनो। यः साधुरेवापि भवेदसाधुः ॥१९४॥ मूखोंस्ति विद्वानपि धर्मशून्यो । यः स्वात्महीनो भुवि सोऽपि दासः । सध्यानहीनो मृतवत्स जीवो, निजात्मसौख्यस्य विना हि दुःखी ॥१९५ उत्तरः-जो पुरुष धनाव्य होकर भी सुपात्र दान नहीं देता है वह पुरुष अत्यंत पापी और दरिद्री है, जो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०७ साधु होकर भी अपने आत्माकी अनुभूतिसे रहित है तथा अपने आत्माकी रुचिसे रहित है उसको असाधु ही समझना चाहिये । जो विद्वान् होकर भी धर्मशून्ग है उसको मूर्ख समझना चाहिये, जो पुरुष अपने आत्मगुणोंसे रहित है उसको दास समझना चाहिये । जो श्रेष्ठ ध्यानसे रहित है उसे मरे हुएके समान समझना चाहिये और जो पुरुष अपने आत्मसु खसे रहित है उसे महादुःखी समझना चाहिये ॥ १९४ ॥ १९५ ॥ शक्तोऽशक्तोऽस्ति को जीवस्त्रिलोके वद भो गुरो ! ___ प्रश्न:- हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि इन तीनों लोको. में कौन जीव समर्थ है और कौन असमर्थ है ? यः प्राणिनां हिंसन एव दक्षः, पापी स शक्तोऽपि सदा ह्यशक्तः । कुंवाधसूनां च नृणां पशूनां, दक्षः सदा पालनपोषणेऽपि ॥१९६॥ स शक्तिहीनोऽपि सदा सशक्को, यः स्यात्कुसंकल्पविकल्पमुक्तः । स एव शक्तः सकलेऽपि विश्वे, वंद्यः स एवास्ति नरामरेन्द्रैः ॥१९७॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०८] उत्तरः-जो पुरुष प्राणियोंकी हिंसा करनेमें चतुर है वह पाषी समर्थ होकर भी असमर्थ कहा जाता है। तथा जो मनुष्य कुंथु आदि छोटे छोटे जीवों की और पशु वा मनुष्योंकी रक्षा करने वा उनके पालन पोषण करनेमें सदा चतुर रहता है वह विना शक्तिके भी सशक्त गिना जाता है । अथवा जो सबतरहके संकल्प विकल्पोंसे रहित है वह मनुष्य तीनों लोकोम सामर्थ्यवान् गिना जाता है और वही मनुष्य इन्द्र चक्रवर्ती आदिके द्वारा वंदनीय गिना जाता है ॥ १९६ ॥ १९७॥ परवस्तु सदा त्यक्तं केन जीवेन भो गुरो ! प्रश्न:-हे गुरो ! इस संसारमें किस जीवने परपदार्थों का ल्याग कर दिया है ? मुक्तोऽस्ति कोपादिचतुष्टयैयस्तेनैव मुक्तं परवस्तु सर्वम् । स एव लोके निजसाधकोऽस्ति, स्वर्मोक्षगामी सकलैश्च पूज्यः ॥१९८॥ उत्तरः-जिस मनुष्यने क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंका त्याग कर दिया है उसीन संसारके समस्त परपदार्थोंका त्याग कर दिया समझना चाहिये । तथा उसी मनुष्य को अपने आत्माको सिद्ध करनेवाला, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०९] स्वर्गमोक्षमें जानेवाला और सब जीवोंके द्वारा पूज्य, समझना चाहिये ॥ १९८॥ कोसौ लोके ससंगोऽस्ति विसंगोऽस्ति चकः सुधीः? प्रश्न:- हे गुगे ! इस संसार में परिग्रह सहित कौन है और परिग्रहरहित बुद्धिमान कौन है ? यः कोऽपि मर्त्यः सुनिजात्मभावे, मौनेन युक्तः शुभध्यानलीनः । सम्यक्त्वयुक्तः सु कषायमुक्तो, ध्रुवं ससंगोपि विसंग एव ॥१९९॥ यः कोपि संकल्पविकल्पयुक्तो, मौनेन युक्तोऽपि बहुप्रलापी। मिथ्याप्रपंचैः सहितश्च यः स । सदा विसंगोऽपि ससंग एव ॥२०॥ उत्तरः-जो मनुष्य अपने आत्माके शुद्ध परिणामोंमें लीन रहता है, जो मौन धारण करता है, शुभध्यानमें लान रहता है, जो सम्यग्दर्शनसे सुशोभित है और कषायोंसे रहित है वह मनुष्य अवश्य ही परिग्रहसहित होने पर भी परिग्रहरहित माना जाता है। तथा जो मनुष्य अनेक संकल्प विकल्प करता रहता है, मौन धारण करनेपर बहुत Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११०] बोलता है और जो अनेक मिथ्यामपंच करता रहता है वह परिग्रहरहित होनेपर भी परिग्रहसहित ही कहा जाता है ॥ १९९ ॥ २००॥ किं फलं ध्यानस्वाध्यायदानभक्तिवतस्य च? प्रश्न:- हे गुरो ! ध्यान, स्वाध्याय, दान, भक्ति और व्रतोंका फल क्या है ? दत्तस्य दानस्य कृतेः कृताया, भक्तेः स्वसिद्धेः परिणामशुद्धे-। व्रतोपवासस्य कृतस्य शक्त्या, ध्यानस्य योगस्य धृतस्य भक्त्या ॥२०१॥ श्रुतस्य शास्त्रस्य नते सुबुद्धे, स्तपोजपै मंत्रविधेः कृतस्य । सुपालितायाः समितेश्च गुप्ते:स्वाध्यायधर्मस्य सुसंयमस्य ॥२०२॥ मृत्योश्च काले भवदुःखदस्या-, न्यवस्तुनो विस्मरणं च बंधोः। स्वानन्दपिण्डस्य निजात्मनो हि, चिन्मात्रमूर्तेः स्मरणं फलं हि ॥२०३॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१११] उत्तरः—हे वत्स ! भक्ति पूर्वक पात्रदान देनेका, देवपूजा करनेका, आत्माकी सिद्धि करनेका परिणामोंको शुद्ध रखनेका, शक्तिके अनुसार व्रत उपवास करनेका, भक्तिपूर्वक ध्यान धारण करने और योगधारण करनेका, शास्त्रोंके सुननेका, नम्रता वा विनय धारण करनेका, श्रेष्ठ बुद्धिका, तपश्चरण करने, जप जपने और मंत्रोंकी विधियों के करनेका, समितियों के पालन करनेका, गुप्तियों के पालन करनेका, स्वाध्याय करनेका, धर्मधारण करनेका और संयम पालन करनेका फल, मरणके समय में संसार के दुःखों को देनेवाले अन्य समस्त पदार्थोंको भूल जाना, भाई बंधु आदि मोह बढानेवालोंको भूल जाना और चैतन्यस्वरूप अपने आत्मासे उत्पन्न हुए आनंदामृत पिंडका स्मरण करना समझना चाहिये || २०१-२०३ ॥ पूजितः पीडितः सद्भिः खलैः साधुः करोति किम् ? प्रश्नः– यदि कोई सज्जन साधुओंकी पूजा करता है कोई दुष्ट साधुओं को पीडा पहुंचाता है तो दोनों अवस्था में साधु क्या करते हैं ? एकश्च साधोः क्षिपतीह कण्ठे, सर्प द्वितीयश्च करोति पूजाम् । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] निंदां तृतीयोऽपि करोति पापी, स्तवं चतुर्थः प्रकटीकरोति ॥२०४॥ करोति सेवां खलु पंचमोऽपि, खड़ेन षष्ठोऽथ वपुर्भिनत्ति। सर्वेऽप्यमी स्तावकनिन्दका भोः, सुवंचकाः सन्ति यथार्थदृष्ट्या ॥२०५॥ ज्ञात्वेति धीरो रमते स्वधर्म, स्थिरे निजानन्दपदे विशुद्धे । अत्यंतशुद्धे हि निजप्रदेशे, स्वर्मोक्षदस्तिष्ठति विश्ववन्द्यः ॥२०६॥ उत्तरः--कोई एक पुरुष तो साधुके गलेमें सर्प डाल देता है, कोई दूसरा मनुष्य उनकी पूजा करता है, तीसरा कोई पापी आकर उनकी निंदा करता है, चौथा पुरुष आकर उनकी स्तुति करता है, पांचवा कोई पुरुष आकर उनकी सेवा करता है, अन्य छठा मनुष्य आकर अस्त्र शस्त्रोंसे उनके शरीरको छेद डालता है परंतु उन अवस्थाओंमें वे साधु यही समझते हैं कि इस पृथ्वीपर ये स्तुति वा निंदा करनेवाले सब लोग यथार्थ दृष्टिसे देखे जाय तो ठगनेवाले हैं। यही समझकर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११३] तीनों लोकोंके द्वारा वंदना करने योग्य और स्वर्ग मोक्ष देनेवाले वे धीरवीर साध सदा स्थिर रहनेवाले अपने आत्मधर्म में क्रीडा करते हैं, अत्यंत शुद्ध और अपने आत्मासे उत्पन्न हुए आनंदामृतपदमें क्रीडा करते हैं और अत्यंत शुद्ध ऐसे अपने आत्मप्रदेशोंमें स्थिर रहते हैं । ।। २०४ ।। २०५ ॥ २०६ ॥ सुशीलानां सतां कीदृक् स्वभावोऽस्ति जगद्गुरो ! प्रश्न: - हे जगद्गुरो ! इस संसार में शीलवती त्रियोंका तथा सज्जनोंका स्वभाव कैसा होता है ? यथाशाखी सहते शिलां च, क्षिप्तां व्यथादां हि तथापि तस्मै । स एव जीवाय फलं ददाति, मिष्टं सुपुष्टं हि मनोहरं च ॥ २०७ ॥ अधौतदेहं मलिनं च वस्त्रं, नदी यथातीव शुचीकरोति । पूजादिदानस्य सुयोग्यमेव, ददाति धेनुर्मधुरं पयो वा ॥२०८॥ नारी सुशीला सुजनो हि साधुः, सर्वं च दुःखं सहतेऽन्यदत्तम् । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्तापवादं कृतरोषदोषं, कृतापमानं निजशान्तवृत्त्या ॥२०९॥ न केवलं यः सहते हि किंतु, तेषां हि चित्ते सुजनत्ववीजं । सुशीलबीजं सुजनः सुशीला, सद्धिबीज वपतीति साधः ॥२१०॥ उत्तरः-जिसप्रकार आम्रका वृक्ष नीचेसे फेंकी हुई और दुःख देनेवाली पत्थरकी चोटको सहता है तथापि वह वक्ष उस पत्थर फेंकनेवाले पुरुषको मनोहर पौष्टिक और अच्छे मीठे फल देता है, तथा नदी भी शरीर धोनेवाले को और मलिन वस्त्रों को अत्यंत पवित्र कर देती है, तथा गाय घास भूस खाती है और दान पूजाके योग्य दूध, देती है। उसी प्रकार मुशीला स्त्री और सज्जन साधु दुसरोंके द्वारा दिये हुए सवतरहके दुःखोंको सहते हैं, जो कोई उनका अपवाद करता है, उनको दोष लगाता है, या उनपर क्रोध करता है वा उनका अपमान करता है, उस सबको वह सुशीला स्त्री और सजन साधु अपनी स्वभाविक शांततसे सहन कर लेते हैं। वह सुशीला स्त्री आर सज्जन साधु दूसरोंके दिये हुए दुःखोंको सहन करके ही नहीं रह जाते हैं किन्तु उन दुःख देनेवालोंके Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयमें सुशीलता और सज्जनताका बीज बो देते हैं तथा वही साधु उन दुष्टोंके हृदयमें श्रेष्ठ बुद्धिका बीज बो देते हैं। उनका स्वभाव ही ऐसा है ॥२०७१२०८।२०९।२१०॥ स्वात्मा विलोक्यते चाक्षः स्वात्मना मनसाथवा ? प्रश्न :-हे गुरो ! यह अपना आत्मा इंद्रियोंके द्वारा देखा जाता है वा मनके द्वारा देखा जाता है अथवा अपने ही आत्माके द्वारा देखा जाता है ? इंद्रियैर्मनसात्मानं ज्ञातुं द्रष्टुं सुखाय च। मूढा जना यतन्ते ये मुख्या मूर्खेषु ते मता:।२११॥ वाकायमानसाक्षैश्च पुद्गलानेव केवलम् । रसस्पर्शात्मकं द्रष्टुं ज्ञातुं वा शक्नुवन्ति च २१२ चिन्मात्रमूर्तिमात्मानं नैव स्पर्शादिवर्जितम् । आत्मावलोकने ज्ञेयमात्मवोधे परोक्षतः ॥२१३॥ बाकायमानसाक्षाणां साहाय्यमात्रमेव च । आत्मना चात्मने चात्मात्मानमात्मनि चात्मनः॥ विलोकनं परिज्ञानं भवेदेव स्वभावतः । यथा दीपस्य साहाय्याद् घटादि प्रविलोक्यते२१५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११६] तथात्मनैव स्वात्मेति सिद्ध एव प्रमाणतः । मन्यते स्वात्मनिष्ठेन कुंथूसागरयोगिना ॥ २९६॥ उत्तर:- मूढ बुद्धिको धारण करनेवाले जो पुरुष अपना आत्मसुख प्राप्त करनेके लिये इन्द्रिय और मनके द्वारा आत्माको देखना वा जानना चाहते हैं उन्हें मुखमं भी मुख्य समझना चाहिये । क्योंकि ये संसारी जीव मन वचन और इन्द्रियोंसे रूप रस गंध स्पर्श युक्त पुगलको ही देख वा जान सकते हैं, चैतन्य स्वरूप आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है इसलिये उसको वे मन वचन काय वा इन्द्रियों से नहीं देख वा जान सकते । परोक्षरूप आत्माको देखने और जाननेमें मन वचन काय और इन्द्रियोंको सहायक मात्र समझना चाहिये । वास्तवमें देखा जाय तो यह आत्मा अपने आत्मा के सुखके लिये अपने आत्मा को अपने ही आत्मामें अपने ही आत्माके द्वारा अपने आत्माकं ही स्वभावसे देखता और जानता हैं । जिस प्रकार दीपककी सहायतासे घटादिक पदार्थ जाने जाते हैं उसी प्रकार यह आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा जाना जाता है यह बात प्रमाणसे सिद्ध हैं । अपने आत्मामें लीन रहनेवाले मुनिराज कुंथुसागरजी भी इसी प्रकार मानते हैं ।। २११-२१६ ॥ कीदृशं शस्यते ज्ञानं जिनैर्वेद जगद्गुरो ! Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न:-हे जगद्गुरो ! भगवान जिनेन्द्रदेवः कैसे ज्ञानकी प्रशंसा करते हैं ? मिथ्यात्वं क्षीयते येन स्वात्मतत्त्वं विबुध्यते । चित्तं निरुध्यते येन खतृष्णा नाश्यते जवात् २१७ येन शुद्धो भवेदात्मा येनाविद्या विनश्यति । येन प्रणाश्यते रागः स्वरसो येन पीयते ॥२१८॥ मैत्री प्रवर्त्यते येन द्रोहो लोभो विहन्यते । येनाशा हन्यते शीघ्रं स्वसुखं येन भुज्यते॥२१९॥ संसारो मुच्यते येन स्थीयते स्वपदेऽचले । स्वर्मोक्षदर्जिनैः प्रोक्तं ज्ञान श्रेष्ठं तदेव हि ॥२२० आहारं मैथुनं निद्रा भयं सर्वेषु विद्यते । सम्यग्ज्ञानेन मत्योऽयं शोभते तद्विना पशुः ॥ उत्तरः-जिस ज्ञानसे मिथ्यात्व नष्ट हो जाय, जिससे आत्मतत्त्वका ज्ञान हो जाय, जिससे मनकी चंचलता रुक जाय और जिस ज्ञानसे शीघ्र ही इन्द्रियोंकी तृष्णा नष्ट हो जाय, जिस ज्ञानसे आत्मा शुद्ध हो जाय, जिस ज्ञानसे अविद्या वा मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाय, जिससे राग नष्ट हो जाय, जिस ज्ञानसे शुद्ध आत्मजन्य आनन्दरसका पान होता रहे, जिस ज्ञानसे समस्त जीवामें मित्रता बढ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] जाय, जिससे लोभ और द्रोह नष्ट हो जाय, जिससे आशा शीघ्र नष्ट हो जाय, जिससे यह आत्मा शीघ्रही अपने आत्मजन्य सुखको भोगता रहे, जिस ज्ञान से यह जन्ममरण रूप संसार नष्ट हो जाय और जिस ज्ञान से यह: आत्मा अपने निश्चल शुद्ध आत्मामें लीन हो जाय, उस ज्ञानको स्वर्गमोक्ष देनेवाले भगवान जिनेन्द्रदेव श्रेष्ठ ज्ञान वा सम्यग्ज्ञान कहते हैं। आहार, मैथुन, निद्रा और भय ये सब जीवोंमें रहते हैं परंतु इस मनुष्यकी शोभा सम्य-ज्ञानसे ही होती है । सम्यग्ज्ञान के विना यह मनुष्य पशुके समान समझा जाता है ।। २१७-२२१ ।। दानं ददाति यो नैव तस्य द्रव्यस्य का गतिः ? प्रश्नः - -जो मनुष्य दान नहीं देता उसके धनकी क्या गति होती है ? धनं लब्ध्वापि पुण्येन पित्रे मावे न धर्मिणे । न ददाति सुपात्राय स्वयमप्यत्ति नैव यः ॥ २२२॥ कौ धनं पापिनस्तस्य शिलावत्प्रतिभाति मे । चौरो नयति राजा वा स्वयं नश्यति वा जवात् ॥ उत्तरः- जो मनुष्य अपने पुण्यकर्म के उदयसे धनको पाकर भी माता पिता वा धर्मात्माके लिये नहीं देता, न सुपात्रदान में उसे खर्च करता है और न स्वयं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११९] खाता पीता है उस पापी का धन गढे हुए पत्थरके समान समझना चाहिये । उस धनको या तो चोर चुरा ले जाते हैं अथवा राजा हरण कर लेता है, अथवा शीघ्र ही वह अपने आप नष्ट हो जाता है ॥ २२३ ॥ प्राप्य बोधिं न च घ्नन्ति कारीन् कीदृशाश्च ते? प्रश्न:- हे गुरो ! जो पुरुष रत्नत्रयको पाकर भी कर्मरूपी शत्रुओंका घात नहीं करते वे मनुष्य कैस हैं ? लब्ध्वापि दुर्लभां बोधि संसारक्लेशनाशिनीम् । कर्मशत्रून् खलान् भीमान् ये जयन्ति न यत्नतः जेतुं ये प्रयतन्ते न न परान् प्रेरयन्त्यपि । इच्छानुसारदं लब्ध्वा चिंतारत्नं मनोहरम् ।।२२५ क्षिपन्त्येव भवाब्धौ वा कामधेनुं सुकामदाम् । त्यजन्ति गहनेऽरण्ये ये स्वकल्पानुसारदम्॥२२६ कल्पवृक्षं च लब्ध्वापि दहन्ति सहसैव ते । नृजन्मवल्लिमेवापि मन्ये छिन्दन्ति ते ध्रुवम् ॥२२७ उत्तरः-जो मनुष्य अत्यंत दुर्लभ और संसारक ' क्लेशोंको नाश करनेवाले रत्नत्रयको पाकर भो अत्यंत दुष्ट और भयंकर ऐसे कर्मरूप-शत्रुओंको यत्नपूर्वक नहा जीतते हैं अथवा उनको जीतने के लिये कोई प्रयत्न नहीं Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२०] करते हैं और न उनको जीतनेके लिये दूसरोंको प्रेरणा करते हैं वे मनुष्य इच्छानुसार फल देनेवाले मनोहर चिन्तामणि रत्नको पाकर भी उसे संसाररूपी समुद्रमें फेंक देते हैं । अथवा इच्छानुसार फल देनेवाली कामधेनुको गहन वनमें छोड़ देते हैं । अथवा कल्पनाके अनुसार फल देनेवाले कल्पवृक्षको पाकर भी बहुत शीघ्र उसे जला देते हैं । इसीप्रकार रत्नत्रयको पाकर कर्मोको नष्ट न करनेवाले मनुष्य भी मनुष्यरूपी वेलको निश्वयसे तोड देते हैं ऐसा मैं समझता हूं ।। २२४-२२७ ।। सर्वशास्त्रं पठित्वापि धर्मश्रद्धां करोति न || कीदृशः कथ्यते लोके भो गुरो ! वद साम्प्रतम् १ प्रश्न: - - हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि जो मनुष्य समस्त शास्त्रोंको पढकर भी धर्म की श्रद्धा नहीं करता है वह मनुष्य इस संसारमें कैसा गिना जाता है ! शद्वशास्त्रं कलाशास्त्रं धर्मशास्त्रं सुखप्रदम् । सर्व शास्त्रं पठित्वापि प्रमाणनयभूषितम् ॥ २२८॥ न्यायाचार्योऽपि भूत्वा यः श्रेष्टो मुनिरपि स्वयम् । सुधीमानपि क्योंऽपि पण्डितो निपुणोऽपि सन् ॥ व्यवहारमिह ज्ञात्वा निश्चयं चापि वस्तुतः | 1 षड्द्रव्याण्यपि बुध्वेति स्वतत्त्वमपि चिह्नतः ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२१] स्वात्मानुष्ठानमेवापि न करोति न चाचरेत् । श्रद्धानं जिनधर्मस्य स्वर्मोक्षदस्य भक्तितः ॥ २३१ नेत्रवानपि चान्धो हि मूर्ख एव बुधोऽपि सः । विसंगोपि ससंगः स मन्येऽहं विधिवंचितः ॥२३२ प्रतिभात्यात्मबाह्य वा स दीर्घभवधारकः । करे धृत्वा यथा दीपमन्धकूपे पतेत्स्वयम् ॥ २३३ ॥ उत्तरः – जो मनुष्य व्याकरणशाख, कलाशाख, और सुख देनेवाले धर्मशास्त्रको पढकर भी तथा नय और प्रमाणोंसे सुशोभित ऐसे समस्त शास्त्रोंको पढकर भी तथा न्यायाचार्य होकर भी, स्वयं श्रेष्ठ मुनि होकर भी, अत्यंत बुद्धिमान होकर भी वा श्रेष्ठ और चतुर पंडित होकर भी, व्यवहार नयको जानकर भी वा यथार्थ निश्चय नयको जानकर भी अथवा छहों द्रव्योंको जानकर भी और आत्माकं चिन्होंसे अपने आत्मतत्त्वको जानकर भी, जो अपने आत्मा के अनुष्ठानका आचरण नहीं करते हैं अथवा स्वर्गमोक्ष देनेवाले जिनधर्मका भक्तिपूर्वक श्रद्धान नहीं करते हैं, वे नेत्रोंको धारण करते हुए भी अंधोंके समान हैं, विद्वान होते हुए भी मूर्ख हैं, परिग्रहरहित होकर भी परिग्रहसहित हैं । इसप्रकार वे अपने कर्मेसि उगे हुए हैं ऐसा मैं मानता हूं । वे लोग आत्मज्ञानके बाहर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२२] समझे जाते हैं अथवा दीर्घ संसारमें परिभ्रमण करनेवाले समझे जाते हैं । जिसप्रकार कोई मनुष्य हाथमें दीपक लेकर भी स्वयं अंधे कूपमें गिरता है उसीप्रकार उन लोगोंको महामूर्ख समझना चाहिये ।। २२८ - २३३ ॥ सज्जातिं च सुधर्मं वा त्यक्त्वा ये पुरुषाः स्वयम् । निजेच्छया प्रवर्तन्ते कीदृशा वद ते गुरो ! प्रश्न: - हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि जो पुरुष अपनी सज्जाति और श्रेष्ठ धर्मको छोडकर स्वयं इच्छानुसार प्रवृत्ति करते हैं कैसे हैं ? त्यक्त्वा स्वमक्षदं धर्मं श्रेष्ठां जातिं कुलं तथा । जनसंख्यादिवृद्ध्यर्थं विषयार्थं च केवलम् ॥ २३४ यस्य कस्य समं याभिः काभिः कन्याभिरेव ये । कारयन्ति विवाहं चान्यायतोऽपि धनार्जनम् ॥ लज्जामपि परित्यज्य केवलोदरपूर्तये । यत्र कुत्रापि लब्ध्वान्नं गृह्णन्ति स्वाद्वभीप्सितं ॥ ते साक्षात् पतिताः सन्ति पशवः पापिनस्तथा । दुर्गतिं प्राप्य ते जीवाः सहन्ते ती दुःखतां ॥ उत्तरः- जो लोग स्वर्ग मोक्ष देनेवाले धर्मको छोडकर, तथा श्रेष्ठ जाति और कुलको छोडकर, केवल विषय सेवन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२३] करनेके लिये अथवा जनसंख्याको बढानेके लिये जिस किसी पुरुषका जिस किसी कन्याके साथ विवाह करा देते हैं तथा अन्यायसे धनोपार्जन करते हैं और लज्जाको छोडकर केवल पेट भरने के लिये जहां कहीं स्वादिष्ट और इच्छानुसार मिले हुए अन्नको खालेते हैं, वे मनुष्य साक्षात्' पतित हैं, पशु है और पापी हैं । ऐसे जीव दुर्गतिको पाकर महातीबदुःख सहन करते रहते हैं ॥२३३४-२३७॥ जनवृद्धिगुरो ! हेया कि लोके वद साम्प्रतम् । प्रश्नः-डे गुरो ! क्या इस संसारमें जनवृद्धि त्याग करने योग्य है कृपाकर यह बतलाइये । वृद्धिर्धार्मिकमानां वांछनीया सदा भुवि । सा तु धमोपदेशेन बोधामृतरसेन वा ॥२३८॥ मोक्षयोग्ये कुले कार्या जनवृद्धिः सदा नरैः । धर्मवाद्धः कदाचिन्नोत्पन्नर्विजातिसंकरैः ॥२३९ उत्तरः-इस संसारमें धार्मिक पुरुषोंकी वृद्धि सदा वाञ्छनीय है परंतु वह वृद्धि मनुष्योंको मोक्ष जाने योग्य कुलमें धर्मोपदेश देकर अथवा ज्ञानामृतके रसका पान कराकर करते रहना चाहिये । जो मनुष्य विजाति संकर उत्पन्न होते हैं उनसे धर्मवृद्धि कभी नहीं हो सकती ॥ २३८ ।। २३९ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२४] अक्रमेण च सेवन्ते सन्त्यर्थान् कीदृशाश्च ते ? . प्रश्न:--हे गुरो ! जो मनुष्य धर्म अर्थ काम आदि पुरुपार्थोंको विना क्रमके सेवन करते हैं वे मनुष्य इस संसार में कैसे हैं ? धर्मार्थादित्रिवर्गस्य सेवनं सत्सुखप्रदम् । प्रयत्नादविरोधेन सदेति कथितं जिनैः ।।२४०॥ ये पूर्वोक्तक्रमं त्यक्त्वा चलन्ति स्वेच्छया सदा । गृहस्था नहि योग्यास्तेऽभिभूयन्ते च भूतले ॥ केवलं धर्म एवास्ति मुख्यो मत्वेति मानवाः ।। सेवन्ते परमं धर्मं त्यक्त्वा कामं धनं तथा ॥२४२॥ दीक्षामादाय ते भव्याः कुर्वन्ति परमं तपः । साधयन्ति च मोक्षं वा परमार्थं नरोत्तमाः।२४३ धनार्जनं प्रकुर्वन्ति त्यक्त्वा धर्मं च पापिनः । मूलमुत्पाट्य ते मूढा इच्छन्ति फलमीप्सितम् ॥ धर्मं धनं परित्यज्य केवलं कामसेविनः । नश्यंति भूतले शीघ्र हा सत्यंधरभूपवत् ॥२४५॥ तस्माद्धर्माविरोधेनोपार्जयन्तु धनं सदा । धनं धर्माविरोधेन सेवन्तां काममंगिनः ॥२४६॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२५] पालनीयश्चतुर्वर्गः श्रावकैरविरोधतः । यथा श्रावकवर्येण दयाधर्मादिमूर्तिना ॥२४॥ श्रीसत्यंधरपुत्रेण जीवकेन सुधीमता। सुन्यायनिपुणेनेव नृसिंहेन नृपेन्दुना ॥२४॥ ____ उत्तरः-धर्म अर्थ काम मोक्ष ये चारो पुरुषार्थ सुख देनेवाले हैं। इनको प्रयत्न पूर्वक और विरोधरहित सेवन करना चाहिये ऐसा भगवान जिनन्द्र देवने कहा है। जो लोग पूर्वोक्त क्रमको छोडकर इच्छानुसार इनका सेवन करते हैं वे योग्य गृहस्य नहीं कहलाते तथा वे संसारमें तिरस्कृत होते हैं। जो मनुष्य केवल धर्म पुरुषार्थको ही मुख्य मानते हैं और अर्थ वा काम पुरुषार्थको छोड कर सर्वोत्कृष्ट धर्मका ही सेवन करते हैं वे उत्तम भव्य मनुष्य दीक्षा लेकर परम तपश्चरण करते हैं और परम पुरुषार्थरूप मोक्षको सिद्ध करते हैं। तथा जो पापी मनुष्य धर्मको छोडकर केवल धनोपार्जन करते हैं वे मूल वा जडको उखाडकर इच्छानुसार मीठे फल खाना चाहते हैं । इसीगकार जो पुरुष धर्म और धन दोनोंको छोडकर केवल काम सेवन करते हैं वे इस संसारमें राजा सत्यंधरके समान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । इसलिये जिस प्रकार धर्ममें विरोध न आवे उसप्रकार धनको उपार्जन करना चाहिये । धन और धर्म दोनोंमें विरोध न आवे उसपकार Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६] कामका सेवन करना चाहिये । श्रावकोंको जिसप्रकार परस्पर विरोध न आवे उसप्रकार इन पुरुषाौँका सेवन करना चाहिये । जो राजा जीवंधर उत्तम श्रावक था, दयाधर्म की मूर्ति था, बुद्धिमान था, मनुष्योंमें श्रेष्ठ था, राजाओंमें चन्द्रमाके समान था, श्रेष्ठ न्यायमें निपुण था और राजा सत्यंधरका पुत्र था, उसने जिसप्रकार इन पुरुषार्थों का सेवन कर अंतमें मोक्षपुरुषार्थ सिद्ध करलिया था उसीप्रकार सबको सेवन करना चाहिये ॥ २४०-२४८ ॥ कार्य स्वास्पदयोग्यं वा ये कुर्वति न कीदृशाः? प्रश्नः-जो पुरुष अपने पदके योग्य कार्य को नहीं करते हैं वे कैसे हैं ? स्वपदव्यनुसारेण जिनाज्ञाप्रतिपालकाः । कुर्युः क्षमादिधर्म हि दानं पूजां तपो जपम् ॥ त्यागं ध्यानोपवासं च वेषाद्याभूषणं पुनः । अवश्यं पालयेयुश्चाहिंसादिवतमुत्तमम् ॥२५०॥ खैरवृत्तिविनाशार्थं पूर्वाचार्या दयालवः । सर्वेषां हितहेतोश्च कथयन्ति मनीषिणः ॥२५१॥ मिथ्याज्ञानग्रहैय॒स्ता आचार्योक्तवचोऽपि ये । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२७] न शृण्वन्ति न जानन्ति श्रुत्वापि पालयन्ति न ॥ गृहस्थकर्मणा ग्रस्ता जिनधर्मबहिः स्थिताः । ये चतुर्विधसंघानां भक्त्यार्हद्धर्मधारिणाम् ॥ देवशास्त्रगुरूणां न कुर्वन्ति भक्तिवन्दनाम् । गृहस्थोचितकार्यं न कुर्वन्ति शांतिदायकम् ॥ विद्याधनादिहीनानां दुःखदूरसधर्मिणाम् । कुर्वन्ति च विद्वांसो जिनधर्मप्रभावनाम् ॥ स्थापनं पाठशालानां वाऽविद्यानाशहेतवे । गृहस्थमुख्यकार्य वा कुर्वन्ति न धनार्जम् ॥ प्रतिमाधारिणः केचित् केचिन्मूख ह्युदासिनः । स्वपदव्याश्च्युताश्चैते स्वेच्छयाऽज्ञानतः स्वयम् मुनिक्रियां प्रकुर्वन्ति ब्रुवंतीति पुनश्च ये । मुनिभ्योऽपि वयं श्रेष्ठा वयं सद्दृष्टयो ध्रुवम् ॥ मन्यमानाः सदेत्येवं पापिष्ठाः क्लेशवर्द्धकाः । देवशास्त्रगुरूणां ये जिनेशवृषधारिणाम् ॥२५९॥ वा चतुर्विधसंघानां चैत्यालयादिकस्य ये । तिरस्कारादिनिंदां वा श्रुत्वा दृष्ट्वापि चार्थतः ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२४] धारयति क्षमा मौनं वा भवंति [दासिनः । जिनेन्द्रधर्मबाह्या हि ग्रस्ता मिथ्यात्वकर्मणा ६१ को गणोष्ट्रवच्चास्यं तिष्ठत्युध्दृत्य पापिनः । मुनयोऽपि भवन्तो ये स्वाध्यायं स्वात्मचिंतनम् ।। स्वरसस्य सदा पानमकृत्वा क्लेशनाशकम् । गृहस्थोचितकार्यं ये कुर्वति दुःखबर्द्धकम् ॥२६३ वैरादिवर्द्धकं कार्यं सदा कुर्वति पापिनः । तेऽपि निजात्मवाह्या हि ग्रस्ता मिथ्यात्वकर्मणा ॥ सर्वेषां हितहेतोश्चानवस्थानाशहेतवे । प्रोक्तं वा शिष्टपुष्टयर्थं कुंथुनाम्ना सतेति हि ६५ उत्तरः-जो मनष्य भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञाका पालन करनेवाले हैं, अपने अपने पदके अनुसार दान पूजा जप तप और उत्तम क्षमादिक धर्मोका पालन करते हैं । इसीप्रकार वे मनुष्य पापोंका त्याग करते हैं ध्यान उपवास करते हैं, वेष और आभूषण भी अपने पदके अनुसार पहनते हैं और अहिंसा आदि उत्तम व्रतोंको भी अवश्य पालन करते हैं इसप्रकार अत्यंत दयालु बुद्धिमान पूर्वाचार्य समस्त जीवोंका हित करने के लिये और इच्छानुसार प्रवृत्तिका नाश करनेके लिये निरूपण करते हैं। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२९] 1 1 तथापि मिथ्याज्ञानरूपी ग्रहसे घिरे हुए कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो ऊपर लिखे हुए आचार्योंके वचनोंको न सुनते हैं न जानते हैं तथा सुनकर भी उनका पालन नहीं करते | जिनधर्म बहिर्भूत और गृहस्थधर्म में लीन रहनेवाले कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो भक्तिपूर्वक भगवान अरतदेवके कहे हुए धर्मको धारण करनेवाले चारों प्रकारके संघकी और देव शास्त्र गुरुओंकी भक्ति तथा वंदना नहीं करते हैं, न शांति देनेवाले गृहस्थोंके योग्य कार्योंको करते हैं । जो साधर्मी पुरुष विद्या वा धन आदिसं रहित हैं उनके दुःखोंको भी दूर नहीं करते, विद्वान होकर भी जिनधर्मकी प्रभावना नहीं करते, अविद्याको नष्ट करनेके लिये पाठशालाओं की स्थापना भी नहीं करते और जो धन कमाना गृहस्थोंका मुख्य कार्य है उसको भी नहीं करते । इनमें कितने ही प्रतिमाधारी बनते हैं और कितने ही मूर्ख उदासीन बनते हैं परंतु अपने अज्ञानसे तथा इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेसे वे सब स्वयं अपने अपने पद से भ्रष्ट हो जाते हैं । उनमेंसे कितने ही तो ऐसे हैं जो मुनियोंकी क्रियाएं पालन करते हैं और कहते यह हैं कि हम लोग मुनियोंसे भी श्रेष्ठ हैं, हम अवश्य ही सम्यग्दृष्टि हैं " वे पापी सदा इसी प्रकार मानते रहते और अपने आत्माको दुःखी किया करते हैं । यदि कोई Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३०] पुरुष देव शास्त्र गुरुका तिरस्कार वा उनकी निंदा करता है, अथवा जिनधर्म धारण करनेवाले चारों प्रकारके संघ की निंदा वा उनका तिरस्कार करता है अथवा कोई मनप्य चैत्य चैत्यालय आदिकी निंदा वा तिरस्कार करता है उसे सुनकर वा यथार्थ रूपसे देखकर भी ये उदासीन बने हुए प्रतिमाधारी मनुष्य क्षमा वा मौन धारण कर लेते हैं। उदासीन होकर उसकी प्रति क्रियासे उदास हो जाते हैं ऐसे लोगोंको जिनधर्मसे चाय और मिथ्यात्व कर्मसे घिरे हुए समझना चाहिये । ऐसे लोग इस पृथ्वीपर अभिमान में डूबकर ऊंटके समान ऊपरको ग्रह उठाकर रहते हैं और प्रायः पापी होते हैं । अथवा ऐसे लोग मुनि होकर भी न स्वाध्याय करते हैं न अपने आत्माका चिंतन करते हैं और न समस्त क्रेशों को दूर करनेवाले अपने आत्मजन्य आनंदामृतरसका पान करते हैं । किंतु मुनि होकर भी दुःख बढाने वाले गृहस्थों के योग्य कार्य किया करते हैं । इसी प्रकार वे पापी लोग वैर विरोध बढानेवाले कार्य किया करते हैं । उन्हें भी अपने आत्मजन्य ज्ञानसे बाहर और मिथ्यात्व कर्म से घिरे हुए समझना चाहिये। समस्त जीवों का हित करनेके लिये और इस प्रकारकी अनवस्थाका नाश करनेके लिये तथा शिष्ट पुरुषों की पुष्टि करनेके लिये अत्यंत 1 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३१] सजन मुनिराज कुंथुसांगर ने यह सबै वर्णन किया है। ॥ २४९-२६५ ॥ इति श्रीमुनिराजकुंथुसागरावरचितबोधामृतसारग्रंथ स्फुटप्रश्नोत्तरवर्णनो नाम प्रथमोऽधिकारः। - इस प्रकार मुनिराज श्रीकुंथुसागरविरचित बोधामृतसार । जामके ग्रंथमें स्फुट प्रश्नोत्तरोंको वर्णन करनेवाला यह पहला अध्याय समाप्त हुआ। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३२] भावनीयोपवासेहि भावना का गुरो ! वद ? प्रश्नः - - हे गुरो ! उपवासके दिन कौनसी भावनाका चिंतन करना चाहिए ! यदोपवासा विमला भवेयु, स्तदा तदा षोडश भावनास्ताः । स्वर्मोक्षदाय भवरोगहर्यः, स्वराज्यहेतोर्हृदि भावनीयाः ॥ २६६ ॥ उत्तर:- जिस दिन निर्मल उपवास किया हो उस दिन भव्य जीवोंको अपना मोक्षरूप स्वराज्य प्राप्त करनेके लिये स्वर्गमोक्षको देनेवाली और संसाररूपी रोगको हरण करनेवाली सोलह कारण भावनाओंका चिंतन करना चाहिये || २६६ ॥ समस्तदोषाद्रहिता विशुद्धिः श्रद्धानरूपस्य सुदर्शनस्य । स्वस्वादतः स्वात्मविलोकनाद्वा, निजात्मबोधाच्च जिनानुरागात् ॥ २६७ स्वराज्यदात्री परराज्यहर्त्री, षट्खंडराज्यस्य सुदायिकापि । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] श्रेष्ठा भवेद्दर्शनशुद्धिरेवं, स्वराज्यहेतोर्हृदि भावनीया ॥ २६८ ॥ समस्त तत्वोंका वा अपने शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है उसकी विशुद्धि समस्त दोषोंसे रहित होनेपर होती है। तथा अपने आत्माकी रुचि होने, आत्माका दर्शन होने, अपने शुद्ध आत्माका ज्ञान होने और भगवान जिनेन्द्रदेवमें अनुराग होनेसे वह सम्यग्दनकी विशुद्धि प्रगट होती रहती है । यह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आत्मजन्य स्वराज्य को देनेवाली है, पुद्गलादिक के परराज्यको हरण करनेवाली है, छहो खंडका अखंड राज्य देनेवाली है और सर्वश्रेष्ठ है । ऐसी यह सम्यग्दर्शनकी शुद्धि अपना आत्मजन्य स्वराज्य प्राप्त करने के लिये भव्य जीवोंको अपने हृदय में सदा चिंतन करते रहना चाहिये ।। २६७ ॥ २६८ ॥ हम्बोधचारित्र तपोविधीनां, स्वमोक्षदानां शिवसाधकानाम् । तद्वारकाणामिति वा जनानां, स्वात्माश्रितानां स्वरसाश्रितानाम् ॥ २६९ सदा प्रशंसा क्रियते हि यत्र, सैवास्ति पूता विनयस्य सम्पत् । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारही शिवसौख्यदात्री, भव्यैः सदा सा परिपालनीया ॥२७०॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपश्चरण स्वर्गमोक्ष देनेवाले हैं तथा मोक्षके साधक हैं,. और इन चारीको धारण करनेवाले मनुष्य अपने आत्माके आश्रित है तथा आत्मजन्य आनंदरसके आश्रित है । इन सबकी सदा प्रशंसा करते रहना, इनके प्रति नम्रता धारण करना, पवित्र घिनयरूपी संपत्ति कहलाती है। यह विनय संसारको हरण करनेवाली है और मोक्षसुखको देनेवाली है अतएव भव्य जीवोंको इस विनयका पालन सदा करते रहना चाहिये ।। २६९ ॥ २७० " मनोवचःकायकृतादिभेदै, स्त्यक्त्वा जवारकोपचतुष्टयादि । तथातिचारं व्रतनाशकं च, त्यक्त्वा भयादि ममकारबुद्धिम् ॥२७१ व्रतेष्वहिंसादिषु कामदेषु, शीलेषु तत्प्रापकवर्द्धकेषु । प्रवर्तते यत्र निजाश्रयेण, शुद्धिबतादेः सुखदास्ति सैव ॥२७२॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन वचन काय और कृत कारित....अनुमोदना से क्रोध मान माया लोभ इन चारों कषायोंका त्याग कर, व्रतोंको नाश करनेवाले अतिचारोंका त्याग कर, सबतरह के भयोंका त्याग कर और ममत्व बुद्धिका त्याग कर केवल अपने आत्माके आश्रित होकर इच्छानुसार फल देनेवाले अहिंसादिक व्रतोंमें तथा अहिंसादिक व्रतोंको प्राप्त कराने वाले और बढानेवाले शीलोंमें अपनी प्रवृत्ति करना सुख देनेवाली व्रतोंकी शुद्धि कहलाती है। इसीको शील और व्रतों अतिचाररहित पालन करना कहते हैं ।२७१॥२७२ त्यक्त्वा प्रमादं विषयस्य चिन्तां, पंचास्तिकायस्य यथास्थितस्य । वा सप्ततत्त्वस्य निजात्मनोऽपि, षड्द्रव्यलोकस्य यथार्थधर्मः ॥१७॥ विबुध्यते यत्र यथार्थचि है, र्वा पीयते स्वात्मरसः सदैव । ज्ञानोपयोगः सुखदोऽप्यभीक्ष्णः, सदा सुभव्यहृदि धारणीयः॥२७४ ' प्रमाद और विषयोंकी चिन्ताओंको छोडकर यथार्थ स्वरूपको धारण करनेवाले पांचों अस्तिकायोंके र.थार्थ धर्मको वा स्वरूपको समझना, अथवा सातों तत्त्वोंके यथार्थ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] स्वरूप को समझना, वा अपने आत्मा यथार्थ स्वरूपको समझना अथवा छहों द्रव्यस भरे हुए लोकके यथार्थ स्वरूपको समझना, इन सबका स्वरूप उनके यथार्थ लक्षणोंसे समझना, अथवा अपने आत्मजन्य आनंदामृत रसका सदा पान करते रहना, सुख देनेवाला अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहलाता है। अभीक्ष्ण शद्धका अर्थ सदाकाल है। अपना उपयोग सदाकाल ज्ञानमें लगाये रखना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। एसा यह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भव्य जीवांका अपने हृदयमें धारण करते रहना चाहिये ॥ २७३ ।। २७४ ।। बाह्यात्पदार्थात्क्षणिकात्सुखाद्वा, भोगोपभोगाद्विषयाद्धि राज्यात् । समस्तबंधोरपि सन् विरक्तः, स्वात्मानुभूत्यामचले स्वराज्ये ॥२७५॥ स्थातुं प्रयत्नः क्रियते च यत्र, वा भुज्यते स्वात्मसुखं सदैव । संवेगभावः सुखदः स एव, भव्यैस्त्रिकाले हृदि भावनायः ॥२७६॥ क्षण क्षणमें नाश होनेवाले बाह्य पदार्थोस, इन्द्रिय जन्य सुखसे, भोगोपभोगांसे, विषयास, राज्यसे और Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३७] समस्त बंधुओंसे विरक्त होकर अपनी आत्मानुभूति में स्थिर रहनेका प्रयत्न करना, वा आत्मजन्य निश्चल स्वराज्य में स्थिर रहनेका प्रयत्न करना अथवा सदाकाल आत्मजन्य सुखका अनुभव करना सुख देनेवाला संवेगभाव कहलाता है । यह संवेगभाव भव्य जीवोंको अपने हृदयमें तीनों का धारण करना चाहिये ।। २७५ ।। २७६ || मिथ्यात्वमोहादिविवर्जिताय, दृग्बोधचारितसमन्विताय । स्वानन्दजुष्टाय दद्याश्रिताय, भव्याय संघाय चतुर्विधाय ॥ २७७॥ चतुर्विधं यत्र च दीयते हि, भक्त्या सुदानं परमार्थबुध्या । स्वर्मोक्षदो दानविधिः स एव, भव्यैः स्वशक्त्या हृदि धारणीयः २७८ जो भव्य मुनि वा चारों प्रकारका संघ मिथ्यात्व मोह आदि से रहित है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रसे सुशोभित है, अपने आत्मजन्य आनंदमें लीन है और अत्यंत दयालु है ऐसे मुनि वा चारों प्रकारके संघ को परमार्थबुद्धिस भक्तिपूर्वक चारों प्रकारका दान देना स्वर्ग मोक्ष देनेवाली दानकी विधि कहलाती है । भव्य Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [34] जीवोंको यह दानकी विधि अपनी शक्तिके अनुसार सदाके लिए हृदय में धारण कर लेनी चाहिए || २७७-२७८|| संसारबन्धस्य विनाशनार्थं, पलायनार्थं विषयस्पृहायाः । परार्थ तत्त्वामृतपानहेतोः र्दृग्बोधचारित्रविवर्द्धनार्थम् ॥ २७९ ॥ स्वराज्यहेतोः क्रियते च यत्र, स्वेच्छानिरोधः सुखदं तपश्च । तदेव लोके विमलं तपोऽस्ति, कार्यं सदा द्वादशधा भव्यैः ॥ २८० ॥ जन्ममरण रूप संसारके बंधनको नाश करनेके लिए विषयोंकी तृष्णाको भगानेके लिए, परमार्थ तत्त्वकी तलाश करनेके लिए, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारि को बढाने के लिए और आत्मजन्य शुद्ध स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए जहांपर सुख देनेवाला इच्छा निरोधरूप तपवरण किया जाता है वही इस संसार में निर्मल तपश्चरण कहलाता है । वह तपश्चरण बारह प्रकारका कहा जाता है । भव्य जीवोंको यह बारह प्रकारका तपश्चरण सदा काल धारण करते रहना चाहिए ।। २७९-२८० ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९] मानापमानादिबहिःस्थिताना, सदा जिनाज्ञाप्रतिपालकानाम् । स्वात्माश्रितानां स्वसुखाश्रितानां, जातो हि कमोंदयतश्च विघ्नः ॥२८॥ भक्त्या मुनीनामपनीयते वा, सुरक्ष्यते यत्र यथार्थधर्मः । साधोः समाधिसः सुखार्पकोऽस्ति, भव्यैश्च कार्यः सततं सुभक्त्या ॥२८२॥ जो मुनि मान अपमानसे अलग रहते हैं, भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका सदा पालन करते हैं, जो अपने आत्माके आश्रित रहते हैं अथवा आत्मजन्य सुखके आ-- श्रित रहते हैं ऐसे मुनियोंके धर्मकार्यमें यदि कर्मके उदयसे कोई विघ्न आजाय तो भक्तिपूर्वक उस विनको दूर करना और यथार्थ धर्मकी अच्छीतरह रक्षा करना सुख देनेवाली साधुसमाधि कहलाती है । यह साधुसमाधि भव्यजीवोंकी भक्तिपूर्वक सदा करते रहना चाहिये ॥ २८१ ॥ २८२ ।। . . समस्तसंसारबहिःस्थितानां, यथार्थतत्त्वप्रतिपादकानाम् । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४०] या सन्मुनीनां स्वपदाश्रितानां, ज्वरादिरोगैः परिपीडितानाम् ॥२८३॥ मनोवचःकायकृतादिभेदैः, सेवा सुभक्तिः क्रियते च यत्र । सेवाविधिर्वाञ्छितदः स एव, भक्त्या हि कार्यः सततं सुभव्यैः ॥२८४ जो श्रेष्ठ मुनि समस्त संसारसे अलग रहते हैं तथा जो यथार्थ तत्त्वोंको प्रतिपादन करनेवाले हैं और केवल अपने आत्माके आश्रित हैं ऐसे मुनि यदि ज्वरादि रोगोंसे पीडित हो जाय तो मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से उनकी संवा शुश्रूषा करना, उनकी भक्ति करना इच्छानुसार फल देनेवाला वैयावृत्त्य कहलाता है । यह वैयावृत्त्य भव्य जीवोंको भाक्तिपूर्वक सदा करते रहना चाहिये ॥ २८३ ॥ २८४ ॥ समस्तविश्वस्य यथास्थितस्य, द्रष्टुश्च बोध्दुः सततं यथावत् । त्रिलोकबंधोऽर्जितकर्मशत्रोः, स्वर्मोक्षदातुर्भवरोगहर्तुः ॥२८५॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्याहतो यत्र गुणो मनोज्ञो, वाक्कायचित्तैः खलु वर्ण्यते यः । सैवाहतो वाञ्छितदास्ति भक्ति, मोक्षाय कार्या सततं सुभव्यैः ॥२८६॥ अत्यंत पूज्य भगवान जिनेन्द्रदेव यथास्थित समस्त लोकको यथार्थ रीतिसे सदाकाल देखते और जानते रहते हैं। तथा वे भगवान तीनों लोकोंका हित करनेवाले हैं, कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाल हैं, स्वर्गमोक्षको देने वाले हैं और संसाररूपी रोगको नष्ट करनेवाले हैं। ऐसे भगवान जिनेंद्र देवके मनोहर गुणोंको मन वचन कायसे वर्णन करना इच्छानुसार फल देनेवाली भगवान अरहंत देवकी भक्ति कहलाती है। यह अरहंतभक्ति श्रेष्ठ भव्य जीवोंको मोक्ष प्रात करने के लिए सदाकाल करते रहना चाहिए ॥ २८५-२८६ ॥ भीम भवाब्धौ पततां जनानां, दीक्षादिदानः परिपालनैर्वा । बोधामृतैः स्वात्मविबोधनैर्वा, संसारहर्तुः सुखशांतिदातुः ॥२८७॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणेऽनुरागः क्रियते च यत्रा-, चार्यस्य चानन्दपदाश्रितस्य । पूता सुभक्तिः सुखदास्ति सैवा-, चार्यस्य भव्यैश्च सदैव कार्या ॥२८८|| जो मनुष्य अत्यंत भयानक संसाररूपी समुद्रमें पडे हुए हैं उनको दीक्षा देकर, उनके चारित्रका पालन कराकर, उनको ज्ञानामृत पिलाकर और उनको आत्मज्ञान प्रगट कराकर उन शिष्योंके जन्ममरणरूप संसारको हरण करनेवाल तथा उनको सुख शांति देनेवाले और अपने आत्मजन्य आनन्द स्थान में अपने आत्माको लीन करने वाले आचार्यके गुणोंमें जो अनुराग करता है उसको पवित्र और सुख देनेवाली आचार्य परमेष्ठीकी भक्ति कहते हैं। यह आचार्यभक्ति भव्यजीवोंको सदा करते रहना चाहिए ॥ २८७२८८ ॥ ज्ञातुर्यथावद्धि जिनागमस्य, सुपाठने वा पठने सदैव । दक्षस्य चानन्दरसाश्रितस्य, अज्ञानहर्तुनिजबोधकर्तुः ॥२८९॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ भक्त्या ह्युपाध्यायविभो; कृपाब्धे, गुणेऽनुरागः क्रियते च यत्र। सैवास्ति भक्तिः सुबहुश्रुतस्य, . भक्त्या हि कार्या सततं सुभव्यैः ॥२९० जो उपाध्याय परमेष्ठी जिनागमके यथार्थ ज्ञाता हैं तथा उसी जिनागमके पठन पाठन करनेमें सदा निपुणता धारण करते हैं, जो सदा आत्मजन्य आनन्दामृत रसके आश्रय रहते हैं, जो अज्ञानको नाश करनेवाले हैं आत्मज्ञानको प्रगट करनेवाले हैं और कृपाके सागर हैं । ऐसे उपाध्याय परमेष्ठीके गुणोंमें भक्तिपूर्वक अनुराग करना उपाध्याय भक्ति अथवा बहुश्रुतभक्ति कहलाती है। यह उपाध्यायं भाक्त भव्य जीवों को भक्तिपूर्वक सदा करते रहना चाहिये ॥ २८९ ।। २९० ॥ द्रव्यादितत्त्वस्य यथास्थितस्य, सापेक्षदृष्टया प्रतिपादकस्य । नयप्रमाणैश्च सुशोभितस्य, निजात्मबुद्धेः परिवर्द्धकस्य ॥२९१॥ अनात्मबुद्धेः प्रपलायकस्य, जिनागमस्य क्रियते च यत्र । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैवास्ति भक्तिः सुखदा पवित्रा, श्रुतस्य कार्या सततं सुभव्यैः ॥२९२॥ इस संसारमें जो द्रव्य और तत्त्व जिस रूपसे स्थित है उनको अपेक्षा दृष्टिस जो प्रतिपादन करनेवाला है, जो नय और प्रमाणोंसे सुशोभित है, जो अपने आत्मज्ञानको बढानेवाला है और आत्मज्ञान से राहत मिथ्याज्ञानको नाश करनेवाला है ऐसे जिनागमको जहांपर सुख देनेवाली और पवित्र भक्ति की जाती है उसको श्रुतभक्ति वा प्रवचनभक्ति कहते हैं। यह प्रवचनभाक्त भव्य जीवोंको सदाकाल करते रहना चाहिये ।।३९१॥२९२॥ त्यक्त्वा प्रमादं निखिलं च कार्य, यथोक्तकाले समशान्तवृत्त्या । दृग्बोधचारित्रविवर्द्धकं य-, होरपेतं शिवसौख्यदं वा ॥२९३॥ भक्त्या षडावश्यकमेव यत्र, स्वराज्यहेतोः क्रियते सदैव। भव्यैः षडावश्यकमेव कार्य, कर्मप्रणाशाय तपोऽभिवृद्धयै ॥२९॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४५] छहों आवश्यक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको बढानेवाले हैं, समस्त दोषोंसे रहित हैं और मोक्षक परम सुखको देनेवाले हैं । ऐसे ये छही आवश्यक अपने आत्मजन्य स्वराज्य प्राप्त करनेकेलिये सबतरहके प्रमाद और कार्योके छोड कर शास्त्रोंके अनुसार कहे हुए नियत समयपर समतारूप तथा शांत परिणामोंसे जहांपर सदा किये जाते हैं उनको आवश्यक कहते हैं । शास्त्रोंमें कहे हुए छहों आवश्यक भव्य जीवोंको अपने कर्म नष्ट करनेके लिये और तपश्चरणको बढानेके लिये अवश्य करते रहना चाहिये ॥ २९३ ॥ २९४ ॥ पूजाप्रतिष्ठाचरणैः पवित्रै-, बोधामृतैः क्लेशविनाशकैवी । विद्याकलाभिर्जिनमंत्रतंत्रैः, प्रवर्तनैवेति मिथोऽविरोधैः ॥२९५॥ धनादिदानैर्जिनधर्मवृद्धि-, व्रतोपवासैः क्रियते च यत्र। प्रभावना सैव सुखस्य दात्री, धर्मस्य कार्या सततं सुभव्यैः ॥२९६॥ पवित्र पूजा करके, प्रतिष्ठा करके, सदाचरण पालन करके, समस्त क्लेशोंको दूर करनेवाले आत्मजन्य ज्ञानामृत Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४६] को धारण करके वा विद्या कलाओंको प्रगट करके, जिनमतमें कहे हुए मंत्रतंत्रों का प्रभाव दिखला करके, सबके साथ अविरोध रीतिसे अपनी प्रवृत्ति दिखला करके, धनादिकका दान दे करके और व्रत उपवास करके जहांपर जिनधर्मकी वृद्धि की जाती है उसको सुख देनेवाली धर्मकी प्रभावना कहते हैं । यह धर्मकी प्रभावना भव्य जीवों को सदाकाल करते रहना चाहिये ॥ २९५ ॥ २९६ ॥ निजात्मनिष्ठैः परमार्थपुष्टै-, स्तत्त्वार्थतुष्टैर्जिनधर्मजुष्टैः। सधर्मभिर्धर्मरतैश्च सार्द्ध, सदा प्रमोदः क्रियते च यत्र ॥२९७॥ वत्सेन सार्द्धं च यथा जनन्या, तथात्मनिष्ठैर्मुनिभिः सुधीरैः । वर्मोक्षदा वत्सलता सुभव्यैः, सधर्मणो वा हृदि भावनीया ॥२९८॥ जो साधर्मी जन अपने आत्मामें सदा लीन रहते हैं, जो परमार्थकी पुष्टि करते रहते हैं, तत्त्वार्थप्रेमसे सदा संतुष्ट रहते हैं, जिनधर्मको सदा प्रेमपूर्वक धारण करते हैं और धर्म में सदा लीन रहते हैं, ऐसे धर्मात्माओंके Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४७] साथ जिसमकार माता अपने बच्चेके साथ प्रेम करती है उसीप्रकार अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले धीर वीर मुनिराज जो प्रेम करते रहते हैं वा उन धर्मात्माओंको देखकर प्रसन्न होते रहते हैं उसको धर्मवत्सलता कहते हैं । यह स्वर्ग-मोक्षको देनेवाली धर्मिवत्सलता भव्य जीवों को सदा काल अपने हृदयमें चिंतन करनी चाहिये । २९७ ॥ २९८ ॥ आसां ध्रुवं षोडशभावनानां, योगेन तीर्थंकरनामकर्म। लोके सदाश्चर्यकरं मनोज्ञ, जगत्प्रियं बध्यत एव भव्यैः ॥२९९॥ इस संसारमें भव्य जीव इन सोलह कारण भावनाओंके निमित्तसे आश्चर्य प्रगट करनेवाला अत्यंत मनोज्ञ और तीनों लोकोंको प्रिय ऐसा तीर्थकर नाम कर्मका बंध किया करते हैं ॥ २९९ ॥ श्रीकुंथुनाम्ना मुनिना स्वबुध्द्या, संसारबंधस्य विनाशहेतोः। प्रोक्ता ह्यमूः षोडश भावनाश्च, सौख्यप्रदा वाञ्छितदा मनोज्ञाः ॥३०॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४८] पठंति भव्या भुवि ताः स्मरति, शृण्वन्ति ये केचन पाठयन्ति । साम्राज्यलक्ष्मी कमतश्च लब्ध्वा, ते शाश्वतं मोक्षपदं लभंते ॥३०१॥ मुनिराज श्रीकुंथुसामरने संसारके बंधको नाश करनेके लिये अपनी बुद्धि के अनुसार अत्यंत मनोज्ञ इच्छानुसार फल देनेवाली और सुख देनेवाली ये सोलह भावनाएं निरूपण की है । जो भव्य जीव इन सोलह भावनाओं को पढते हैं, पढाते हैं, स्मरण करते हैं वा सुनते हैं वे मनुष्य इस संसारमें अनुक्रमसे साम्राज्य लक्ष्मीका उपभोग करते हुए सदा रहनेवाले मोक्षपद को प्राप्त करते हैं ।। ३०० ॥ ३०१ ॥ दशधर्माश्च लोकेऽस्मिन् कीदृशाः सन्ति भी गुरो। प्रश्नः-हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि इस संसारमें दर्श. धर्म कैसे हैं ? क्षमैव सारा परमा त्रिलोके, चिन्तामणिश्चिन्तितवस्तुदाने । शान्तिप्रदा वैरविनाशिका च, भीमाद्भवाब्धेः खलु पारकर्ली ॥३०२॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४९] स्वमोक्षदा स्वात्मसुखप्रदा वा, दातुं समर्थास्ति च सर्वराज्यम् । ज्ञात्वेति भव्यौर्जिनधर्मलग्नैः, क्षमैव कार्या स्वपरार्थशान्त्यै ॥३०॥ उत्तरः-हे वत्स सुन ! उत्तम क्षमा तीनों लोकोंमें सार है, सर्वोत्कृष्ट है, इच्छानुसार पदार्थोके देनेमें चिंतामणि रत्नके समान है, अत्यंत शान्ति देनेवाली है, वैर विरोधको हरण करनेवाली है, संसाररूपी भयानक समुद्रसे पार करनेवाली है, स्वर्ग मोक्षको देनेवाली है, अपने आत्म जन्य सुखको देनेवाली है और तीनों लोकोंका राज्य देने में समर्थ है। यही समझकर जिनधर्मम लीन रहनेवाले भव्य जीवोंको अपने आत्माको शांत करने और अन्य जीवोंको शांत करनेके लिये क्षमा ही धारण करनी चाहिये ॥ ३०२ ॥ ३०३ ।। को मार्दवेनैव यथार्थबुद्धिः, काठिन्यलोपः स्वपरार्थसिद्धिः । स्वात्मानुभूतिर्जिनधर्मवृद्धिः, धर्मानुरागः परिणामशुद्धिः ॥३०४॥ लोके भवद्वैरिविरोधनाशः, स्वराज्यलाभो जननादिनाशः। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५० ज्ञावेति भव्यैः शिवदं मृदुत्वं, सर्वेषु जीवेषु सदैव कार्यम् ॥३०५॥ इस संसारमें मार्दवधर्मसे बुद्धि यथार्थ हो जाती है, परिणामोंकी कठिनता नष्ट हो जाती है, अपने आत्माको तथा अन्य जीवोंको शुद्धता प्राप्त हो जाती है, म्वात्मानुभूति प्रगट हो जाती है, जिनधर्मकी वृद्धि होती है, धर्मका अनुराग बढता है, परिणामोंकी शुद्धता बढती हैं, शत्रु विरोधका नाश होजाता है, आत्मजन्य स्वराज्यकी प्राप्ति हो जाती है और जन्ममरण का नाश हो जाता है। यही समझकर भव्य जीवोंको समस्त जीवोंके प्रति मोक्ष दनवाला कोमल परिणाम वा मार्दवधर्म सदा काल धारण करते रहना चाहिये ॥ ४ ॥ ५॥ शीलव्रतध्यानजपक्षमाद्याः, पूजा प्रतिष्ठात्मविचारभावः । वृथा भवेदार्जवर्मलोपाद्, ज्ञात्वेति चित्ते च यथाविचारः ॥३०६॥ कायेन कार्यों वचसापि वाच्य-, स्तथा सदा ह्यार्जवधर्म एव । स्वमोक्षदो वाञ्छितवस्तुदाता, भवोद्धि शीघ्रं भवरोगहर्ता ॥३०७॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५१] जो मनुष्य आर्जव धर्मको नष्ट कर देता है उसके शील, व्रत, ध्यान जप, क्षमा, पूजा, प्रतिष्ठा और आत्मा के श्रेष्ठ विचार सब व्यर्थ हो जाते हैं । यही समझकर भव्यजीवों को अपने विचार जैसे अपने मनमें करने चाहिये वैसे ही वचन से कहना चाहिये तथा उसी प्रकार शरीरसे करना चाहिये । इसीको आर्जव धर्म कहते हैं । यह आर्जव धर्म स्वर्गमोक्षको देनेवाला है, इच्छाके अनुकूल पदार्थोंको देनेवाला है और शीघ्र ही संसाररूपी रांगको हरण करनेवाला है || ६ ॥ ७ ॥ पापस्य मूलं कथितोऽस्ति लोभः, समस्तसंतापविवर्द्धको वा । संसारबंधस्य च मुख्यहेतु-, स्तथैव संकल्पविकल्पजालः ॥ ३०८ ॥ त्याज्यः स लोभो ह्यवगम्य चैवं, समस्त साम्राज्य निधानभूतः । स्वर्मोक्षदो वा सुखशान्तिकोशः, शुचित्वधर्मः परिपालनीयः ॥ ३०९ ॥ यह लोभ भगवान् जिनेन्द्रदेवने पापका मूल वतलाया हैं तथा यही लोभ समस्त संतापोंको बढानेवाला है, संसारके बंधनों का मुख्य कारण है और अनेक संकल्प Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५२] विकल्पोंका जाल है। यही समझकर भव्य जीवोंको इस लोभका त्याग कर देना चाहिये और समस्त साम्राज्यका खजाना, स्वर्ग मोक्ष देनेवाला और सुख शांतिका निधान ऐसा शौचधर्म सदा पालन करते रहना चाहिये । ३०८ ॥ ३०९ ॥ अशान्तिदं साध्वसवैरकारि, भ्रान्तिप्रदं धर्मविरुद्धवाक्यम् । संतापदं क्लेशकरं न वाच्यं, प्राणेष्वसत्यं च गतेषु सत्सु ॥३१०॥ तथा सुभव्य स्वपरार्थशान्त्यै निजात्मसिध्यै मधुरं मनोज्ञं । शान्तिप्रदं भ्रान्तिहरं क्षमादं, सत्यं हितं प्रीतिकरं हि वाच्यम् ॥३११॥ असत्य वचन अशांति उत्पन्न करनेवाले हैं, विरोध करनेवाले हैं, भ्रांतिको उत्पन्न करते हैं और धर्मके विरुद्ध हैं । इसके सिवाय असत्यवचन सबको संतप्त करनेवाले हैं और क्लेशको उत्पन्न करनेवाले हैं, ऐसे असत्य वचन भव्य जीवों को अपने प्राण जानेपर भी कभी नहीं बोलने चाहिये तथा अपने आत्मा को और अन्य जीवोंको शांत करनेके लिय वा अपने आत्माकी सिद्ध अवस्था प्राश Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {१५३] करनेके लिये मधुर, मनोज्ञ, शान्ति देनेवाले, भ्रांतिको हरण करनेवाले, क्षमाको प्रगट करनेवाले और प्रेम उत्पन्न करनेवाले तथा सबका हित करनेवाले सत्यवचन ही सदा बोलने चाहिये ॥ ३१० ॥ ३११ ॥ षट्कायजीवस्य सुरक्षकोऽस्ति, चित्ताक्षवेगस्य निरोधकोऽपि । अनात्मबुद्धेः प्रपलायकोऽस्ति, सदात्मबुद्धेः परिवर्द्धकश्च ॥३१२॥ खर्मोक्षदः संयम एव शक्तो, ज्ञात्वेति भव्यैः परिरक्षणीयः । श्रीमान्न शास्त्री न मुनिर्विभाति, नारी नरः संयमरत्नहनिः ॥३१३॥ . संयमधर्म छहो कायके जीवोंकी रक्षा करनेवाला है, मन और इन्द्रियोंके वेगको रोकनेवाला है, आत्मज्ञानसे बाहर रहनेवाली मिथ्याबुद्धिको नाश करनेवाला है, आत्मज्ञानको बढानेवाला है और स्वर्गमोक्षको देनेवाला है। इन सब कामोंके लिये एक संयम ही समर्थ है। यही समझकर भव्य जीवोंको इस संयमधर्मका पालन सदाकाल करते रहना चाहिये । इस संयमरूपी रत्नके विना न तो कोई मनुष्य शोभायमान होता है, न कोई स्त्री शो Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५४] भायमान होती है, न कोई धनवान शोभायमान होता है, न कोई शास्त्री शोभायमान होता है और न कोई मुनि शोभायमान होता है ।। ३१२ ।। ३१३ ॥ मिथ्याप्रपंचस्य पलायनार्थं, समस्तकारिविनाशनार्थम् । पंचाक्षवह्नि शमितुं समर्थ, शीघ्रं च भेत्तुं बहिरात्मबुद्धिम् ॥३१४॥ इच्छानिरोधः खलु तस्य चिह्न, जिनैः प्रतिं द्विविधं तपश्च । ज्ञात्वेति कार्यं निजराज्यहेतोः स्वर्मोक्षदं वाञ्छितदं सदैव ॥३१५॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने इस तपश्चरणका लक्षण इच्छाका रोकना बतलाया है, तथा अंतरंग और बाह्यके भेदसे दो भेद बतलाये हैं। यह तपश्चरण मिथ्यामपंचोंको नष्ट करनेमें समर्थ है, समस्त कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेमें समर्थ है, पांचों इन्द्रियरूपी अग्निको शांत करनेमें समर्थ है, बहिरात्मबुद्धिका नाश करने में समर्थ है, स्वर्ग मोक्षको देनेवाला है और समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला है। यही समझकर भव्य जीवों को अपना आत्मजन्य गये Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात करनेके लिये सदाकाल इस तपश्चरणका पालन करते रहना चाहिये ॥ ३१४ ॥ ३१५ ॥ पूताय संघाय चतुर्विधाय, सदा जिनाज्ञाप्रतिपालकाय । संसारमोहादिविनाशकाय, चतुर्गार्गनिरोधकाय ॥३१६ ॥ भध्याय संकल्पविकल्पहजे, रत्नत्रयाणां परिपालकाय । चतुर्विधं क्लेशहरं सुदान, दातव्यमेवं शिवसौख्यहेतोः ॥३१७॥ मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका यह चारो प्रकारका संघ अत्यंत पवित्र है, सदाकाल भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका पालन करनेवाला है, संसार और मोहादि विकारोंको नष्ट करनेवाला है, चारों गतियोंके मार्गको रोकनेवाला है समस्त संकल्प विकल्पोंको हरण करनेवाला है, रत्नत्रयको पालन करनेवाला है और भव्य है अर्थात मोक्ष प्राप्त करनेवाला है। ऐसे चारों प्रकारके संघको मोक्षसुख प्राश करनेके लिये समस्त क्लेशोंको दूर करनवाला चारों प्रकारका दान अवश्य देना चाहिये ॥३१६ ॥ ३१७॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {१५६ बाह्यादिभेदाद्विविधश्च संगो, ह्यनर्थकारी सुखशान्तिहारी। स्वर्गापवर्गादिनिरोधकारी, ह्याशाग्रहाणां परिवर्द्धकोऽस्ति ॥३१८॥ समस्तसंतापनिधानमेव, ह्येवं यथावत्कथितोऽल्पबुध्द्या । ज्ञात्वेति शीघ्रं च स्वराज्यहेतो-, स्त्याज्यो हि भव्यैर्द्विविधोऽपि संगः॥१९ यह परिग्रह बाद्य और अभ्यंतरके भेदसे दो प्रकारका है । यह दोनों प्रकारका परिग्रह अनेक अनौँको उत्पन्न करनेवाला है, सुख और शांतिको हरण करनेवाला है, स्वर्ग मोक्ष आदि कल्याणोंको रोकनेवाला है, आशारूपी ग्रहोंको बढानेवाला है और समस्त संतापोंका खजाना है । इसप्रकार श्रीकुंथुसागर मुनिने अपनी अल्पबुद्धिके अनुसार यथार्थरीतिसे निरूपण किया है। यही समझकर भव्यजीवोंको अपना आत्मजन्य राज्य प्राप्त करनेके लिये शीघ्र ही दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ३१८ ।। ३१९ ॥ बंधस्य मूलं हि कलत्रमेव, मोक्षस्य मूलं त्यजनं च तस्य । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५७ ] ज्ञात्वेति शीघ्रं हि कलवमात्रं, त्यक्त्वापि सम्बंधभवं प्रदोषम् ॥ ३२० ॥ मनोवच: का यकृतादिभेदै, मोक्षप्रदे सौख्यम स्वराज्ये । शान्तिप्रदे स्वात्मन एव धमें, स्थातुं प्रयत्नश्च सदा विधेयः ॥ ३२९ ॥ ॥३२१॥ इस संसार में कर्मबंधका मूलकारण स्त्री है और मोक्षका मूल कारण उसका त्याग है यही समझकर भव्य जीवोंको शीघ्र ही स्त्रीमात्रका त्याग कर देना चाहिए और उसके संबंध से होनेवाले दोषोंका भी त्याग कर देना चाहिए तथा मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे मोक्षप्रदान करनेवाले, अनंत सुखमय, अत्यंत शांति देने वाले और अपने स्वराज्यरूप अपने आत्माके विज्ञानमय धर्ममें सदा काल स्थिर रहनेका प्रयत्न करना चाहिए । इसीको ब्रह्मचर्य धर्म कहते हैं || ३२० ॥३२१ ॥ वद निःशंकितादीनामंगानां लक्षणं गुरो ! प्रश्न: - हे गुरो ! कृपाकर कहिये कि सम्यग्दर्शनके निःशंकितादि अंग कैसे हैं ? निदोंषयोगाद्धि जिनोक्त एव, मोक्षस्य मार्गः सुखदः पवित्रः । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५८] रत्नत्रयेणापि विभूषितश्च, सर्वस्य जन्तोरभयप्रदो हि ॥ ३२२|| ज्ञात्वेति कये जिनधर्ममागें, श्रद्धां प्रकुर्वन्ति सदा ह्यकंपाम् । निःशंकितांगं विमलं च गाढं, दृष्टेर्भवेदंजनचौरवद्वा ॥ ३२३॥ उत्तर: – इस संसार में सुख देनेवाला और पवित्र मोक्षमार्ग भगवान जिनेंद्रदेवका कहा हुआ है क्योंकि वही निर्दोष है, रत्नत्रय से विभूषित है और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाला है । यही समझकर इस संसार में जो भव्य 'जीव भगवान् जिनेन्द्रदेव के कहे हुए इस धर्ममार्ग वा मोक्षमार्ग में अटल श्रद्धान रखते हैं उनके ही अंजनचौरके समान निर्मल और गाढ ऐसा सम्यग्दर्शनका निःशंकित नामका पहला अंग होता है || ३२२ ।। ३२३ ।। निजात्मवाद्ये क्षणिके च भीमे, क्लेशादिपूर्ण परतश्च जाते । त्यक्ते च निंद्ये सुनिजात्मनिष्ठै-, रादौ प्रिये वा कटुके हि चान्ते ॥ ३२४ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५९] एतादृशे सौरव्य इहान्यलोके, कुर्वन्ति नास्थां न कदापि कांक्षाम् ॥ भवेद्धिं तेषां शिवदं पवित्रं, वंद्यं हि निःकांक्षितमेव चांगं ॥३२५॥ यह इस लोकसंबंधी अथवा परलोकसंबंधी सुख अपने आत्मासे भिन्न है, क्षणक्षणमें नष्ट होनेवाला है, भयंकर है, अनेक क्लेशोंसे परिपूर्ण हैं, पुद्गलादिक अन्य 'पदार्थों से उत्पन्न होता है, निंदनीय है, अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले मुनियोंके द्वारा त्याग किया हुआ है, पहले भोगते समय अच्छा मालूम होता है परंतु अंतमें कडवा वा दुःख देनेवाला है ऐसे इस लोक और परलोक संबंधी सुखमें जो पुरुष कभी श्रद्धान नहीं करते और कभी उसकी इच्छा नहीं करते उन पुरुषोंके मोक्ष देनेवाला पवित्र और वंदनीय ऐसा सम्यग्दर्शनका निःकांक्षित नामका दूसरा अंग होता है ॥३२४ ।। ३२५ ॥ तुच्छे निसर्गान्मलिने पवित्रे, बीभत्सभीमे मलमूत्रयुक्ते । रत्नत्रयस्य स्वगुणस्य योगा-, त्पवित्रभूते शिवहेतुदेहे ॥३२६॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६० स्वात्माश्रितानां शिवसाधकानां, ग्लानिं न कुर्वन्ति गुणप्रमोदात् । स्वर्मोक्षदं संभवरोगहर्तृ, तेषां भवेन्निर्विचिकित्सितांगम् ॥३२७॥ जो मुनिराज अपने आत्माके आश्रित रहते हैं और मोक्षका साधन करते रहते हैं उनका शरीर यद्यपि तुच्छ है स्वभावसे ही मलिन है, अपवित्र है, घृणित है, भयानक है, और मलमूत्रसे भरा है तथापि रत्नत्रय गुण के निमि से वह अत्यंत पवित्र है। ऐसे मुनियोंके शरीरमें उनके गुणोंसे प्रसन्न होकर जो कभी ग्लानि नहीं करते उन भव्य जीवोंके स्वर्ग मोक्षको देनेवाला और संसारके रोगोंको हरण करनेवाला ऐसा सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सित नामका तीसरा अंग होता है ॥ ३२६॥३२७ क्लेशादियुक्ते कुटिले कुमार्गे, भ्रांतिप्रदेऽनन्तभवप्रदे च । मिथ्याप्रपंचस्थितजीववर्ग, स्वर्मोक्षवाह्ये सकले कुधमें ॥३२८॥ प्रीतिः प्रशंसानुमतिः स्थितिश्च, मनोवचःकायकृतादिभेदैः । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६१] यैर्भव्यजीवैः क्रियते न यत्र, दृष्टि_मूढा भवतीह तेषाम् ॥३२९॥ जो मोक्षका मार्ग अनेक क्लेशोंसे भरा हुआ है, कुटिल है, भ्रांति उत्पन्न करनेवाला है और अनंत भवोंको देनवाला है तथा इसीलिये जो कुमार्ग कहलाता है ऐसे कमार्ग में तथा मिथ्याप्रपंचोंमें रहनेवाले जीवोंके समूहमें और स्वर्गमोक्षक साधनोंसे अलग रहनेवाले समस्त कुधा में मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे जो भव्य जीव न प्रेम करते हैं, न उनकी प्रशंसा करते हैं, न अनुमति देते हैं और न उनमें रहते हैं उनके अमूढदृष्टि नामका सम्यग्दर्शनका चौथा अंग होता है ॥ ३२८॥३२९ विवेकशून्यैः कृपणैर्गृहस्थै, निजात्मशून्यैर्मुनिभिश्च जाता। श्रीजैनधर्मस्य शिवप्रदस्य, ग्लानिश्च निंदा ह्यपनीयते या ॥३०॥ बोधामृतैर्ज्ञानबलैः सुदानै-, थैत्र भव्यैर्जिनधर्मनिष्ठैः। भवेद्धि तेषामुपगृहनांगं, शान्तिप्रदं भ्रान्तिहरं मनाझं ॥३३१॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ यह जैनधर्म मोक्षमदान करनेवाला है, इसकी निंदा वा ग्लानि यदि किसी विवेकरहित कृपण गृहस्थसे हो गई हो वा आत्मज्ञानरहित किसी मनिसे होगई हो तो उसको जिनधर्म की अटल श्रद्धा रखनेवाले जो भव्य जीव अपने ज्ञानबलसे अथवा उपदेशरूपी अमतसे अथश श्रेष्ठ दानादिक देकर अवश्य दूर करते हैं । पवित्र जिनधर्म की निंदा कभी नहीं होने देते, उसको शान्ति देनेवाला भ्रांतिको हरण करनेवाला और अत्यंत मनोज्ञ ऐसा उपग्रहन नामका अंग कहते हैं । यह सम्यग्दर्शनका पांचवां अंग है ॥ ३३० ॥ ३३१ ॥ स्वमोक्षदातुर्जिनधर्ममार्गा-, द्रत्नत्रयात्स्वात्मरसात्स्वधर्मात् । भीमे भवाब्धौ पततां जनानां, श्रद्धालभिर्यत्र निजात्मनिटैः ॥३३२॥ ज्ञानामृतधैर्यधनादिदानैः, क्षिप्रं पुनर्जिनधर्ममार्गे । सुस्थापना वा क्रियते स्थितिश्च, स्थितेः सुकार्य भवतीह तेषाम् ॥३३॥ यह जिनधर्मका मार्ग रत्नत्रयस्वरूप है और स्वर्ग मोक्षका देनेवाला है। ऐसे रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गसे अथवा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १६३] अपने आत्मजन्य आनंदामृत रससे अथवा अपने आत्माके उत्तम क्षमादिक धर्मोसे गिरकर अर्थात् उनको छोड़कर जो पुरुष इस भयानक संसाररूपी समुद्र में पड रहे हों वा पडना चाहते हो उनको अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले जो श्रद्धालु पुरुष ज्ञानरूपी अमृतकी वर्षा कर वा धैर्य बंधाकर अथवा धनादिकका दान देकर उसी जिनधर्म के मार्ग वा मोक्षके मार्गमें शीघ्र ही स्थापन कर देते हैं अथवा उनकी स्थिरता कर देते हैं उनके स्थितिकरण नामका सम्यग्दर्शनका छठा अंग होता है ||३३२/३३३॥ मिथ्याप्रपंचं कुटिलं विचारं, विहाय तेषां सुगुणानुरागात् । निःस्वार्थबुध्द्या विनयादिसेवा, स्वात्माश्रितानां जिनधार्मिकाणाम् ॥३४ मनोवचःकायकृतादिभेदैः, कुर्वन्ति ये धर्मविदो दयार्द्राः । वात्सल्यरूपं सुखशांतिदांत, भवेद्धि तेषां विमलं शुभांगम् ॥ ३३५॥ जो श्रावक वा मुनि अपने आत्माकं आश्रित रहनेवाले हैं, उनके श्रेष्ठ गुणांमें अनुराग रखकर तथा अपने मिथ्यात्वके समस्त भेदोंको और कुटिल विचारोंको छोड़कर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६४] जो धर्मात्मा और दयालु पुरुष विना किसी प्रकारकी स्वार्थबुद्धिके मन वचन काय और कृत-कारित-अनुमोदना से उनकी विनय वा सेवा करते हैं उनके सुख आर शांति को देनेवाला अत्यंत निर्मल और शुभ ऐसा वात्सल्य नामका सम्यग्दर्शनका सातवां अंग होता है ॥३४॥३५॥ क्लेशादिदात्री सुखशांतिहीं, मिथ्यात्वजातां विषमां ह्यविद्याम् । विद्याकलाभिर्यजनादिदान, बोधामृतानंतपःसुदृष्टया ॥३३६॥ केनाप्युपायेन पलाययित्वा, सर्वोपरित्वं जिनशासनस्य । प्रदर्श्यते यैः शिवदायकं तत् , प्रभावनांगं विमलं हि तेषाम् ॥३७॥ यह मिथ्यात्वसे उत्पन्न हुई अविद्या अत्यंत क्लेश देनेवाली है, अत्यंत विषम है और सुख शांतिको हरण करनेवाली है । इसको जो पुरुष अपनी विद्या वा कलाओंस पात्रदान वा देवपूजन से, ज्ञानरूपी अमृतसे, ध्यानस, तपसे, सम्यग्दर्शनसे अथवा अन्य किसी भी उपाय से नष्ट कर जिनशासन की उत्तमता सर्वोपरि दिखलाते Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६५ ] हैं उनके अत्यंत निर्मल और मोक्ष देनेवाला ऐसा प्रभाचना नामका सम्यग्दर्शनका आठवां अंग होता है । ३३६ ।। ३३७ अष्टांगमेवं शिवसाधकं च, संसारमूलस्य विनाशकं वा । यथार्थवस्तुप्रतिपादकं च, स्वात्मानुभूतेः परिपालकं हि ॥ ३३८ ॥ श्रीकुंथुनाम्ना मुनिनेति सूक्कं, बुद्धेति ये के हृदि धारयते । सदैव शक्त्या परिपालयंते, ते स्वर्गमोक्षं क्रमतो लभन्ते ॥ ३९ ॥ इस प्रकार यह आठों अंगों का समुदाय मोक्षका साधक है, संसारके मूलको नाश करनेवाला है, पदाथके यथार्थ स्वरूपको प्रतिपादन करनेवाला है और स्वात्मानुभूतिको प्रतिपादन करनेवाला है, ऐसा सुनिराज श्री कुंथु सागरजीने प्रतिपादन किया है। इन सबको समझ कर जो कोई मनुष्य इनको अपने हृदय में धारण करते हैं अपनी शक्ति के अनुसार इन सबको सदा पालन करते हैं वे मनुष्य अनुक्रमसे स्वर्गादिकों के सुखोंको भोगकर अंतमें मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। ३३८ ॥ ३३९ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६६] प्रथमेंऽजनचौरोऽङ्गेऽनन्तमती स्पृहातिगा । द्वितीयेंगे तृतीयेऽपि ह्युद्दायनो नृपः प्रभुः ३४० चतुथें रेवती राज्ञी जिनभक्तोऽथ पंचमे । षष्ठे श्रेष्ठोत्तमो योगी वारिषेणो नृपात्मजः ४१ विष्णुनामा मुनिर्धीरः सप्तमे भव्यवत्सलः । वज्रनामा मुनिर्वीरो ह्यष्टमे क्रमतोऽभवत् ४२ पूर्वोक्तानां च भव्यानामष्टांगधारिणां सताम् । सदानुकरणं कार्यं भव्यैः स्वर्मोक्षहेतवे ॥३४३ इन आठों अंगों से पहले निःशंकित अंगमें अंजन चोर प्रसिद्ध हुआ है, दूसरे निःकांक्षित अंगमें इच्छाओंको न रखनेवाली अनंतमती प्रसिद्ध हुई है। तीसरे निर्विचिकित्सा अंग में उद्दायन राजा प्रसिद्ध हुआ है । चौथ अमृढदृष्टि अंगमें रेवती रानी प्रसिद्ध हुई है। पांचवें उपगूहन अंगमें राजा उद्दायन प्रसिद्ध हुआ है। छठे स्थिति करण अंगमें राजा श्रेणिक के पुत्र सर्वोत्तम मुनिराज बारिषेण प्रसिद्ध हुए हैं। सातवें वात्सल्य अंग में प्रेम रखने वाले धीरवीर मुनि विष्णुकुमार प्रसिद्ध हुए हैं तथा आठवें प्रभावना अंगमें धीर वीर मुनिराज वज्रकुमार प्रसिद्ध हुए हैं । इस प्रकार आठ अंगोंमें अनुक्रम से प्रसिद्ध हुए हैं । भव्य जीवोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६७] आठों अंगोंको धारण करनेवाले इन ऊपर कहे हुए सज्जन भव्य पुरुषोंका सदा अनुकरण करते रहना चाहिये ॥ ३४०-३४३ ॥ लक्षणं मूढतानां भी वद मे साम्प्रतं गुरो ! प्रश्नः-हे गुगे ! अब मेरे लिए मूढताओंका लक्षण कहिये ? क्रोधस्य लोभस्य परात्मबुद्धे-, विनाशनेनैव भवेत्सुधर्मः। स्वर्मोक्षदाता च जिनोक्त एव. त्यक्त्वा खलास्तं च जिनोक्तधर्मम् ४४ स्नानेन नद्यां तपनेन चाग्नौ, ब्रुवन्ति पत्या मरणन सार्द्धम् । धर्मे च तत्रैव चलन्ति निंये, लोकस्य तेषामिति मूढतापि ॥३४५॥ इस संसारमें श्रेष्ठ धर्म क्रोधका त्याग, करने लोभका त्याग करने और परपदार्थों में आत्मबुद्धिका त्याग कर नेसे होता है, तथा वही श्रेष्ठ धर्म भगवान् जिनेन्द्र देवका कहा हुआ है और स्वर्गमोक्षका देनेवाला है । जो दुष्ट लोग भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए इस श्रेष्ठ धर्मको छोडकर नदीमें स्नान करने को धर्म बतलाते हैं, अग्निमें तपनेको . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६८ ] बतलाते हैं और पति के साथ मरनेको धर्म बतलाते हैं तथा उसी अपने बतलाये निंद्य धर्ममें स्वयं चलते हैं वा उस धर्मको धारण करते हैं उनका उस निंद्य धर्मका धारण करना लोकसूढता कहलाती है ।। ४४ ।। ४५ ।। निजात्मबाह्याश्च विवेकशून्या, ये केsपि मूर्खा धनपुत्र हेतोः । भक्त्या कुदेवान् जिनधर्मबाह्यान्, नमन्ति वान्यान् खलु नामयन्ति ॥ ४६ ॥ भवेद्धि तेषामिति देवतायाः, स्वराज्य खलु मूढतापि । ज्ञात्वेति भव्यैः परमार्थनिष्टै, र्न वन्दनीया जिनबाह्यदेवाः ॥३४७॥ जो लोग अपने आत्मज्ञानसे रहित हैं और विवेक रहित हैं ऐसे मूर्ख धन वा पुत्रकी प्राप्ति के लिये जिनधर्मसे रहित ऐसे कुदेवोंको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं और अन्य जीवोंसे नमस्कार कराते हैं ऐसे जीवोंका कुदेवोंको नमस्कार करना वा कराना देवमूढता कहलाती है । यह देवमूढता आत्मजन्य स्वराज्यको वा सुखको हरण करने वाली है । यही समझकर परमार्थमें तल्लीन हुए भव्य Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६९] जीवोंको जिनधर्मसे रहित देवोंकी कभी वंदना नहीं करनी चाहिये ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ स्वात्मच्युतानां विषयाश्रितानां, गृहस्थयोग्यं भवदं च कार्यम् । प्रकुर्वतां क्लेशकरं कुकर्म, पाषंडिनां धर्मविरोधकानाम् ॥३४८॥ मंत्रादिहेतोर्व्यवहारतोऽपि, पूजा प्रशंसा क्रियते च यैर्हि । तेषां भवेदुःखभयं व्यथाद, पाषंडिमूढत्वमिति स्वाभावात् ॥३४९॥ जो पाखंडी वा कुगुरु अपने आत्मज्ञानसे रहित हैं, विषयोंके लोलुपी हैं, धर्मके विरोधी हैं और इस पृथ्वीपर गृहस्थोंके योग्य तथा संसारको बहानेवाले कार्य किया करते हैं अथवा क्लेश उत्पन्न करनेवाले अनेक कुकर्म किया करते हैं ऐसे पाखंडी साधुओंकी जो लोग किसी मंत्रादि के लिये अथवा अपना व्यवहार दिखलाने के लिये पूजा वा प्रशंसा करते हैं उसको स्वभावसेही दुःख और पीडा देनेवाली पाखंडिमूढता कहते हैं ॥ ३४८॥ ३४९॥ साम्प्रतं सद्गुरो ! ब्रूहि षडायतनलक्षणम् ? Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७०] प्रश्न:--हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि छह आयतनोंका लक्षण क्या है ? चतुर्गतीनां खलु कारणस्य, भक्त्या कुदेवस्य तथैव तस्य । भक्तस्य सत्यार्थविदा नरेण, स्तुतिः सुपूजा न कदापि कार्या ॥५०॥ देवे सुभक्ते खलु तस्य कार्या, न द्वेषबुद्धिर्भवदायिकापि। ज्ञात्वेति वंद्यो भुवि बोधनार्थं, निर्दोषदेवः खलु तस्य भक्तः ॥३५१॥ उत्तरः-कुदेव और उनके भक्त चारों गतियोंमें परिभ्रमण करानेवाले हैं। अतएव पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले भव्य जीवोंको इन कदेव और उनके भक्तोंकी भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति कभी नहीं करनी चाहिये । इसी प्रकार देव और उनके श्रेष्ठ भक्तोंमें ससारको बढानेवाली द्वेषबुद्धि भी कभी नहीं करनी चाहिये । यही समझकर भव्य जीवोंको अपना आत्मज्ञान उत्पन्न करनेके लिये निर्दोष देव और उनके भक्तोंकी ही वंदना करनी चाहिये ॥५०॥५१॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७१] स्वर्मोक्षमार्गातिविनाशकस्य, ह्येकान्तप:रतिदूषितस्य। संगः कुशास्त्रस्य च पाठकस्य, कार्यों न भव्यैः पठनं कदापि ॥३५२॥ शास्त्रे जिनोक्तेऽस्य च पाउके च, न द्वेषबुद्धिश्च कदापि कार्या। ज्ञात्वेत्यपेक्षासहितं जिनोक्तं, ग्राह्यं हि शास्त्रं भुवि बोधनार्थम् ॥३५३ इस संसारमें कुशास्त्र और उनके पढनेवाले लोग स्वर्ग और मोक्षके मार्गको अत्यंत नाश करनेवाले हैं और एकांतपक्षसे अत्यंत दुषित हैं। अत एव भव्यपुरुषोंको कुशाब और उनके पढानेवालोंका समागम कभी नहीं करना चाहिये और न कभी उन शास्त्रोंका पठन पाठन करना चाहिये । इसीप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंमें तथा उनके पठन पाठन करनेवालोंमें कभी द्वेषबुद्धि न करनी चाहिये। यही समझकर अपना आत्मज्ञान प्रगट करने के लिये भव्यजीवोंको अपेक्षाकृत नयोंसे सुशोभित ऐसे भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंका सदाकाल पठन पाठन करना चाहिये ५२॥ ५३॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [१७२] कुमार्गनेतुः कुगुरोश्च तस्य, शिष्यस्य मिथ्यात्वविबर्द्धकस्य । समस्तसंतापनिधानमूर्तेः, संगो न कायों विनयोपचारः ॥३५४॥ न दुष्टबुद्धिः सुगुरौ सुशिष्ये, कार्या सुभव्यैरतिपापदा सा । गुरुर्विसंगी सुखशांतिदाता, भवेद्दयाो भुवि बोधनार्थम् ॥३५५॥ कुगुरु और उनके शिष्य दोनों ही मिथ्यात्वको बढाने वाले हैं, कुमार्गमें ले जानेवाले हैं और समस्त संताप के खजाने की मूर्ति हैं अतएव ऐसे कुगुरु और उनके शिष्यों का समागम कभी नहीं करना चाहिए और न कोई उन का उपचार विनय करना चाहिए । इसी प्रकार श्रेष्ठ भव्य जीवोंको सुगुरु और सुशिष्याम पाप उत्पन्न करनेवाली द्वेषबुद्धि भी कभी नहीं करनी चाहिए । भव्य जीवोंको अपना आत्मज्ञान प्रगट करने के लिए दयालु सुख शांति को देनेवाला और समस्त परिग्रहोंसे रहित ऐसा निग्रंथ गुरु ही बनाना चाहिए ॥५४.५५ ॥ भावार्थ- कुदेव, कुशाख और कुगुरु तथा इन तीनों के भक्तोंकी सेवा भाक्त Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७३] करना छह अनायतन हैं और देव शास्त्र गुरु तथा उनके भक्तोंको सेवा भक्ति करना छह आयतन हैं। भो गुरो ! कथनीयानि मदानां लक्षणानि च ? प्रश्नः—हे गुगे ! अब कृपाकर मदोंके लक्षण कहिये ? स्थापनात्पाठशालानां पठनात्पाउनात भवेत्। ज्ञानोपकरणादेर्वा दानाद् ज्ञानं शिवप्रदम् ।। ज्ञात्वेति ज्ञानदानं हि कार्यं निःस्वार्थतः सदा । प्राणेष्वितेष्वपि ज्ञानगर्वः कार्यों न हानिदः ५७ उत्तर:-पाठशालाओंके स्थापन करनेसे तथा भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंके पठन पाठन करनेसे अथवा ज्ञानके उपकरणोंका दान देनेसे मोक्ष देनेवाला आत्मज्ञान प्रगट होता है । यही समझकर भव्य जीवोंको अपनी निःस्वार्थ बुद्धिसे सदा ज्ञानदान करते रहना चाहिये तथा अपने प्राणांका नाश होनेपर भी संसारको बढानेवाला ज्ञानका मद कभी नहीं करना चाहिये ।।३५६॥३५७|| कुर्वन्ति स्वात्मशुन्या हि पूजामदं भवप्रदम् । सन्तः स्वानन्दपुष्टा न ते जानन्ति निजात्मनः॥ पूजा प्रतिष्ठा लोकेस्मिन् पुरोदयेन लभ्यते। धर्मः परोपकारो वा कर्तव्यः प्राप्य तां शुभाम्५९ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७४ ] पूजामदो न कार्यों हि ज्ञात्वेति भववर्द्धकः । सरसे रसिकैर्भव्यैर्जिनाज्ञाप्रतिपालकैः ॥ ३६० ॥ जो मनुष्य आत्मज्ञानसे रहित हैं वे ही पुरुष संसारको बढानेवाला पूजा प्रतिष्ठा का अभिमान करते हैं । जो सज्जन है और आत्मजन्य आनंद से परिपुष्ट हैं वे कभी पूजा प्रतिष्ठाका अभिमान नहीं करते । क्योंकि वे आमाके स्वरूपको जानते हैं । वे समझते हैं कि इस संसार में पूजा प्रतिष्ठा पुण्योदय से प्राप्त होती है । अतएव इस शुभरूप पूजा प्रतिष्ठाको पाकर धर्मकार्य करना चाहिये अथवा परोपकार करना चाहिये । यही समझकर भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको प्रतिपालन करनेवाले रसिक और सरस भव्य जीवोंको संसारको बढानेवाला पूजा प्रतिष्ठाका अभिमान कभी नहीं करना चाहिये || ५८–६० ॥ भवत्युच्च कुले जन्म पुण्यात्स्वमोक्षसाधके । नीचे कुले ध्रुवं पापादहत्पूजादिरोधके ॥ ३६१ || प्राप्तोऽस्म्यनन्तवार को कुयोनिं मदोषतः । कार्यः कुलमदो नैव ज्ञात्वेति भवभीरुभिः ॥ ३६२ इस संसार में पुण्यकर्म के उदयसे स्वर्ग मोक्षको सिद्ध करने योग्य उच्च कुलमें जन्म होता है तथा पापकर्मके उदयसे जिसमें भगवान अरहंत देवकी पूजा वा पात्रदान Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७५] आदि न किया जा सके ऐसे कुलमें जन्म होता है। " मैं अपने अभिमानके दोषसे इस पृथ्वीपर अनंतवार कुयोनिमें उत्पन्न हुआ हूं" यही समझकर संसारके परिभ्रमणसे डरनेवाले भव्य जीवोंको अपने उच्चकुलका मद कभी नहीं करना चाहिये ॥ ६१ ।। ६२ ॥ दानादिधर्मकार्येणार्हदादिजन्मदायिनी। श्रेष्ठा जातिर्भवेल्लोके ज्ञात्वेति भवभीरुभिः॥६३॥ जात्या मदो न वै कार्यों मानवैर्दुष्टहेतुना । धर्मकार्यं सदा कार्य श्रेष्ठा जातिर्भवेद्यतः ॥६॥ . इस संसारमें भगवान अरहंत देवको जन्म देनेवाली श्रेष्ठ जाति पात्रदान आदि धर्मकार्यासे ही उत्पन्न होती है । यही समझकर संसारके भयभीत रहनेवाले भव्य जीवोंको अपने प्राण जानेपर भी किसी भी दुष्ट कारणसे जातिका मद नहीं करना चाहिये । तथा सदा काल धर्मकार्य ही करते रहना चाहिये जिससे कि सदा श्रेष्ठ जाति ही प्राप्त होती रहे ।। ३६३ ॥ ३६४ ॥ मदादिदोषनाशाद्वा वीर्यान्तरायकर्मणः । क्षयाबलं भवेच्छेष्ठं तपोध्यानादिसाधकम् ॥३६५ ज्ञात्वेति योजनीयं हि धर्मे जीवादिरक्षणे । हिंसने नैव जीवानां कार्यों बलमदोऽपि च॥