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में नही आते; परन्तु समझ में न आने के ही कारण किसी बात को गलत नहीं मान लेना चाहिए। अब गौतम स्वामी, भगवान् से ऐसी बात पूछते हैं, जो प्रत्यक्ष में भी दिखाई दे सकती है। गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-भगवन्! जीव गर्भ में उत्तान-आसन से रहता है यानि चित्त (ऊपर को मुख किये) सोता है, या करवट लिये रहता है? आम्रकुब्ज आसन से रहता है अर्थात् नीचे सिर और ऊपर पैर-इस प्रकार आम्र फल की भांति रहता है? अथवा खड़ा रहता है, बैठा रहता है या सोता रहता है? या सब बातें माता पर आधार रखती हैं? अर्थात् माता के खड़े रहने पर खड़ा रहता है, बैठने पर बैठता है और सोने पर सोता है? तात्पर्य यह है कि गर्भ का बालक स्वेच्छा से सोता, बैठता और खड़ा रहता है या माता के सोने, बैठने और खड़ी होने पर सोता, बैठता एवं खड़ा रहता
हम लोगों के लिए गर्भ की बात भूतकाल की हो गई है, परन्तु भूत और भविष्य में गर्भ का क्रम एक-सा ही है। अतएव गर्भ के विषय में माता को सब प्रकार से सावधानी रखने की आवश्यकता है। माता के संस्कारों पर ही सन्तान का शुभ-अशुभ निर्भर है। माता को गर्भ के बालक पर अपनी ओर से तो दया रखनी ही चाहिए, यद्यपि वह बालक भी अपने साथ पुण्य-पाप लाया है। मगर हमें अपने कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को नहीं भूलना चाहिए।
कदाचित् यह कहा जाय कि गर्भ का बालक अपने कर्म भोगता है, उसमें हम हस्तक्षेप क्यों करें? अथवा हमारे हस्तक्षेप से क्या बन-बिगड़ सकता है? तो यह कथन भ्रमपूर्ण है। गाय को घर में बांध कर भूखी प्यासी रक्खो, तो भोजन में अन्तराय देने वाला कौन होगा? कहा जा सकता है कि गाय भी अपने कर्म भोगती है तो तुम्हारी निर्दय भावना से तुम्हें अशुभ कर्म नहीं क्यों बांधेगे? शास्त्र में भत्त–पानविच्छेद नामक अहिंसाणुव्रत का अतिचार क्यों बतलाया है? अगर तुम्हें भोजन-पानी का अन्तराय देने पर भी पाप नहीं लगता, तो फिर कसाई को बुरा कैसे कहते हो? कसाई भी अपना बचाव इसी प्रकार कर सकता है। वह कह सकता है कि पशु अपने किये कर्म भोगते हैं। मैं किसी को क्या मार सकता हूँ? कसाई को बुरा कहना और अपने कर्म भुगतने के लिए किसी जीव को भूखा रहने देकर भी अच्छे बने रहो, यह बात क्या न्यायसंगत है? कसाई को अपने काम का और दयावान् को दया का बदला मिलेगा। ऐसा न समझ कर, यह कहना कि भूखा रहने वाला अपना कर्म भोगता है, हमें इससे क्या मतलब है? मिथ्या है। ऐसा होने पर तो कसाई भी निर्दोष ठहरेगा और उपदेश की, साधुओं की तथा साधुओं को जीवदया २४२ श्री जवाहर किरणावली -