६६॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७६] इस संसारमें तप और ध्यानादिक को सिद्ध करनेवाला श्रेष्ठ बल मद आदि दोषोंके नाश होनेसे और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम होनेसे प्राप्त होता है । यहो समझकर उस प्राप्त हुए बलको धर्मकार्योंमें अथवा जीवोंकी रक्षा करनेमें लगाना चाहिये । जीवोंकी हिंसा करनेमें कभी नहीं लगाना चाहिये। तथा माप्त हुए बलका अभिमान भी कभी नहीं करना चाहिये । ६५ ।। ६६ ।। खात्मवादात्प्रभोर्ध्यानाक्षमाशीलादियोगतः । ऋद्धिर्वाञ्छितदा स्याद्धि मिथ्यामदादिनाशतः ॥ ज्ञात्वेति स्वात्मबाह्यो हि करोत्युद्धेर्मदं मुनिः । धर्मज्ञः स्वात्मनिष्ठो न मददोषोत्करं विदन् ३६८ इस संसारमें जो विभूतियां वा ऋद्धियां प्राप्त होती हैं वे शुद्ध आत्माका स्वाद होनेसे, भगवान जिनेन्द्रदेवका ध्यान करनेसे, क्षमा शील आदिके पालन करनेसे और मिथ्यामदोंके नाश करनेसे प्राप्त होती हैं। यही समझकर जो मुनि आत्मज्ञानसे रहित हैं वेही इन ऋद्धियोंका मद करते हैं । धर्मके स्वरूपको जाननेवाले अपने आत्मा में तल्लीन रहनेवाले और मदके दोषोंको अच्छीतरह जाननेवाले सम्यग्दृष्टी पुरुष इन ऋद्धियोंका वा विभूतियोंका मद कभी नहीं करते ॥ ३६७ ॥ ३६८ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७७] अन्नौषधादिदानाद्वा मदादिदोषनाशतः । स्वर्मोक्षसाधकः कायो भवेद् ज्ञात्वेति सुन्दरः॥ ज्ञानध्यानतपोधर्मे योजनीयोऽतियत्नतः । वपुर्मदो न वै कार्यः कदापि भवभीरुभिः ॥ ३७० इस संसारमें स्वर्गमोक्षको सिद्ध करनेवाला सुन्दर शरीर अन्न औषध आदिके दान देनेसे और मद आदि दोषोंको नाश कर देनेसे प्राप्त होता है । यही समझकर संसारसे भयभीत रहनेवाले भव्य जीवोंको यत्नपूर्वक अपना शरीर ज्ञान, ध्यान, तप और धर्ममें लगाना चाहिये। तथा अपने प्राण जानेपर भी शरीरका मद कभी नहीं करना चाहिये || ३६९ ॥ ३७० ॥ इच्छारोधस्तपश्चिह्नं प्रोक्तं स्वर्मोक्षदायकैः । मोक्षेच्छापि जिनैः प्रोक्ता स्वर्मोक्षध्वंसिका ध्रुवं ॥ कथा तवान्यवस्तूनां केति बुद्ध्वा सुतत्त्वतः । केषामपि मदः कार्यो न केवलं तपोमदः ॥३७२॥ स्वर्गमोक्षको देनेवाले भगवान जिनेन्द्रदेवने इच्छाका निरोध करना ही तपश्चरणका लक्षण बतलाया है । भगवान जिनेन्द्रदेवने मोक्षकी इच्छा करना भी स्वर्गमोक्षकी नाश करनेवाली बतलाई है । फिर भला अन्य Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] वस्तुओंकी इच्छा करने की तो बात ही क्या है। इसमकार तपश्चरणक स्वपरूको अच्छी तरह समझकर किसीका भी मद नहीं करना चाहिये फिर भला तपश्चरणके मदकी तो बात ही क्या है। तपश्चरणका मद तो कभी नही करना चाहिये ॥ ३७१ ॥ ३७२ ॥ इति श्रीमुनिराजकुथुसागरविरचिते बोधा- . मृतसारग्रंथे षोडशकारणभावनादशधर्मपूर्णांगसम्यग्दर्शनवर्णनो नाम द्वितीयोऽधिकारः। इस प्रकार मुनिराज श्रीकुंथुसागरविरचितबोधामृतसार नामक ग्रंथमें सोलहकारण भावना । दश धर्म और पूर्णाग सम्यग्दर्शनको वर्णन ..करनेवाला यह दुसरा अधिकार . समाप्त हुआ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ., कीहक् कार्य गुरो ! लोकेऽनुप्रेक्षाचिन्तनं सदा ? ___ प्रश्नः-हे गुरो ! इस संसारमें सदा काल अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन किस प्रकार करना चाहिए ? सर्वे पुण्यवशाः सन्ति धनराज्यादिबांधवाः । यावत्पुण्यं समं तावत्तिष्ठन्ति बंधुभावतः ॥३७३ तस्य क्षयात्पलायन्ते खगा इव तरुस्थिताः। नित्यः स्वात्मैव बोद्धव्योऽन्येऽनित्याः सकला इति। ___इस संसारमें धन, राज्य, भाई बंधु आदि सब पुण्यके अधीन हैं, जबतक पुण्य का उदय रहता है तबतक सब भाई बंधुके प्रेमसे बने रहते हैं। जब उस पुण्यका क्षय हो जाता है तब वृक्षपर बैठे हुए पक्षियोंके समान सब भाग जाते हैं । इसलिये भव्य जीवोंको विचार करना चाहिये कि इस संसारमें एक अपना आत्मा ही नित्य है बाकीके समस्त. पदार्थ अनित्य हैं इस प्रकारके चिंतन करनेको अनित्यानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ गजाश्वमंत्रतंत्रादिविद्यागदकलादिकाः । यझेंद्रचक्रवर्त्याद्या मृत्युकाले न केऽप्यमी ७५ रक्षति यदि चेत्पाति ज्ञात्वेति पुण्यमेव हि । स्वात्मनः स्वात्मना रक्षा कार्या खानन्दसाधकैः ।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८०] इस संसारमें इस जीवका जब मरणसमय आता है तब हाथी, घोडा, मंत्र, तंत्र, विद्या, औषधि, कला, यक्ष, इन्द्र और चक्रवर्ती आदि कोई भी इस जीवकी रक्षा नहीं कर सकता। यदि कोई इस जीवकी रक्षा कर सकता है तो एक पुण्य ही कर सकता है। यही समझकर अपने आत्मजन्य आनंदामृतको सिद्ध करनेवाले भव्य जीवोंको अपनेही आत्माके द्वारा अपने आत्माकी रक्षा करनी चाहिये इसको अशरणानुप्रेक्षा कहते हैं। ३७५ ॥ ३७६ ॥ मोहवशात्स्वसा बंधुर्देवो मृत्वा पशुर्भवेत् । राज्ञी मृत्वा भवेद्दासी पुत्रो मृत्वा भवेत्पिता ७७ भार्या मृत्वा भवेन्माता शत्रुर्भूत्वा भवेत्सखा। मोहं त्यक्त्वैव बुद्ध्वेत्यात्मानं स्वात्मनि चिन्तयेत्। ___इस मोहनीय कर्मके उदयसे मोहित हुआ यह जीव बहिन की पर्याय छोडकर भाई हो जाता है, देव मरकर पशु होजाता है, रानी मरकर दासी हो जाती है, पुत्र मरकर पितः हो जाता है, स्त्री मरकर माता हो जाती है और शत्रु मरकर मित्र हो जाता है । इस संसारके ऐसे परिभ्रमणको समझकर भव्य जीवों को अपने मोहका त्याग कर देना चाहिये और अपने ही आत्मामें अपने Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८१] आत्माका चिन्तन करना चाहिये इसको संसारानुप्रेक्षा कहते हैं || ३७७ ॥ ३७८ ॥ शुभाशुभवशाज्जीवो म्रियते जायते सदा । एको राजेति कोऽपि स्त्रीनरोऽथ पशुर्द्विजः ३७९ कोऽपि कस्य सहायी न स्थितेऽपि बांधवे प्रिये । ज्ञायतेऽतो ध्रुवं लोके क्रियते यादृशं हि यैः ८० तादृशं भुज्यते कर्मान्यथा भवेत्कदापि न । कार्यं ज्ञात्वेति कर्तव्यं तत्स्वरक्षा भवेद्यतः ३८१ इस संसामें यह जीव शुभ और अशुभ कर्मके निमित्तसे अकेला ही मरता है, अकेला ही उत्पन्न होता हैं, अकेलाही राजा होता है, अकेला ही रंक होजाता है, अकेला ही स्त्री होता है, अकेला ही पुरुष होता है, अकेलाही पशु होता है और अकेला ही द्विज होता है वा पक्षी होता है । यद्यपि प्यारे भाई बंधु आदि सब रहते हैं तथापि कोई किसीका सहायी नहीं रहता। इसपरसे यह निश्चय रूप से जाना जाता है कि जो जीव जैसा शुभाशुभ कर्म करते हैं वैसा ही उन्हें अकेला भोगना पडता है । वह कभी बदल नहीं सकता । यही समझकर भव्य जीवोंको ऐसा कार्य करते रहना चाहिये जिससे इस अपने आत्मा की रक्षा सदा होती रहे । इसको फिर कभी भी न Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८२] मरना पडे ७९ ॥ ८१ ॥ इसको एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं पिता माता स्वसा बंधुः पुत्री पौत्री सखा सखी। पुत्रः पौलो गृहं भार्या पुरराज्यादि भूषणम् ८२ एते सर्वेऽपि सन्त्यन्ये स्वात्मनस्तत्त्वतो यथा । पूर्वतः पश्चिमः कार्याऽन्यो ज्ञात्वा न परे स्पृहा ॥ - वास्तवमें देखा जाय तो इस संसार में माता, पिता, भाई, बहिन, पुत्री, पोती, सखा, सखी, पुत्र, पौत्र, घर, स्त्री, पुर, राज्य और वस्त्राभूषण आदि समस्त पदार्थ इस आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं और ऐसे भिन्न हैं जैसे पूर्वस पश्चिम सर्वथा भिन्न होती है । यही समझकर भव्य जीवों को अपने आत्मासे भिन्न पदार्थोंमें कभी इच्छा नहीं करनी चाहिये | इसको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं ।। ३८२ . ॥ ३८३ ॥ मलमूत्रभृतो देहो रक्तमांसास्थिपूरितः । रजोवीर्यसमुत्पन्नो जातो घृणितमार्गतः ॥८४॥ एतादृशः शरीरस्य किं योग्यं स्नेहलालनम् । तपस्तप्त्वा च तत्प्राप्य साधयन्तु शिवं जनाः ॥ यह शरीर मलमूत्र से भरा हुआ है, हड्डी मांस और रुधिर से भरा हुआ है, रज वीर्यसे उत्पन्न हुआ है और Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८३] घृणित मार्गसे प्रगट हुआ है। क्या ऐसे इस शरीर का स्नेहपूर्वक लालन पालन करना उचित है ? ऐसे शरीरको पाकर तो घोर तपश्चरण करना चाहिये और घोर तपश्चरण कर लोगोंको मोक्षकी सिद्धि कर लेनी चाहिये इसको अशुचित्वानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ३८४ ॥ ३८५ ॥ रागद्वेषैश्च मिथ्यात्वैः सदास्रवः कुकर्मणः । वर्मोक्षरोधको नित्यं भवेच्च भववर्द्धकः ॥३८६॥ त्यक्त्वा द्वेषादिमिथ्यात्वं ज्ञात्वेति तत्त्वतो जवात् स्वात्मबुद्धिः सदा कार्या जिनधर्मे शिवप्रदे ८७ इन संसारी जीवोंके राग द्वेष और मिथ्यात्वके कारण सदा अशुभ कर्मोका आस्रव होता रहता है । यह आस्रव स्वर्ग मोक्षको रोकनेवाला है और सदाके लिये संसारके परिभ्रमणको बढानेवाला है। अतएव भव्य जीवों को बहुत ही शीघ्र आस्रवका यथार्थ स्वरूप समझ कर रागद्वेष और मिथ्यात्वका त्याग कर देना चाहिये तथा अपनी बुद्धि सदाकाल मोक्ष देनेवाले जिनधर्ममें लगाते रहनी चाहिये । इसको आस्रवानुभेक्षा कहते हैं ॥ ३८६ ॥ ३८७ ॥ आस्रवस्य निरोधश्च संवरो मोक्षदायकः । इच्छारोधस्तपोभिश्च क्षमाशांत्यादियोगतः ८८ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८४ ] भवेत्स्वानन्दपानाद्धि ज्ञात्वा चैवं जिनागमात् । त्यक्त्वा द्वेषादि मिथ्यात्वं स्वात्मानं चिन्तयेत्सदा ॥ आवका निरोध करना संवर है । यह संवर मोक्षको देनेवाला है तथा यह संवर इच्छाका निरोध करनेरूप तपचरण से होता है, क्षमा धारण करने अथवा शांति वा उपशम परिणामों से होता है, और अपने आत्मजन्य आनन्दामृतका पान करनेसे भी होता है। जिनागमसे इन सब बातों को समझकर भव्य जीवोंको रागद्वेष और मिथ्यात्वका त्याग कर देना चाहिये और सदाकाल अपने शुद्ध आत्माका चिन्तन करते रहना चाहिये । इसको संवरानुप्रेक्षा कहते हैं ।। ३८८ ।। ३८९ ।। गुप्त्या समित्या तपसा धर्मचारित्रचिन्तनैः । रागद्वेपयुतो जीवो विशेषेण विशुध्यति ॥ ३९० अग्निना शुध्यति स्वर्णं तथा ध्यानेन योगिनः । ज्ञात्वेति च्छेदनीयं हि कर्मजालं जनैर्जवात् ॥९१ यह रागद्वेषसहित जीव भी गुप्ति, समिति, तपश्चरण, धर्म, चारित्र और ध्यान से विशेष शुद्ध हो जाता है । जिस प्रकार अग्निसे सुवर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार योगी लोग भी ध्यान से ही शुद्ध होते हैं । यही समझकर भव्यजीवों को बहुत शीघ्र अपना कर्मरूपी जाल छिन्न Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५] भिन्न कर नष्ट कर देना चाहिये । इसको निर्जरानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ३९० ॥ ३९१ ॥ लोके पापवशाज्जीवा दुःखं श्वभ्रगतौ परम् । तिर्यग्गतौ च संजातं देवे नरभवे तथा ॥३९॥ भुंजते दीनभावेन ज्ञात्वा त्यक्त्वा शुभं क्रमात । जिनधर्मे स्थितिः कार्या शुद्धात्मन्येव मोक्षदे ॥ ___ इस लोकमें भरे हुए समस्त संसारी जीव पापकर्मके उदयसे दीनता धारण कर नरकादिकोंमें परम दुख भोगते हैं, तिर्यंचगनिमें महादुःख भोगते हैं तथा देव और मनुष्य गतिमें महादुःख भोगते हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको अनुक्रमसे समस्त पापोंका त्याग कर देना चाहिये और जिनधर्ममें अपने आत्माको स्थिर कर देना चाहिये, अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले अपने शुद्ध आत्मामें अपने आत्माको स्थिर कर देना चाहिये । इसको लोकानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ३९२ ॥ ३९३ ॥ प्राप्य स्वात्मोपलब्धि च भवक्लेशादिनाशिनम् । गतप्राणोऽपि कार्यो न प्रमादो भववर्द्धकः ॥३९४ स्वात्मबाह्यं कृतं कार्य बहुवारं भवप्रदम् । ज्ञात्वेति मोक्षदं कार्य कर्तव्यं शांतिदायकम् ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने शुद्ध आत्मा की उपलब्धि संसारके समस्त क्लेशोंको नाश करने वाली है उसको पाकर अपने प्राण जानेपर भी संसारके जन्म मरणको बढाने वाला प्रमाद कभी नहीं करना चाहिए । इस संसार में इस जीवने अपने आत्मस्वरूपसे रहित और संसारको बढाने वाले कार्य अनेक वार किये हैं । यही समझकर अब मोक्ष देनेवाले और सर्वथा शांति उत्पन्न करने वाले कार्य इस जीवको सदा करते रहना चाहिये। इसको बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं ॥ ९४-९५ ॥ प्रमादः प्राप्य कार्यों न धर्म स्वर्मोक्षदायकम् । धर्मप्रसादाज्जीवेन लभ्यते वाञ्छितं फलम् ॥ खानन्दस्वादतः शीघ्रं स्वराज्यं लभतेऽचलम् । ज्ञात्वेत्यहत्प्रभोधर्मः कार्यः स्वमोक्षहेतवे ।३९७ स्वर्गमोक्ष देनेवाले इस जैनधर्मको पाकर कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये । क्योंकि यह जीव इस धर्म के प्रसादसे ही इच्छानुसार फलको प्राप्त होता है। अपने आत्मजन्य आनन्दामृत-रसका स्वाद लेनेसे इस जीवको शीघ्र ही मोक्ष रूप अचल स्वराज्य की प्राप्ति हो जाती है । यही समझ कर भव्यजीवों को स्वर्गमोक्ष प्राश करने के लिए भगवान अरहंत देवका कहा हुआ जिनधर्म अवश्य धारण करना चाहिये इसको धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं ॥९६.९७॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८७] परवस्तु परित्यज्य ध्यातव्यं स्वात्मवस्तु हि । सारांश इति बोद्धव्यः स्वरसरसिकैर्जनैः ॥३९८ इन सब बारह अनुप्रेक्षाओंके चिंतन करने का वा कहनेका मुख्य सारांश यही है कि जो भव्य जीव अपने आत्मजन्य आनंद रसके रसिक हैं उन्हें परपदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और अपने शुद्ध आत्माका ध्यान करते रहना चाहिए ॥ ९८ ॥ सप्ततत्वानि लोकेऽस्मिन् सन्ति कानि जगद्गुरो ! प्रश्न-हे जगद्गुरो ! इस संसारमें सात तत्त्व कौन २ हैं ? चिन्मात्रमूर्तिः परमार्थदृष्टया, स्वभावकर्ता निजसौख्यभोक्ता। सोऽपि जीवो व्यवहारदृष्टया, कर्तास्ति भोक्तापि शुभाशुभस्य ॥३९९॥ संयोगतः पुद्गलकर्मणोऽयं, भवे महादुःखमये निमग्नः । शुद्धस्वभावो हृदि धारणीयः, ज्ञात्वेति भव्यैर्निजराज्यहेतोः ॥ ४००॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८८] परमार्थदृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह जीव विन्मात्र मूर्ति वा चैतन्यस्वभाव रूप है. अपने निज स्वभाव का कर्ता है, और अपने आत्मजन्य सुखका भोक्ता है । यदि व्यवहार दृष्टिसे देखा जाय तो संसारी समस्त जीव शुभा शुभ कर्मोंके कर्ता हैं और उनके फलोंके भोक्ता हैं । पुद्गल कोंके संयोगसे ये संसारी जीव अनेक महा दुःखमय इस संसार में निमग्न हो रहे हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको अपना शुद्ध आत्म-स्वरूप-स्वराज्य प्रप्त करनेके लिये अपने हृदयमें अपने शुद्ध आत्माका स्वरूप चिन्तन करना चाहियं ॥३९९ ॥ ४०० ॥ धर्मोऽप्यधर्मो गमनं च कालोऽ-, जीवोऽप्यमूर्ती रहितः क्रियाभिः । गतिस्थितिस्थानविवर्तनादि, स्तेषां स्वभावो भवति स्वभावात् ॥४०१ प्रोक्तः सुमूर्तः खलु पुद्गलश्च, स्पर्शादियुक्तः सहितः क्रियाभिः । ज्ञात्वेति भव्यैर्हदि भावनीय, मजीवतत्त्वं हि निजात्मबाह्यम् ॥४०२॥ अब अजीव तत्वको कहते हैं। धर्म अधर्म आकाश और काल ये चारों अजीव द्रव्य अमूर्त हैं और क्रिया Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८९] रहित हैं। इनमेंसे धर्मद्रव्यका स्वभाव जीव पुद्गलोंके गमन करनेमें सहायता देना है, अधर्म द्रव्यका स्वभाव जीव पुद्गलोंके ठहरने में सहायता देना है,आकाशका स्वभाव समस्त द्रव्योंको अवकाश देना है और कालद्रव्यका स्वभाव द्रव्योंके परिवर्तन में सहायता देना है। इन द्रव्योंका यह स्वभाव स्वाभाविक है । इनके सिवाय अजीव तत्त्व एक पुद्गल और है । वह मूर्त है-स्पर्श रस गंध वर्णसहित है तथा क्रियासहित है । इसप्रकार अजीव तत्त्वके पांच भेद हैं । इन सबका स्वरूप समझकर भव्य जीवोंको अपने हृदय में इस अजीव तत्त्वको अपने आत्मस्वरूप से सर्वथा भिन्न समझना चाहिये, तथा आत्मासे भिन्न ही चिन्तन करना चाहिये ॥ ४०१ ॥ ४०२ ॥ कर्मास्त्रवो यैश्च शुभाशुभैर्वा, मिथ्यात्वरागादिकषायभावैः । भावात्रवः स्यात्खलु तन्निमित्ताद् , द्रव्यास्त्रवो ज्ञानसुखादिहर्ता ॥४०३॥ प्रोकं स्वबुध्द्यास्रवतत्त्वमेवं, यथास्थितं भो व्यवहारदृष्टया । निजात्मबाह्यो द्विविधास्रवोऽपि, ज्ञातव्य एवं परमार्थदृष्टया ॥४०४॥ 10 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९० - जिन मिथ्यात्व राग आदि कषायरूप शुभ अशुभ परिणामोंसे कर्मोंका आस्रव होता है उसको भावास्रव कहते हैं । उस भावास्रवके निमित्तसे जो कर्म आते हैं उन कर्मोंके आनेको द्रव्यास्रव कहते हैं । यह ढव्यास्रव ज्ञान सुख आदि आत्माके गुणोंको नष्ट करनेवाला है। इस प्रकार आस्रवका जैसा स्वरूप है वही मैने अपनी बुद्धिके अनुसार व्यवहारदृष्टिसे निरूपण किया है । ‘परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो ये दोनों ही प्रकारके आस्रव अपने शुद्ध आत्मासे सर्वथा भिन्न है । इस प्रकार इनका स्वरूप समझना चाहिये ।। ४०३ ।। ४०४ ॥ भावेन येनात्मन एव यश्च, भवत्यवश्यं खलु कर्मबन्धः। स भावबंध: सुखशांतिहर्ता, सर्वात्मदेशे खलु कर्मबन्धः ।।४०५॥ स द्रव्यबंधो भवदुःखदो वा, प्रोक्तो यथावद् व्यवहारदृष्ट्या । निजात्मबाह्ये द्विविधोऽपि बंधो, ज्ञातव्य एवं परमार्थदृष्ट्या ॥४०६॥ आत्माके जिन परिणामोंसे कर्मोंका बंध अवश्य होता है उन परिणामोंको भावबंध कहते हैं यह भावबंध सुख Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९१] और शान्ति को हरण करनेवाला है तथा आत्माके समस्त प्रदेशोंमें जो कर्मोका बंधन होजाता है उसको द्रव्यबंध कहते हैं । यह द्रव्यबंध भी संसार के समस्त दुःखोंको देनेवाला है । इस प्रकार दृष्टिसे दोनों प्रकारके बंधका स्वरूप कहा है | यदि परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो दोनों प्रकारका बंध अपने आत्मासे सर्वथा भिन्न है । ऐसा भव्य जीवों को समझना चाहिये ।। ४०५ ॥ ४०६ ॥ भावैर्हि कर्मागमनस्य यैश्चा-, मनो हि मार्गश्च निरुध्यते सः । भावस्वरूपः खलु संवरो हि, वा द्रव्यकर्मापि निरुध्यते यतः ॥४०७ ॥ द्रव्यवरूपो भुवि संवरः स प्रोक्तो यथावद् व्यवहारदृष्ट्या । निजात्मरूपो युगसंवरोऽपि, ज्ञातव्य एवं परमार्थदृष्ट्या ॥ ४०८ ॥ आत्मा के जिन परिणामोंसे कर्मोंके आनेका मार्ग रुक जाता है उसको भावसंवर कहते हैं तथा उन परिणाणामोंसे जो द्रव्यकमका रुक जाना है उसको द्रव्य संवर कहते हैं । यह भावसंवर और द्रव्य संवरका स्वरूप व्यवहार दृष्टिसे जैसा है वैसा ही कहा है । यदि Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९२] परमार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो दोनों प्रकारका संवर अपने आत्मस्वरूप ही है ऐसा समझना चाहिये ॥४०७॥४०८॥ यैरात्मनः शुद्धतरैश्च भावे, भवेदवश्यं खलु निर्जराद्या। भावस्वरूपा खलु निर्जरा सा, नश्यन्ति कर्माणि यदा तपोभः ॥४०९॥ द्रव्यस्वरूपा ननु निर्जरा सा, प्रोक्ता यथावद् व्यवहारदृष्टया। निजात्मरूपा युगनिर्जरापि, ज्ञेया त्रिलोके परमार्थदृष्टया ॥४१०॥ आत्माके जिन शुद्ध परिणामोंसे कर्मोंकी निर्जरा होती है उन परिणामोंको भावनिर्जरा कहते हैं । तथा तपश्चरणके द्वारा जो कर्म नष्ट होते हैं उन कर्मोके नाश होनेको द्रव्यनिर्जरा कहते हैं । इसपकार इन दोनों निर्जरा ओंका यथार्थ स्वरूप व्यवहार दृष्टिसे कहा गया है । यदि परमार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो तीनों लोकोंमें दोनों प्रकारको निर्जरायें अपने आत्मस्वरूप ही हैं ॥ ४०९ ॥ ४१० ॥ भावैश्च यैरात्मन एव शुद्धैः, प्रणश्यते चाखिलकर्मबन्धः। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९३] स भावमोक्षः सुखशांतिरूपः, यदात्मनो य: सकलप्रदेशात् ॥४११॥ पृथग्भवेद्वाखिलकर्मबन्धः, स द्रव्यमोक्षो व्यवहारदृष्ट्या। निजात्मरूपो द्विविधोऽपि मोक्षः, सुखप्रदोऽयं परमार्थदृष्ट ॥४१२॥ आत्माके जिन शुद्ध परिणामों से समस्त कर्मोंका बंध नष्ट होजाता है उसको भावमोक्ष कहते हैं। यह भावमोक्ष सुख और शांतिस्वरूप है। तथा जब आत्माके. समस्त प्रदेशोंसे समस्त कर्मबंध अलग हो जाता है उसको द्रव्यमोक्ष कहते हैं। यह सब कथन व्यवहारदृष्टि से समझना चाहिये : परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो अनंत सुख देनेवाला दोनों प्रकारका मोक्ष अपने आत्मस्वरूप ही है ॥ ३११ ॥ ३१२ ॥ व्यसनानां गुरो ! ब्रूहि लक्षणानि च साम्प्रतम् ? प्रश्न:-हे गुरो ! अब कृपाकर व्यसनोंके लक्षण कहिये ? स्थानं सकलपापानां चिन्तानामपि चापदाम् । व्याधीनामपि दुःखानां मूर्खाणां चिह्नमेव च १३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९४] सर्वदुष्कर्मणां स्वामी द्यूत एवास्ति तत्त्वतः । त्याज्यो ज्ञात्वेति स द्यूतः सर्वथा स्वात्मतत्परैः ॥ उत्तरः- पहला व्यसन जुआ खेलना है । यह जुआ खेलना समस्त पापोंका स्थान है, समस्त चिन्ताओं का और समस्त आपत्तियों का स्थान है, समस्त व्याधियोंका स्थान है, समस्त दुःखीका स्थान है, मूर्खता का चिन्ह है और समस्त पापकर्मो का स्वामी है । वास्तवमें यह जूआ ऐसा ही है । यही समझकर अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले भव्य पुरुषों को इस आका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये || ३१३ ॥ ११४ ॥ सद्धिमसलुब्धानां दयाधर्मः पलायते । पुण्यपापविचारोऽपि न्यायनीतिर्विनश्यति ४१५ मूर्खता वर्द्धतेऽशांतिर्ज्ञात्वेति मांसभक्षणम् । स्पर्शनं वापि धर्मज्ञैर्न कार्यं धर्मवत्सः ॥१६॥ दूसरा व्यसन मांसभक्षण है । जो मनुष्य मांस भक्षणके लोलुपी हो जाते हैं उनकी सद्बुद्धि नष्ट हो जाती है, दयाधर्म दूर भाग जाता है, पुण्यपापका विचार नछु हो जाता है, न्याय और नीति नष्ट हो जाती है, मूर्खता बढ जाती है और अशांति बढ जाती है । यही समझकर धर्ममें प्रेम रखनेवाले और धर्मके स्वरूपको जाननेवाले Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्य जीवोंको मांसका भक्षण कभी नहीं करना चाहिये तथा उसका स्पर्श भी कभी नहीं करना चाहिये । ३१५ ॥ ३१६ ॥ क्षमा कृपा दमः शांतिर्लज्जापि मद्यपायिनाम् । कुलजातिपवित्रत्वं स्वात्मबुद्धिविनश्यति १७ मलिनत्वमविवेकोऽनात्मता परिवर्द्धते । ज्ञात्वेति मदिरापानं न कार्यं भवभीरुभिः ॥१८॥ तीसरा व्यसन मद्यपान है । जो जीव मद्यपान करते हैं उनकी क्षमा, कृपा, इंद्रियदमन,शांति, लज्जा, कुल, जाति, पवित्रता और स्वात्मबुद्धि आदि सब गुण नष्ट हो जाते हैं, तथा मालनता, अविवेक और अनात्मता ( आत्मविचारका अभाव ) बढ़ जाती है । यही समझकर संसारसे भयभीत रहनेवाले भव्य जीवोंको यह मद्यपान कभी नहीं करना चाहिये ॥ ४१७ ॥ ४१८ ॥ क्रूरतारवेटलुब्धानां मूर्खताऽन्यायताखिला । निर्दयता पशुत्वं च पापक्रिया प्रवर्द्धते ॥१९॥ विवेको न्यायतास्तिक्ये दयाधर्मो विनश्यति । कार्यं ज्ञात्वेति नाखेटं कदापि स्वात्मतत्परैः २० चौथा व्यसन शिकार खेलना है। जो मनुष्य शिकार खेलनेके लोलुपी होते हैं उनकी क्रूरता बढ़ जाती है, सब . . . Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९६] प्रकारकी मूर्खता और अन्यायता बढ जाती है तथा निर्दयता पशुपनां और सब पापक्रियाएं बढ जाती हैं। इसीप्रकार उनका विवेक, न्यायपना, आस्तिक्य और दयाधर्म सब नष्ट हो जाता है। यही समझकर अपने आत्मामें तल्लीन रहनेवाले भव्य जीवोंको यह शिकार खलनेका पाप कभी नहीं करना चाहिये ॥४१९-४२० को वेश्यासेविनां बुद्धिः कुलं जातिर्बलं वपुः । मान्यताचारमार्गोऽपि शुभशीलं प्रणश्यति २१ दारियं मूर्खता व्याधिरपात्रता प्रवर्द्धते। न वेश्यासेवनं कार्यं ज्ञात्वेति धर्मवत्सलैः ॥२२ पांचवा व्यसन वश्यासेवन है। इस संसार में जो मनुष्य वेश्यासेवन करते हैं उनकी बुद्धि, कुल, जाति, बल, शरीर, मान्यता, आचारमार्ग, और शुभ शील सब नष्ट हो जाता हैं, तथा दरिद्रता, मूर्खता, व्याधियां और अपात्रता आदि दुर्गुण सब बढ जाते हैं । यही समझकर धर्ममें प्रेम रखनेवाले भव्य जीवोंको वेश्यासेवन कभी नहीं करना चाहिये ॥ ४२१-४२२ ॥ खपरज्ञानहीना हि स्तेयं कुर्वन्ति तत्वतः । अतः पदे पदे तेषां निंदा वा ताड़नं भवेत् ॥२३ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९७] स्वपरज्ञानिनः स्तेयं न कुर्वन्ति कदाचन । ज्ञात्वेति धर्मतत्त्वज्ञैः स्तेयं कार्यं कदापि न २४ छठा व्यसन चोरी करना है । जो पुरुष स्वपरज्ञान रहित हैं वास्तवमें वे ही चोरी करते हैं और इसीलिये पद पद पर उनकी निंदा होती है अथवा ताडना होती है । जो पुरुष अपने आत्माका तथा परपदार्थोंका यथार्थ स्वरूप जानते हैं वे कभी चोरी नहीं करते। यही समझकर धर्म और तत्त्वोंके स्वरूप को जाननेवाले भव्य जीवोंको कभी चोरी नहीं करनी चाहिये ॥४२३-४२४॥ तिरस्कारापमानादिः परस्त्रीसेविनां सदा । सूतकं पातकं पापं कुलजातिच्युतिर्भवेत् ॥२५॥ वर्द्धते वैरं क्लेशोऽपि ज्ञात्वेति श्रावका जनाः । परस्त्रीसेवनं त्यक्त्वा भवेयुर्धर्मतत्पराः ॥२६॥ सातवां व्यसन परस्त्रीसेवन है । जो पुरुष परस्त्री सेवन करते हैं उनका स्थान स्थानपर तिरस्कार वा अपमान होता है। उनके सूतक, पातक, पाप, कुलकी भ्रष्टता, जाति की भ्रष्टता, वैर और क्लेश आदि सदा बढते रहते हैं । यही समझकर श्रावक लोगोंको सदाके लिये परस्त्रीका त्याग कर देना चाहिये और सदाकाल धर्ममें तत्पर रहना चाहिये ॥४२५-४२६ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९८ ] पंच पापानि कान्येव तत्त्यागाद्वा व्रतानि च १. प्रश्न: - हे गुरो ! पांच पाप कौन २ हैं और उनके त्यागा करनेते व्रत कहलाते हैं ? भवन्ति दुःखिनो जीवा म्रियन्ते प्राणनाशतः । ज्ञात्वेति सर्वजीवानां योनिस्थानानि यत्नतः २७ केषामपि च जीवानां प्रमादान्नैव हिंसनम् । स्यादहिंसावतं पूतं को स्वपरात्मरक्षकम् ॥२८॥ उत्तर: – ये संसारी प्राणी प्राणोंके नाश होने से अत्यंत दुःखी होते हैं और मर जाते हैं । अत एव भव्य जीवों को सबसे पहले यत्नपूर्वक जीवोंकी योनिस्थानोंको जानना चाहिये और फिर अपने प्रमादसे किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये | इसको अहिंसावत कहते हैं । यह अहिंसाव्रत पवित्र है और अपने आत्माकी तथा अन्य सब जीवोंकी रक्षा करनेवाला है || ४२७||४२८|| त्यक्त्वा मिथ्यावचो निंद्यं स्वपरात्मविघातकम् शरक्रियाकारि नितान्तं भ्रांतिभीतिदम् ॥ यथार्थं शांतिदं मिष्टं वैरक्लेशादिनाशकम् । सापेक्षमीदृशं वाक्यं तत्सत्यं यत्र भाष्यते ४३० Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस संसारमें मिथ्यावचन अत्यंत निंद्य कहलाते हैं, ये मिथ्यावचन अपने आत्माका घात करनेवाले हैं और अन्य जीवोंका घात करनेवाले हैं, क्लेश और वैर बढाने वाली क्रियाओंको करनेवाले हैं, अत्यंत भ्रांति और भय को उत्पन्न करनेवाले हैं। ऐसे मिथ्यावचनोंका त्याग कर जहांपर यथार्थ, शांति उत्पन्न करनेवाले, मिष्ट, वैरक्लेशको नाश करनेवाले और अपेक्षासहित वचन बोले जाते हैं उसको सत्यव्रत कहते हैं यह दूसरा व्रत है ।।४२९-४३०॥ अदत्तं पतितं त्यकं ग्रामे मार्गे वनादिके। स्थापितं विस्मृतं गुप्तं स्वरसास्वादकैजनैः॥ ४३१ परद्रव्यं स्वकीयं वा यदि चत्संशयास्पदम्। न ग्राह्यं श्रावकैर्नित्यं तदचौर्यव्रतं भुवि ॥४३२॥ ___जो दूसरेका द्रव्य किसी गांवमें, मार्ग वा वन पर्वत पर गिर गया है, वा कोई छोड गया है वा कोई रख गया है, वा भूलगया है वा छिपा गया है ऐसे परद्रव्यको विना दिये अपने आत्मजन्य आनंदरसका पान करनेवाले भव्य श्रावकों को कभी नहीं लेना चाहिये। यदि कोई द्रव्य अपना ही हो परंतु यह मेरा है वा नहीं इसप्रकारका जिसमें संदेह उत्पन्न हो जाय ऐसा द्रव्यभी विना दिया हुआ श्रावकोंको ग्रहण नहीं करना चाहिये । ऐसे इस बतको इस संसारमें अचौर्यव्रत कहते हैं ॥४३१-४३२॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०० ] सम्यग्ज्ञानमयैर्जीवैर्यदि स्वस्त्री न वर्ज्यते । त्यज्यास्तथापि सर्वाश्च वियोगैः परयोषितः ॥ ३३ वैराग्यभावतस्त्यक्त्वा योषिन्मात्रं निजात्मनि । ये रमन्ते व्रतं ब्रह्म पूर्ण तेषां प्रपद्यते ॥ ४३४ ॥ ये समस्त जीव सम्यग्ज्ञानमय हैं। ऐसे इन जीवोंसे यदि अपनी स्त्रीका त्याग नहीं किया जाता है तो भी उनको मन वचन कायसे समस्त परखियोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिये । इसको ब्रह्मचर्यव्रत कहते हैं । इसके सिवाय जो पुरुष वैराग्य कर और वीमात्रका त्याग कर अपने आत्मामें लीन हो जाता हैं उनके यह ब्रह्मचर्य - व्रत पूर्ण रीति से प्रगट हो जाता है ॥ ४३३-४३४ ॥ वाह्यान्तरंग संगं यस्त्यक्त्वा क्शादिवर्द्धकम् । स्वाध्यायादौ रतस्तस्य संगत्यागतं भवेत् ॥३५ परचतुष्टयं पश्चात्त्यक्त्वा संतापकारकम् । आनन्दमंदिरं सोऽयं यस्तिष्ठेत्स्वचतुष्टये ॥३६॥ जो मनुष्य लेश और दुःखों को देनेवाले अंतरंग और बाय परिग्रहों का त्याग कर स्वाध्यायादिकमें लीन होता है उसके परिग्रहत्याग नामका व्रत कहलाता है । तदनंतर संताप उत्पन्न करनेवाले परचतुष्टयका त्यागकर जो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०१] अपने स्वचतुष्टयमें लीन रहता है उसे ही इस संसार में आनंदका घर समझना चाहिये ॥ ४३५-४३६ ॥ पापव्यसनयोर्मध्ये को भेदोऽस्ति गुरो वद ? प्रश्न:-हे गुरो ! अब कृपाकर कहिये कि पाप और व्यसनमें क्या भेद है ? येनात्माधमकार्येण विनायं नैव तिष्ठति । तदेव व्यसनं प्रोक्तं वैरक्लेशादिवर्द्धकम् ॥४३७ स्वपदायोग्यकार्यं हि तीव्रकर्मोदये सति । कदाचित्क्रियते यद्धि प्रोक्तं पापं तदेव च ४३८ उत्तरः-यह आत्मा जिस नीचकायके विना न रह सके उस वैर क्लेश आदि बढानेवाले कार्यको व्यसन कहते हैं। तथा अपने तीन कर्मोके उदयसे जब यह आत्मा अपने पदस्थके अयोग्य कार्यको कर बैठता है तब उसको पाप कहते हैं ॥ ४३७-४३८ ॥ इति श्रीमुनिराजकुथुसागरविरचिते बोधामृतसारग्रंथे अनुप्रेक्षासप्ततस्वव्यसन Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०२] पापवर्णनो नाम तृतीयोऽधिकारः। पापवण इस प्रकार मुनिराज श्रीकुंथुसागरविरचितबोधामृतसार नामके ग्रंथमें अनुप्रेक्षा सप्ततत्त्व व्यसन पापको वर्णन करनेवाला यह तीस । अधिकार समाप्त हुआ। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० [२०३] श्रावकः पाक्षिकः कोऽसौ गुरो! मे वद साम्प्रतम् ? प्रश्न:-हे गुरो ! अब मेरे लिए कहिए कि पाक्षिक श्रावक किसको कहते हैं ? विनष्टघातिकर्मत्वाल्लोकालोकादिबोधनात् । स्वप्रदेशे स्थिरत्वाद्धि तृप्तत्वात्स्वचतुष्टये ॥३९॥ अर्हन्नेव भवेद्देवो यो वा स्वमोक्षदायकः । श्रद्धेति निश्चयो यस्य धर्मज्ञः स च पाक्षिक: ४० उत्तर- भगवान अरहंत देवने अपने समस! धाति कमौका नाश करदिया है, लोक अलोक का तथा समस्त पदार्थोका प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न कर लिया है, वे अपने आत्मप्रदेशों में ही सदा स्थिर रहते हैं और अपने ही चतुटय में सदा तृप्त रहते हैं इसी लिए वे अरहंत भगवान देव कहलाते हैं, तथा वे ही भगवान स्वर्ग मोक्षको देनेवाले हैं। जिस किसी पुरुषके इस प्रकारकी श्रद्धा वा निश्चय है उस धर्मात्मा पुरुषको पाक्षिक श्रावक कहते हैं ३९-४० ज्ञानध्यानक्षमादक्षः स्वानन्दास्वादाकः सदा। तरणे तारणे शक्तो निरारंभोऽपरिग्रहः ॥४४१॥ वंद्यः पूज्यः सदा सेव्यो निग्रंथो गुरुरेव हि । श्रद्धेति निश्चयो यस्य धर्मज्ञः स च पाक्षिकः४२ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो गुरु ज्ञान ध्यान और क्षमा धारण करनेमें चतुर हैं, अपने आत्मजन्य आनंद रसका स्वाद लेनेवाले हैं इस संसारमें स्वयं पार होने और अन्य जीवोंको पार करने में समर्थ है, जो आरंभरहित हैं और परिग्रहरहित हैं वे निग्रंथ गुरु ही सदा पूजा वंदना करने योग्य हैं और सेवा करने योग्य हैं। जिस किसी पुरुषको इस प्रकारकी श्रद्धा वा निश्चय है उस धर्मात्मा पुरुषको पाक्षिक श्रावक कहते हैं ॥ ४४११४२॥ नयप्रमाणसिद्धं च सापेक्षकथनाश्रितम् । पदार्थानां यथावद्धि द्योतकं भ्रान्तिनाशकम् ४३ शास्त्रं जिनोक्तमेवं च ग्राह्यं वंद्यं सुखप्रदम् । श्रद्धेति निश्चयो यस्य धर्मज्ञः स च पाक्षिक:४४ ___ जो नय और प्रमाणोंसे सिद्ध पदार्थोंका कथन करते हैं जो अपेक्षापूर्वक तत्त्वोंका कथन करते हैं, पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको दिखलाते हैं और भ्रांति वा संदेह को नष्ट करते हैं ऐसे भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्र ही पठन पाठन करने योग्य हैं, वंदना करने योग्य हैं और सुख देनेवाले हैं ऐसी श्रद्धा और निश्चय जिस किसी पुरुषके होता है वही धर्मात्मा पुरुष पाक्षिक श्रावक कहलाता है ॥४४३---४४४॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०५ ] यस्य चित्ते दयाधर्मो वर्द्धते स्वात्मपोषकः । मैलीप्रमोदभावोऽपि वैरक्लेशादिनाशकः ॥ ४४५ यश्व तीव्रोदयादेव प्रत्यख्यानकर्मणः । त्यक्तुं कान्यपि वस्तूनि न शक्नोति तथापि यः क्षयोपशमयोगाच्चानन्तानुबंधिकर्मणः । ग्रहीतुमपि स्वपरज्ञानतो नेच्छति स्वयम् ॥४७ उच्चकुलादिसंस्कारादहिंसाधर्मपक्षतः । स्वभावात्पंचपापानि न कुर्याद् व्यसनादिकम् ॥ शास्त्रोक्तविधिना येन धृतं यज्ञोपवीतकम् । पाक्षिकः स च विज्ञेयो मद्यमांसादिदूरगः ४४९ जिसके हृदय में अपने शुद्ध आत्मा को पुष्ट करनेवाला दयाधर्म बढ़ रहा है, तथा वैर और क्लेशको नाश करने-वाला मैत्रीभाव और प्रमोदभाव भी बढ रहा हैं, जो अप्रत्यख्यानावरण कर्मके तीव्र उदयसे किसी भी पदार्थ के त्याग करनेमें समर्थ नहीं है तथापि अनन्तानुबंधि कर्मके क्षयोपशम होने से और स्वपरज्ञान प्रगट हो जाने से उन परपदार्थोंको ग्रहण करने की स्वयं इच्छा नहीं करता । जो उच्च कुलके संस्कार होनेसे तथा अहिंसा धर्मकी पक्ष होनेसे स्वभावसे ही पांचों पापोंक Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०६] नहीं करता और न व्यसनांका सेवन करता है तथा शास्त्रोक्तविधि से जिसने यज्ञोपवीत धारण कर रक्खा और मय मांसादिकसे सदा दूर रहता है उसको पाक्षिक श्रावक समझना चाहिए || ४४५ ४९ ॥ मुक्त्वैनं पाक्षिकं शेषाः श्राद्धाः सर्वेऽपि नैष्ठिकाः अथ तेषां क्रमाच्चिह्नं यथावत्कथयाम्यहम् ॥५०॥ पाक्षिकको छोड़कर बाकी सब श्रावक नैष्ठिक कहलाते हैं | अब आगे अनुक्रमसे उन नैष्ठिक श्रावकांके यथार्थ चिन्ह कहते हैं ॥। ४५० ।। क्षयोपशमयोगाद्धि योऽप्रत्याख्यानकर्मणः । निर्दोषान्पालयेन्मूलगुणान् पापभयेन यः ॥ ४५१ पंचविंशतिदोषान्यस्त्यक्त्वा सम्यक्त्वघातकान् । देवशास्त्रगुरुश्रद्धां करोति व्यसनोज्झितः ॥ ५२ ॥ पंचात पूर्त्यर्थं द्वितीयां प्रतिमां तथा । ग्रहीतुं यतते नित्यं त्यक्तुं क्रोधादिकं जवात् ५३ परमानन्दपानार्थं स्वर्मोक्षहेतवे तथा । पूर्वोक्तधर्मयुक्तो यः पूतो दर्शनिको नरः ॥ ५४ ॥ जो मनुष्य अप्रत्याख्यानावरण कर्मके क्षयोपशम होनेसे पापोंके डरसे समस्त मूलगुणोंको अंतिचाररहित Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०७] पालन करता है, सम्यग्दर्शनको घात करनेवाले पच्चीसों दोषों का त्यागकर तथा देवशास्त्र गुरु में अटल श्रद्धान रखता है। इसके सिवाय पांचों अणुव्रतोंको पूर्ण करने के लिए दूसरी प्रतिमाको धारण करने का प्रयत्न करता है तथा क्रोधादिको छोडनेका शीघ्र प्रयत्न करता है और स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मजन्य परमानन्दको पीने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार ऊपर कहे हुए धर्मोकी जो पालन करता है उस पवित्र मनुष्यको पहिली दर्शनप्रतिमाको धारण करनेवाला कहते हैं ५१/५४ भवेयुरेवं ज्ञात्वेति मुनिवत्स्वात्मरक्षकाः । दर्शनप्रतिमायाश्च धारकाः प्रतिपालकाः ॥४५५ यही समझकर भव्यजीवों को यह दर्शन प्रतिमा धारण करनी चाहिए, पालन करनी चाहिये और मुनियोंके समान अपने आत्माकी रक्षा करनेवाले बन जाना चाहिए ॥५५॥ यः पंचाणुत्रतं धीरो गृहीत्वा स्वात्मसाधकम् । रक्षति स्वात्मवन्नित्यं निरतिचारपूर्वकम् ॥ ५६ ॥ गुणवतं तथा धृत्वाणुत्रतवर्द्धकं सदा । चतुः शिक्षावतं धृत्वा यन्मुनित्रतशिक्षकम् ॥५७ भेदविज्ञानशस्त्रं यः करे धृत्वैव तिष्ठति । द्वितीयप्रतिमाधारी श्रावकः स च धार्मिकः ॥५८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०८] जो धीर वीर पुरुष अपने शुद्ध आत्माको सिद्ध करने वाला पांचों अणुव्रतोंको धारण करता है तथा अपने आस्माके समान सदा काल अतिचारहित उनकी रक्षा करता है, इनके सिवाय जो अणुव्रतोंको बढाने वाले गुण व्रतों को सदाके लिए धारण करता है, जो मुनियों के व्रतोंकी शिक्षा देते हैं ऐसे चारों शिक्षा व्रतोंको धारण करता है और जो अपने हाथ में सदा भेदविज्ञानरूफ शास्त्रको धारण करता रहता है । उस धार्मिक श्रावक को दूसरी व्रत प्रतिमा को धारण करनेवाला कहते हैं ॥४५६-४५८।। अणुव्रतानि कानीह गुणशिक्षात्रतानि च । के वा तेषामतीचारा भो गुरो वद साम्प्रतम् ? ।। प्रश्नः--हे गुरो ! अब यह बतलाइये कि इस संसार में पांच अणुव्रत कौन २ हैं तीन गुणत्रत कौन २ हैं और चार शिक्षाव्रत कौन २ है, तथा उन सब व्रतोंके अतिचार कौन २ हैं। जीवानां द्रव्यभावानां प्राणानां द्वेषरागतः। व्यपरोपणमेव स्याद्धिंसा स्वात्मविनाशिनी ॥५९॥ ज्ञात्वेति प्राणिनां कार्यं न प्राणव्यपरोपणम् । तदाहिंसाव्रतं पूतं भवेद् वाञ्छितदं क्रमात् ॥६॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०९] उत्तरः-किसी रागस वा द्वेषसे जीवोंके द्रव्यमाण वा भावमाणोंका व्यपरोपण करना वियोग करना हिंसा कहलाती है । यह हिंसा अपने ही आत्माका नाश करनेवाली है। यही समझकर भव्य जीवोंको प्राणियोंके प्राणोंका वियोग कभी नहीं करना चाहिये । इसीको पवित्र अहिंसा व्रत कहते हैं। यह अहिंसावत अनुक्रमसे इच्छानुसार स्वर्गमोक्षके फल देने वाला है ॥ ५९-६० ॥ वधबन्धादिकश्छेदोऽतिभारारोपणं तथा। अन्नपाननिरोधोऽपि न कार्यों धर्मवत्सलैः ॥४६१ धर्ममें प्रेम रखनेवाले भव्य पुरुषोंको वध अर्थात् लकडी थप्पडसे मारना, बंध अर्थात् किसी जीवको रस्सी संकलसे बांधना, छेद अर्थात् नाक कान वा अन्य अंगोंको छेदना, अतिभारारोपण अर्थात् अधिक बोझा लादना और अन्नपान निरोध अर्थात् समयपर खाने पीनको न देना वा भोजन पान रोक देना आदि इस अहिंसाव्रतके अतिचारोंका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । भावार्थये अहिंसाणुव्रतके अतिचार हैं इन का भी त्याग कर देना अत्यावश्यक है ॥ ४६०-४६१ ॥ यत्रासदभिधानं हि प्रोच्यते च प्रमादतः । तदेवेहानृतं प्रोक्तं सर्वपापप्रदं जवात् ॥ ४६२ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१०] ज्ञात्वेति धार्मिकैभव्यैः पुण्यधर्मप्रवृद्धये। वाच्यं सदभिधानं हि तत्सत्यव्रतमुच्यते ॥ ४६३ __ इस संसार में जहांपर प्रमादके वश होकर असत् वा मिथ्याभापण किया जाता है उसको असत्य भाषण कहते हैं । यह असत्य भाषण बहुत शीघ्र समस्त पापोंको उत्पन्न करनेवाला है । यही समझकर धर्मात्मा भव्य जीवोंको अपने पुण्य और धर्मकी वृद्धि करने के लिये सदा सत्यभाषण ही करना चाहिये । इस सत्यभाषण करनंको सत्याणुव्रत कहते हैं ॥४६२॥४६२।। एवं मिथ्योपदेशं च रहोऽभ्याख्यानकं तथा । कूटलेखक्रियादिश्च न्यासापहार एव च ॥ ६४ साकारमंत्रभेदोऽपि न कार्यों धर्मवत्सलैः । सत्यव्रतातिचाराश्च त्याज्याः स्वात्मप्रशान्तये ॥ इसी प्रकार किसी के मिथ्या उपदेश भी नहीं देना चाहिये, रहोऽभ्याख्यान अर्थात् एकांतमें कहीहुई क्रियाओं को प्रगट नहीं करना चाहिये, युटा लेख नहीं लिखना चाहिये, न्यासापहार अर्थात् किसी की धरोहर को मारना नहीं चाहिये और साकार मंत्रभेद अर्थात् मुख आदि की आकृतिसे किसी के हृदयकी बात जानकर भी उसकी प्रगट नहीं करना चाहिये । इस प्रकार मिथ्योपदेश, रहो। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२११] भ्याख्यान, कूटलेख क्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये पांच सत्यव्रतके अतिचार हैं। अपने आत्माको अत्यंत शांत करने के लिय धर्ममें प्रेम रखनेवाले भव्य जीवोंको इन सब अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ४६४-४६५ ॥ स्तेयं प्रमत्तयोगाद्वादत्तादानं ध्रुवं भवेत् । हिंसाकरं यतो लोके प्राणेभ्योऽपि धनं प्रियम् ॥ ज्ञात्वेति धार्मिकैनैव कार्य स्तेयं भवप्रदम् । तदचौर्यव्रतं पूतं पालनीयं प्रयत्नतः ॥ ४६७ प्रमादके निमित्तसे विना दिये हुए दूसरोंके पदार्थोको लेलेना चोरी है । चोरी करना हिंसा ही करना है, क्योंकि इस संसारमें धन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय होता है। यही समझकर धार्मिक पुरुषोंको जन्म मरणरूप संसारको बढाने वाली चोरी कभी नहीं करनी चाहिये । इस चोरी न करनेको पवित्र अचौर्यव्रत कहते हैं। यह अचौर्यव्रत प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये ॥ ४६६-४६७ ॥ त्याज्यश्चौरप्रयोगश्च चौरार्थादानमेव च । राज्यविरुद्धकार्यं च प्रतिरूपक्रिया तथा ॥४६८ नैव हीनाधिकः कार्यों मानोन्मानो भवप्रदः । खान्यशांत्यर्थिभिर्भव्यतादिपूर्णहेतवे ॥ ४६९ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१२] चोरीका प्रयोग बताना, चोरी के पदार्थ अपने घरमें रखना या लेलेना, राज्यके विरुद्ध कार्य करना, अधिक मूल्यके पदार्थोंमें कम मूल्यके पदार्थ मिलाकर बेचना और तौलने वा नापने के साधनोंको छोटे बड़े रखना ये पांच अचौर्यव्रतके अतिचार हैं। ये अतिचार संसारको बढाने वाले हैं इसलिये अपनी आत्मामें और अन्य जीवों में शांति चाहनेवाले भव्य जीवोंको अपना अचौर्यन्नत पूर्ण करनेके लिये इन अतिचारोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥ ४६८ ॥ ४६९ ॥ मनसा वपुषा बाचा परस्त्री यत्र वय॑ते । चतुर्थं तद्वतं ज्ञेयं ब्रह्माणुव्रतसंज्ञकम् ॥ ४७० मैथुनं तु महत्पापं बहुजीवविघातकं । तत्त्याज्यं दूरतो भव्यैश्चिदानन्देषु तन्मयैः ॥७१ जहांपर मन वचन कायसे परस्त्रीका त्याग किया जाता है उसको ब्रह्मचर्याणुव्रत नामका चौथा व्रत कहते हैं। मैथुनसेवन करना महापाप है और अनेक जीवोंकी हिंसा करनेवाला है। अत एव आत्मासे उत्पन्न हुए चिदानंदमें तल्लीन रहनेवाले भव्य जीवोंको इस मैथुन सेवन करनेका दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये ॥४७०० ॥४७॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१३] परिणीतेत्वरिकाया गमनं भववर्द्धकं । तथैवापरिणीताया अन्यस्योपशमस्तथा ॥ ४७२ न कार्य कामतीवाभिनिवेशं पापकारणं । स्वानंदवादकैः कार्याऽनंगक्रीडा कदापि न ॥७३ किसी विवाही हुई कुलटा स्त्रीके यहां आना जाना, 'बिना विवाही हुई कुलटा स्त्रीके यहां आना जाना, दूसरे के पुत्र पुत्रियोंका विवाह करना, कामसेवनके तीव्रभाव रखना और अनंगक्रीडा करना ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार है। ये पांचोंही अतिचार संसारको बढानेवालं हैं और पाप उत्पन्न करनेवाले हैं। अतएव अपने आत्मजन्य आनंदका स्वाद लेनेवाले भव्य जीवोंको इन सबका त्याग कर देना चाहिये । इन आतचारों को कभी नहीं लगने देना चाहिये ॥ ४७२-४७३ ॥ प्रमत्तयोगतो यत्र धनधान्यादि गृह्यते । परिग्रहो ध्रुवं तत्र भवेत्स्वर्मोक्षनाशकः ॥ ७४ ज्ञात्वेति धार्मिकैभव्यैर्न ग्राह्यं परवस्तु च । खवस्तुपरिमाणं च कर्तव्यं मोक्षहेतवे ॥ ४७५ जहांपर प्रमादके निमित्तसे धन धान्यादिक का ग्रहण किया जाता है वहांपर उसको परिग्रह कहते हैं । यह Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४] परिग्रह ही स्वर्गमोक्षको नाश करनेवाला है । यही समझ कर धर्मात्मा भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिये पर पदार्थों का ग्रहण तो कभी करना ही नहीं चाहिये और जो अपने पदार्थ हैं उनका परिमाण नियत कर लेना चाहिये। इसीको परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहते हैं ॥४७४॥४७५॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यस्य दासीदासधनस्य च। सुवर्णधान्यकुप्यादेः प्रमाणातिक्रमस्तथा ॥ ४७६ न कार्यः क्रोधलाभोऽपि संसारमूलवर्द्धकः । खानन्दस्वादकैर्भव्यैतानां परिपालकैः ॥ ४७७ क्षेत्र, वास्तु, ( खेत व घर ) हिरण्य (चांदी ) सुवर्ण, धन धान्य, दासी दास, और कुप्य ( वर्तन वस्त्रादिक) ये सब बाह्य परिग्रह कहलाते हैं । इनके प्रमाणका उल्लंघन करना परिग्रहपरिमाणके अतिचार कहलाते हैं। क्रोध लोभ भी संसारके जन्ममरणको बढानेवाले हैं । अत एव अपने आत्मजन्य आनंदका स्वाद लेनेवाले और व्रतोंको पालन करनेवाले भव्य जीवोंको इन सब अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये तथा क्रोध लोभका भी त्याग कर देना चाहिये ॥४७६।।४७७॥ निरोधार्थं च पापानां नानादुःखविधायिनां । नदीपर्वतदेशैश्च मर्यादीकृत्य भूतले ॥ ४७८ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१५] प्रमाणं दशधा दिक्षु कार्यमामृत्यु गेहिभिः । संसारभोगकामार्थं न गच्छामि ततो बहिः ॥ इति संकल्प एव स्यादिवतं शांतिदायकं । प्रोक्तं जिनेंद्रदेवेन सर्वपापप्रणाशकम् ॥ ४८० ____ अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले पापोंको रोकने के लिये श्रावकोंको अपने मरणपर्यन्त इसी पृथ्वीपरके नदी पर्वत और देशोंके द्वारा मर्यादा नियत कर दशों दिशाओंका परिमाण नियत कर लेना चाहिये तथा इस मर्यादाके बाहर संसार भोग और कामादिक के लिये कभी नहीं जाऊंगा ऐसा संकल्प कर लेना चाहिये । इसी संकल्पको वा दशों दिशाओंके परिमाण करनेको दिग्त्रत कहते हैं । यह दिग्वत अत्यंत शांति देनेवाला है, समस्त पापोंको नाश करनेवाला है और भगवान जिनेन्द्रदेवने कहा है ।। ॥ ४७८-४८० ॥ न चोर्ध्वातिक्रमः कार्यो नैवाधोऽतिक्रमस्तथा । तिर्यग्व्यतिक्रमो नैव क्षेत्रवृद्धिर्न दुःखदा ॥ ८१ नैवं विस्मरणं कार्यं मर्यादायाः सुगहिभिः । इति पंचातिचाराश्च त्याज्याः सकलधार्मिकैः ॥ समस्त धर्मात्मा श्रावकोंको ऊर्ध्व दिशा की मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये, अधोदिशाकी मर्यादाका Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१६] उल्लंघन नहीं करना चाहिये, तिरछी और की आठों दिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये, मर्यादा किये हुए क्षेत्रको बढाना नहीं चाहिये और मर्यादा को भूलना नहीं चाहिये । भावार्थ - ऊर्ध्व अधो और तिर्यग दिशाओंका उल्लंघन करना, क्षेत्रकी मर्यादा बढालेना और मर्यादा भूल जाना ये पांच दिखतके अतिचार हैं । धर्मात्मा श्रावकको इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ।। ४८९ ॥ ४८२ ॥ पक्षमासादिपर्यन्तं गृहग्रामवनैः सदा । मर्यादकृत्य देशस्य परिमाणं सुगेहिभिः ॥ ४८३ कार्य प्रतिदिनं तत्तु तं देशावकाशिकं । सर्वपापविनाशार्थमहिंसात्रतवृद्धरे ॥ ४८४ ॥ श्रावकों को पक्ष महिना आदि काल की मर्यादा नियत कर घर गांव बगीचा आदिके द्वारा देशकी मर्यादा नियत कर प्रतिदिन उस देशका परिमाण नियत कर लेना चाहिये । भावार्थ - दिग्नतमें जो जन्मभर के लिये मर्यादा नियत की है उससे प्रतिदिन घटाकर थोडी रखनी चाहिये | इसको देशावकाशिक व्रत कहते हैं यह व्रत समस्त पापोंको नाश करनेके लिये और अहिंसाव्रत की वृद्धि करनेके लिये किया जाता है ।। ४८३-४८४ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७] आनयनाद्बहिर्देशात्प्रेष्यप्रयोगतस्तथा। । शब्दानुपाततो ज्ञेया रूपानुपाततोऽपि च ॥ ८५ पुद्गलादिप्रयोगाद्वातिचाराः पंच दुःखदाः। श्रावकैः परिहर्तव्या ज्ञात्वेति धर्मधारकैः ॥ ४८६ . मर्यादा किये हुए देशकै बाहरसे किसी को बुलाना वा कोई चीज मंगाना, किसी को भेजना वा कोई पदार्थ भेजना, मर्यादा बाहर अपने शब्दके द्वारा कोई संकेत करना, अपना रूप दिखाकर कोई संकेत करना और पुद्गल वा कंकड, पत्थर फेंककर कोई संकेत करना ये पांच देशावकाशिकवतके अतिचार हैं । धर्मको धारण करनेवाले श्रावकोंको इनका स्वरूप समझकर इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥ ४८५॥४८६ ॥ पापशिक्षामपध्यानं हिंसादानं च दुःश्रुतिः । प्रमादाचरणं कार्यं श्रावकैस्तु कदाऽपि न ॥८७ धर्मविरुद्धं यत्कार्यं कुलजातिविनाशकं । न कार्य तत्तु विज्ञेयं तृतीयं च गुणवतम् ॥ ८८ श्रावक लोगोंको पापरूप शिक्षा वा उपदेश कभी नहीं देना चाहिये, अपध्यान अर्थात् किसीके लिये बुरा चिन्तन नहीं करना चाहिये, हिंसा करनेके साधनोंको Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१८] देना नहीं चाहिये, पाप उत्पन्न करनेवाले शास्त्रोंको सुनना नहीं चाहिये और बिना प्रयोजन पृथ्वी खोदना, पानी फैलाना, अग्नि जलाना, वनस्पति तोडना आदि जीवोंको सतानेवाले कार्य नहीं करना चाहिये । इसीप्रकार जो धर्मरुद्ध कार्य है अथवा कुल जातिको नष्ट करनेवाले कार्य हैं वे भी कभी नहीं करने चाहिये । इसको तीसरा अनर्थदंडविरति नामका तीसरा गुणव्रत कहते हैं ।। ४८७ ||४८८ ॥ निंद्यं कन्दर्पकौत्कुच्यं मौखर्यं पापवर्द्धकं । उपयोगोऽविचायैव भोगोपभोगवस्तुनः ॥ ४८९ अप्रयोजनभूतस्य संग्रहकरणं तथा । ज्ञात्वा पंचातिचाराश्च त्याज्या एवं प्रयत्नतः ॥ हंसी से मिले हुए भंड वचनों को कंदर्प कहते हैं भंड वचनोंके साथ शरीर की कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है ये दोनों ही क्रियाए अत्यंत निंदनीय हैं। विना प्रयोजन बहुत बोलनेको मौखर्य कहते है । मौखर्य भी पाप बढानेवाला है। इस प्रकार तीन तो ये, तथा भोगोपभांग के पदार्थोंका विना विचार किये उपयोग करना और अपने काममें न आनेवाले बहुत से पदार्थोंका संग्रह करना ये पांच अनर्थदंडवत के अतिचार हैं इनको समझकर प्रयत्न पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये ||४८९ ||४९०॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१९] मनो वचश्च कायं च सम्यग्निरुध्य यत्नतः। प्रियाऽप्रिये पदार्थे च स्वात्मबाह्ये विनाशिनि । त्रिकाले समतां धृत्वा कर्तव्यं स्वात्मचिंतनं । जपोऽनाहतमंत्रस्य ज्ञेयं सामायिकं व्रतम् ॥ ९२ मन वचन कायको प्रयत्न पूर्वक अच्छीतरह रोक कर तथा आत्मासे सर्वथा भिन्न और अवश्य नाश होनेवाले ऐसे पिय वा अप्रिय पदार्थों में समता धारण कर तीनों समय अपने आत्माका चिन्तन करना चाहिये अथवा अनाहत मंत्रका (पंच नमस्कार मंत्रका) जप करना चाहिये इसको सामायिक व्रत कहते हैं ॥४९१।।४९२॥ मनोदुष्प्रणिधानं च संसारक्लेशवर्द्धकं । वचोदुष्प्रणिधानं चाशांतिदुःखप्रदायकम् ॥ ९३ कायदुष्प्रणिधानं च विस्मरणमनादरः। एते पंचातिचाराश्च त्याज्या ज्ञात्वेति धार्मिकैः ॥ सामायिक करते समय अपने मनको किसी बुरे चिन्तनमें लगाना संसारके क्लशोंको बढानेवाला है, वचनको अशुभ कार्यमें लगाना अशांति और दुःख देनेवाला है, इसीप्रकार कायको अशुभक्रिया में लगाना, सामायिक की क्रियाओंको वा पाठको भल जाना और सामायिकका अनादर करना वा सामायिक के समय का Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२०] वा किसी क्रियाका अनादर करना ये पांच सामायिकके अतिचार कहलाते हैं । धर्मात्मा भव्य पुरुषोंकी इनका स्वरूप समझकर इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥४९३||४९४॥ गृहस्थानामहोरात्रं धर्मध्यानं न सम्भवेत् । विचार्यैवं सदाष्टम्यां चतुर्दश्यां चतुर्विधम् ॥ ९५ त्यक्त्वाहारं कषायादि गृहारंभादिकं तथा । उपवासः प्रकर्तव्यः स्वात्मचिंतनपूर्वकः ॥ ४९६ गृहस्थोंके रात दिन धर्मध्यानका होना असंभव है । यही समझकर उन को अष्टमी और चतुर्दशी के दिन चारों प्रकारके आहारका त्याग कर तथा कषाय और घर संबंधी आरंभ परिग्रह आदिका त्याग कर सदाकाल ( प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को ) उपवास धारण करना चाहिये । और उस दिन अपने शुद्ध आत्माका चिन्तन करते रहना चाहिये । इसको प्रोषधोपवासत्रत कहते हैं ||४९५||४९६॥ विनावलोकनेनैव विना सम्मार्जनेन च । शास्त्रोपकरणादीनां ग्रहणं स्थापनं तथा ॥ ४९७ मलमूत्रदिकानां वा यत्र तत्र विसर्जनं । सर्वेषां संस्तरादीनां स्थापनं वा प्रमादतः ॥ ९८ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२१] प्रमादवर्द्धकं ज्ञेयं विस्मरणं ह्यनादरः। अतिचारा इमे त्याज्याः श्रावकैर्धर्मतत्परैः ।४९९ विना देखे और बिना कोमल पीछी वस्त्र आदिसे शोधे शाख वा पूजाके उपकरणोंको ग्रहण करना वा स्थापन करना; विना देखे शोधे मलमूत्र कफ आदिको चाहे जहां छोड देना, सोने बैठनेकी चटाई आदिको प्रमाद पूर्वक बिना देखे शोथे रखना, प्रमादको बढानेवाला विस्मरण करना, अर्थात् उपवास वा उस दिनके कर्तव्यको भूल जाना तथा उपवास वा पर्वके दिनका अनादर करना ये पांच प्रोषधोपवास नतके अतिचार हैं। धर्ममें तत्पर रहनेवाले श्रावकोंको इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ४९७॥४९९।। कषायविषयादीनां नाशार्थं मोहवैरिणः । वस्त्रान्नपानभार्यायाः गंधमाल्यादिवस्तुनः ॥५०० प्रतिदिनं प्रमाणं च कार्य वाहनगीतयोः। ... स्वानन्दस्वादकैर्भव्यैः स्वरसरसिकैस्तथा ॥ ५०१ जो श्रावक अपने आत्मजन्य आनंदका स्वाद लेतें रहते हैं, और आत्मजन्य आनंद रस के रसिक हैं उनको अपने कषाय और विषयोंका नाश करनेके लिए तथा मोहरूपी शत्रुको नाश करनेके लिए तथा भोजन, पान, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२२] वस्त्र, स्त्री, गंध, माला. सवारी, गीत, नृत्य आदि भोगोभोग पदार्थो का प्रतिदिन प्रमाण कर लेना चाहिए । इसको भोगोपभोग परिमाण व्रत कहते हैं ||५००/५०१ ॥ सचित्तस्तस्य सम्बंधः सम्मिश्राभिषवस्तथा । दुष्पकाहार एवाऽपि दुःखदो व्रतनाशकः ॥ ५०२ प्रोक्ताः पंचातिचाराश्च संसारपरिवर्द्धकाः । ज्ञात्वेति वस्तुतो भव्यैस्त्यक्तव्या मोक्ष हेतवे ॥ सचित्त पदार्थो को काम में लाना, सचित्तसे संबंध रखनेवाले पदार्थोंको काममें लाना, सचित्त मिले हुए पदार्थोंको काममें लाना, पौष्टिक आहारका सेवन करना और कच्चे अथवा आवश्यकता से अधिक पके हुए पढ़ाथको सेवन करना ये पांच भोगोपभोग परिमाणके अतिचार हैं । ये अतिचार दुःख देनेवाले हैं, व्रतों को नाश - करनेवाले हैं और संसारको बढानेवाले हैं । अतएव भव्य जीवोंको उचित है कि इनका वास्तविक स्वरूप समझकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए इनका सर्वथा त्याग कर देवें । १५०२-५०३॥ आत्मरताय भव्याय गृहादिवर्जिताय च । रागद्वेषविमुक्ताय स्वपरहितहेतवे ॥ ५०४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२३] भक्त्या त्रिविधपात्राय दानं देयं चतुर्विधं । अतिथिसंविभागाख्यं व्रतं प्रोक्तं सुखप्रदम् ॥०५ इस संसारमें उत्तम मध्यम जघन्य के भेदसे पात्र तीन प्रकारके हैं। ये सब पात्र अपने आत्मामें लीन रहने वाले हैं, भव्य हैं, घर आरंभ परिग्रह आदिसे रहित हैं। इनको अपना और उन त्यागी व्रतियोंका कल्याण करनेके लिए भक्तिपूर्वक चारों प्रकारका दान देना चाहिए । इस को अतिथिसंविभाग वत कहते हैं। यह अतिथिसंविभाग व्रत अनेक सुखोंको देनेवाला है ॥ ५०४-५ ॥ निंद्य: सचित्तनिक्षेपो वा सचित्तापिधानकं । अपरव्यपदेशश्च कालातिक्रम एव च ॥ ५०६ मात्सर्यं दुःखदात्रैतेऽतिचाराः पंचदुःखदाः। सन्तीति परिहर्तव्या ज्ञात्वा स्वर्मोक्षवांछकैः ॥ ७ इस अतिथिसंविभाग व्रतके भी पांच अतिचार हैं 'पहला निंदनीय सचित्त निक्षेप अर्थात् मुनिको देने योग्य आहार को सचित्त पदार्थपर रखदेना है। दूसरा अतिचार सचित्त पदार्थसे ढक देना है, तीसरा अतिचार किसी दुसरेको आहार देनेके लिए कहना अथवा न देने की नियत से किसी अग्ने पदार्थ को दूसरे का बतला देना चौथा अतिचार है। आहार का समय बीत जाने पर दान देनेके Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२२४] लिए खडे होना है और अनेक दुःख और चिंताओंको देने वाला पांचवा अतिचार अन्य दाताओंके साथ ईर्षा करना है । इस प्रकार दुःख देनेवाले ये पांच अतिचार हैं। स्वर्ग मोक्षकी इच्छा करनेवाले श्रावकोंको इनका स्वरूप समझकर इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ॥५०६५०७॥ मांसादिदर्शनात् ज्ञेयः स्पर्शनादस्थिचर्मणः। हिंसाकरं वचः श्रुत्वा भुक्त्वा वा त्यक्तवस्तुनः । मनोग्लानिर्यदा जाता अंतरायस्तदा तदा। त्याज्यश्च सर्व आहारो व्रतपूर्णैः सुगेहिभिः ॥९ ___ मांसादिक पदार्थोक दृष्टिगोचर होने से हड्डी, चमडा आदिके स्पर्श होनेसे हिंसा करनेवाले वचनोंको सुनकरके त्यागी हुई वस्तुको खाकरके और जब मन में ग्लानि आजाय तब भोजनके अंतराय माने जाते हैं। उस समय समस्त व्रतोंसे सुशोभित रहनेवाले श्रावकोंको सब तरहके. आहारका त्याग कर देना चाहिए ॥ ५०८-९ ॥ भगवंस्त्वत्प्रसादन व्रतानां लक्षणानि च । . तथातिचाराः सर्वेषां ज्ञाताः स्वात्मविशुद्धये ॥ सद्यः शेषप्रतिमानां लक्षणानि निरूपय । धृत्वा ताः श्रावकः पश्चाद् मुनिर्भूत्वा शिवं व्रजेत् Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२० प्रश्नः- हे भगवन् आपके प्रसादसे अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिये समस्त व्रतोंके लक्षण और अतिचार जान लिये। अब कृपाकर बाकीकी प्रतिमाओंका लक्षण कहिये । जिन्हे धारणकर यह श्रावक अंतमें मुनि होकर मोक्षमें जा विराजमान होता है । रागद्वेषं परित्यज्य समो भूत्वा प्रियाऽप्रिये । पदार्थे स्वात्मबाह्ये च दुःखदे स्वात्मनाशिनि ॥ द्वात्रिंशद्दोषमेवाऽपि त्यक्त्वा संसारदं तथा । मना भवंति शुद्धेऽस्मिन् स्वात्मनि सौख्यदायिनि। तद्वा सामायिकं प्रोक्तं करणीयं त्रिकालके । तृतीया प्रतिमा ज्ञेया श्रावकस्य महात्मनः ॥१२ ___उत्तरः-अब तीसरी प्रतिमाका स्वरूप कहते हैं। जो पुरुष रागद्वेषको छोडकर तथा आत्मासे भिन्न और आत्माको नाश करनेवाले और दुःख देनेवाले प्रिय अप्रिय समस्त पदार्थों में समता धारण कर और जन्ममरण रूप संसारको बढानेवाल बत्तीस दोषोंका त्यागकर सुख देने वाले अपने शुद्ध आत्मामें लीन होते हैं, उसको सामायिक कहते हैं । यह सामायिक महात्मा श्रावकोंको तीनों समय करना चाहिए । इसको तीसरी प्रतिमा कहते हैं ॥१०-१२ सर्वारम्भं परित्यज्याहारं चतुर्विधं तथा। कषायविषयान् त्यक्त्वा संसारदुःखदायिनः ॥ १३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२६] अष्टम्यां च चतुर्दश्यां कर्तव्यो निश्चयेन च । यथाशक्त्त्युपवासश्च कामदो मोक्षहेतवे ॥ ५१४ चिदानन्दपदे शुद्धे स्वात्मनि सुखदे सदा । उपवेशनमेव स्यादुपवासश्च मोक्षदः ॥ ५१५ ____अब चौथी प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं, चौथी प्रतिमा धारण करने वाले श्रावकको अष्टमी और चतुर्दशी के दिन सर तरह के आरंभोंका त्याग कर तथा चारों प्रकारके आहारोंका त्याग कर और संसारके महादुःख देने वाले कपाय तथा विषयोंका त्याग कर मोक्ष प्राप्त करनेके लिए अपनी शक्ति के अनुसार इच्छानुसार फल देनेवाला उपवास अवश्य करना चाहिए । अथवा शुद्ध चिदानंद स्वरूप और सुख देनेवाले अपन आत्मामें तल्लीन रहना मोक्ष देनवाला उपवास कहलाता है। यह भी श्रावकको धारण करना चाहिए । इसको प्रोषधोपवास प्रतिमा कहते हैं ॥१३-१५॥ फल नूलादिकानां चापक्कानां ह्यनलादिभिः। न कार्य भक्षणं भव्यैर्दयाधर्मप्रवर्द्धकैः ॥ ५१६ लिजपरात्मशान्त्यर्थं पंचाक्षरोधहेतवे । स्वर्मोक्षवाञ्छकैर्भव्यैः स्वरसरसिकैः सदा ॥५१७ जो पुरुष स्वर्ग मोक्ष की इच्छा करनेवाले भव्य है, दयाधर्मको बढानेवाले हैं और आत्मजन्य आनंदरस के Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२७] रसिक हैं उनको पंचेंद्रियोंका निरोध करनेके लिए, और अपनी आत्माको तथा अन्य समस्त जीवोंको शान्ति प्राप्त करनेके लिए अग्नि आदिके द्वारा नहीं पके हुए फल पत्र मूल आदिको कभी भक्षण नहीं करना चाहिए। इसको सचित्त त्याग नामकी पांचवी प्रतिमा कहते हैं ।।१६-१७॥ मनोवचनकायैश्च कृतकारितसम्मतः । दिवसे मैथुनं त्याज्यं दु:खदं निशि भोजनम् १८ शान्तिवैराग्यवृध्द्यर्थं स्वात्मचिंतनमेव च व्रतं स्वर्मोक्षदं स्याद्धि रात्रिभोजनवर्जनम् ५१९ छठी प्रतिमा धारण करनेवालोंको मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे दिनमें मैथुनसेवन करनेका त्याग कर देना चाहिए और महादुःख देनेवाला रात्रिभोजनका त्याग कर देना चाहिए। तथा शांति और वैराग्यको बढाने के लिए अपने आत्माका चिन्तन करना चाहिए । इसको स्वगमोक्ष देनेवाला रात्रिभोजन त्याग नामका व्रत कहते हैं। इसको पालन करना छटी प्रतिमा है ॥१८-१९॥ समस्तयोषिन्मात्रं च त्यक्त्वा वाकायचेतसा। तदतिचारमेवाऽपि संसारपरिवर्द्धकम् ॥ ५२० चिदानन्दमये शुद्धे परमात्मनि सौख्यदे। खात्मबाह्यजनासाध्ये रत्नत्रयमये पदे ॥ ५२१ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२८] नित्यं निवेशनार्थं च स्वरसखादहेतवे। यतते यः स एवास्ति ब्रह्मचारी दयापरः ॥ ५२२ जो पुरुष मन वचन काय से समस्त स्त्रीमात्रका त्याग कर देता है और संसारको बढानेवाले उनके समस्त अतिचारोंका भी त्याग कर देता है तथा जो अपने आत्म जन्य आनंदरसका स्वाद लेने के लिए शुद्ध रत्नत्रय से सुशोभित, आत्मज्ञानरहित मनुष्योंके द्वारा प्राप्त होने अयोग्य, चिदानंदमय और सुख देनेवाले अत्यंत शुद्ध परमात्मामें लीन होनेका सदा प्रयत्न करता है उसको दयालु ब्रह्मचारी कहते हैं । इस प्रकारका ब्रह्मचर्य नामकी सातवी प्रतिमा कहलाती है ॥ २०-२२ ॥ मस्यसिकृषिवाणिज्यं शिल्पसेवादिकं तथा। सर्वारम्भं परित्यज्य पापभीतेर्दयापरः ॥ ९२३ खाध्यायं वा शुभध्यानं करोति स्वात्माचंतनं । आरंभत्यागो विज्ञेयः पालनीयः सुगहिभिः ॥२४ जो दयालु श्रावक पापोंके डरसे असि, मासि, कृषि शिल्प, सेवा, वाणिज्य आदि समस्त आरंभोंका त्याग कर स्वाध्याय करता है, शुभ ध्यान करता है वा अपने आत्मा का चिन्तन करता है उसके इस व्रतको आरंभत्याग कहते हैं । श्रेष्ठ श्रावकोंको इसका सदा पालन करते रहना चाहिये । यह आठवी प्रतिमाका स्वरूप है ॥ ५२३-५२४ः Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२९] वस्त्रपार्विना सर्वं परिग्रहं भवप्रदं । मोहादिकं तथा त्यक्त्वा वैरक्लेशादिवर्द्धकम् ॥२५ व्रतोपवासं मौनं च कुर्वन् ध्यानं तपो जपं । खात्मानं चिंतयन् शुद्धं स्वपदे यश्च तिष्ठति ॥ स्वर्मोक्षवाञ्छकः शुद्धः संसारसुखदूरगः। श्रावकः स च विज्ञेयः परिग्रहविवर्जितः ॥ ५२७ जो श्रावक वस्त्र और वर्तनों के विना जन्ममरणरूप 'संसारको बढानेवाले समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देता है, तथा वैर क्लेश आदि बढानेवालं मोह वा रागद्वेष आदिका त्याग कर देता है और वन उपवास करता हुआ मौन धारण करता हुआ ध्यान, तप वा जप करता हुआ तथा अपने शुद्ध आत्माका चिंतन करता हुआ अपने शुद्ध आत्मामें लीन रहता है। इसके सिवाय जो स्वर्गमोक्षकी इच्छा करता रहता है, सब तरहसे शुद्ध रहता है, और संसारिक सुखोंसे दूर रहता है उसको परिग्रहविरत श्रावक कहते हैं। यह नौवीं प्रतिमाका स्वरूप है। ॥ ५२५-५२७॥ संसारविषये निंये दुःखे पापप्रदेऽशुभे। विवाहारम्भकार्यादौ व्याधिचिंतादिवर्द्धके ॥ २८ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३०] निःसारे धर्मशून्ये वाऽनुमतिर्नास्ति यस्य च। संसारनाशकोऽयं सोऽनुमतिविरतो भवेत् ॥ ५२९ ये विवाह खेती आदि आरंभके कार्य सांसारिक हैं निंद्य हैं, दुःख और पाप उत्पन्न करनेवाले हैं, अशुभ हैं, व्याधि चिंता आदि को बढाने वाले हैं, साररहित हैं और धर्मरहित हैं, ऐसे कार्यों में जो उत्तम श्रावक अपनी संमति तक नहीं देता उसको जन्म मरण रूप संसारको नाश करनेवाला अनुमतिविरत नामका श्रावक कहते हैं । यह दशी प्रतिमा का स्वरूप है ।। २८-२९ ॥ सर्वसंग परित्यज्य मोहलोभादिकं तथा । संसारतारकं प्राप्य सद्गुरुं शांतिसौख्यदम् ॥५३० तस्माद् व्रतं गृहीत्वेति खण्डवस्त्रं च धारयन् । अनुदिष्टं सदाहारं गृह्णन् गुरुकुले वसन् ॥ ५३१ करोति ध्यानं स्वाध्यायं सर्वथा स्वात्मसाधनं । उत्तमः श्रावकः सोऽयमुद्दिष्टाहारवर्जितः ॥५३२।। ___जो पुरुष समस्त परिग्रहों का त्याग कर तथा लोभ मोहादिका त्याग कर संसार में पार करनेवाले और शांति मुखको देनेवाले श्रेष्ठ गुरुके समीप जाता है, तथा उन से व्रत धारण कर खंडवख धारण करता है, सदा उद्दिष्टरहित Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३१] आहार लेता है, गुरुकुलमें ही निवास करता है तथा ध्यान स्वाध्याय और सब प्रकार से अपने आत्माको शुद्ध करने का साधन किया करता है उसको उद्दिष्टाहार त्यागी उत्तम श्रावक कहते हैं । यह ग्यारहवीं प्रतिमा का स्वरूप है । ।। ३०-३२ ।। इति श्रीमुनिराजकुंथूसागरविरचित बोधामृतसारग्रंथे श्रावकधर्मवर्णनो नाम चतुर्थोऽधिकारः । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२३२] अथ प्रशस्तिः । प्रसिद्ध मूलसंघेऽस्मिन् शुद्ध सेनान्वये वरे। गच्छे पुष्करके जातो जिनसेनो महाकविः ॥१ देवेंद्रकीर्तिः संजातस्तस्य शिष्यान्वये शुभे। धर्मस्य नेता तच्छिष्यः सूरिः श्रीशांतिसागरः ॥२ इस प्रसिद्ध शुद्ध मूलसंघके सेनगण और पुष्कर, गच्छमें प्रसिद्ध आचार्य जिनसेन महाकवि हुए हैं । उन आचार्य जिनसेन की शिष्यपरंपरामें मुनिराज देवेन्द्रकीर्ति हुए हैं, और उन देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य धर्मके मुख्य नेता आचार्य शान्तिसागर हुए हैं ॥ १-२ ॥ आसीदयं महासूरिभॊजग्रामनिवासिनः । भीमगौडस्य सत्याया सुपुत्रः सातगौडकः ॥३ मुनिदीक्षां समादाय प्राप्तः सूरिपदं क्रमात् । मम दीक्षागुरुः सोऽयं जीयादाचंद्रतारकम् ॥ ४ ये आचार्य शान्तिसागर महाराज भोज (बेलगांव ) गांवके रहने वाले पाटील भीमगौडके सुपुत्र थे, उनका नाम सातगोड था और उनकी माताका नाम सत्यवती था। उन सातगौडने मुनिदीक्षा ग्रहण कर अनु Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३३] क्रमसे आचार्य पद प्राप्त किया है । वेही आचार्य श्री शान्तिसागर मेरे दीक्षागुरु हैं और वे मेरे दीक्षागुरु आचार्य शान्तिसागर इस पृथ्वीपर जबतक चन्द्र और -नक्षत्रगण रहे तबतक जयवंत रहें ।। ३-४॥ मुमुक्षुस्तस्य शिष्योऽहं मुनिः श्रीकुंथु सागरः । अन्ये च बहवः शिष्याः संजातास्तस्य योगिनः॥ अर्थ : - मोक्षकी इच्छा रखनेवाला मैं मुनि श्री कुंथु सागर उन्हीं आचार्य शान्तिसागरका शिष्य हूं । उन आचार्यके मेरे सिवाय और भी बहुतसे शिष्य हैं ॥५॥ श्री वीरसागरो विद्वान् गुणज्ञौ मिसागरौ । श्रीचन्द्रसागरो योगी दयालुः पायसागरः ॥ ६ नमिसागर योगीशो मुमुक्षुरादिसागरः । स्मार्तो वक्ता तपस्वी च मुनि: सुधर्मसागरः ॥७ विद्वान् वीरसागर, अनेक गुणोंको जानने वाले दोनों नेमसागर, योगिराज चन्द्रसागर, दयानिधि पायसागर योगराज नमिसागर, मोक्षकी इच्छा रखनेवाले आदि सागर और स्मृति शाखोंके ज्ञाता परम वक्ता तथा तपस्वी सुनिराज सुधर्मसागर आदि अनेक उनके शिष्य हैं ॥ ६-७ ॥ मध्यभारतदेशस्थचावलीग्रामवासिनः । तोतारामस्य मेवाया धर्मज्ञो वरनन्दनः ॥ ८ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३४] नन्दनलालश्च विद्वान् मुनिर्भूत्वा सुधर्मधीः । . सुधर्मसागरो जात: सूरिकल्पः प्रपाठकः ॥९ सुधर्मध्यानदीपादिशास्त्राणां मूलकारकः । सुधर्मसागरः सोऽयं जीयाद्विद्यागुरुर्मम ॥ १० मध्यभारतके चावली गांव के रहनेवाले तोताराम के उनकी धर्मपत्नी मेवासे उत्पन्न हुआ एक धर्मात्मा सुपुत्र था नन्दनलाल उसका नाम था। वह नंदनलाल विद्वान था और सद्बुद्धि को धारण करता था। वहीं नन्दनलाल मुनिदीक्षा लेकर सुधर्मसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। वे आचार्य के समान सबको पढानेवाले हैं और मेरे विद्यागुरु हैं। ऐसे वे सुधर्मसागर मुनि सदा जीवित हैं ॥ ८-९-१०॥ एनापुरस्थलातप्पासरस्वत्योः सुतोत्तमः। रामचन्द्रः सुदीक्षित्वा जातोऽहं कुंथुसागरः॥११ एनापुर (बेलगांव ) के रहनेवाले सातप्पा और सरस्वतीका उत्तम पुत्र रामचन्द्र मनिदीक्षा लेकर मैं कुंयुसागर मुनि हुआ हूं॥ ११ ॥ चतुर्विंशतितीर्थेशस्तुतिः पंचगुरुस्तुतिः । चरित्रं शांतिसिंधोश्च भावना रचिता मया ॥ १२ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३५] मैने अबतक चतुर्विशति तीर्थकर की स्तुति, पंचपरमेष्ठी स्तुति, आचार्य शांतिसागरजी का चरित्र और आत्मभावना आदि ग्रंथांकी रचना की है ॥ १२ ॥ उदगिरे पुरे श्रेष्ठी गंगासानामकोऽभवत् । तद्भार्या रुक्मिणी ज्ञेया रामचन्द्रः सुतस्तयोः ॥ सूरेराज्ञां समादाय मयैव कुंथुसिंधुना । दीक्षितः सोऽपि भव्यात्मा विद्वान् सुमतिसागरः ऊदगिरि नगर में एक सेठ गंगासा रहते हैं उनकी स्त्रीकी नाम रुक्मिणी है उन दोनोंके रामचन्द्र नामका पुत्र था । मुझ कुंथूसागर मानेने आचार्य शान्तिसागर की आज्ञा लेकर उस भव्य और विद्वान् रामचन्द्रको मुनि दीक्षा दी है और सुमतिसागर उनका नाम निर्देश किया है ॥ १३-१४ ॥ अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा स्खलनं यदि मे भवेत् । ग्रंथेऽस्मिन् तद्बुधा नित्यं श्रमणाः शोधयंत्विति ॥ मेरे अज्ञान वा प्रमाद से यदि इस ग्रंथ में कुछ कमी वा भूल रह गई हो तो विद्वान् मुनियों को उसे शुद्ध कर लेना चाहिये ||१५|| जयतु जयतु देव: शांतिनाथो जिनेन्द्रः । सुरनरमुनिपूज्यो वर्द्धमानो जिनेशः ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३६] शिववरसुखदात्री वीरवाणी सदैव । मम शुभमतिदाता शांतिसिंधुः सुधर्मः ॥१६ परमदेव भगवान शान्तिनाथ जिनराज सदा जयवंत रहें । देव मनुष्य और मुनियों के द्वारा पूज्य श्रीवर्धमान भगवान सदा जयवंत रहें । इसीप्रकार मोक्ष सुख देनेवाली भगवान महावीर स्वामी की वाणी सदा जयवंत रहे और मुझको शुभबुद्धि देनेवाले आचार्य शान्तिसागर तथा सुधर्मसागर सदा जयवंत रहे ॥१६॥ छंदोलंकारशास्त्रे वा न च काव्यकलादिकं । नैव नीत्यादिशास्त्रं च न्यायव्याकरणादिकम् ॥ विशेष धर्मशास्त्रं वा नैव जानामि तत्त्वतः । तथापि केवलं भक्त्या लिखितोऽयं मयाधुना ॥ यद्यपि मैं छंदः शास्त्र, अलंकार शास्त्र वा काव्य शास्त्र और कलादिकों को नहीं जानता हूं, न मैं नातिशाखको जानता हूं और न न्याय व्याकरणादिक जानता हूं। तथा विशेष रीति से धर्मशास्त्रको भी अच्छी तरह नहीं जानता तथापि केवल भक्तिके वश होकर मैने इस समय यह शाख लिखा है ॥ १७-१८ ॥ दीक्षागुरोरेव च शांतिसिंधोः, संसारहर्तुः शिवसौख्यदातुः। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३७] कृपाप्रसादाद्धि सुधर्मनाम्नो, विद्यागुरोरेव दयार्द्रमूर्तेः ॥ १९. श्रीकुंथुनाम्ना मुनिना स्वबुध्द्या, स्वजन्ममृत्योश्च विनाशहेतोः। तथा परेषां सुखशांतिहेतो-, यथार्थधर्मस्य च बोधहेतोः ॥ २० नाम्ना हि बोधामृतसार एव, ग्रंथो मनोज्ञो रचितश्च भक्त्या । अज्ञानहर्ता निजबोधकर्ता, भेत्ता ध्रुवं क्रोधचतुष्टयस्य ॥२१॥ जन्ममरणरूप संसारको हरण करनेवाले और मोक्ष सुखको देनेवाले आचार्य श्रीशांतिसागरजी महाराज मेरे दीक्षा गुरु हैं तथा दयाकी मूर्ति ऐसे मुनिराज सुधर्मसागर जी महाराज मेरे विद्यागुरु हैं । इन्हीं दोनों गुरुओंकी कृपाके प्रसादसे मुझे कुंथुसागर मुनिने अपने जन्म मरण को नाश करने के लिए, अन्य जीवोंको सुख शांति प्राप्त करने के लिए और यथार्थ धर्मके ज्ञानका प्रचार करनेक लिए यह बोधामृतसार नामका ग्रन्थ अपनी बुद्धि के अनुसार बनाया है । यह ग्रन्थ अत्यंत मनोज्ञ है, अज्ञानको Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३८] हरण करनेवाला है अपने आत्मज्ञान को उत्पन्न करने वाला है और क्रोध मान माया लोभ इन चारों कषायोंको नाश करनेवाला है । ऐसे इस ग्रन्थकी रचना मैने भक्तिपूर्वक की है ॥ १९-२१ ॥ ग्रंथं ह्यमुं वांच्छितदं सदैव, स्मरन्ति गायन्ति पठन्ति भक्त्या । शृण्वन्ति वाञ्छन्ति नमन्ति यान्ति, त एव भव्या भुवि सारसौख्यम् ॥२२॥ जो भव्य पुरुष इच्छानुसार फल देने वाले इस ग्रंथको सदा स्मरण करते हैं, गाते हैं, पढते हैं. भक्तिपूर्वक सुनते हैं, पढने सुनने की इच्छा करते हैं, नमस्कार करते हैं और इसका संबंध प्राप्त करते हैं वे भव्य जीव इस संसारमें सारभूत सुखको पाकर धन धान्यादिकसे परिपूर्ण साम्राज्य लक्ष्मीको पाकर और धर्मानुकूल कुटुंब वर्गको पाकर अनुक्रमसे शीघ्र ही सदा अजर अमर रहनेवाले अपने आत्मजन्य अनंत सुखको प्राप्त होते हैं ॥२१॥२२॥ साम्राज्यलक्ष्मी च धनादिपूर्णा, धर्मानुकूलं च कुटुंबवर्गम् । लब्ध्वैव शीघ्रं ह्यजरामरत्वं, .... क्रमाल्लभन्ते निजसौख्यसारम् ॥२३॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३९] सिद्धिं विशुद्धिं विमलां समाधि, पुत्रादिपोत्रं सुखशान्तिकान्तिम् । शौर्य सुविद्यां सुधृतिं हि तेज:, स्वर्मोक्षलक्ष्मी विदधातु देवः ॥२४॥ अंत में वे भगवान अरहंतदेव इस ग्रंथको पढने सुननेवालोंके लिये सिद्ध अवस्था प्रदान करें, विशुद्ध और निर्मल समाधि प्रदान करें, पुत्र पौत्र देवें, सुख शांति कांति शूरवीरता, श्रेष्ठविद्या, धैर्य और तेज प्रदान करें तथा स्वर्ग मोक्षकी लक्ष्मी प्रदान करें ॥ २३॥२४॥ मोक्षं गते महावीरे सुखशान्तिप्रदायके । चतुर्विंशतिसंख्याते वा त्रिषष्ट्याधिक शते ॥२५ सिते कार्तिकपक्षे च द्वितीयायां शुभे दिने । ईडरराज्यान्तर्गते भिलोडातिसमीपगे ॥२६॥ स्थित्वा शुभमऊग्रामे वर्षायोगे शुभप्रदे। लिखितोऽयं मया ग्रंथो जीयादाचन्द्रतारकम् ॥ सुख और शांति देनेवाले भगवान महावीर स्वामीके मोक्ष जानेके बाद चौवीससी तिरेसठ वर्ष बीत जानेपर कार्तिक शुक्ल पक्षके शुभ द्वितीया के दिन ईडर राज्यके अंतर्गत भिलोडा के समीप श्रेष्ठ मऊ गांवमें कल्याण Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] करनेवाले वर्षायोगमें ठहर कर मैने यह ग्रन्थ लिखा है। इस पृथ्वीपर जबतक चन्द्र और नक्षत्रगण विद्यामान रहे तबतका यह ग्रन्थ सदा चिरंजीव बना रहे। इति शम Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-बोधक, सोलापुर - (पाक्षिक) ___यह पत्र करीब अर्ध शताब्दीसे निकलकर जैनसमाजकी सेवा कर रहा है। इसमें धार्मिक, तात्विक व शास्त्रीय अनेक पठनीय लेख निकलते हैं। प्रति वर्ष सुंदर विशेषांक के अलावा पठनीय उपहार भी भेटमें दिया जाता है। वार्षिक मूल्य केवल 3) है / ग्राहक होकर इससे लाभ उठाइये / मराठी बोधक भी सर्वांगसुंदर पाक्षिक निकलता है। दोनोंका मूल्य 4) -व्यवस्थापक जैन-बोधक, सोलापुर. सर्व प्रकारकी सुंदर, शुद्ध व मनपसंत छपाईके लिये एक दफे निम्नपतेसे पत्रव्यवहार जरूर करलीजिये। श्री कल्याण पावर प्रिंटिंग प्रेस सोलापुर.